आज पढ़िए विनीता परमार की कहानी ‘अश्वमेध का घोड़ा‘। इतिहास, वर्तमान के कोलाज से बनी एक दिलचस्प और समसामयिक कहानी। आप भी पढ़ सकते हैं-
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लड़के के कमरे से फिर आवाज़ आ रही है। आवाजें कुछ आड़ी–तिरछी हैं। इसे किसी चीज को मारने से ज्यादा या टूटने से कम की आवाज़ कह सकते हैं। वैसे मेरे लिए यह आवाज़ नई थी; हर दो-चार घंटे पर दीवारों पर एक चोट सुनाई पड़ती। मुझे ये एक कमरे की दीवारों से आती आवाज़ का फंडा समझ में नहीं आता। पिछले कुछ महीनों से मैं यहाँ रहती हूँ। मेरे आस-पास एक एकांत का अनुभव होता था। अब इन दिनों दीवारों पर पड़ती आवाज़ मेरे एकांत को तोड़ती है। मुझे फ़िल्मों में भी मार–धाड़ पसंद नहीं उन आवाजों को छोड़ मैं आगे की फ़िल्म देखने लगती हूँ। हालाँकि! दीवारों पर ये हल्की आवाज़ है फिर भी मैं उस आवाज़ की दिशा जानने के बाद उसके निकलने के कारण को जानना चाहती हूँ।
कौतुहलवश एक दिन मैं उसके कमरे में –“कोई है? कोई है? कहते हुए चली गई।” अचानक से मुझे देख वो थोड़ा सकुचा गया। वैसे मेरा और उसका कोई औपचारिक परिचय नहीं है। मैं और वो जानते हैं कि मैं भी पिछले तीन महीने से इसी फ्लैट में रहती हूँ और वो मेरे फ्लैट के ठीक सामने। मेरा ड्राइंग रूम उसके ड्राइंग रूम को और उसके दरवाजे मेरे कमरे को झाँकते रहते हैं। अबतक एकदूसरे को देख हमदोनों स्माइल से काम चलाते हैं। वो अक्सर ही वर्क फ्रॉम होम ही करता है और मैं आठ बजे सुबह काम पर भागती हूँ। हमारी दो चार मुलाकातों में शामिल रहा है एक – दूसरे के हाथ में झाड़ू जिससे हमदोनों अपने – अपने दरवाजे के सामने की सफाई को निकलते हैं।
“आप बुरा न मानें तो जान सकती हूँ ये आवाज़ किस चीज की आती है।”
उसके जवाब के इंतज़ार में मैं उसके कमरे का मुआयना करने लगी। उसके कमरे को देख कोई नहीं कह सकता कोई सिंगल व्यक्ति इस कमरे का मालिक है। सारी चीजें करीने से रखी दिख रहीं हैं। ड्राइंग रूम में सोफ़े और एक बेड के बगल की खाली जगह जहाँ रंग-बिरंगी गेंदे जो हर आकार की हैं। छोटी,मँझली,फुटबॉल,वॉलीबॉल सारे वेरायटी मौजूद हैं। मेरे लिए यह बिल्कुल नया है। एक चौबीस-पच्चीस बरस का व्यक्ति कमरे के अंदर गेंदों के बीच यह तो अजीब है क्या कोई गेंदों के बीच में रह सकता है? मेरी तफ़्तीश पर विराम लग चुका है मेरे मस्तिष्क की कसरत रुक चुकी है।
क्योंकि उसने बताना शुरू किया- “मुझे इन गेंदों से खेलने का शौक है इस कारण मैं इन्हें दीवारों पर मारता हूँ। वैसे ये प्लास्टिक या रबर की गेंदें हैं मुझे लगता है इनकी ज़्यादा आवाज़ बाहर नहीं जाती होंगी।”
