पिछले सप्ताह कवि-आलोचक, ‘समास’ जैसी कल्पनाशील पत्रिका के संपादक उदयन वाजपेयी का लेख नई सरकार की संस्कृति नीति को लेकर ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित हुआ था, जिसे हमने जानकी पुल पर भी लगाया था. इस सप्ताह उस लेख पर टिप्पणी करते हुए प्रखर युवा आलोचक, कथाकार संजीव कुमार का लेख ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित हुआ है. आप भी पढ़ें- जानकी पुल.
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उदयन वाजपेयी का लेख ‘शायद कुछ नया होने वाला है’ पढने से पहले तक इपंले उन्हें एक ख़ास काट का, पर समझदार विचारक मानता था। लेख ने इस विश्वास की नींव हिला दी।
भाजपा के केंद्र में प्रतिष्ठित होने से एक नयी उम्मीद का जगना अपने-आप में कोई ऐसी बात नहीं जिससे किसी की समझदारी पर से विश्वास उठ जाए। लगातार बदतर होते हालात के बीच आदमी उम्मीद बांधने के मामले में थोड़ा असावधान हो ही जाता है, ‘डप्टी कलक्टरी’ के सकलदीप बाबू की तरह। पर यहां उम्मीद किस चीज़ की है और उसके लिए तर्क क्या हैं? हैरतअंगेज तरीके से उदयन जी ने सोवियत भूमंडलीकरण नामक एक चीज़ की कल्पना कर ली है जिसका ‘‘हिस्सा बन कर भारत ने अपना बहुत-सा नुकसान किया’’। सोवियत भूमंडलीकरण की कल्पना करना उनके लिए इस वजह से संभव हुआ कि वे भूमंडलीकरण के मायने से ही अनभिज्ञ हैं, या बजिद अनभिज्ञ बने रहना चाहते हैं। तभी तो यह मानते हैं कि कोई ऐसा समय नहीं रहा ‘‘जब भारत भूमंडलीकृत न रहा हो’’। इसके प्रमाण के तौर पर वे ‘‘दुनिया के दूर-दराज इलाकों में शताब्दियों से रह रहे अनेक भारतीय परिवारों’’ की चर्चा करते हैं ‘‘जो उन पराए देशों में व्यापार करने गए थे’’। इपंले को याद है कि कभी हिन्दू कॉलेज के एक शिक्षक ने इसी तरह ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की सूक्ति को भूमंडलीकरण के प्रति प्राचीन भारतीय प्रतिबद्धता के प्रमाण के तौर पर पेश किया था | शब्दों के तकनीकी अर्थ की जगह उनका शाब्दिक अर्थ लगाने का यह हुनर साहित्यकारों के लिए ही संभव है। इसका सबसे बड़ा फ़ायदा यह होता है कि शब्द अपना स्वीकृत अर्थ त्याग कर अपने ‘संकेतित’ से पूरी तरह छिटक जाता है और उसके साथ जुड़ी हुई सारी आलोचना-प्रत्यालोचनाएं अर्थहीनता में गर्क हो जाती हैं। यहां इसका अतिरिक्त लाभ यह मिला कि उदयन जी सोवियत भूमंडलीकरण की कल्पना कर पाए और भारत के बौद्धिकों के एक हिस्से पर सोवियत संघ के प्रभाव तथा बीच के समय में भारत-सोवियत संघ के अच्छे रिश्तों की बिना पर भारत को उस सोवियत भूमंडलीकरण का हिस्सा साबित कर पाए। बताने की ज़रूरत नहीं कि भारत वैश्विक राजनीति में कभी सोवियत ब्लॉक का हिस्सा नहीं रहा और लंबे अर्से तक इसकी नीति तोल-मोल करते हुए कभी अमरीकी खेमे तो कभी सोवियत खेमे से फ़ायदा उठाने की रही। बेशक, सोवियत खेमे से फ़ायदे ज़्यादा मिले; क्या इसी को सोवियत भूमंडलीकरण कहा जा सकता है? आश्चर्य है कि भूमंडलीकरण की इसी समझ के आधार पर उदयन जी अर्थशास्त्रियों तक को सलाह दे देते हैं कि वे इस दृष्टि से स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद के चार-पांच दशकों का अध्ययन करें। ऐसा अध्ययन अगर अभी तक न हुआ हो तो उनके मशवरे के बाद अवश्य होगा, पर दिक्कत यह है कि राजनीतिक अर्थशास्त्र की तर्ज पर साहित्यिक अर्थशास्त्र की शाखा अभी बन नहीं पाई है।
