शैलेंद्र शर्मा की कहानी ‘तीन पगडंडियां’
शैलेन्द्र शर्मा पेशे से चिकित्सक हैं। 1980-90 के दशक में हिंदी की सभी पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कहानियाँ प्रकाशित होती थीं, सराही जाती थीं। लम्बे अंतराल के बाद इन्होंने दुबारा लेखन शुरू किया है। जानकी पुल पर प्रकाशित यह उनकी दूसरी कहानी है-
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स्टेशन पर सुमेधा और श्रुति पहले ही पंहुच गयी थीं। वे दोनों समय की पाबंद थीं। बस पद्मा हमेशा की तरह लेट-लतीफ थी। खैर, अभी ट्रेन आने में आधा घंटा था। दोनों हंस रहीं थीं। अभी हाँफते-हाँफते पंहुच जाएगी। और हुआ भी यही। ट्रेन के आने का सिग्नल हो चुका, तब पद्मा, अपने बेडौल शरीर को समेटते हुए नमूदार हुई। साथ में बैग पकड़े कुली।
“अरे, पद्मा की बच्ची, ट्रेन निकलने के बाद आती न! और, दो दिनों के लिए इतना बड़ा बैग क्या ले आई है?तुझसे तो उठ भी नहीं रहा है।”
“अरे छोटा सूटकेस जाने कहाँ रख दिया है, मिला ही नहीं। फिर वहां के लिए खाना और नाश्ता भी तो रखना था।”
“होटल में रुकने जा रहीं हैं मैडम, अपने घर से नाश्ता लाद के।” श्रुति बोली।
ट्रेन में बैठते ही दोनों ने नोट किया, पद्मा की बायीं आंख के नीचे एक ताजा दाग है। दोनों ने एक दूसरे को देखा।
सुमेधा बोली, ” ये तेरी आंख के नीचे क्या हो गया, जिसपे तूने इतनी सारी क्रीम मल रखी है।”
“अरे कल सुबह बाथरूम में पैर फिसल गया। दरवाज़े का कोना लग गया।”
“बहुत देखे हैं, तेरे पैर फिसलते हुए। ज़रूर अजीत की कारिस्तानी होगी।”
पद्मा चुप हो गयी। कुछ पलों बाद धीरे से बोली,”सहेलियों के साथ घूमने जा रही हूँ, इसका तो अवॉर्ड मिलना ही था।”
“सही कह रही थी न मैं! अजीत ने फिर मारा न तुझे? पलट के तुझसे एक थप्पड़ नहीं मारा गया?”
पद्मा ने नज़रें झुका लीं।
श्रुति बोली, “पद्मा, मैं अक्सर सोचती हूँ, तेरे इतने बड़े बच्चे हो गए, वो कुछ नहीं बोलते तेरी तरफ से।”
“श्रुति… ऐसा नहीं है कि बच्चे बाप का फ़ेवर करते हों। बस एक तटस्थता है दोनों में। न्यूट्रल रहते हैं, अपने दोस्तों में, अपनी पढ़ाई-लिखाई में लगे रहते हैं।।।या शायद मैं ही इतनी अच्छी मां नहीं बन सकी कि वे मजबूती से मेरे साथ खड़े हो जाएं।
पद्मा ने एक फीकी हंसी से बात को संभालने की कोशिश भी की, पर मन की चोट शायद उसके चेहरे पर और विकराल रूप में उभर आई थी। तभी तो उसके शब्द भी खुद उसका साथ नहीं दे रहे थे। उसके चेहरे पर छाई बेचारगी को देख कर सुमेधा ने उसे सहारा दिया। बोली,
“बच्चे कहाँ अपने होते हैं।।।तेरे तो फिर भी छोटे हैं।।।मुझे देख, एक ही शहर में रहती है बिटिया, लेकिन बात किये हफ्ता हो जाता है, मिलने की तो कौन कहे।”
“अच्छा चलो, जिन बातों को भूलने के लिए बाहर जा रहे हैं, उन्हीं की गठरी सिर पर लाद रखी है।”
तीनों सहेलियों ने सिर को ऐसे झटका दिया, जैसे वाकई ऐसा करने से यादों का, और अंधेरों का बोझ, दूर जा गिरा हो।
“मैं ब्राउन ब्रेड सैंडविच बना के लायी हूँ, वो खाओ तुम लोग।” पद्मा ने बहुत जतन से बैग में से एक नीले रंग का सुंदर सा टिफिन निकाला।
“अरे मेरी मैनेजमेंट एक्सपर्ट, तू बेकार में मरी सुबह-सुबह। नाश्ता तो ट्रेन में मिलेगा।”
