आज पढ़िए मेरी पीढ़ी के चर्चित कथाकार मनोज कुमार पांडेय की लंबी कविता ‘सलीब के बाद’। यह कविता वैसे तो बहुत पहले हंस में प्रकाशित है लेकिन ऑनलाइन पहली बार आ रही है। आप भी पढ़ सकते हैं- प्रभात रंजन
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1.
जो किया मैंने आज उसकी हिम्मत जुटाने में बहुत दिन लगे
कोई एक चीज भी बदल गई होती तो पुल के ऊपर होता
कोई क्षणिक आवेग नहीं है यह सोचा समझा फैसला है
खुद को बचाने की कम कोशिश नहीं की मैंने
अभी मैं हूँ तुम लोगों के साथ अपनी कहानी सुनाते हुए
आज मेरा दिन है पर अब साथ ही हैं हम न जाने कब तक के लिए
सबकी कहानियाँ सुनूँगा मैं अगर उन्हें सुनाते हुए तुम थक नहीं चुके
मुझे भी जानना है कि तुम सब यहाँ कैसे हो
अब इस बात से कोई फर्क न पड़ता हो तो भी
अभी तो उस थरथराहट की गिरफ्त में हूँ
जो मेरे साथ साथ दोबारा तारी हुई है तुम सब पर
किसी भी स्थिति में आत्मघात कितना कठिन है
तुम सब जानते हो और नया नया मैं भी
तुम्हारे सारे शामिल जतन के बाद भी काँप रहा हूँ मैं
मेरा फूला हुआ शरीर रह रह कर कँपकँपा रहा है
मुर्दे की तरह जड़ होने का फरेब अभी नए सिरे से समझा मैंने
अब जबकि सब कुछ है व्यर्थ मेरी कँपकँपी भी
2.
पुल पर जबर रंगीनियाँ थीं जब कूदा मैं
उनके उत्सव में कोई खलल नहीं डाला मैंने
इतना चुपचाप कूदा कि उन्हें वीडियो बनाने तक का मौका नहीं मिला
उनकी आँखों में ही हैं मेरे कूदने के दृश्य
जिसका किस्सा सुनाएँगे वे उत्साह के साथ
उनमें उन मल्लाहों की तरह कोई मलाल नहीं होगा भीतर
जिन्होंने मुझे बचाने के लिए अपनी साँसों को लगा दिया था दाँव पर
पुल के ऊपर होने और नीचे होने के बीच का फर्क
मैंने मल्लाहों के चेहरे देखते हुए बार बार जाना
मेरे बस में होता तो साँस लेना शुरू कर देता दोबारा
3.
बैठकर अक्सर बनाता रहा हूँ अपना ही मजाक
करता रहा हूँ अपनी ही मिमिक्री अकेले में
किसी को हँसी आए न आए पर
जब तक अपने हाल पर हँस पाया जिंदा रहा
फिर इस कोशिश में एक अथाह बेचैनी एक खीझ एक उदासी
एक आत्महंता अकेलापन निकल आया भीतर से
और तब अपने आप पर जबरिया हँसते हुए फूट पड़ा आर्तनाद जैसे किसी बहुत मोटी जाम पाइप से
तोड़कर बह निकला हो कोई खतरनाक रसायन
उस दिन से अपने पर हँसने की कोशिश
उसी बहाव में बह गई न जाने कहाँ
फिर न हँसी आई न रुलाई
न अपनी मिमिक्री की न फूटा आर्तनाद
सब कुछ खून की तरह जमता रहा भीतर
अब अथाह अशांति है सब तरफ
आँखों में एक उजाड़ सन्नाटा है
जिसमें जलते हुए ख्वाबों की बेआवाज लपटें हैं
यह जुलाई का आखिरी है
इसके बाद अगस्त ही आएगा या कुछ और कौन जाने
मैं तो कूद गया हूँ जुलाई के बाहर
दौड़ते हुए लगा दी है छलाँग न जाने कहाँ के लिए
अगर बचा ही लिया जाता किसी तरह तो
जुलाई में बचता या फिर अगस्त में आजाद होता कौन जाने
4.
पैंतालीस की उम्र में उधार के लिए हाथ फैलाना
यानी बीत चुकी आधी उमर के लिए शर्मिंदा होना
सबसे अजीज दोस्तों से कहते हुए भी
आवाज में पसर आती है दयनीय हकलाहट
बेवजह दुनिया भर की बातें करता हूँ फोन पर
जब टूटने को होती है बात
तब डर संकोच और उम्मीद के साथ काँपते हुए पूछता हूँ
भाई कुछ मदद कर सकते हो क्या ?
