प्रवीण कुमार झा हरफ़नमौला लेखक हैं। उनकी नई किताब ‘स्कोर क्या हुआ है?’ पढ़ते हुए इस बात पर ध्यान गया। वे कई साल से इस किताब पर काम कर रहे थे और यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं है कि हिन्दी में यह अपने ढंग की पहली किताब है। फ़िलहाल आप वाणी प्रकाशन से प्रकाशित इस किताब का अंश पढ़िए-
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खेल भी एक कला है। संगीत–नृत्य की तरह। जैसे नृत्य की मुद्रायें होती है, वैसे ही खेल में भी भिन्न–भिन्न मुद्राएँ होती है। बल्ले से गेंद के टकराने से संगीत की उत्पत्ति होती है, जैसे सितार का कोई तार छेड़ा गया हो। यह बातें बेतुकी लग सकती है, लेकिन खेल के शौक़ीन के लिए यह आनंद की अनुभूति है। सी एल आर जेम्ज़ ने अपनी पुस्तक ‘बीआंड द बाउंड्री’ में एक अध्याय इस कला पर लिखा है, जबकि डॉन ब्रैडमैन ने ‘आर्ट ओफ़ क्रिकेट’ पर किताब ही लिख दी। नेविल कार्डस ने लिखा, “हम क्रिकेट खिलाड़ियों की कला को एक गायक या वादक से कम क्यों आंकते हैं?”
मैंने हाल में ट्विटर पर एक तस्वीर देखी जिसमें बैरी रिचर्ड्ज़ अपना और डेविड वॉर्नर का बल्ला लेकर खड़े थे। उनका बल्ला जहां एक पतला लकड़ी का पटरा लग रहा था, डेविड वॉर्नर का सवा किलो का ग्रे निकल्ज़ का बल्ला तो किसी युद्ध का हथियार लग रहा था। एक साँस में मैं यहाँ कलात्मक वस्तु को युद्ध का हथियार कह गया, लेकिन यहाँ आशय खेल के यंत्र और शॉट में बदलाव से है। कला तो क़ायम ही है। मैं कुछ मिसाल पेश करता हूँ।
क्रिकेट की कला में कई शॉट आए–गए, लेकिन एक कायदे से लगाए ‘कट’ का जवाब नहीं। गेंद की ऊँचाई में बल्ले को लाकर गेंद को हवा में जैसे कतर देना, स्लाइस कर देना। कट अगर ढंग से लगे तो वह गेंद की ऊँचाई में ही गोली की गति से बाउंड्री तक जाती है, न एक इंच ऊपर, न एक इंच नीचे। हाथ और आँखों के संतुलन का इससे बेहतर उदाहरण नहीं, ख़ास कर अगर पर्थ, जमैका या डर्बन जैसी तेज पिच हो; गेंद शॉर्ट हो और ऑफ़–स्टंप के बाहर जा रही हो। जब टेस्ट–मैच की लोकप्रियता घटने लगी, तो अच्छे ‘स्क्वायर–कट’ भी दिखने कम हो गए। कभी गुंडप्पा विश्वनाथ को इसका बादशाह कहा जाता था। मैं उनके मैच के पुराने रिकॉर्डिंग देख रहा था। कदमों का इस्तेमाल और शरीर का संतुलन ऐसा कि आपने हाथ में कोई भी डंडा लेकर कॉपी करने को मजबूर हो जाएँ। हमारे समय में बढ़िया टाइमिंग से ‘स्क्वायर–कट’ लगाने वाले लोगों में एलास्टैयर कुक, कुमार संगक्कारा और स्टीफ़न फ्लेमिंग हुए। भारतीय खिलाड़ियों में रोहित शर्मा और विराट कोहली के स्क्वेर कट खूब दिखते हैं।