“शिट मिलेगी यहां तो। कौन खायेगा।”
“ज़िन्दगी भी तो शिट है।” सुमेधा बोली, और तीनों मुस्कुरा कर सैंडविच कुतरने लगीं।
जाड़े की गुनगुनी सुबह थी। खुशनुमा मौसम था। तीनों सहेलियाँ, खुशियां ढूंढने दूसरे शहर जा रही थीं, दो दिन के लिए। वे खुशियां, जो उनकी जिंदगियों से, मुट्ठी में बंद रेत की तरह कब की निकल चुकी थीं। रह गए थे कुछ निचुड़े हुए टुकड़े, जो इतने अलग अलग हिस्सों में बंटे हुए थे, कि चाह कर भी उन्हें जोड़ कर कोई मुकम्मल आकृति नहीं बनाई जा सकती थी। खुशी तो खरपतवार की तरह होती है, जहां तहां उग आती है, मगर इन तीनों को उस खरपतवार की भी खोज करनी पड़ती थी।
ट्रेन से उतर कर होटल की गाड़ी का ड्राइवर सुमेधा के नाम का बोर्ड लिए खड़ा था। वहां से उन्हें होटल पंहुचने में करीब पौन घंटा लगा। गाड़ी एक नए बने होटल के विशालकाय परिसर के आगे रुकी।
“अरे, नदी के किनारे वाले होटल में नहीं कराया? मुझे नदी के किनारे पानी में पैर डाल कर बैठना था।” पद्मा ने नए होटल की खूबसूरत इमारत को देखते हुए कहा।
“वे बता रहे थे, नदी में बाढ़ आ गयी थी, पूरा होटल तहस-नहस हो गया था। वहां रेस्टोरेशन का काम चल रहा है। इसीलिए यह नया होटल।”
जब तीनों अपने कमरों के सामने पंहुचीं, तो सुमेधा ने कहा, “आधे घंटे में फ्रेश हो लो। फिर चलेंगे नदी में पैर डालने।”
पद्मा चिल्लायी, “अब तू टूर मैनेजर की तरह व्यवहार मत कर। मैं चार बजे की उठी हुई हूँ, नहाई भी नहीं हूँ। अब अच्छी तरह से नहा धो कर तैयार होने दे।”
“ओहो, मेरी छमक छल्लो, खूब तैयार हो जा, अब तुझ बुढ़िया पे कौन रीझेगा।”
“अच्छा, सेंट जोन्स कॉलेज के दिन याद कर, हम तीनों का ग्रुप लड़कों में कितना मशहूर था!”
एक पल को सुमेधा ठिठक कर खड़ी हो गयी। “वो भी क्या दिन थे यार।।।कैसी हंसिनी सी चाल थी हमारी।”
“अब बुड्ढी लोमड़ी जैसी है, गिरती-पड़ती।” यह श्रुति थी, खिलखिलाते हुए।
फिर अचानक गंभीर होकर, पद्मा ने सुमेधा की कमर में बांहें डाल लीं। ” मुझे कभी-कभी बड़ा अफसोस होता है, कि तेरा घर नहीं बस सका, और मेरी सखी, कुंवारी ही रह गयी।”
“अच्छा ही हुआ न, शादी नहीं करी।।।नहीं तुम दोनों जैसा हाल होता।” सुमेधा ने एक ठंडी सांस भरी।
पद्मा और श्रुति, दोनों के चेहरे चुप-सी लगा गए। एक पल को बेचैन शांति सी छा गयी, फिर सुमेधा चहक कर बोली, “और कुंवारी,या नो कुंवारी।।।दैट’स अ सीक्रेट!”
दोनों सहेलियों ने सुमेधा को घेर लिया,” अच्छा, तो वो तेरे कॉलेज का पी। टी। टीचर…”
सुमेधा ने दोनों हाथ ऊपर उठाकर घोषणा की, “चलो आज अपने दोस्तों की खातिर रात को एक पेग के बाद इस रहस्य से भी पर्दा उठेगा।”
तीनों खिलखिलाती हुईं अपने अपने कमरे में तैयार होने चली गईं।
तकरीबन डेढ़ घंटे बाद तीनों नदी के किनारे पानी में पांव लटकाए बैठी थीं। सुमेधा ने अपने मोबाइल में फुल वॉल्यूम में लता के पुराने गाने लगे रखे थे।
“जानती हो, दुनिया की सबसे मासूम चीज़ क्या है?”सुमेधा ने पूछा।”
“क्या?”
“लता की सिक्सटीज़-सेवेंटीस के समय की आवाज़।”
दोनों ने अनुमोदन में सिर हिलाया।
“एक और चीज़ बहुत मासूम है? श्रुति बोली।
“क्या?”
