आज पढ़िए प्रियंका चोपड़ा की आत्मकथा ‘अभी सफ़र बाक़ी है’ का एक अंश। यह किताब पेंगुइन स्वदेश से प्रकाशित हुई है-
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साल 2000 मिलेनियम ईयर था और जजों का पैनल बहुत ही स्पेशल था : प्रदीप गुहा जिन्हें हम सब तब तक पीजी कहने लगे थे; मीडिया बैरन सुभाष चंद्रा; सुप्रसिद्ध एक्टर वहीदा रहमान; फ़ैशन डिज़ाइनर कैरोलिन हर्रेरा; स्वारोवस्की क्रिस्टल्स के मार्कस स्वारोवस्की; क्रिकेटर मोहम्मद अज़हरूद्दीन; पेंटर अंजलिइला मेनन और कई और लोग। कंपीटीशन से पहले कई कुछ और छोटे-छोटे कंपीटीशंस भी होते थे जैसे—मिस परफेक्ट10, मिस कन्जीनिअलिटी, स्विमसूट और टैलेंट। मैं उन में से कोई भी नहीं जीती।
जैसे-जैसे दिन बीतता जा रहा था मुझे विश्वास होने लगा था कि दूसरी लड़कियों से कंपैरिज़न में, ख़ासकर, उनसे जिन्हें मैं विनर के रूप में देख रही थी—लारा दत्ता, दिया मिर्ज़ा, वलुशा डिसूज़ा और लक्ष्मीराणा—सब बहुत ही सुंदर, अच्छा बोलने वालीं और कंपैशनेट थीं, सब कुछ जो एक मिस इंडिया में होना चाहिए—उन सबसे मैं बहुत कम थी। लारा ख़ासकर सबसे अलग दिखती थीं, वो पहले ही एक पैजंट जीत चुकी थी और मॉडलिंग में अपना करियर भी शुरू कर चुकी थी। मेरे हिसाब से वो न सिर्फ सबसे सुंदर महिलाओं में से एक थी बल्कि, वो जो भी पहनती वो परफेक्ट होता था और वो हमेशा ग्रेसफुल और एलिगेंट नज़र आती थी।
पूरे एक महीने की ट्रेनिंग में, जिसमें योगा क्लासेस, जिम वर्कआउट्स और सभी कॉकटेल और डिनर पार्टियों में मैंने ख़ुद को किसी भी तरह सबसे सुंदर या परफेक्ट कैंडिडेट नहीं समझा था। उसके दूर-दूर तक भी नहीं। उस पूरे टाईम मुझे मालूम था कि मैं एक चीज़ ठीक से पहनती हूँ और वो था मेरा कॉन्फ़िडेंस—जब तक मैं ख़ुद को दूसरों से कंपेयर नहीं कर रही होती थी तब तक काफी मुश्किल काम था। मैं बहुत से लोगों के सामने बोल सकती थी; मैं स्ट्रेंजर्स से बात शुरू कर सकती थी; जो भी मैं करती थी पूरी लगन से करती चाहे मैं उसमें अच्छी न भी होऊँ। लेकिन उस रात जैसे-जैसे वो कंपीटीशन आगे बढ़ रहा था, मुझे अपनी कमियाँ अच्छे से पता चल रही थीं। मुझे पता था मेरा जीतना मुश्किल था। ऐसा नहीं है कि मुझमें कॉन्फ़िडेंस की कमी थी। पर मैं रीयलिस्टिक होकर सोच रही थी।
जैसे-तैसे मैं, फाइनल राउंड तक पहुँच गई, फाइनल पाँच के राउंड में। मेरा नाम सबसे एंड में बुलाया गया जिसका मतलब था कुछ और देर नर्वस होना। और मैं अब स्टेज पर बाकी की चार फाइनलिस्ट्स के साथ खड़ी थी—लारा, दिया, लक्ष्मी और गायत्री जयरमण—लाखों की आँखों के सामने जो इस कंपीटीशन को लाइव देख रहे थे। मैंने इस बात से समझौता कर लिया था कि मैं विनर नहीं बनने वाली हूँ। लेकिन मैं बिना किसी मॉडलिंग या कंपीटीशन के एक्सपीरयंस के मिस इंडिया के फाइनल पाँच तक पहुँच गई थी। मैंने ख़ुद से कहा ये भी एक बहुत बड़ा अचीवमेंट था, जिसके लिए मुझे अपने आप पर गर्व होना चाहिए। मेरे दिमाग में यही सब चल रहा था जब मेरा नाम पुकारा गया कि मुझे मिस इंडिया वर्ल्ड का क्राउन दिया।
