रवि बुले के लेखन को मैं गंभीरता से लेता रहा हूँ. हँसते हँसते रुला देने वाली कहानियों का लेखक. पॉपुलर और सीरियस को फेंटने वाला लेखक. लेकिन इधर उन्होंने ‘दलाल की बीवी’ नामक उपन्यास में ‘मंदी के दिनों में लव सेक्स और धोखे की कहानी’ क्या लिखी कि सवालों के घेरे में आ गए. यह साहित्य की कौन सी परंपरा है? क्या लेखक ने सीरियस और पॉपुलर को फेंटते फेंटते पॉपुलर के सामने पूरा सरेंडर कर दिया है? क्या यह पतन है? जानकी पुल के सवालों के घेरे में आ गए रवि बुले. पढ़िए उनसे एक रोचक बातचीत. हम सवालों के फेंस लगाते रहे, वे उनके जवाब फेंस तोड़ कर बाहर निकलने को छटपटाते रहे- प्रभात रंजन
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– हिंदी में गंभीर लेखन की एक ही परंपरा मानी जाती है-प्रेमचंद की परंपरा। आप खुद को किस परंपरा का लेखक मानते हैं?
– क्या आपको लगता है कि ‘दलाल की बीवी’ गंभीर लेखन नहीं है? सवाल यह भी है कि क्या साहित्य की कसौटी सिर्फ तथाकथित गंभीरता को ही माना जाना चाहिए? गंभीरता की आपकी परिभाषा क्या है? वैसे बहुत सारे लेखकों को देखें तो उनकी गंभीरता बीमारी की तरह उनकी रचनाओं में दिखती है। प्रेमचंद की परंपरा को मात्र गंभीर कह कर समेट देना मुझे सही नहीं लगता। वह हिंदी के सबसे ‘पापुलर राइटर’ हैं। कोई शक…? वह हिंदी पाठकों के संसार में सबसे ज्यादा ग्राह्य है। जब आप कहते हैं कि प्रेमचंद की परंपरा ही हिंदी साहित्य में गंभीर मानी जाती है तो लगता है कि हमारे साहित्य में लाइन यहीं से शुरू होती है। उनसे पहले कोई हुआ ही नहीं। कबीर, सूर और तुलसी को कहां खड़ा करेंगे? मुझे लगता है कि कोई भी जब रचना करता है तो वह किसी परंपरा में खड़ा होने के लिए नहीं रचता। वह सिर्फ अपनी बात अपने अंदाज में कहता है। फिर वह दौर या परंपरा की किसी कड़ी में जुड़ जाए तो अच्छी बात।
– आपकी ही पंक्ति उधार लेकर कहूं तो ‘कल हमारे बच्चों के पास कैसी कहानियां होंगी?’
-यह सचमुच एक डराने वाला खयाल है। जिस समय और समाज में हम रह रहे हैं वहां अपराध का डर हर पल है। कोई भी कहीं भी शिकार हो सकता है। एक संस्कृति पनप चुकी है जिसमें सब कुछ संदिग्ध है। किसी पर विश्वास नहीं किया जा सकता। ऐसे में रची गई कहानियां कैसी हो सकती हैं? कल की क्या कहें, आज ही बच्चों को सुनाने बताने के लिए हमारे पास कौन सी बहुत सुखद बाते हैं? माता-पिता बहुत सारी बातों से बच्चों को बचा कर रखना चाहते हैं, लेकिन नहीं बचा पाते। बच्चों का आज ही संकटग्रस्त नजर आ रहा है। उपन्यास में एक बिल्ली अपने बच्चों को कहानी सुना रही है कि राजा को जब रानी से प्यार नहीं रहा तो उसे संसार की किसी भी चीज से प्यार नहीं रहा। मगर बच्चों के पास उसी राजा की कहानी है कि उसने रानी से बदला लिया। रानी की हत्या की। रानी को भ्रष्ट करने वालों को अपनी तलवार से मौत के घाट उतारा। बच्चों की कहानियों में वक्त के साथ सेंध लग चुकी है।
– क्या आज साहित्यकार को आदर्शों से दूर हो जाना चाहिए?
-कोई भी रचनाकार चाह कर भी आदर्शों को त्याग कर कुछ नहीं रच सकता। आदर्श कमोबेश रचना की नींव में होते हैं। हां, यह जरूर है कि उस नींव पर तैयार होती हुई रचना का डिजाइन कैसा बनता है। बाहर से वह रचना कैसी दिखाई देती है।
– आपने अपने पहले उपन्यास का शीर्षक इतना साहसी चुना मठाधीशों-आलोचकों से डर नहीं लगता है आपको क्या?