“तीन भटकती आत्माओं की मित्रता।”
तीनों ने ठहाका लगाया।
पद्मा, ममतामयी मां की भूमिका में थी। उसने छोटे थैले से एक चादर निकाल कर नदी के किनारे मिट्टी पर बिछा दी।होटल से आया कॉफी का थर्मस तो था ही। लता की कच्ची, मगर सुरीली, निष्पाप, निष्कलुष आवाज़ नदी की लहरों के साथ बह रही थी।
पद्मा
——
तुम्हें याद है, पहला थप्पड़ कब पड़ा था? हैरान रह गयी थी न तुम! विवाह के शुरू के वर्ष। एक महीने का विभु साथ में। अजीत फिर माफी मांगता। तुम नशे के टाइम कुछ मत बोला करो।
स्त्री, पति के हाथों मार भी खा सकती है? और आज के आधुनिक युग में! तुम सोचती थी। फिर भी क्यों आवाज़ नहीं उठाई तुमने? शायद तुम्हारा स्वभाव ही ऐसा था। प्रतिरोध करना ही नहीं जाना था। क्यों प्रकृति ने ऐसा स्वभाव बनाया तुम्हारा? सौम्य, सहनशील, ज़्यादातर मौन रहने वाली, संतोषी जीव? मगर क्या तुम्हें ऐसा होना चाहिए था? ठीक किया क्या तुमने इस प्रकार जीवन बिता कर?
वैसे तो सब कुछ ठीक-ठाक ही चल रहा था। अजीत का व्यवसाय भी। उसकी पार्टियां भी। उसका नशा भी। सितारों तक जाती सीढियां थीं, जिनकी रोशनी आधे रास्ते में समाप्त हो जाती थी। इतना घुप्प अंधेरा क्यों कर रखा है तुमने? बच्चे बाहर खेलने जाते हैं, तो तुम कमरे में बत्ती बुझा कर क्यों बैठ जाती हो?
बाहर अंधेरे में जुगनू चमक रहे हैं। बचपन में खेलते थे न? कागज़ के लिफाफे में जुगनू बंद कर लेते थे। कितने खुश होते थे बच्चे बाहर से जुगनुओं को देख कर। तुमने अपनी स्मृतियों के जुगनू कहाँ कैद कर रखे है? हथेलियों में। हथेलियों में तो चुम्बन हैं अजीत के। माथे पर, होंठों पर, कानों पर। कितना आलोड़ित करते हैं न? फिर एक झन्नाटेदार झापड़ पड़ता है। सारे जुगनू बिखर जाते हैं, उड़ जाते हैं।
बहुत दर्द कर रहा है अजीत! तुमने धक्का दिया था न, तो सिर दीवार से टकरा गया था। तुम्हें हिंसा के समय चुम्बनों की याद नहीं आती?
फिर पैरों से लिपट आंसू बहाना। पूरा मेलोड्रामा। तुम छोड़ दोगी तो मर जाऊंगा। कहाँ जाऊंगा दो छोटे बच्चों को लेकर। समझ लो तुम्हारे तीन बच्चे हैं। एक ज़्यादा बिगड़ा हुआ है।
शरीर के कई टुकड़े हो गये हैं। हाथ-पांव अलग अलग। चेहरा और धड़ अलग। सब अंग एक दूसरे की ओर आना चाहते हैं, जुड़ना चाहते हैं, लेकिन नहीं जुड़ते।
तुम्हें क्या कमी है? घर में सब कुछ तुम्हारे हाथ में है। सारी चाबियां, ज्वेलरी, लॉकर, सब। ज़्यादातर एकाउंट्स जॉइंट हैं। मैं कितना ख्याल रखता हूँ तुम्हारा।
तुम्हें क्या चाहिए, किटी पार्टीज़ में जाओ, बच्चों की पीटीएम। में जाओ, नई चलन के कपड़े खरीदो, नए गहने बनवाओ, पुराने तुड़वाओ।
पैर कहीं और जाना चाहते हैं, बाकी शरीर कहीं और। कैसे हो सकता है ऐसा! शरीर के इतने टुकड़े?