बात आगे बढ़ने पर पता चला कि जब वो क्लास वन में था तब से लेकर अभी इस साल नौकरी की शुरूआत तक की गेंदें जमा रखी हैं। गेंदों से खेलने के साथ-साथ रंग-बिरंगी गेंदें खरीदने और जमा करने का शौक है।
“मैं अपनी चीजों को संभाल कर रखता आया हूँ। मेरी मम्मी ने बचपन में ही यह बात समझाई है सिंगल हैंड यूज करने से चीजें जल्दी टूटती नहीं। मैंने गेंदों की तरह अपने पेन को भी संभाल रखा है। ये गेंदें सिर्फ़ प्लास्टिक में बंधी नहीं रहती रह-रहकर जो आवाज़ आती है वो इन गेंदों पर पैरों की मार की आवाज़ होती है। उन गोल गेंदों में पृथ्वी की छवि देखता हूँ कैसे एक स्थान पर रहकर इंसान गोल – गोल लुढ़कता दूसरी जगह पहुँच सकता है। गेंदों की आवाज़ दीवार पर दूरी के हिसाब से अलग – अलग होती है। जब मुझे ज्यादा दूर पहुँचने का मन करता तो छोटी गेंद का इस्तेमाल करता हूँ।”
अपने अकेलेपन को इस तरह से आनंद का तरीका बनाया है। उसे बचपन में ही यह बात समझ आ गई थी माँ-पिता की इकलौती संतान को अपने लिए ये तरीके अपनाने पड़े।पहली मुलाक़ात में ही अपने इकलौते होने के एवज़ में चुकाये गए गुबार को वो निकालना चाह रहा है। मैंने भी हड़बड़ी नहीं दिखाई उसकी बातों को ध्यान से रस लेकर सुनने लगी।
“इकलौता होने की वजह से मुझे बाहर खेलने जाने नहीं दिया जाता था; मम्मी – पापा को डर लगा रहता था कि मुझे कुछ हो जायेगा या दूसरे बच्चों के साथ मैं बिगड़ जाऊँगा। वैसे आज भी मुझे लेकर वो लोग बहुत ज़्यादा चिंतित रहते हैं। जब मैं कॉलेज गया वहाँ भी मेरी मम्मी मेरे साथ रहती थी। मेरे लैपटाप की फिल्में गाने सब मम्मी की पसंद के ही हैं। जाने- अनजाने में मम्मी की पसंद ही मेरी पसंद बनती गई। अभी नौकरी लगी है कंपनी ने वर्क फ़्रोम होम की सहूलियत दे रखी है; इस कारण मैं यहाँ आ पाया हूँ। मम्मी – पापा को एक कमरे में, टेरिस पर, गार्डेन में अकेले गेंदों को मारने से कोई ऐतराज नहीं था।”
माँ – पिता के द्वारा बनाये गए सीमित दायरे में रहने की आदत के बीच दुनिया को घूमने की कामना का एक छोटा प्रारूप है यह लड़का। एक बात और उसके कमरे की दीवारें नीली हैं; जिसे देख मैंने कहा – “आपके कमरे की दीवारें तो बिल्कुल समुंदर सा नीला है।”
तब उसने रूखा सा जवाब दिया – “नहीं आकाश सा निरभ्र और विस्तृत। सागर की गहराई में दूसरे जीवों के साथ रहना इतना सरल नहीं। आकाश में अकेले – अकेले सितारों सा चमकना कितना अच्छा है।”
“आपने दीवारों पर नक़्शे क्यों टाँग रखे है?”