उदयन जी के अनुसार आधुनिक (शायद वे ‘नवउदारवादी’ या ‘समकालीन’ कहना चाहते हैं) भूमंडलीकरण सोवियत भूमंडलीकरण की तुलना में, जिसका हिस्सा भारत भी रहा, इस दृष्टि से बेहतर है कि इसमें ‘‘कम-से-कम कला, साहित्य और संस्कृति की शक्तियां इसके भीतर रह कर इसे प्रश्नांकित करतीं और इसकी इकहरापन आरोपित करने की प्रवृत्ति के विरुद्ध उपाय करती हैं। सोवियत भूमंडलीकरण ने इन शक्तियों को नष्ट कर दिया।’’ फिर वे उम्मीद के स्वर में कहते हैं कि नई सरकार के आने से ‘‘अगर हमारे राजनीतिक और बौद्धिक विमर्श और दृष्टिकोणों में खुलापन आ सका, तो यह स्वागतयोग्य होगा’’। पूरे अंश को पढ़ कर यही ध्वनि निकलती है कि प्रश्नांकित करनेवाली शक्तियों को नष्ट करने की तथाकथित सोवियत भूमंडलीकरण की प्रवृत्ति उन्हें भारत में भी नजर आती है और इससे मुक्ति को वे एक ऐसा अवशिष्ट कार्यभार मानते हैं जिसे शायद नई सरकार पूरा कर पाए। मोदी सरकार के समर्थन में ऐसी दूरारूढ़ युक्ति जुटाने के लिए उदयन जी साधुवाद के पात्र हैं। भले ही यह समझने में आपके छक्के छूट जाएं कि आज के हमारे राजनीतिक और बौद्धिक विमर्श में अगर खुलापन नहीं है तो इसका उस कथित सोवियत भूमंडलीकरण से क्या संबंध है!
लेख में पीछे की ओर जाएं तो समझ में आता है कि लेखक ने यह संबंध-स्थापन किस आधार पर किया है। उदयन जी ने वहां भाजपा सरकार के आने के बाद ‘‘राजनीतिक विमर्श की भाषा’’ के बदलने और उसमें ‘‘तथाकथित कम्युनिस्टों और अंग्रेज़ीदां बौद्धिकों’’ द्वारा लगाए गए ‘‘अदृश्य सेंसर’’ के झर जाने की उम्मीद जाहिर की है। यानी वामपंथी और अंग्रेजीदां बौद्धिकों के पास इतनी ताकत रही है कि वे अन्य विचारों – ‘‘भारत की अपनी अंतःचेतना और अंतःकरण’’ से जुड़े विचारों – को प्रतिबंधित करते आए हैं। क्या यह ताकत पुलिस-प्रशासन-अदालत-जेलखाने की ताकत है? नहीं। क्योंकि इनकी ताकत होती तो यह सेंसर दृश्यमान होता, अदृश्य नहीं। ऐसे में, जाहिर है, वह विचार की ताकत होगी। तो क्या एक विचार की ताकत से पराजित होकर दूसरे विचार का हाशिए पर चले जाना भी एक ख़ास तरह की सेंसरशिप कहा जाएगा? उदयन जी को पढ़ कर तो ऐसा ही लगता है। ऐसी स्थापना किसी ने इससे पहले दी हो, मुझे याद नहीं आता।