चांदनी रात है। खिड़की के सहारे चांद अंदर आ गया है, बिस्तर तक। तुम्हारे बगल में लेटना चाहता है। मगर वहां तो एक गंधाता हुआ शरीर है। रसायन-विज्ञान की प्रयोगशाला में एक बहुत दुर्गंध देने वाली गैस लीक हो गयी है। चांद को दोनों बांहों में भींच कर तुम सोने की कोशिश कर रही हो। चांद वापस जाना चाहता है।
जादुई कालीन पर बैठ कर तुम बच्चों के साथ आसमान में उड़ रही हो। एक झटका लगता है, तुम्हारे पैर जमीन पर हैं, बच्चे अंतरिक्ष की ओर उड़े जा रहे हैं।
तुमने अपने पंख क्यों सिकोड़ रखे हैं? क्यों डरती हो उड़ने से? निरभ्र, अनंत आकाश है तुम्हारे सामने। बंधनों को खोलने की कोशिश तो करो।
*****
नदी के तट से लौट कर तीनों ने सुमेधा के कमरे में अड्डा जमाया हुआ है। मेज पर दो बियर, और एक मोहितो रखी है। तीनों रात्रि के परिधानों में हैं। रात के खाने का रूम सर्विस को आर्डर हो गया है। किचेन जब बंद हो रही होगी, तो आखिरी आर्डर के रूप में भोजन आ जायेगा।
“त्रिशा(श्रुति की पुत्री) का क्या हाल है?” बियर की चुस्की लेते हुए सुमेधा ने श्रुति से पूछा।
“वहीं रह रही है, सनराइज अपार्टमेंट में, उसी लड़के के साथ।”
“और विवाह का क्या सोचा है, उसने?” यह पद्मा थी।
“कहती है, अभी साल भर हम एक दूसरे को समझ लें, उसके बाद मन करेगा तो विवाह करेंगे, नहीं तो अपने-अपने रास्ते।”
“वैसे इसमें कोई बुराई नहीं है।” पद्मा बोली।
“बुराई नहीं, सच्ची पद्मा, मुझे इस बात से ज़रा भी समस्या नहीं है। लेकिन माँ को बातें शेयर तो करो। अचानक फरमान जारी कर दिया, मैं कल से फ्लैट में शिफ्ट हो रही हूँ, जैसे मां तुम्हारी सबसे बड़ी दुश्मन हो।।।तुम लोगों ने तो देखा है, सिंगल पैरेंट का कितना मुश्किल होता है बच्चे को बड़ा करना।”
“अरे क्या हम जानते नहीं हैं। एक-एक पल के गवाह रहे हैं हम दोनों। कितना मर-मर के पाला है तूने त्रिशा को।”
“कितने साल की रही होगी बेटी, निशांत की मृत्यु के समय? ज़्यादा से ज़्यादा चार साल।” सुमेधा बोली।
“हां, तीन पूरे हुए थे तब।”
“तेरी नौकरी नहीं होती तो असंभव हो जाता।” पद्मा बोली। फिर थोड़ा रुक के बुदबुदाई, “शायद मैंने इसीलिए तलाक़ की कभी सोची नहीं, या सोच ही नहीं पाई।”
“पागल है तू, एम।बी।ए। कर रखा है, उस समय तो कोई भी नौकरी मिल जाती तुझे। और आज भी कोई टोटा नहीं है। अपने खाने लायक तो कमा ही सकती है।” सुमेधा ने तेज़ आवाज़ में कहा।
पद्मा थोड़ी देर तक चुप बैठ कर दोनों को बारी-बारी से घूरती रही, जैसे कुछ कहना चाह रही हो, फिर अपने मोहितो के गिलास में डूब गई।
श्रुति
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एक सैलाब-सा है, जो टकराता है, बहाए लिए जाता है। अंदर तक चीरते अंधेरों के बीच, पसीनों में डूबा कोई वक़्त-बेवक्त उठ बैठता है, और टटोल कर अपने जिस्म से खींच कर निकाल देना चाहता है, उन अनाम इच्छाओं को, जो खून के गर्म दौरे की तरह हरदम मुझे घेरे रहती हैं।
ज़िन्दगी कैसी विचित्र रही है मेरी। पढ़ाई पूरी करके नौकरी करनी शुरू ही की थी, कि वसंत का आगमन हो गया। फूल, पौधों पर ही नहीं, देह पर भी खिल उठे थे। निशांत से परिचय तो सहकर्मी के रूप में ही हुआ था, लेकिन कब दोनों पज़ल के दो हिस्सों की तरह आपस में जुड़ गए, इसका अहसास ही नहीं हुआ। मुश्किल से छह महीने की कोर्टशिप, फिर विवाह प्रस्ताव, फिर विवाह, और एक साल में ही त्रिशा का आगमन।।।एक परियों की सबसे ऊंचाई वाली कहानी जैसी लगती है। कभी कभी सोचती हूँ, शायद निशांत के पास समय कम था, इसलिए उसके काज जल्दी-जल्दी होते जा रहे थे।
निशांत था, हर दिन मदनोत्सव था। फूलों के झूले थे, सर-सर बहती हवा थी, निशांत पीछे से झूले को बहुत तेज़-तेज़ धक्का दे रहा था। अपने भाग्य की सारी लिखावट, मोरपंख से लिखी दिखती उसे। निशांत, ओ निशांत! इतना प्रेम क्यों करता थे तुम…
तुमने गुलमोहर के लाल -लाल फूल मेरे ऊपर क्यों गिरा दिए हैं? जैसे मंच पर फूलों वाली होली खेली जा रही हो।
कलाकार कमर तक फूलों में डूब गए हैं । फूलों में भी कोई डूबता है भला? लेकिन निशांत में ही वह कुव्वत थी कि बिना पानी के डुबो दे मुझे। गुलमोहर जैसे रंग के उसके होंठ।।।लड़कों के होंठ भी कहीं लाल होते हैं? मगर उसके थे तुम मेरे दांतों के लिए क्या कहते थे? कहीं पढ़ा होगा तुमने ज़रूर। ‘दाड़िम जैसी दंतपंक्ति’।।।मारूंगी तुम्हें।
पेड़ की सबसे ऊँची फुनगी पर ले गया था वह। वहां से तो गिरना ही था। वह जगह कितनी कमज़ोर होती है! कहीं पाँव टिक सकते हैं भला?