“पूरे विश्व को देखते रहता हूँ।”
“मेरे पास छोटे- बड़े हर तरह के नक़्शे हैं।”
एक तरफ विश्व का भौतिक मानचित्र दूसरी तरफ़ राजनैतिक मानचित्र, सभी महादेशों के अलग – अलग नक़्शे, अपने देश का भौतिक और राजनैतिक नक़्शा, राज्य का नक़्शा, जिले का नक़्शा, शहर का नक़्शा, मुहल्ले का नक़्शा और इस फ्लैट का भी नक़्शा।
अर्थात इंच–इंच का हिसाब हर युग की राजनीति और प्रकृति का।
“अरे! इस रायगढ़ का भी नक़्शा लगा रखा है।”
उसने कहा –“अगर आप बुरा न माने देखना चाहें तो देखें मैं अपने बाथरूम में भी नक़्शे टांगकर रखा हूँ। जिस जगह को गूढ़ अर्थों में समझने की जरूरत होती है उस जगह के नक़्शे को बाथरूम में टाँग देता हूँ। वॉशबेसिन और डायनिंग टेबल के सामने भी एक- दो नक़्शे टंगे हैं।”
मेरे नक़्शा देखने की आदत मेरे मम्मी –पापा की नज़र में मेरी विद्वता है। पापा अक्सर अपने दोस्तों से मेरी नक़्शे की पारखी नज़र को बताते हैं। वैसे मैं कैसे रहता हूँ? क्या करता हूँ? मुझे क्या पसंद है से लोगों को ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ता। मैं अपने मुहल्ले का आदर्श बच्चा हूँ हर कोई मम्मी से कहता है मेरी तरह उनका भी बच्चा होता। मैं अपने जीवन की चीजों की गैरमौजूदगी को काश! कहता हूँ तो लोग मेरे जैसे बनने को काश! कहते हैं।
मैं मन ही मन इस अजीब पागलपन कह लो या पैशन को करीब और करीब से जानने की कोशिश करने लगी। मुझे यह बात हज़म नहीं हो रही थी कि इस लड़के ने सीमाओं को भी बांध दिया गया या ये ख़ुद सिमट गया। यह अपने मस्तिष्क को एक मिनट के लिए भी खाली नहीं छोड़ता तंतुओं की उड़ान को कोई भी दिशा देते रहता है।
तभी वो मेरे अंदर चल रहे प्रश्नों को परख बताने लगा-“मैं गूगल मैप पर भरोसा नहीं करता हूँ। बचपन से ही इन गेंदों के साथ- साथ नक्शों से प्यार हो गया है। मुझे अच्छा लगता है जब कोई किसी शहर का या किसी राज्य का या देश का जिक्र करता है और मैं बाद में उस जगह से नक़्शे में मिलता हूँ उस जगह से वहाँ के लोगों से मिलकर एक गुदगुदी सी होती है। मुझे पता है मैं ज्यादा समय एक व्यक्ति के साथ नहीं रह सकता। मुझे भीड़ में घबराहट होने लगती है। मुझे लोगों को चीजों को महसूस करने में अच्छा लगता है।”
इस अनोखे प्यार को चुपचाप महसूसते जा रही हूँ। अकेले रहने के तरीकों का नायाब नमूना। उसके दिमागी सोच के आकाश का खुलापन जो ख़ुद उसकी पकड़ में है जिसे जहाँ चाहे उस दिशा में मोड़ सकता है। मैं भी तो अकेली ही हूँ। इन रेखाओं में कभी भरोसा नहीं रहा न ही गेंद जैसा मारने वाला खेल मुझे पसंद है। आवाज़ें अपनी ओर खींचती हैं। अब मैं ऑफिस के बाद के समय में गेंदों की आवाज़ के साथ खींची जाने लगी हूँ। अब मैं सीढ़ियों या लिफ्ट की ओर जाने के पहले उसके कमरे में झाँक उसके कमरे के नीलेपन को देखने लगती हूँ। इसे कह लो एक अनजानी नीरवता के साथ मेरा लगाव होते जा रहा है।
