आज सैयद एस. तौहीद ने कुछ गुमनाम फ़िल्मी सितारों पर लिखा है. आपको कुछ नाम याद आयें तो आप भी इनमें नाम जोड़ सकते हैं- मॉडरेटर
=======================
वक्त का न्याय सबसे महान होता है। हमारी फिल्म इंडस्ट्री ने किसी को आसमान की बुलंदिया नवाज कीं तो किसी को फकीर बना दिया। सच ही कहा गया कि यह एक मायानगरी है।जब कभी हमने यह विचार किया कि यहां के सितारे बडे तकदीर वाले होते हैं, अक्सर गलत साबित कर दिए गए। हमने देखा कि यहां किस्मत के मारों की कमी नहीं। एक से बढकर एक मामला सामने आएगा कि कभी लोगों के दिलों पर राज करने वाले सितारे युं ही बेपरवाह रुकसत हो लिए। भूले बिसरे लोगों की विरासत को जिन्दा रखने में काफी हद तक नाकाम रहा है बालीवुड। कोई सितारा चुपचाप गुजर जाए तो जनाजे में लोग भी नहीं मिलते। आप परवीन बाबी का ही उदाहरण लें जिनका जाना युं हुआ मानो वो कभी थी ही नहीं। गुजरे जमाने की इस मशहूर अदाकारा की अंतिम संस्कार की खबर भी लोगों को काफी विलम्ब से मिली थी। बहुतों के लिए यह जिंदगी का आखिरी मोड हिंसक रहा। आप सयीदा खान की निर्मम हत्या-वसंत देसाई की तकलीफदेह अंत- शंकर दास गुप्ता की दुखदायक निधन- संगीतकार माधोलाल के दर्दनाक अंतिम मोड को याद करें। फिर गुरु दत्त-बुलो रानी को भी ना भूलें कि इन लोगों खुदकुशी में जान दी। आप गरीबी-भिकमंगी में आखिरी वक्त गुजारने वालों को भी याद करें। मास्टर निसार को याद करें जिनकी मकबूलियत जमाना देख चुका है। याद करें वो दौर जब निसार साहेब के दीवानों को रास्ता देने के लिए बाम्बे के गवर्नर को अपनी गाडी रोक देनी होती थी। निसार कमाथीपुरा के सलम्स में गरीबी में सिर से पांव डूबे मर गए। कभी दीवानों की धडकन रही मीना शोरए को बेटी की शादी निभाने वास्ते लोगों से भीक मांगने पर मजबूर होना पडा। कहना जरूरी नहीं कि मीना भी बेहद गरीबी में जीने को मजबूर थी। बीते जमाने की नामचीन गायिका मुबारक बेगम जावेद अख्तर की मदद से किसी तरह पेंशन के सहारे चल रही हैं। उनके पास अपनी बीमार बेटी का इलाज कराने वास्ते रूपया नहीं बचता था ।
किसी जमाने के मशहूर अभिनेता वास्ती को बाम्बे के ट्रेफिक सिग्नलों पर भीख मांगने की बात कम दुखदायक नहीं थी। गायिका रतनबाई को कुछ ऐसी जिंदगी का सामना था। गुजारा करने के लिए वो दरगाहों पर भीख मांग कर गुजारा करके चल बसीं। आप याद करें कि भारत भूषण-खान मस्ताना-भगवान दादा सभी का फिल्म के बाद का सफर बेहद गरीबी में गुजरा था। बदनसीब कलाकारों की तलाश में आप निकलेंगे तो बहुत सारी तकलीफदेह कहानियां मिलेंगी। लेकिन याद रखें कि यह काम हमेशा तो नहीं लेकिन रह रहकर जरूर उदासीन करता रहेगा क्योंकि भूले बिसरे सितारों के बारे में जानकारी लेना आसान काम नहीं। यह इसलिए भी क्योंकि ज्यादातर रिकार्डस केवल बडे लोगों के वास्ते ही खोले जाते हैं। इन हालात में किसी रिश्तेदार की मदद से इन सितारों पर जानकारी लेना एक आसान रास्ता नजर आता है। लेकिन गौर करें कि उम्र के साथ सितारों की याद उनको धोखा देने लगती है।