फिर आफिस में ही उसका चक्कर खा कर बेहोश हो जाना, फिर कैंसर की पुष्टि, और फिर दिल्ली में एम्स में उसका आपरेशन। और वहां “डेथ ऑन टेबल।” एक ऐसी स्थिति, जिससे हर डॉक्टर के प्राण सूखते हैं।
“घबरा मत श्रुति, कुछ नहीं होगा मुझे। एक विजेता की तरह आऊंगा लौट कर। तू क्या सोचती है, इतनी जल्दी पीछा छोड़ दूंगा तेरा?।।।मरने के बाद भी, सृष्टि के आखिरी छोर तक…”
सच है, पीछा तो नहीं छोड़ा तुमने, निशांत! तभी तो फैल गयी कांच की किरचों को जोड़ कर दोबारा दिवास्वप्नों की शुरुआत करने का साहस नहीं जुटा पाई मैं!
एक पूरी ज़िंदगी, चार वर्षों में, तुम्हारे साथ ! और एक आधी-अधूरी ज़िन्दगी, न गिने जा सकें, इतने लंबे सालों में, तुम्हारे बिना!
निचाट सूनी रातें, बंदरिया की तरह एक छोटे बच्चे को अपने अंदर चिपकाए, अंधेरे के बीच दूसरे तकिये पर तुम्हारे खो गए चेहरे को टटोलती मैं! जब सब समाप्त हो जाएगा, तब मिलोगे न तुम! वायदा किया है तुमने।
फिर त्रिशा के अभाव! क्या बेटी के जीवन में पिता की इतनी ज़रूरी भूमिका होती है, जिसे मैं पूरा नहीं कर पाई, पूरी कोशिशों के बावजूद?
मैंने चाहा तो था दोनों किरदारों को निभाना, लेकिन मां ही बन कर रह गयी केवल। और या मां भी पूरी नहीं, आधी-अधूरी। मन तो हर समय उसे खोजता रहता जिसने इतने कम समय में, पूरे ब्रह्मांड की सैर करा दी थी।
उसके अभाव को अपनी व्यस्त दिनचर्या से भरती मैं। ऑफिस में किसी और का भी काम हो, कभी मना नहीं करती, चलो थोड़ा समय और कट जाएगा। स्मृतियों के प्रेत कुछ देर तो पीछा छोड़ेंगे।
उसकी कमी को तरह-तरह से भरने की कोशिश में लगी मैं। एक-एक घंटे को एक-एक दिन की तरह जीना, और संभवतः मैंने अनुभव ही नहीं किया त्रिशा का अपनी अंगुलियों से सरकते जाना। एक बड़े से आंगन का, बिना किसी गाछ की छाँह के, निरंतर बड़े होते जाना। और आंगन के दो छोरों पर निरंतर दूर होते, एक औरत और एक किशोरी। कोई कह रहा था कि त्रिशा का बचपन, एक परेशान बचपन था, और उसके परिणामस्वरूप कैशोर्य, एक विद्रोही कैशोर्य था।
क्यों चली गयी त्रिशा मुझसे दूर? उसके नन्हे हाथ जिसे टटोल रहे थे, उस जगह को मैं भी तो भर सकती थी? मुझसे क्यों नहीं चिपक गयी वह? आधे-अधूरे दो मिल कर एक पूरा भी तो हो सकता था? क्यों नहीं हुआ फिर?
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अगली सुबह। सुमेधा जल्दी उठ कर जॉगिंग करके वापस आ गयी थी । बाकी दोनों सो रही थीं । शायद रात का हैंगओवर। लॉन में घास पर ओस जमी हुई थी।। हल्का सा कोहरा था।। वेटर चाय रख गया था। कप में से भाप उठ रही थी।
सुमेधा
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उसे एक बहुत पढ़ने लिखने वाली लड़की याद आती है। किताबों, कॉपियों, नोट्स, लाइब्रेरी वाली एक लड़की।बहुत पढ़ती थी तो ज़ाहिर है कक्षा में अव्वल आती थी। माता-पिता की इकलौती संतान, और वह भी बुढापे की। जब दोनों ने उम्मीद ही छोड़ दी थी, कि अब तो वृद्धावस्था एकाकी ही काटनी पड़ेगी, तब उसने मां के गर्भ में दस्तक दी, और बिना बताए चली आयी।
जब तक युवा हुई, माता-पिता बूढ़े हो चुके थे। दोनों अशक्त, रोगों से ग्रस्त। हर बात के लिए उन्हें बेटी की आवश्यकता होती। उसे केवल पढ़ना होता और उन दोनों का ख्याल रखना होता।