आज जब मैं उसके कमरे में बाहर से झाँक रही थी देखा आज बॉल मारने की जगह किसी नक़्शे को देख कुछ बोल रहा है। मैं दरवाजे और पर्दे की फांक से उसके कमरे के नीलेपन के साथ उसे भी देख सकती हूँ। वैसे उसका दरवाजा हमेशा खुला ही रहता मैंने अपने कदम नीचे जाने से रोक लिए और दरवाज़ा खटखटा दिया। नक़्शे को छोड़ उसने दरवाजे की दस्तक भांप ली और कहा। “अरे! मेरा दरवाज़ा खुला ही रहता है आप बेखौफ़ आ सकती हैं।”
मुझे बैठने का इशारा कर फिर नक़्शे में उलझ गया।“आप अकेले में कुछ बोले जा रहे थे।”
“ये नॉर्मल है, मैं घंटों अपने से बातें कर सकता हूँ, शिकायत कर सकता हूँ; सुन सकता हूँ। वैसे फ़िलहाल मैं इस नक़्शे की लकीरों से बात कर रहा था।”
मैं भी नक़्शे की तरफ थोड़ा झुकी।
“यह तो आज के हिसाब का कोई नक़्शा नहीं है। यह कितना पुराना लग रहा है।”
“आज मेरे पुराने कॉलेज ग्रुप में समुद्रगुप्त की बात चली तो मेरा दिमाग समुद्रगुप्त में लग गया।
वैसे मैं व्हाट्टसप्प पर शामिल हूँ लेकिन ज़्यादा एक्टिव नहीं। मुझे ये स्टेटस और डीपी के चोंचले बिल्कुल पसंद नहीं। कॉलेज के दोस्तों की जिद की वजह से वहाँ हूँ। कभी कभार वहाँ अच्छी बातें हो जाती हैं तो देख लेता हूँ। मेरी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। जैसे आज एक ने अश्वमेध के घोड़े की बात की तो मैं अपने नक्शों में उलझ गया।”
बचपन से अकेले रहते- रहते मैंने अपने आने–जाने को एक खोल में समेट लिया है लेकिन पृथ्वी और आकाश के चप्पे – चप्पे को जानने का मन करता है। पृथ्वी के हर कोने का अपना इतिहास है। जाने कितनी बार वही जमीन नक़्शे में कभी उसकी तो कभी दूसरे की होती चली गई होगी।
मुझे इन बातों में कभी रुचि नहीं रही लेकिन अब उसके नक़्शे की कहानी या उसकी पसंद मुझे रोक चुकी है।
मैंने कहा –“समुद्रगुप्त के काल के नक़्शे से तुम्हें क्या मिलेगा?”
“मैं आपको तुम बोल सकता हूँ। इससे मेरे दायरे की सीमा का विस्तार होगा।”
“मैंने बड़ी ही आसानी से हामी भर दी जैसे मेरा भी मन उससे तुम सुनना चाहता हो।”
“इस नक़्शे में मैं जान सकता हूँ अश्वमेध के घोड़े की उड़ान उसकी हवा में बातें करती चाल। एक चक्रवर्ती सम्राट की सोच उसकी जीतने की ललक। उसने बताना शुरू किया समुद्रगुप्त जिसकी तुलना उसके काल में नहीं हो पाई अंग्रेजों ने उसे भारत का नेपोलियन कह दिया। उनकी हिम्मत देखो नेपोलियन बाद में पैदा हुआ उसे भारत का समुद्रगुप्त नहीं कह पाये।”
“इससे इस नक़्शे का क्या संबंध?”
“तुम्हें पता है इंसानों ने जमीन के टुकड़ों को पहले मिट्टी, फिर पत्थर, फिर कागजों पर उकेरना क्यों शुरू किया?”
नक़्शे इंसानों की यात्रा को बताते हैं हमारी लालसा,हमारी आग सबको समेटकर रखे हुए हैं ये नक़्शे।
हर युग का नक़्शा उस समय की प्रगति का बयान है। उस युग की उत्कृष्ट सोच ही तो नक़्शा है।
“लेकिन मैं जितना जानती हूँ इंसानों ने नदियों, जंगलों, शिकारों,बस्तियों आदि को जानने के लिए नक़्शे बनाने शुरू किए।”