गुंडप्पा विश्वनाथ का लगाया ‘कट’ दरअसल ‘लेट कट’ कहा जाता है। इसकी खोज रंजीतसिंहजी ने की थी। कदमों को पीछे बैक–फुट पर ले जाकर गेंद को आने देना, और फिर हल्का घुटने को मोड़ते ख़ूबसूरती से स्लाइस करना। विश्वनाथ की यह तकनीक वेस्ट–इंडीज़ के पेस बैटरी की वजह से बनी होगी। ऐंडी रॉबर्ट्स जैसे गेंदबाजों की गेंद उछाल लिए और काफ़ी तेज आती थी, जिसे कदम पीछे कर खेलना ही मुमकिन होता। इस ‘लेट कट’ के हमारे समय में बादशाह हुए– ब्रायन लारा। उनकी तो ख़ैर ट्रेनिंग ही वेस्ट–इंडीज़ की पिच पर हुयी।
एक और ‘कट शॉट’ की खोज का सेहरा भारतीयों पर बाँधा जा सकता है। शोएब अख़्तर की तेज और ऊँची बाउंस लिए गेंद पर सचिन तेंदुलकर के ‘अपर कट’ में छक्के क्रिकेट प्रेमियों की स्मृति में होंगे। पर्थ के मैदान में 2007 में ब्रेट ली की बाउन्सर पर लगाया तेंदुलकर का अपर कट एक आदर्श उदाहरण है। सहवाग ने भी हू–ब–हू यही शॉट खुद में ढाल लिया। इनके कद कम होने की वजह से कई बार पीठ पीछे झुका कर गेंद पर नजर बनाए, बल्ले को ऊपर ले जाकर ऐसे कट लगाने पड़ते। इन दोनों ने इस शॉट का ईजाद सम्भवतः दक्षिण अफ़्रीका के मखाया नतिनी सरीखों को झेलते हुए किया। फिर तो यह शुरु के पंद्रह ओवर का ट्रेडमार्क शॉट बनता गया। अब तो हर कोई टी-20 में लगाता नजर आता है।
स्क्वायर कट का अवसान उस दिन होने लगा, जिस दिन जॉन्टी रोड्स जैसे फील्डर आ गए। ‘प्वाइंट’ या ‘बैकवार्ड प्वाइंट’ पहले भी होते थे, लेकिन कैच पकड़ना ‘स्लिप’ का काम था। अधिक से अधिक दौड़ भाग थी तो मिड–विकेट से दौड़ते हुए हवा में गेंद को गिरते हुए पकड़ना। जैसे ‘83 में विवियन रिचर्ड्स को कपिल देव ने पकड़ा। गोली की गति से जाती स्क्वायर–कट को छूने की हिमाक़त कम ही लोग करते।
भारतीय उपमहाद्वीप को क्षेत्ररक्षण तो यूँ भी बदनाम था। हमें स्मरण है कि कैसे मिड–ऑन फ़ील्डर से गेंद निकल जाती, वह हाथ उठा कर लोंग–ऑन फ़ील्डर को इशारा करते। वह अपनी जगह से जब तक हिलते, गेंद सीमा–रेखा पार कर जाती। दिलीप सरदेसाई का एक क़िस्सा है कि वह गेंद के पीछे दौड़े जा रहे थे, और उधर बल्लेबाज़ पाँचवा रन दौड़ रहे थे। उन्होंने गेंद पैर से मार कर सीमा–रेखा पार करा दी। चौका दे दिया गया, और दौड़ कर लिए गए पाँचवे रन की गिनती नहीं हुयी। साठ–सत्तर के दशक में डाइव मारने का कंसेप्ट ही नहीं था। इसकी वजह यह भी थी, कि सफ़ेद यूनफ़ॉर्म होती और लॉंड्री के पैसे बोर्ड की तरफ़ से नहीं मिलते।
ऐसा नहीं कि अच्छे क्षेत्ररक्षक नहीं थे। एकनाथ सोलकर और रमन लाम्बा ने क्रिकेट के सबसे ख़तरनाक स्थान ‘फ़ॉर्वर्ड शॉर्ट लेग’ पर फ़ील्डिंग की। बिल लाउरी का तो सोलकर ने एक बार ऐसा कैच लपका कि उन्होंने अपना बल्ला ही उन्हें तोहफ़े के रूप में दे दिया। वहीं रमन लांबा की इसी स्थान पर बिना हेलमेट के फ़ील्डिंग करते हुए गेंद से चोट लगी और मृत्यु हो गयी।अज़हर के कैच पकड़ने की तकनीक जादुई थी कि गेंद उनके हाथ में ही खो जाती, और वह निर्विकार मुँह सिकोड़े खड़े होते। बाद में वह भी ‘स्लिप’ में चले गए। अजय जडेजा गेंद चुराने के उस्ताद थे। रोशन महानामा बेहतरीन क्षेत्ररक्षक थे। गस लोगी इकलौते ऐसे फील्डर थे, जिन्हें पहली बार क्षेत्ररक्षण के लिए मैन–ऑफ–द–मैच मिला। उनके बाद जोन्टी रोड्स को यह मौका मिला।