समय आया दूसरे घर जाने का। उस उम्र तक किसी से प्रेम नहीं हुआ था, इसलिए रिश्ते तलाशे गए। कुछ पसंद नहीं आये। कुछ इसके हेड स्ट्रांग स्वभाव की वजह से, तो अधिकांश संभावित दूल्हे भविष्य में दो रोगग्रस्त बूढ़ों का बोझ लादने को तैयार न थे। वह दृढ़प्रतिज्ञ थी। विवाह के बाद माता-पिता को साथ रखना होगा। ऐसी आर्थिक स्थिति भी नहीं थी, जिसके लोभ में कोई वर आ टकराता। केवल एक पुश्तैनी मकान था। था तो काफी बड़ा, दाम भी अच्छे मिल जाते उसके, लेकिन पिता की भावनाएं उस घर से जुड़ी थीं, और वे उसे बेचने को तैयार न थे, जबकि शहर के मास्टरप्लान में घर का पीछे का भाग, बिल्कुल मुख्य सड़क पर आ गया था।
उसने मान लिया था कि अब जीवन ऐसे ही कटेगा।
ऐसे में प्रेम ने दस्तक दी थी।अनंत उसके कॉलेज में पी। टी। इंस्ट्रक्टर था, आयु में उससे दस वर्ष छोटा।
“मेरा प्रेम करने का पहला अवसर है।” उसने अंतरंग क्षणों में अपने प्रेमी से कहा था।
“हर एक के जीवन में कभी तो एक पहली बार होता है।” अनंत ने सुमेधा को अपनी बलिष्ठ बांहों में भरते हुए कहा था।
“अपने मन-प्राण की सब ग्रंथियों को ढीला करके मेरे हवाले कर दो।” वह फुसफुसाया था।
“मैं तुम्हारी शिराओं को मीठे पानी के स्रोतों से निकलने वाले अनूठे पवित्र जल से नहलाऊंगा।” उसके युवा शरीर से उठते संगीत ने सुमेधा के कानों से कहा था।
“तुम्हारे कैक्टस से खुरदुरे पड़ चुके रोमों को गुलदाउदी के फूलों जैसे रंगीन स्पर्शों से ऊर्जान्वित कर एक नई यात्रा का अतिथि बनाने का वचन देता हूँ तुम्हें।” उसकी चंचल मांसपेशियों ने सुमेधा के लाल हो आये चेहरे से कहा था।
और घुल गयी थी सुमेधा, जल में शक्कर की तरह।
इस संबंध में कोई नियम नहीं था, कोई वायदा नहीं था एक दूसरे से। जैसे कभी कभी सप्ताहांत में मदिरापान किया जाता है, दिमाग पर लगे मकड़ी के जालों को साफ करने के लिए, कुछ-कुछ वैसा ही।
और संभवतः दोनों एक-दूसरे से इसी तरह आ जुड़े थे। बिना किसी शर्त वाला प्रेम था यह, जिसमें कोई पूर्वाग्रह न था, अपेक्षाएं न थीं, वचनबद्धता न थी, उलाहने न थे, ईर्ष्या न थी। सिर्फ प्रेम था इसमें, देह में भी, और देह से परे भी।
थोड़े बहुत चर्चे उड़े तो थे, इस प्रेम के, किन्तु दोनों को परवाह न थी।
प्यार अक्सर होता। कभी अनंत के एक कमरे वाले घर में। कभी उसके अपने घर में। माता-पिता तो बिना उसके सहारे के उठ भी नहीं सकते थे। ऐसे में उसका कमरा स्वर्ग का-सा एकांत देता।
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तभी श्रुति और पद्मा, दोनों लगभग एक साथ ही अपने-अपने कमरों से प्रकट हुईं। दोनों के चेहरे फ़र्क़ थे। श्रुति के चेहरे पर जहां रात भर चैन से पैर फैला कर निद्रा देवी की गोद में ऐश करने का आलोक था, वहीं पद्मा का चेहरा उदासियों, बेचैनियों, चिंताओं और अनिद्रा का सच्चा प्रतिनिधि बनकर उसकी आयु को और दस वर्ष अधिक करके पेश कर रहा था।
“तू कर आई अपनी जॉगिंग?” श्रुति ने सुमेधा से कहा।
“भई, अपन से तो पांच बजे के बाद बिस्तर में नहीं रह जाता। हम तो नदी किनारे तक टहल भी आये।”
“चाय आर्डर करती हूँ।” श्रुति उठने लगी।
“मैंने मंगा ली है चाय। ला रहा होगा।” पद्मा बोली।
बाकी दोनों ने उसी क्षणांश में पद्मा का चेहरा गौर से देखा।
“तुझे क्या एक मोहितो से इतना हैंग ओवर हो गया?” श्रुति ने पद्मा से कहा।