…कुछ जरूरत आन पड़ी है
विनम्रता से मना करता है वह कि उसकी अपनी दिक्कतें कुछ कम नहीं
कोई दूसरा कहता है कि इधर भी हाल बुरा ही है
अभी सवा लाख का तो मोबाइल ही लिया नया
नया वर्जन आए हो गए थे तीन महीने
यू नो मिडिल क्लास के दिखावे
मेंटेन तो करना ही पड़ता है यार
पर यह तो बताओ कि कहाँ गुम हो
मिले नहीं बहुत दिन से
आओ कभी बैठते हैं गम गलत करते हैं।
कोई कह सकता है एक कटही ईमानदारी दिखाते हुए
पैसे हैं तो भाई
पर उधार के चक्कर में अच्छी खासी दोस्तियाँ तबाह होते देखी हैं
और तुम मुझे इतने प्यारे हो कि
तुम्हें उधार देकर अपनी दोस्ती दाँव पर नहीं लगा सकता मैं
तुम्हें या परिवार में किसी को बीमार जानने के बाद
फोन उठाना बंद कर सकता है तुम्हारा कोई दोस्त
दो बार उधार देने और तीन बार दारू पिलाने के बाद
कोई हक से बोल सकता है तुम्हें मुफ्तखोर
कहा है न किसी ने कि कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ ही कोई बेवफा नहीं होता।
तो माफ करता हूँ दोस्तों को उनकी मजबूरियों के साथ
अपने को कैसे माफ करूँ कि घर में किसी को इशारा तक न दिया
आते हुए बच्चों की तरफ नहीं देखा उन्हें प्यार नहीं किया
नजरें नहीं मिलाई कि उनसे नजरें मिलाने के बाद
मरना मुल्तवी होता रहा है न जाने कितनी बार
पत्नी जिसे बाँहों में लेकर रतजगा किया है हजारों बार
उसे छुआ तक नहीं आते हुए
उसकी छुअन में ही जिंदगी का रस है
और जिंदगी बहुत भारी पड़ रही थी इन दिनों
बहुत जतन किए कि बोझ हलका हो कुछ
कुछ न हो सका मुझसे
जो किया अभी यह भी तो कितने दिनों बाद कर पाया
अभी पता नहीं होगा उन्हें कि क्या कर गुजरा हूँ मैं
पता चलेगा तो न जाने क्या करेंगे वे
पता चलेगा तो मुझे न जाने क्या कहेंगे वे
पता चलेगा तो मेरे बिना कैसे रहेंगे वे
कुछ भी पता नहीं है मुझे बस अंदाजे हैं
और भीतर ये मरी हुई कामना कि
सब अंदाजे गलत साबित हों मेरी जिंदगी की तरह
5.
जिनकी वजह से जिंदा रहना था उनकी ही वजह से मरा भी
अकेला होता तो जिंदा रहता भले भीख ही माँगता
जीते रहने के लिए कोई भी लानत मंजूर करता
दो दो रुपये माँगते हुए माँगता जाता थोड़ा थोड़ा जीवन
भले ही वह घिसटता हुआ चलता पीछे पीछे
इसमें दुनिया भर की बदरंग परछाइयाँ हैं
भिखारियों ने अपनी बगल में सोते हुए देखा है
हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद मजदूरों को
उन्होंने देखा है रिक्शेवालों को हाथ जोड़ते हुए
कि मेरे रिक्शे पर बैठें हुजूर
अपने हाँड़ गलाने और सीना जलाने का मौका मुझे ही दें
मजदूर नहीं बन पाया इतना मध्यवर्गीय तो था ही
मरना आसान था, मजदूर होना कठिन
मजदूर बन पाता तो किसी बिल्डिंग की पुताई करते हुए गिर कर मरता
किसी ईंट के भट्ठे पर काम करता हुआ आग में होता भस्म
किसी गटर में उतरता और बाहर नहीं आता
और आईपीसी की कोई धारा भंग भी नहीं होती
एक ई-रिक्शा रिक्शा चलाने वालों को भिखमंगे में बदल देता है
देशी दारू का एक पाउच अंतर खत्म कर देता है भिखारी और मजदूर के बीच
वह सबसे बड़ा मक्कार है जो किसी भिखारी को मेहनत करने की सीख देता है
उन्होंने देखा है रिक्शेवाले को रिक्शे पर बैठे बैठे मर जाते हुए
किसी इनसान को गटर में उतरते हुए और बाहर न निकलते हुए
तब भी जब कई बार उन्हें साथियों ने चीखते हुए निकाला है बाहर
प्रधानमंत्री के लिए आठ हजार करोड़ का विमान खरीदने वाले अमीर देश के पास
गटर की सफाई की मशीन खरीदने के पैसे नहीं हैं
भिखारी को पाँच रुपये का सिक्का चाहिए
रिक्शेवाले को दस पंद्रह रुपये दे सकने वाली सवारी चाहिए
मजदूर को काम चाहिए भले गटर में ही कुदा दो
मुझे विश्वविजेता मूर्तियां, मीनारें और मंदिर चाहिए था
स्पेशल इकोनामिक जोन और बुलेट ट्रेन चाहिए था
हनक और सनक वाला प्रधानमंत्री चाहिए था
मैंने जिसे वोट दिया जीता वही
उसने जो भी किया मेरी सहमति से किया
मैंने भी जोर से नारा लगाया था जय श्रीराम
मेरी ही सहमति से हुआ है मेरा काम तमाम
मैंने नोटबंदी पर उत्सव मनाया
मैंने कोरोना भगाने के लिए दिए जलाए
थालियाँ इस कदर पीटीं कि वह गईं भंगार वाले के पास
वह सब कुछ किया जो मेरे प्यारे प्रधानमंत्री ने कहा
6.