मुझे ‘92 का वह विश्व–कप याद आता है, जब नयी–नयी अफ्रीका की टीम आयी थी। इंजमाम–उल–हक ने रन लेने के लिए दौड़ना शुरु किया, उधर जॉन्टी ने गेंद लेकर बैकवार्ड प्वाइंट से दौड़ना शुरु किया। थ्रो नहीं किया, चीते की गति से दौड़ने लगे और लंबी डाइव मार कर सशरीर स्टंप के ऊपर कूद गए। तीनों स्टंप को चित कर लेटे जॉन्टी और अभी भी क्रीज से दूर इंजमाम। यह अविश्वसनीय रन–आउट था। उसके बाद तो जॉन्टी के अनेक कारनामे दिखे। हेडन के तेज पुल को उछल कर एक हाथ से लपक लेना और न जाने कितने रन बचाना। उनकी जगह बाद में हर्शेल गिब्स ने ली।
भारत में भी क्षेत्ररक्षकों की बरसात आई, जब कैफ और युवराज अदल–बदल कर प्वाइंट पर आए। उनके साथ ही सुरेश रैना, जिन्हें स्वयं जोन्टी ने श्रेष्ठ फील्डर कहा। अब तो खैर भारतीय कप्तान विराट कोहली और रविंद्र जडेजा जैसे तेज–तर्रार फील्डर हैं। इन खिलाड़ियों ने ही स्क्वायर–कट और कवर–ड्राइव को मार डाला कि लोग स्कूप, रिवर्स–स्वीप, स्विच, और हेलीकॉप्टर सरीखे अजीबोगरीब शॉट लगाने लगे।
कट में जटिलता है, लेकिन सबसे कठिन कार्य है सरल होना। क्रिकेट का सबसे मुश्किल ड्राइव है– स्ट्रेट ड्राइव। क्रिकेट इतिहास पलट कर देखें, पुराने मैच ढूँढ कर देख लें, तो दशकों तक एक पक्का स्ट्रेट ड्राइव खेलने वाला नहीं मिलेगा। यह शॉट लगता ही बेवक़ूफ़ाना है कि गेंदबाज ने गेंद फेंकी, और आपने गेंद की लाइन में आकर उसे ही लौटा दी। लेकिन, अगर यह ड्राइव बिल्कुल मास्टर की तरह लगायी जाए, तो गेंदबाज का मनोबल चूर–चूर कर देता है। एक तेज गेंदबाज लंबी रन–अप लिए दौड़ता हुआ आया, एक खूबसूरत ‘गुड–लेंथ’ डाली, और बल्लेबाज़ ने एक कदम आगे बढ़ा कर प्यार से गेंद को बल्ले पर लिया; गेंदबाज ने अपने बगल से सीमा–रेखा तक गेंद को जाते देखा। सभी खिलाड़ी असहाय हैं। अगर सचिन तेंदुलकर के बुरे सपने गेंदबाजों को आने शुरू हुए, उसमें जितने उनके लेग–साइड में लगाए छक्के हैं, उससे कहीं अधिक उनके ‘स्ट्रैट–ड्राइव’ हैं। एक सौम्य बल्लेबाज का बल्ला गेंदबाज के चेहरे पर यूँ घूरता है कि वह डर जाता है। ‘स्ट्रेट ड्राइव’ से बड़ी बेइज्जती कोई नहीं।
सुनील गावस्कर ने एक बार कहा, “सचिन का स्ट्रेट ड्राइव इस कदर दोषरहित है कि उसके बल्ले पर लिखे हर अक्षर को गेंदबाज पढ़ सकता है।”
दक्षिण अफ्रीका के कैलिस, न्यूज़ीलैंड के स्टीफन फ्लेमिंग, श्रीलंका के महेला जयवर्द्धने, और भारत के राहुल द्रविड़ भी अच्छी स्ट्रेट ड्राइव लगाते रहे। इन खिलाड़ियों के नाम से ही स्पष्ट है कि बहुत ही सौम्य शॉट है। धीर–गंभीर। योग। यह ड्राइव गेंदबाज़ का ‘कोल्ड–ब्लडेड मर्डर’ है।