“नहीं मैं… रात भर सो नहीं पाई… सोचती रही इससे अच्छा तो मैं मर जाऊं।” जैसे कोई बांध भरभराकर टूट गया हो, ऐसे पद्मा रो पड़ी।
“अरे, अरे, पागल है क्या पद्मा!” श्रुति ने उठा कर पद्मा को बाहों में भर लिया, और एक हथेली से उसकी पीठ सहलाने लगी।
बाहों का सहारा पाकर सिसकियां, रुदन में बदल गयीं।
“उस कुत्ते अजीत के बारे में ही सोच रही होगी तू। मन कर रहा है, अभी हरामी को गोली मार दूं जाके।” सुमेधा गुस्से से शब्दों को चबा-चबा कर बोली।
“तू उसे छोड़ क्यों नहीं देती।।।सारी जिंदगी होम कर दी तूने उसके लिए।” श्रुति ने पद्मा का सिर सहलाते हुए कहा।
वेटर चाय ले आया था। वे दोनों थोड़ा सीधी होकर बैठ गईं।
पद्मा थोड़ी देर सुबकती रही, फिर धीरे से अटकते हुए शब्दों में बोली, “मैं कल रात बता नहीं पाई तुम दोनों को, इधर एक नया डेवलपमेंट और हुआ है।”
दोनों प्रश्नवाचक निगाहों से उसे ताके जा रही थीं।
“अजीत की जिंदगी में कोई और है।”
“मतलब?।।।कोई और औरत?” श्रुति बोली।
“मुझे दो-तीन महीने से शक हो रहा था। अजीत के कॉलर पर लिपस्टिक के निशान, फिर एक जूलरी वाले का बिल, फिर उसके फ़ोन में मेसेज…”
“गिरेबान नहीं पकड़ा कुत्ते का तूने?” सुमेधा आग-बबूला हो आयी थी।
“मैंने उस दिन रात को सारी बातें बता कर पूछा, तो बहाना बनाकर दूसरी तरफ पलट कर सो गया।”
सुमेधा का क्रोध सातवें आसमान पर था। “अब अगर तू उस घर में एक मिनट भी रुकी न, तो तू समझ लेना। हम दोनों को छोड़ दे, और मर उसी नरक में।”
“अब तुझे डाइवोर्स फ़ाइल करना ही पड़ेगा।” श्रुति मजबूती से बोली।
“मेरे बच्चे…” पद्मा फिर रोने लगी थी।
“खुद ही तो कहती है, बच्चे तुझे घास नहीं डालते! खैर छोड़, बच्चों का बाद में देखा जाएगा।” श्रुति ने कहा।
“कहाँ जाऊंगी मैं?” पद्मा की सिसकियां बंद होने का नाम ही नहीं ले रही थीं।
“मेरे पास शिफ्ट हो रही है तू। इतना बड़ा घर खाली पड़ा है।” सुमेधा ने दृढ़ता पूर्वक कहा।
दोनों पद्मा को बहुत देर तक समझाती रहीं। फिर सुमेधा कुछ सोचती हुई बोली, “मुझे भी तुम दोनों से कुछ बात करनी है। लेकिन अभी पुराने मंदिर चलेंगे न, वहीं बताऊंगी।”
“इतनी बार का देखा हुआ है, क्या करेगी जाके। हम लोग रिलीजियस टूरिज्म थोड़ी करने आये हैं।”श्रुति ने कहा।
“नहीं, आज तो जाना ही है।” सुमेधा ने जोर देते हुए कहा।
कुछ देर बाद मंदिर से लौटते समय सुमेधा ने टैक्सी में ही दोनों से कहा, “देखो, अब थोड़े दिनों बाद मेरी सेवानिवृत्ति है। पिताजी ने अंततः आज्ञा दे दी है, कि पीछे वाली दीवार तोड़ कर, सड़क के ठीक किनारे कुछ काम लगा लो।”
वे दोनों बड़े ध्यान से सुन रही थीं। “हां, फिर?”
“तो देखो मेरे पास दो ऑफर हैं। दोनों ही अपना पैसा लगाकर भवन वगैरह बनाकर देंगे। एक तो जोधपुर की बेड लिनेन की कंपनी है। दूसरी, ऑटिज़्म…यानि स्पेशल बच्चों के स्कूल की श्रृंखला की फ्रैंचाइज है।”
“उसमें सोचना क्या है? दूसरे ऑफर को लपक ले।” श्रुति ने कहा।
“यही मैं भी सोच रही हूँ। उसमें अर्थ-लाभ तो कम है, लेकिन मन का संतोष बहुत अधिक है।” कहकर सुमेधा ने दोनों सखियों के हाथ पकड़ लिए, ” मुझे इस नए काम में तुम दोनों की ज़रूरत होगी।”
“डन।” श्रुति थोड़ा ज़ोर से किलकारी-सी मार कर बोली।
पद्मा ने डबडबायी आंखों से सुमेधा की तरफ देखा,” तू यह सब मेरे लिए कर रही है न?”
“ये लो जी, मोटी की बातें सुनो! इतने बड़े प्रोजेक्ट में हाथ डालूंगी तेरे लिये?”