“मैं नक़्शे में जीता हूँ वहाँ की खूबसूरती वहाँ के रहन-सहन, खान- पान पर ठहर जाता हूँ। तुमने उस दिन पूर्वोतर भारत की बात की तो मैं पूरी रात उधर के पहाड़ों में खोया रहा। पहाड़ पर घूमता रहा वहाँ की मुखिया महिलाएँ मुझे घेरकर अपने साथ रखने के लिए बेचैन थीं। जैसे ही मेघालय पहुँचा वहाँ एक घर में चार लड़कियाँ थीं, सबसे छोटी मुझसे शादी की जिद करने लगी। शादी के बाद मुझे घरजमाई बनकर ही रहना पड़ता। मैं उसका हाथ छुड़ाकर भागना चाह रहा था तबतक मेरी नींद खुल गई। अपने इस सुंदर सपने को समेट कर फिर सोने चला अभी आधी रात बाकी थी। फिर वही सपने नागालैंड,मिजोरम तो मणिपुर के एम्मा मार्केट में पूरी रात घूमता रहा। मैं अपने सपने में भी किसी लड़की के साथ सामान्य नहीं रह पाता हूँ। वैसे मेरे साथ देश- विदेश की लड़कियों के चेहरे दिखाई देते हैं और मैं एक झटके में आगे बढ़ जाता हूँ। आप मुझसे बड़ी हैं और पड़ोस में हैं इस कारण बात कर पा रहा हूँ। मैंने अपनी मम्मी से आपके बारे में फोन पर बता दिया था।”
पहले मुझे उसकी बातें सुन बहुत ज़ोर से हँसी आई। अकेलेपन की आदत सारी आदतों पर भारी है। लेकिन फिर मुझे लगा मैं भी तो घूमना चाहती हूँ, देखना चाहती हूँ थोड़ी देर के लिए मैं भी उसके साथ पूर्वोत्तर की यात्रा करने लगी। फिर सोचने लगी ये घर में अकेला रहते – रहते नींद में सपने में अपने नक्शों के साथ विचरता रहता है। कितना खुलकर अपने सपने को जी रहा है। थोड़ी देर के लिए मैंने ख़ुद को मेघालय की उस लड़की की जगह पाया। एक क्षणिक आकर्षण जिसकी गिरफ़्त में मैं आ गई थी। तुरंत अपने को समझाया ये तो सामान्य है।
“मैं वर्तमान में वैसे लौटी जैसे कुछ हुआ ही नहीं। अच्छा – अच्छा तुम समुद्रगुप्त की कहानी बताते – बताते अपनी कहानी बताने लगे।”
“आज मैं समुद्रगुप्त के जीते गये नक़्शे का पुराना नाम देख रहा हूँ। इस नाम के पहले भी जाने कितने नाम रखे गये होंगे इस जमीन के टुकड़े को कितनों ने जीता होगा और अपना साम्राज्य बताया होगा। जमीन वहीं की वहीं पड़ी रह गई लोग बदलते गये। समुद्रगुप्त ने भारत के चप्पे – चप्पे को जीत लिया था। जीत के इस जुनून की कहानी भी अजीब है लिच्छवि कुमारी कुमारीदेवी का पुत्र समुद्रगुप्त अपनी माँ के साथ हुए व्यवहार का बदला पूरे भारत को जीतने में लगा दिया। एक सकारात्मक चुनौती जिसमें एक दर्द को गति देने की चेष्टा।”
माँ के उस पुत्र को उसके पिता ने योग्य समझकर ही राजगद्दी दी लेकिन बीच में आती थी माँ की कहानी। बचपन से ही नाना – नानी के घर के आसपास पलते-बढ़ते समुद्रगुप्त ने दस वर्षों तक अपने पिता चन्द्रगुप्त को सिर्फ़ उसकी माँ के इस्तेमाल के रूप में देखा। कुमारीदेवी के मायके वाले मजबूत थे उनकी मजबूती का फायदा उसके पिता ने राज्य चलाने में उठाया। माँ ने सिर्फ़ साम्राज्य को बढ़ते देखा।बढ़ते नक़्शे में कुमारीदेवी कहीं गुम गई और वहाँ सिर्फ़ व्यापार उठान पर था गंगा किनारे की सभी जगहों पर चन्द्रगुप्त का कब्ज़ा।
मैं कुमारीदेवी के बारे में सोचने लगी। मज़बूत स्त्री किस मायने में मज़बूत जिसने शादी की और फिर उसका इस्तेमाल किया। पाँच पतियों के बीच अपनी निष्ठा सिद्ध करती द्रोपदी वहीं रुकी रही। अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर सभी ने राज्य विस्तार में अपने विजय रथ के साथ स्त्रियों पर विजय पाई। अर्जुन की पत्नियाँ उलूपी, चित्रांगदा तो भीम की पत्नियाँ हिडिंबा,सुतसोमा,स्वर्गा तो दुष्यंत