युवा पत्रकार विनीत उत्पल एक संवेदनशील कवि भी हैं. यकीं न हो तो उनकी कविताएँ पढ़ लीजिए- जानकी पुल.
कुत्ते या आदमी
कुछ लोग कुत्ते बना दिए जाते हैं
कुछ लोग कुत्ते बन जाते हैं
कुछ लोग कुत्ते पैदा होते हैं
कुत्ते बनने और बनाने का जो खेल है
काफी हमदर्दी और दया का है
क्योंकि न तो कुत्ते के पूंछ
सीधे होते हैं और न ही किए जा सकते हैं
आदमी थोड़ी देर पैर या हाथ मोड़कर
सोता है लेकिन थोड़ी देर बाद सीधा कर लेता है
लेकिन कुत्ते की पूंछ हमेशा टेढ़ी ही रहती है
न तो उसे दर्द होता है और न ही सीधा करने की उसकी इच्छा होती है
कुत्ता कुछ सूंघता है, लघुशंका करता है
और फिर वहां से नौ-दो-ग्यारह हो जाता है
लेकिन जो कुत्ते बना दिए जाते हैं
वह सूंघते तो हैं लेकिन करने लगते हैं चुगलखोरी और चमचागिरी
जो कुत्ते बन जाते हैं वे इसे इतर नहीं होते
उनके होते तो हैं दो हाथ व दो पैर
लेकिन दूसरों के जूठे, थूक-खखार व किए हुए उल्टी
चाटने में मजा आता है
हां, और जो लोग जन्मजात कुत्ते होते हैं
वे कुत्तेगिरी से बाहर नहीं निकल सकते
ऑफिस में नौकरी कम, बॉस के तलवे अधिक चाटते हैं
और रात होने पर बन जाते हैं महज एक नैपकीन।
सो रहा है सदियों से
वह सो रहा है सदियों से
ऐसा नहीं कि वह काफी थका हुआ है
ऐसा भी नहीं कि वह रात भर जगा है
ऐसा भी नहीं कि वह चिंता में डूबा है
उसके घर या दफ्तर में कलह भी नहीं हुआ है
वह सो रहा है सदियों से
रातभर करवट बदलने के बाद
राक्षसी भोजन करने से देह में शिथिलता आने पर
धन के लिए झूठ-फरेब करने के बाद
आधी दुनिया पर छींटाकशी करने के बाद
वह सो रहा है सदियों से
क्योंकि उनके मामले में तमाम बातें झूठी हैं
सच को झूठ और झूठ को सच बनाकर पेश करना है आसान
क्योंकि उसे नींद आती है ‘सच का सामने’ करने के दौरान
और उसे नींद आती है कडुवा सच सुनने पर
वह सो रहा है सदियों से
क्योंकि वह पढ़ नहीं पाया
क्योंकि वह ऐसा मुरीद है कि बस ‘जी हां, जी हां’ करने के सिवाय
और तलुवे चाटने से हटकर नहीं कर सकता कोई सवाल
क्योंकि सुन नहीं सकता वह, जो वह है
आस्था पर विश्वास कर सकता लेकिन बहस नहीं
तो समय आ गया है
कुंभकर्णी नींद में सोने वालों को जगाने का
तथ्य व तर्क की कसौटी पर कसने का
अनपढ़ को पढ़ाने का
क्योंकि बेवकूफ ज्ञानी कभी किसी की कुछ नहीं सुन सकते।
मुर्दाघर
अब हड़ताल नहीं होती
दफ्तरों में, फैक्ट्रियों में
अपनी मांगों को लेकर
किसी भी शहर में
अब धरना-प्रदर्शन नहीं होता
मंत्रालयों या विभागों के सामने
किसी मुआवजे को लेकर
किसी भीड़भाड़ वाली सड़क पर
अब झगड़ा-फसाद नहीं होता
चौक-चौराहे या नुक्कड़ पर
अपने अधिकार को लेकर
किसी भी मोहल्ले में
जबकि अब भी मांगें हैं अधूरी
नहीं मिला है लोगों को मुआवजा
अपने अधिकार से बेदखल किए जा रहे हैं लोग
हर तरफ नजर आ रहे हैं मुद्दे ही मुद्दे
स्त्री की मांगें हो रही है सूनी
समाज के तथाकथित सफेदपोश ठेकेदार
निकाल रहे हैं तमाम जनाजे
घुट रही है स्त्रियां, घुट रहे हैं पुरूष
बहरहाल, वह देश, देश नहीं
जहां मांगों को लेकर
मुआवजे को लेकर
अधिकार को लेकर
मुद्दे को लेकर
आवाज नहीं उठती
छायी रहती है खामोशी
वह तो होता है मुर्दाघर।
बदल डालो
बदल डालो उस सभ्यता और संस्कार को
जहाँ मनुष्य मनुष्य का चेहरा देखता
जाति, धर्म, गोत्र के आईने में
वकुटुम्बकम का श्लोक बस रह गया पुराणों के पन्नों में
बदल डालो उस समाज और दुनिया को
जहाँ स्वतंत्रता की बात पुरानी
लोकाचार की बात बेईमानी
छुआछूत, ऊंची-नीच पर रोक सिमटा है संविधानों के पन्नों में
बदल डालो उस सत्ता और प्रतिष्ठानों को
जहाँ पोस्टमार्टम के नाम पर बस होती है खानापूर्ति
मामला दर्ज करने के नाम पर सिमट जाती हैं फाइलें
जाँच के नाम पार मौन हो जाती है सरकार
बदल डालो उस सरकार और इंसाफ के दरवाजों को
जहाँ गढ़े जाते हैं अनाप-शनाप आरोप-प्रत्यारोप
खाई जाती है झूठी-मूठी शपथ
जहाँ नहीं मिलता इंसाफ, नहीं मिलती किसी को सजा
बदल डालो उस संसद और विधानसभाओं को
जहाँ मुद्दे उठते और धूल में मिल जाते हैं
अपराधियों और शरीफों के चेहरे पहचाने नहीं जाते हैं
देश में जनता मरती है, सदन में भाषण होते हैं
बदल डालो उस परिवार और समाज के कानूनों को
जहाँ झूठी इज्जत के सामने खून होती है मानवता
प्यार के खातिर घोटा जाता है गला
बेटों के लिए मन्नतें और बेटी को मिलती है मौत
बस, बहुत हो चुका
आग में झोंक दो पुराणों और शास्त्रों को
आग में झोंक दो ब्राह्मणवाद के नारों को
आग में झोंक दो इज्जत के झंडाबरदारों को
क्योंकि, जिन्दगी मजाक नहीं एक हकीकत है.
6 Comments
bahut hi sundar rachnayen hain..
vineet bhai ko badhai.
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