फिर सुमेधा थोड़ा रुक कर धीरे से बोली, ” मैं तुम लोगों से थोड़े दिन बाद पूछती, लेकिन सुबह तूने उस कुत्ते अजीत की बात सुनाई तो मेरा निर्णय पक्का हो गया। अब तो यही काम करना है, और फौरन से पेश्तर।”
दो पल बाद वह फिर पद्मा से बोली, ” मगर मेहनत बहुत करनी पड़ेगी तुझे। कुछ विशेष प्रशिक्षण वाली अध्यापिकाएं रखनी पढ़ेंगी। मगर अपनी प्रबंधन क्षमताओं के साथ तेरा परिश्रम असली होगा।”
“ज़िन्दगी भर नाशुकरों के लिए किया है।अब तो अपने मन का काम होगा।” पद्मा फुसफुसाई।
शाम को ट्रेन से लौटते समय तीनों अपने-अपने ख्यालों में गुम थीं।
पद्मा सोच रही थी, एक बहुत बड़े निर्णय का समय आ गया है। शायद यह लम्हा, बहुत पहले आ जाना चाहिए था।अब तक तो आजाद हवा में सांस लेते कई साल गुज़र जाते। हालाँकि अतीत में वह कभी साहस नहीं जुटा पायी थी, लेकिन अब उसे लग रहा था जैसे उसके हाथ आज़ाद हो गए हों। एक पल को भी आगत से भय नहीं लग रहा था। दिमाग के चारों ओर जो घने गाढ़े बादलों की मेखलाएँ थीं, वे टूटती सी लग रहीं थीं। और पैरों में पड़ा निरभ्र,बादलों से रिक्त आकाश, उसे अपने ऊपर चलने को आमंत्रित कर रहा था।
एक पल को बच्चों की चिंता हो रही थी, लेकिन जैसा सुमेधा ने आश्वासन दिया था, कि बाद में कुछ न कुछ समाधान निकाल लेंगे, तो अनिश्चितता की धुंध कुछ छंटती-सी लग रही थी। पहले अपना थोडा ज़रूरी सामान लेकर सुमेधा के यहाँ आ जाएगी, फिर अजीत को अपने निर्णय से अवगत कराएगी। क्या प्रतिक्रिया होगी अजीत की? उंह, उसे जरा भी परवाह नहीं है। बस एक बात निश्चित है। अब ये कदम वापस नहीं लौटेंगे।
श्रुति सोच रही थी, जीवन के एकाकी भटकाव में, कुछ तो ठहराव आएगा। त्रिशा के चले जाने से जो रिक्तता पैदा हुई है, उसे संभवतः कुछ हद तक भर पाने में सफल होगी वह। पूरे दिन सुमेधा और पद्मा के साथ होने का अहसास, मन में एक शीतल रोमांच की अनुभूति दे रहा था। शायद स्कूल में उन दिव्यांग बच्चों का साथ उसे अपने वजूद की व्यर्थता के अहसास से मुक्ति दिला सके।
सुमेधा सोच रही थी, जीवन में थोड़ी व्यस्तता बढ़ जाएगी।अच्छा ही है, नहीं तो सेवा-निवृत्ति के बाद पहाड़ जैसे दिन काटने मुश्किल हो जाते। पद्मा के घर में होने से स्कूल का काम भी अच्छी तरह से संभल जायेगा। तीनों की बोन्डिंग इतनी अच्छी है, कि इतने वर्षों बाद भी यह मन करता है, कि तीनों दिन भर साथ रहे। एकदम से मन में एक ख्याल आया। क्या पद्मा के होने से अनंत के घर आने में कोई रूकावट आएगी? फिर तुरंत उस ख्याल को उसने परे झटक दिया। हम तीनों की कौन सी बात एक दूसरे से छुपी है?
जैसे कोई टेली पैथी हो गयी हो, श्रुति ने सुमेधा की तरफ मुंह घुमा कर पूछा, “ अरे सुमेधा, तू तो कल पर्दाफाश कर रही थी, कुंवारी, या नो कुंवारी।”
सुमेधा ने हँसते हुए कहा, “मेरे इतना कहने पर ही तुम दोनों को समझ जाना चाहिए था, कि इस प्रश्न का उत्तर क्या होगा।”
दोनों का मुंह आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता से खुला का खुला रह गया।
“अरे, तो वही तेरे कॉलेज का पी। टी। टीचर?” श्रुति बोली।
“तुम दोनों को गॉसिप के अलावा कोई और काम भी है?” सुमेधा हँसते हुए बोली, “और आपकी जानकारी के लिए, उसका नाम पी। टी। टीचर नहीं, अनंत है।”
“तो शहनाई कब बज रही है?” श्रुति ने हँसते हुए पूछा।
“उसका कोई कमिटमेंट नहीं है।” सुमेधा इतराते हुए बोली। “सिर्फ एक चीज़ का कमिटमेंट है… प्रेम का।”
“वही जीवन के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ है।” पद्मा ने मुस्कुराते हुए कहा।
तीनों ने हँसते हुए भरपूर ऊर्जा से हाथ उठा कर एक-दूसरे को हाई- फाइव किया।
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