गुजरे जमाने के नामी चरित्र अभिनेता परशुराम लक्षमण के नाम से आप वाकिफ होंगे। रंजीत स्टुडियो में एक्सट्रा की हैसियत से फिल्मी सफए शुरू करने वाले परशुराम शुरू मे यहां टिक नहीं पाए। पिता ने यह सोंच कर यहां डाला कि पुत्र के लिए यह ठीक काम होगा। लेकिन फिलवक्त ऐसा नहीं हुआ। तकदीर का करिश्मा देखें कि गायन में सक्षम बालक परशुराम को वी शांताराम ने किसी रोज सुना और काफी पसंद किया । शांताराम उसी वक्त उस बालक को प्रभात स्टुडियो ले आए। सिनेमा में एक उम्दा पारी परशुराम के इंतजार में थी। प्रभात स्टुडियो की फिल्म ‘दुनिया न माने’ में एक चरित्र किरदार से अभिनय पारी की सकारात्मक शुरुआत हुई। परशुराम का यह किरदार भजन गाने वाले युवा का था। हम जानते हैं कि उस जमाने में अभिनय में आने के लिए गायक होना जरूरी था। उनकी गायिकी व अभिनय को प्रभात की ओर से खूब सराहना मिली। इसके दम पर उन्हें प्रभात की कुछ और द्विभाषी फिल्मों में अवसर मिला। परशुराम को शांताराम का सहयोग मिलता रहा। उनके विवाह में शांताराम ने खूब मदद की। फिर जब प्रभात का साथ छूटा तो एक बार फिर शांताराम की कंपनी ‘राजकमल कलामंदिर’ में खुशकिस्मती से काम मिला। राजकमल की फिल्म ‘शकुंतला’ में मुनी के किरदार में जोहराबाई अंबालेवाली एवं जयश्री के साथ युग्ल गीत गाए थे। परिवार हो जाने से उनकी जरूरतें अब पहले से ज्यादा थी। आमदनी की खातिर राजकमल से बाहर जाकर भी काम किया। अभिनेता भारत भूषण की होम प्रोडक्शन ‘बसंत बहार’ में दरबारी गायक का किरदार उन्हें काफी शोहरत अता की। फिल्म का गीत ‘केतकी गुलाब’ परशुराम पर ही फिल्माया गया था। पचास व साठ दशक में चरित्र किरदारों के साथ काफी बिजी रहने वाले परशुराम का बुरा वक्त दस्तक दे रहा था। एक दुर्घटना में पांव टूट गया। शारीरिक रूप से मजबूर हो चुके परशुराम अब ना के बराबर आफर आने लगे। इस बदकिस्मती से जूझते हुए उन्हें पीने की भारी लत पड गई। पीने की लत की वजह से परिवार ने मझधार में अकेला छोड दिया। अब उनकी फिक्र करने वाला शायद कोई ना बाकी था। गुजारा करने वास्ते बाम्बे के ट्रेफिक सिग्नल पर भीख मांगने का सबसे खराब समय सामने था।
पहली ही फिल्म से अभिनय क्षेत्र में बवंडर मचाने वाले असीमित संभावनाओं के अभिनेता निर्मल पांडे को वक्त लंबे समय तक याद रखेगा। पहली फिल्म में ही असीमित काबलियत बखूबी दिखा दी थी। निर्मल के हुनर को समझने के लिए हमें बैंडिट क्वीन, इस रात की सुबह नहीं, दायरा तथा ट्रेन टु पाकिस्तान जैसी महान फिल्मों की लौटना होगा। चंबल घाटी की दस्यु रानी फूलन देवी के जीवन से प्रभावित ‘बैंडिट क्वीन’ को निर्मल के अभिनय सैंपल तौर पर देखें तो उनमें विश्व स्तर पर पहचान कायम करने की पूरी काबलियत दिखेगी। अफसोस जोकि हो न सका,एक बहुत बडी संभावना वाले अभिनेता को मौत ने असमय ही पास बुला लिया। शेखर जी की फिल्म के यादगार किरदार विक्रम मल्लाह (निर्मल पांडे) के संपर्क में आकर समझ पाएंगे कि पुरूष जाति की सताई फूलन देवी (सीमा बिश्वास) के समक्ष वही टिक सकते थे । फिल्म के हरेक फ्रेम में निर्मल की काबलियत बार बार देखने लायक है । विक्रम मल्लाह का किरदार निर्मल के उच्चतम स्तर