की शकुंतला भी तो इंतज़ार करके रह गईं। मेरे दिमाग में इतिहास की सारी लड़ाइयाँ घूमने लगीं। समुद्रगुप्त के पहले की उसके बाद की और इस नक़्शे के दीवाने लड़के की। यह लड़का सारे लोगों की कहानियों में रुचि रखता है और ख़ुद इसकी कहानी ये नक़्शे और बॉल ये अपनी हँसी अपना दर्द, अपने प्यार या नफरत को किससे कहता होगा। जब जमीन पर बॉल को पैरों से खेलता है तो बाएँ-दायें, तिरछे ऐसे कट करता है जैसे जीवन को इन सभी परेशानियों से निकाल रहा हो।
उसने कहा –“देखो यहाँ समुद्रगुप्त ने गद्दी संभाली है। तुम उसकी आँखों के सपने को देख सकती हो। माँ की आँखों में पले सपने को समुद्रगुप्त ने देखा। माँ की कविता के सपने को संगीत के सुरों में बांधा। वीणा के तार पर रागनियाँ छेड़ी।वह अपनी युद्ध कुशलता में चपल था दोनों भुजाओं के बल से अर्जित विक्रम ही उसका एक मात्र दोस्त था। परशु,बाण,भाला,शंकु,नाराच जैसे अनेक शस्त्रों के प्रहार से उत्पन्न शोभा से उसके शरीर की कांति द्विगुणित हो जाती थी। उसने अपनी उदारता के बल पर लक्ष्मी और सरस्वती के शाश्वत विरोध को भी समाप्त कर दिया था।”
“नक़्शे से यह सब भी पता चल जाता है क्या?”
समुद्रगुप्त ने अपनी माँ के भीतर की उमड़-घुमड़ को सिक्कों में उकेड़वा दिया था। उसे मालूम था माँ का दैहिक उपयोग राजनैतिक हित साधने में ही हुआ। जानती हो–“यह नक़्शा उसकी बेचैनी के रेशे-रेशे को खोल रहा है। पिता ने गद्दी के योग्य समझा लेकिन उसे यह बात चुभ गई। एक छोटे से भाग पर कब्जे के लिए एक औरत जो उनकी पत्नी बाद में मेरी भी माँ बनी उसके साथ षड्यंत्र। उसने सोच लिया अपने पिता से बड़ा साम्राज्य बनाना है। उसने पूरे भारत ही नहीं देश से परे इस पूरे नक़्शे को अपने राज्य में मिला लिया था।”
मुझे इतिहास और नक़्शे में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं थी फिर भी कुमारीदेवी के आर्त्तनाद को सुनने वाले पुत्र के प्रति मेरे मन में एक श्रद्धा का भाव आ गया।
उसने बताना शुरू किया- “गंगा के किनारे पत्थरों पर उत्कीर्ण आखर बताते हैं वो ख़ुद को धरणी-बंध कहता था। नक़्शे में बाँधना। एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द डोलता शासन। एक बदला लेने का प्रारूप जिसमें इंसान सफल आक्रांता और विजिगिषु (विजय की ईच्छा रखनेवाला) बन जाता है।”
“इधर देखो इधर इस सर्वराजोच्छेता (संपूर्ण राज्यों का उन्मूलन करने वाला) ने उत्तर से अपने ध्वज को लहराना शुरू किया यह आज की बरेली है जिसके राजा अच्युत जो नाग नरेश थे, जिन्होंने अपनी पराजय स्वीकार कर ली। दूसरा राजा पदमपुर का था जिसकी राजधानी पद्मावती थी। नागसेन ने अपने भरोसेदारों के चक्कर में अपनी जान से भी हाथ धो दिया।”
आर्यावर्त नरेशों की सीमाओं को समेटता अब वह आटविक विजय के लिए निकल पड़ा था। “आटविक समझती हो न! जंगलों के राजाओं पर विजय।”
अभी थोड़ी देर पहले जिसके लिए मेरे मन में संवेदनायें थीं अब उसकी विजय गाथा सुन उबाल आने लगा। यह कैसी ईच्छा है।
“जंगलों, पहाड़ों नदियों को तलवार की नोंक से जीत सकते हैं।
जंगल को जीतकर उसकी नियत बदली क्या?