मुझे अच्छा लगता है प्रधानमंत्री का चमकता हुआ चेहरा
उन्होंने बार बार कहा है कि वे प्रधानसेवक हैं हमारे
मैं अपने मरने की सारी वजहें खुद ही खारिज कर रहा हूँ
मुझे अच्छा नहीं लगता कि उनसे सेवा कराऊँ अपनी
कि मेरी वजह से उन्हें करना पड़े दिन रात काम
ये अपराध लेकर किस लोक जाऊँगा मैं
इसलिए मरने का फैसला किया मैंने
बैंक में बचे हैं सत्रह रुपए उन्हत्तर पैसे
ये पैसे जमा किए जाएँ प्रधानमंत्री के निजी राहत कोश में
प्रधानमंत्री जी को राहत की कितनी जरूरत है कौन नहीं जानता
प्रयागराज में हूँ तो नैनी के इस आलीशान पुल से बेहतर राहत कहाँ मिलती मुझे
यह भी विकास ही है कि मरने के लिए उपलब्ध हैं ज्यादा भव्य जगहें
कूदते हुए संगम दर्शन किया है मैंने
मेरी लाश को बहते हुए संगम तक जाने दिया जाए कम से कम
वहीं रुककर अपने परिवार का इंतजार करूँगा मैं
आते ही होंगे वे भी पीछे पीछे
7.
मरने की वजहें निजी हैं कि सार्वजनिक मैं नहीं जानता
मैं तिल तिल कर मरा सपरिवार
ये निजी बात है या सार्वजनिक मैं नहीं जानता
ग्रहों की चाल बदलने के लिए अनुष्ठान भी किया मैंने
वह सब कुछ किया जो पंडित जी ने कहा
वह सब कुछ किया जो प्रधानमंत्री जी ने कहा
बावजूद इसके देख रहा हूँ अपना यह फूला हुआ जिस्म
मेरी भी एक माँ है प्रधानमंत्री जी की माँ की तरह
पत्नी से टूटकर प्यार किया था मैंने इसी जिस्म के साथ
इसी जिस्म के घोड़े पर सवार हुए थे मेरे बच्चे
उनका यह घोड़ा तैर रहा है पानी पर
यह देखकर उनके मन में कौन से खयाल आएँगे
मैं नहीं जानता मैंने कभी सोचा भी नहीं था इसके बारे में
मैं नहीं जानता कि सबकुछ गलत क्यों होता गया
मेरा धंधे की बाट लगी रोजगार मिला नहीं कोई
इसे वक्ती दिक्कत मानते हुए मैं बना रहा आशावादी
सुने गुरुओं के प्रवचन पढ़ी मैनेजमेंट की किताबें
अपनी बॉडी लैंग्वेज को तरह तरह से दुरुस्त किया मैंने
जो बॉडी पड़ी हुई है यहाँ उसे पहले देखा होता कभी
मैं नहीं जानता कि क्या जान लेता तो मैं पुल के ऊपर होता
मैं नहीं जानता कि क्या गलती हुई मुझसे
सब तो वही कर रहे थे जो कुछ भी किया मैंने
भूखे रहे तो जय बोली बीमार पड़े तो तिरंगा लगाया
उम्मीद के उड़ते हुए कालीन की सवारी की
जिन्होंने यह नहीं किया उनसे लड़ाई की बात ही बंद कर दी
जो बात सारे अखबारों ने कही वही किया
टीवी चैनलों पर वही सब कुछ देखा हमेशा
तमाम बड़े बड़े लोगों ने बार बार दोहराई ये बातें
फिर कहाँ कमी हुई मुझसे जो मैं यहाँ हूँ
सरकारी पुल से कूद कर आत्महत्या की है मैंने
घर वालों पर सरकार को बदनाम करने का केस तो नहीं चलेगा बुलडोजर से ढहा तो नहीं दिया जाएगा मेरे बच्चों का घर
मैं नहीं जानता
8.