का बडा दस्तावेज है। बेशक ‘विक्रम मल्लाह’ का किरदार निर्मल की महान भूमिकाओं में एक थी। सुधीर मिश्र की ‘इस रात की सुबह नही’ आमोल पालेकर की ‘दायरा’ ,पामेला रुक्स की ‘ट्रेन टु पाकिस्तान’ तथा एन चंद्रा की ‘शिकारी’ के किरदारों को भी यहां याद किया जा सकता है । दायरा के लिए फ्रांस के फिल्म समारोह में ‘सर्वश्रेष्ठ नायिका’ का पुरस्कार मिला। किसी भी अभिनेता के लिए ऐसा कर पाना एक दुर्लभ कीर्तिमान बना रहेगा। तमाम जरुरी काबलियत होने पर भी महान संभावनाओं वाले निर्मल पांडे हिंदी फिल्मों में दुखद रूप से सीमित किरदारों तक टाइप्ड कर दिए गए। सिनेमा के नजरिए से यह बडी तकलीफदेह हालात रहे जब निर्मल को केवल बेकार से किरदार आफर हो रहे थे।
हिंदी सिनेमा के सुनहरे दौर की काबिल शख्सियत दान सिंह का नाम भी याद आता है । फिल्म संगीत के सुनहरे जमाने में बहुत से लोगों कम काम किया,लेकिन बेहतरीन काम किया। कम काम की वजह से इनका योगदान लोग भूल गए हैं । संगीतकार दान सिंह का नाम इसमें शामिल किया जा सकता है । दान सिंह का नाम दरअसल फिल्म ‘माई लव’ के हिट गाने की याद दिलाता है । हिंदी फिल्म संगीत के सुनहरे समय से ताल्लुक रखने वाले दान सिंह के लिए यह फिल्म महत्त्वपूर्ण पडाव थी। लेकिन इस महान मोड के बाद भी दान जी को फिल्मों में ना के बराबर काम मिला। बेहतरीन संगीत के मुस्तकबिल के लिए यह एक नागवार बात थी।
‘वो तेरे प्यार का ग़म एक बहाना था सनम
अपनी किस्मत ही कुछ ऐसी थी कि दिल टूट गया’
संगीतकार सरदार मलिक को भी काबलियत के हिसाब जगह नहीं मिल सकी। मलिक जी का शुमार बडे संगीतकारों में कभी नहीं किया गया। उनका ताल्लुक हिंदी सिने संगीत के बेहतरीन दौर से रहा,लेकिन मकबूल नामों में यह नाम ना जाने क्युं नहीं लिया गया ? बात सामान्य समझ से परे है । मलिक जी की काबलियत का नजरअंदाज होना संगीत की मकबूलियत के लिए नुकसानदेह बात थी । उस्ताद अलाउददीन खान से संगीत की तालीम लेकर फिल्मों में आए सरदार मलिक ने फन की शिददत से इबादत की । शुरू में गायन व धुन बनाने का आफर मिलता रहा। धुनों से जिंदगियों को संवारने का बडा लेकर चले। कुछ खास शुरूआत न मिलने की कमी ‘लैला मजनूं’ ने पूरी की थी। हिंदी सिनेमा में पचास का दशक सरदार मलिक के आमद का दौर था। इसमें उनकी तरफ से ‘अए गम-ए-दिल क्या करूं’ तथा ‘मैं गरीबों का दिल हूं’ की यादगार धुनें मिली। साठ का दशक मलिक जी के जीवन में और भी उम्मीद की रोशनी दे गया । इस दरम्यान में ‘सारंगा’ एक खास पेशकश रही । बेशक फिल्म का संगीत उसे अमरत्व प्रदान करता है। मलिक जी का जादू ‘सारंगा तेरी याद में’ में खास तौर पर काफी संजीदा था। सारंगा का यह गाना सदाबहार गानों में बडा ऊंचा मुकाम रखता है। सरदार मलिक की काबलियत को चंदा के देश में रहती है एक रानी- सुन चांद मेरी यह दास्तान’ गानों में भी महसूस किया जा सकता है। मलिक महान संभावना के संगीतकार थे। फिल्म संगीत में मकबूल मुकाम हासिल करने की क़ुव्वत थी उनके पास । अफसोस, ऐसा हो न सका।
नोट: अधूरी लिस्ट में पाठक और भी नाम जोड सकते हैं।
सैयद एस.तौहीद
———————