झरनों में पानी की बूंदों को देख उसकी प्यास जरूर बुझ गई होगी।”
नहीं उसकी प्यास पूरे भारत को जीतने की थी। एक जीत उसको दूसरी की तरफ ले जाती ।
उत्तर जीतते ही वह दक्षिण विजय के लिए निकल पड़ा। दक्षिण विजय के समय वह अपने को एक धर्मविजयी राजा सिद्ध करने में लग गया। वह तो अपने को उदार पेश करने में लगा रहा। विजय के लिए जनता के दिलों पर राज करने की साजिश ने दक्षिण के राजाओं को उसने स्वामिभक्त मित्र बना लिया।
राजा कहलाने के लिए हजारों कपड़े पहनने होते हैं। समुद्रगुप्त ने चोले बदले, रंग बदला, मन बदला। जीतता गया उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम सारी दिशाएँ उसकी थी। विंध्य और हिमालय के बीच की स्थली आर्यावर्त पर सिर्फ़ समुद्रगुप्त की ध्वजा लहराई। ईरान, नेपाल,शक,यवन सबने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। इसमें इन विदेशी राजाओं का कोई स्वांग नहीं था।इन सभी ने आत्मनिवेदन कर अपनी कन्याओं को भेंट स्वरूप दे दिया।
“एक बात मैं बताना ही भूल गया वह जहाँ भी जीतता गया वहाँ की स्त्रियों को भी अपने कब्ज़े में करता चला गया।”
मैं समुद्रगुप्त की विजयगाथा सुनते – सुनते ऊब गई। मैं खींझने लगी एक व्यक्ति अपनी सत्ता के लिये क्या – क्या करता गया। मैंने लड़के को कहा-“एक पंक्ति में अंत बता दो। मैं तुम्हारे नक़्शे की यह कहानी सुन ऊब गई और तुम तो दिन-रात नक़्शे में ही लगे रहते हो।”
“बस मैं इतना कहना चाहूँगा कि विश्व की पहली लड़ाई से लेकर अबतक की लड़ाई में पृथ्वी के कोने तक पहुँचने की जिद या राजा की जिच।मैं कहीं का राजा नहीं मुझे जीतने का मन करता है मुझे भी राजाओं की तरह सारी सुख – येँ अच्छी लगती हैं लेकिन मैं उसे पा नहीं सकता। मैं नक्शों में जीतता हूँ गेंदों से कोनों तक पहुंचता हूँ। सपने में सारी सुख – सुविधा को जीता हूँ। समुद्रगुप्त ने सम्राट बनने के बाद बंद हो चुके अश्वमेध यज्ञ को फिर से शुरू किया था। यह उसके एरण अभिलेख में दर्ज़ है।”
आज के लिये इतना ही; तुम मुझे नक़्शे की कहानी से इतना डरा दो कि मैं तुम्हारे कमरे में आने से डरने लगूँ।
“अरे! बातों- बातों में समझ नहीं आया आठ बज गये।”
“कल छुट्टी है आराम से उठना।”
एक – दूसरे को शुभरात्रि बोल मैं अपने कमरे में आने लगी और वो नक़्शा समेटने लगा। मैं अपने कमरे में आ चुकी हूँ मेरे दिमाग में अभी भी वही सारी बातें घूम रही हैं।
मैंने हर्ष और विषाद के बीच डोलते हुए मन में अपने को थोड़ा स्थिर कर दिन की सब्ज़ी गर्मकर दो रोटियाँ सेंकी। जब खाने चली तो दिमाग में एक-बार यह बात आई पता नहीं उस लड़के ने कुछ बनाया होगा या नहीं। उस लड़के से अपना दिमाग जितना ही हटाना चाह रही हूँ वो वहीं जाकर सोचने लग रहा है। खाना खाकर मैं सोने चली। मेरी नींद में फिर समुद्रगुप्त दर्ज़ हो चुका है साथ ही साथ लड़के का सपना।