वेट, व्हाट? मैं शॉक्ड थी। मेरे पैरेंट्स भी हैरान थे। हमें कुछ आइडिया नहीं था कि आगे क्या करना है, क्योंकि हमने इतने आगे तक का सोचा ही नहीं था। हमने मान लिया था इसकी ज़रूरत नहीं पड़ेगी। उस रात हमारे सिर चकरा रहे थे जो उसके कई दिन बाद भी चकराते रहे। मैं सत्रह साल की थी। मेरे पैरेंट्स को जल्दी से मेरे एक ऐसे करियर के लिए प्लान बनाना था जिसका हमें कुछ पता नहीं था कोई एक्सपीरयंस नहीं था और कोई कनेक्शन भी नहीं थे। हम एक मेडिकल फैमली से थे, हमें बिलकुल आइडिया नहीं था एंटरटेनमेंट की दुनिया कैसी होती है, ये लिखते हुए मैं अब मुस्करा रही हूँ।
उस शाम लारा दत्ता को मिस इंडिया यूनिवर्स और दिया मिर्ज़ा को मिस एशिया पैसिफ़िक के टाइटिल दिए गए। उस साल हम तीनों ने अपने-अपने इंटरऐश्नल कंपीटीशन भी जीते, इंडिया की हिस्ट्री में ऐसा ये सिर्फ एक ही बार हुआ है।
सबसे पहली प्रॉब्लम थी मुंबई में मेरे रहने के लिए एक सेफ जगह खोजना। वो होने पर, मॉम कुछ वक़्त के लिए बरेली लौटना चाहती थीं। जिस पूरे महीने वो मेरे साथ मुंबई में थीं डैड ही उनके सारे पेशेंट्स को संभाल रहे थे, लेकिन वो बस थोड़े वक़्त के लिए किया गया इंतज़ाम था। लेकिन अब लंबा सोचना था, क्योंकि मुझे नवंबर तक वहीं रहना था, उसके बाद मुझे लंदन जाना था मिस वर्ल्ड के लिए। इसका मतलब था मैं करीब एक साल तक घर से दूर रहने वाली थी और मॉम भी कई बार महीनों तक मेरे साथ रहने वाली थीं। सब चेंजिज़ में एक यह भी था कि मॉम की जगह हॉस्पिटल में ड्यूटी के लिए मेरे पैरेंट्स को एक नया डॉक्टर रखना पड़ा था। शुक्र है, नानी तब भी हमारे साथ थीं और सिड का ख़्याल रख रही थीं। वो अब ग्यारह साल का था। लगभग दस साल तक हमारे घर में एक मज़बूत सहारा रही नानी के बिना हम क्या करते? हमें बड़ा करने में, घर के कामों को देखने में और हम कैसे इंसान बने, इसमें उनका बड़ा हाथ था।
मॉम ने जल्दी ही मेरे लिए सांताक्रूज़ में एक कमरा ढूँढ़ लिया। मुझे उस कमरे में अकेले रहना था लेकिन फिर एक लड़की, तमन्ना शर्मा आई, उसको भी उसी कमरे में अकेले रहना था। हमें पता चला कि मकान मालिक ने हम दोनों को दुगुना किराया लेने के चक्कर में झूठ बोला था। हम ने उसके प्लान को ख़राब किया और ये तय किया कि हम कमरा शेयर कर लेंगे और किराया आधा-आधा बाँट लेंगे। एक बेड, एक अलमारी, दो शेल्व्ज़, एक ड्रेसिंग टेबल और एक खिड़की। बस इतना ही था। पर हम दोनों ने इस में गुज़ारा किया और तमन्ना मेरी बेस्ट फ्रेंड बन गई। अठारह साल बाद वो मेरी शादी में मेरी मेड ऑफ़ ऑनर भी बनी।
पुस्तक अंश : अभी बाकी है सफ़र . . .
लेखक : प्रियंका चोपड़ा जोनस
विधा –कथेतर
प्रकाशक : पेंगुइन स्वदेश