-उपन्यास का शीर्षक मुझे ऐसा चाहिए था जो आकर्षक हो। उसे देख कर सामान्य पाठक का मन किताब पढ़ने का हो। अगर यह आपको साहसी लगता है तो इसके लिए धन्यवाद। यह उपन्यास हर पाठक वर्ग के लिए है। मठाधीशों-आलोचकों से आज तक मेरा सामना नहीं हुआ। वैसे यह जानना रुचिकर होगा कि ‘दलाल’ ‘की’ ‘बीवी’ इन तीन शब्दों में ऐसा कौन सा शब्द है जिससे मठाधीश-आलोचक डर जाएं? आप बताएं कि क्या हिंदी में कुछ भी लिखने के लिए मठाधीशों-आलोचकों की अनुमति जरूरी है?
– अपने उपन्यास को हमारे पाठकों के लिए दो वाक्य में परिभाषित कीजिए प्लीज!
-शीर्षक के साथ एक उपवाक्य भी हैः मंदी के दिनों में लव सेक्स और धोखे की कहानी। इस कहानी के केंद्र में वेश्यावृत्ति के धंधे का एक दलाल और उसकी बार डांसर रह चुकी बीवी है। लेकिन उनसे भी बढ़ कर उनके आस-पास का संसार है, जो पल-पल बदल रहा है।
– कहते हैं मुंबई सपनों का शहर है। लेकिन आपने उपन्यास में जिस मुंबई को दिखाया है वह दुस्स्वप्न का शहर है। यथार्थ के कितने करीब है यह उपन्यास?
-मुंबई वह शहर है जिससे आप एक साथ प्यार और नफरत कर सकते हैं। यह संभवतः देश का एकमात्र शहर से जिसे कवियों, लेखकों और कलाकारों ने अपने-अपने ढंग से नाम दिए। किसी के लिए यह सपनों की नगरी है, किसी के लिए मायानगरी। किसी की नजर में हादसों का शहर है तो किसी के लिए कामयाबी की मंजिल। कोई इसे माशूका मानता है तो कोई मां। मराठी के लोकप्रिय कवि नामदेव ढसाल ने तो मुंबई को अपनी प्रिय रांड बताया है! यह महानगर स्वप्न और दुस्वप्न एक साथ है। उपन्यास में भी आप देखेंगे कि यहां सपने देखने वाली आंखें हैं तो दुस्वप्नों में दर्ज हो गए किरदार भी मौजूद हैं। उपन्यास में फंतासी भी यथार्थ ही है।
– मुझे याद आता है कि मनोहर श्याम जोशी का उपन्यास ‘कुरु कुरु स्वाहा’ में भी एक मुंबई को दिखाया गया है। उसके 35 साल बाद आपका यह उपन्यास आया है। बीच में समंदर में कितने ही ज्वार-भाटे आए। मुंबई के किन बदलावों को आप देख पाते हैं, महसूस करते हैं?
-बदलाव ही जिंदगी का लक्षण है। मुंबई ही एक ऐसा शहर है जिसके पिछले सौ सालों में बदलने का पूरा रिकॉर्ड आपको साहित्य और सिनेमा में मिल जाएगा। समुंदर में कितने ही ज्वार-भाटे आएं हों यह महानगर पूरी जीवंतता के साथ अडिग है। बीते 35 बरसों में मुंबई का आकार-प्रकार तो बदला ही है, यहां की राजनीति और लोग भी बदले हैं। बीते कुछ बरसों में यहां के लोगों में अनुशासन कुछ कम हुआ है और शहर में गंदगी बढ़ी है। यह बढ़ती आबादी का नतीजा है। ग्लैमर की दुनिया का आकर्षण ज्यों का त्यों है, मगर इस दुनिया में मौके अब पहले की तुलना में काफी बढ़ गए हैं। अपराध बढ़ने के बावजूद कई शहरों के मुकाबले यह सुरक्षित है।
– दलाल का रूपक क्या है?
-उपन्यास का दलाल रूप भी है और रूपक भी। आप पाएंगे कि उपन्यास में उसका कोई नाम नहीं है। एक वक्त था जब दलाल बुरा शब्द था। दलाली बुरा शब्द था। अब नहीं है। दलाल आज ‘मिडिलमैन’ है। ‘ब्रोकर’ है। जो हर ठहरी हुई राह में बीच का रास्ता खोज निकालता है। दलाल अब स्मार्ट आदमी है और दलाली कला है। करियर है। राजनीति और प्रशासन से लेकर शिक्षा और अस्पताल तक की व्यवस्था में दलाल पूरी बेशर्मी के साथ दलाली वसूलते हैं। पूरे विश्व में दलाल अब स्थापित और सम्मानित हैं। कहीं भी जाइए आप इससे बच नहीं सकते। असली व्यक्ति अब दलाल ही है, जो चीजों को नियंत्रित करता है। यह गेमचेंजर है। किंगमेकर भी है।
-अपने समय के चाल-चरित्र को देखने-समझने के लिए। अपने आस-पास घट रही कहानियों को अनुभव करने और उनका आनंद लेने के लिए।
‘दलाल की बीवी’ उपन्यास हार्पर कॉलिन्स प्रकाशन से प्रकाशित है.