एक आदमी कितने तरीकों से मर सकता है
ये सवाल भी लोकतांत्रिक सवाल ही है
चयन का अधिकार तो संविधान भी देता है तरह तरह से
हमारे हक इससे भी साबित होते हैं कि
मरने के कितने तरीके दिए हैं हमें सिस्टम ने
आजादी है कि नोटबंदी से मरें या कोरोना से मरें
साइंस की मदद से मरें या जादू टोना से मरें
धरम के लिए मरें या विकास के लिए मरें
कि नक्सल होकर मरें या राष्ट्रवादी होकर मरें
मृत्यु शाश्वत है तो मरें और मुक्त करें सबको
आजादी है कि अग्निवीर बनें और आग में जल मरें
आजादी है कि सीमा पर मरें या देश के भीतर मरें
गले में फाँसी का फंदा डालकर मरें या सल्फास खाकर मरें
पड़ोसी के हाथों मरें या किसी हत्यारे के हाथों मरें
अपने धर्म वालों के हाथों मरे या विधर्मी के हाथों मरें
डरते हुए मरें या निडर होकर मरें
भूख से मरें या ज्यादा खाकर मरें
मृत्यु सत्य है उसे बदल सकता है आखिर कौन
राम भी मरे हैं और कृष्ण भी मरे ही हैं तलुए में तीर खाकर
तो ध्यान करें तलुए का उसमें स्थापित करें अपना दिल
जय बोलें हुजूर की और मरें जैसे भी मन करे मरने का
इतनी असीमित आजादी पहले कभी हासिल थी क्या
9.
आखिरकार मैंने चुनी अपने लिए यह आलीशान मीनार
जिस पर चढ़ा और आँख मूँदकर कूद गया नीचे
जिस पर हजारों को टाँगा जा सकता है एक साथ
जिस पर किसी तरह चढ़ जाओ तो बादलों में पंक्चर कर दो
जिस पर दिखाई देते हैं मुझे विशालकाय चमगादड़
जो सूरज की रोशनी में सोते हुए न जाने कौन से सपने देखते हैं
रात में उन पर सेतु निगम की रंगीन रोशनी फेंकी जाती हैं
रोशनी की धुन पर मोहित चमगादड़ तरह तरह के करतब दिखाते हैं
जिन्हें देखना टैक्स-फ्री कर दिया गया है इन दिनों
इधर के चमगादड़ खून नहीं पीते मांस नहीं खाते
यह आध्यात्मिक शहर है इस बात का उन्हें भी है ध्यान
एक तरफ पंडे हैं बीच में सेना दूसरी तरफ श्मशान
इन पर अपनी निगाहें टिकाए ये चमगादड़ भला क्या खाते होंगे
जानने के लिए इनका भोजन तक बनने के लिए तैयार था मैं
आज जब पुल से नीचे कूदा
और जिंदगी से अमरबेल की तरह चिपके हुए
आदतन हाथ पाँव चलाने के बाद डूबा और डूब कर उतराया
तो सबसे पहले सलीब पर टँगी हुई अपनी आँखों में देखा
उनमें एक अपरिचय का भाव भरा था मैंने ही
मेरी आँखों ने मुझे पहचानने से मना किया और
मैंने उन पर कोई इल्जाम नहीं लगाया
पुल से कूदने पर नीचे तैरता हुआ दिखाई दिया अपना जिस्म
सड़क पर छितराए हुए देखने से बेहतर है ये
पानी में कूदने में एक उम्मीद भी छिपी रहती हो शायद
किसी कोने में कि बच जाऊँ या बचा लिया जाऊँ
10.
लहरों पर हवा के साथ तैरते हुए बहुत हल्का लग रहा था
न जाने कितने दिनों से जागता हुआ मैं सो ही गया होता
अगर मेरे जैसे ही कुछ लोग मुझसे बतियाने न आ गए होते
सब मरे हुए लोग हैं मेरी ही तरह
मेरी ही तरह डोलते हैं पानी की सतह पर हवा के साथ
एक भँवर का इंतजार है
जो ले ले अपने भीतर और किसी और दुनिया में पटक दे
कुछ तो नया हो
अभी तो मरने के बाद भी बस मरे हुए लोगों की दास्तानें हैं
और एक कशमकश है पसरी भीतर
कि इन्हें मरा हुआ मान ही लूँ तो जिंदा किसे कहूँ
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