अब मैं नींद में बोलती जा रही हूँ – “एरण के प्रस्तरों से आवाज़ आ रही है। देखो दीवारों से आवाज़ आ रही है बहुत सारे घोड़ों की आत्मा चारों तरफ दौड़ रही हैं। मुझे बचा लो, मुझे बचा लो हर जीत के बाद तुमने मेरी बलि दी। तुम्हारे इन सिक्कों में मैं कहाँ हूँ?घोड़े की टाप चारों तरफ़ सुनाई दे रही है। एक सबसे विशाल काले रंग के घोड़े को स्त्रियों ने पकड़ लिया है। मैं पूछ रही हूँ कौन हैं ये औरतें? लड़का मेरी नींद में शामिल हो चुका है वो बताने लगा –“ये सारी कन्योंपायन की कन्याएँ हैं इनके पिताओं ने समुद्रगुप्त को ख़ुश करने के लिये भेंट में दे दिया है। वो देखो सिंघल राजकुमारी, दूसरी तरफ़ शक नरेश की पुत्री पीछे से कुषाण कन्या आ रही है असम सुंदरी दक्षिण देशों की बालायेँ सबने उसके घोड़े को पकड़ लिया है।”
मैं नींद में ज़ोर – ज़ोर से हँस रही हूँ मेरे मन मुताबिक सब हो रहा है। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को ख़ुश रखने के लिये ऐसी अधीनता आत्मनिवेदन का मतलब अपनी हर तरह की सेवा को सम्राट के चरणों में अर्पित कर देना। मैत्री संबंध बनाए रखने के लिये कन्या को सेवा में दे दिया। कहाँ गया वो समुद्रगुप्त जो अपने पिता का बदला लेने चला था। उस समय उसे अपनी माँ का दु:ख बहुत बड़ा लग रहा था। आज इन कन्याओं को पत्नी का भी दर्ज़ा नहीं मिला है।
मैं भी उन्हें जोश दिलाने लगी-“रोक लो उसके अश्वमेध के घोड़े को आगे मत बढ़ने देना।”
समुद्रगुप्त के सैनिक आ चुके हैं अपनी ऊँची आवाज़ में महिलाओं से घोड़े को छोड़ देने की बात कर रहे हैं। महिलाएँ भी कम नहीं हैं किसी के पास तलवार किसी के पास बरछी तो किसी ने तीर – धनुष ले रखें हैं। सबसे आगे चल रही स्त्री सहसा आकर्षित कर रही है समुद्रगुप्त की रानी दत्तदेवी। दत्तदेवी का साथ पाकर सारी स्त्रियाँ जोश से लबरेज़ हैं।
सैनिक धमकी दिये जा रहे उन्हें जान की परवाह नहीं। दोनों तरफ़ से लड़ाई शुरू हो चुकी है। स्त्रियों ने सैनिकों को खदेड़ दिया मैं ख़ूब हँस रही हूँ।
तब तक लड़के ने फिर मेरी नींद में प्रवेश लिया अभी सम्राट समुद्रगुप्त को पता चलेगा तब …. मैंने लड़के को धक्का देकर गिरा दिया। तुम्हें भी तो सपने में स्त्रियाँ चाहिए धरती का वो कोना चाहिए। समुद्रगुप्त तुम हार चुके हो तुम्हारे अश्वमेध का घोड़ा अपने ही घर में रुक चुका है। वो काला घोड़ा वहीं खड़ा हो दुम हिलाने लगा। समुद्रगुप्त अवाक खड़ा चुपचाप कभी घोड़े को तो कभी हथियारों से लैस स्त्रियों को देख रहा है। इनमें से कई के चेहरों को तो वो पहचानता भी नहीं। घोड़ा पीछे मुड़ चुका है और समुद्रगुप्त पैर मोड़ औंधे मुँह के बल जमीन पर बैठ चुका है।
पसीने से तरबतर मेरी नींद खुल चुकी है। कमरे में एसी चल रहा है मैं उठकर बैठ गई अपने आसपास ज़िंदा समुद्रगुप्तों के बारे में सोच मेरी आँखों की नींद चली गई। मुझे महसूस हो रहा बगल के कमरे से आड़ी–तिरछी आवाज़ें आ रही हैं।