कुछ नया होने की उम्मीद संजोने के पीछे और भी तर्क हैं। उदयन जी को खुशी है कि अभी तक जहां अधिकतर राजनीतिक और बौद्धिक विमर्श में मुसलमान और ईसाई ‘‘दृश्य अल्पसंख्यक’’ रहे हैं और हिंदू ‘‘अदृश्य बहुसंख्यक’’, वहां पहली बार हिंदू भी अन्य समुदायों की तरह ‘‘दृश्य’’ होंगे। इसे वे ‘‘भारत में, कम-से-कम उसके राजनीतिक विमर्श में समता की स्थापना’’ मानते हैं। इससे ‘‘हिंदू समुदायों को सिर्फ जातियों में संदर्भित किया’’ जाना बंद होगा। यह तर्क हिंदुओं की उपेक्षा और मुस्लिम तुष्टिकरण वाले हिंदुत्ववादी तर्क के मुकाबले अधिक बारीक लगता है, पर है नहीं। शब्दों के इस खेल में, अगर आप गौर करें, जोर हिंदुओं द्वारा एक समुदाय-संप्रदाय के रूप में अपनी आपसी संसक्ति की पहचान करने पर है। इस रूप में संसक्त बहुसंख्या अपने ‘अन्यों’ की भी पहचान करेगी और बहुसंख्यक सांप्रदायिकता पर आधारित एक फासीवादी राज्य की नींव रखी जाएगी। नेहरू ने इस खतरे की ओर बहुत पहले इशारा किया था जब उन्होंने कहा था कि हर तरह की सांप्रदायिकता बुरी है, पर बहुसंख्यक सांप्रदायिकता इसलिए अधिक बुरी है कि उसी के फासीवादी होने का खतरा है।
उदयन वाजपेयी अपनी बात को इस तार्किक निष्पत्ति की ओर नहीं ले जाना चाहते, क्योंकि यह दृश्य-अदृश्य वाली बारीक कताई का भेद खोल देगी, इसलिए राजनीतिक विमर्श में समता की इस स्थापना की बात को वे अचानक इस बात से जोड़ देते हैं कि ‘‘अब विमर्श और सार्वजनिक जीवन के स्तर पर उन सब परिपाटियों पर शर्मिंदा होने की, उन्हें अवरुद्ध करने की चेष्टाएं कम हो जाएंगी जिन्हें हिंदू परिपाटियां कह कर लंबे सयम से लांछित और दरकिनार किया जाता रहा हैं’’। इस देश में, जहां हर पाठशाला में सरस्वती वंदना गायी जाती है, सभी सार्वजनिक भवनों और पुलों और बांधों और संयंत्रों के निर्माण से पहले गणेश पूजन, शिला पूजन, हवन और नारियल तोड़ने के विधिविधान होते हैं, जहां इंदिरा गांधी मचान पर बैठे देवराहा बाबा के लटकते पैरों से अपना मस्तक छुला कर आशीर्वाद लेती हैं, जहां हर दूसरा नेता संसद को लोकतंत्र का ‘मंदिर’ ही कहता है, मस्जिद या चर्च या मठ नहीं, वहां उदयन जी की इस बात को सराहने के लिए कितनी चीजों की ओर से आंख-कान मूंदना होगा, अंदाजा लगाइए।
आज जब वैचारिक निर्मितियों की बात अकादमिक जगत में बहुत आम है और ‘स्वाभाविक’ मान ली गयी चीजें लगातार सवालों के घेरे में हैं, उदयन जी बिना किसी समस्या के जिस तरह ‘‘भारत की अपनी अंतःचेतना और अंतःकरण’’ की बात कर पाते हैं, वह ईर्ष्या का विषय है। ईर्ष्या जगाने वाले और भी नुक्ते हैं। यह बात कि समुद्र पार जाने की मनाही उन्हीं समुदायों को थी जो ज्ञान और स्मृति के काम में लगे थे, ‘‘क्योंकि इन लोगों को देश से बाहर जाने देने का अर्थ देश के संचित ज्ञान को देश से बाहर जाने देना था’’, वे बड़ी आसानी से कह जाते हैं और यह सवाल उन्हें परेशान नहीं करता कि जन्म-आधारित समुदायों, अर्थात जातियों के साथ काम को नत्थी करने की यह परंपरा, जिसके चलते ज्ञान और स्मृति के काम कुछ ख़ास लोेग ही करते और कर सकते थे, अगर इस देश में थी, तो इस पर शर्मिंदा क्यों न हुआ जाए?
अपने सोच को ऐसी किसी समस्या से मुक्त रखना, निस्संदेह, नयी सरकार का समर्थन करने की शर्त है। उदयन जी उसे ही पूरा कर रहे हैं।
लेखक संपर्क- मो. 9818577833. ईमेल sanjusanjeev67@gmail.com