जिन दिनों आइआइटी पलट लड़के चेतन भगत के बिजनेस मॉडल को अपनाकर भ्रष्ट अंग्रेजी में बेस्टसेलर लिखकर पैसा कमाने के सपने बुन रहे थे उन्हीं दिनों प्रचंड प्रवीर ने आइआइटी से केमिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करके हिंदी में लिखने का फैसला किया. उनका पहला उपन्यास ‘अल्पाहारी गृहत्यागी’ संयोग से पटना में आइआइटी की तैयारी करते लड़कों को केंद्र में रखकर लिखी गई. और हाँ, बेस्टसेलर के तर्ज का नहीं शुद्ध साहित्यिक फ्लेवर का उपन्यास है यह. भले हिंदी के सामन्ती माहौल में इस उपन्यास की कोई चर्चा न हुई हो लेकिन तीन साल में इस उपन्यास की करीब २००० प्रतियाँ बिकी, जो बताती हैं कि पढ़नेवालों को यह उपन्यास अच्छा लगा. मैंने भी देर से पढ़ा और मुझे भी अच्छा लगा. आज इसका एक रोचक अंश- प्रभात रंजन
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उपन्यास के बारे में एक नोट
‘डॉन किशोते‘ संसार की महानतम कृतियों में गिनी जाती है।यह स्पेनी उपन्यास सन १६०५ और सन १६१५ में दो भागों में प्रकाशित हुई थी।इसके रचियता ‘सर्वान्तेस‘ ने इसे एक कल्पित इतिहासकार की अनुवादित रचना के रूप में प्रस्तुत किया था।ये कहानी एक सनकी इंसान ‘डॉन किशोते‘ और उसके दोस्त ‘सैन्चो‘ की बेवकूफी भरी और मजेदार हरकतों के बारें में थी। हास्य-व्यंग से ऊपर उठ कर गंभीर मुद्दों पर विचार करती इस पुस्तक ने आधुनिक रचना के नए आयाम गढ़े।‘गुल फैक्ट्री की महान दास्तान‘ इस महान कृति को श्रद्धांजलि के रूप में अर्पित है।इसमें हम ‘डॉन किशोते‘ या ‘सैन्चो‘ से नहीं मिलते, लेकिन लडकपन की उटपटांग बेवकूफियाँ उसी शैली में रखने की कोशिश की गयी है।
‘डॉन किशोते‘ जैसे कालजयी उपन्यास की सदृश प्रस्तुति या वैसे महान चरित्र पुनर्जीवित करने की कोशिश, ‘डॉन किशोते‘ सदृश बेवकूफी करने जैसी होगी- प्रचंड प्रवीर
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अध्याय– ७
मोनू निगम और परमानन्द जी के रोचक कारनामे, जो इसे पढ़ेगा वो ही इसके मज़े ले सकेगा
मोनू निगम सीटी बजाते गाते गुनगुनाते गुल फैक्ट्री पहुँचें। तरंग ने शरारत से कहा,”मोनू निगम जी, ज़रा आप ‘तेरे लिए साहिबाँ..’ गा कर सुनाइये ना…“
मोनू निगम अचंभित हो कर बोले,- “ये कौन सा गाना है भाई? हम तो कभी सुनें ही नहीं। चौबे जी, आप सुनें हैं?”
चौबे जी शरारत समझ कर तरंग को घूरते हुए बोले,”सुने हैं हो, मस्त गाना है हो। लेकिन मोनू जी, आप ‘ये ज़िंदगी उसी की है’ गा कर सुनाइये ना।“
मोनू निगम हँसने लगे। फिर चौबे जी ने गाना शुरू किया, “तू जो हाँ कहे तो बन जाए बात भी, हो तेरा ईशारा तो चल दूँ मैं साथ भी“। ये लाइन बहुत सुर में गाया गया, बिल्कुल आराम से। कोई जल्दी नहीं थी। लेकिन अगली लाइन बहुत तेज़ी से गाया, “तेरे लीए साहीबाँ नाचूंगी मैं गाऊँगी। दील में बसा ले तेरा घर भी बसाऊँगी। ओ ओ ओऊ … कर दे प्यार का शगुन.. सून साहीबाँ सून। प्यार की धून। मैंने तूझे चून लिया, तू भी मुझे चुन।“
तरंग के सामने अब गाने का रहस्य खुला। तभी नवनीत बगल के रूम से निकल कर बाहर जाने को हुआ। उसने कहा, “चौबे जी… क्या आप होमियोपैथिक दवाई खाते रहते हैं? बताइए जनाब क्या है? नहीं बताईयेगा? गुप्त रखना चाहते हैं? हम समझ गए– चौबे जी का गुप्त रोग… हा हा हा.. बेटा मोनू, तुम फिर शुरू हो गए। तुम्हारा यहाँ आना बंद कर देंगे, समझे न। और तरंग, अब मोनू निगम जी तुम्हारे लिए स्पेशल “ये ज़िंदगी उसी की है” गायेंगे।“
“मेरे लिए क्यों?”, तरंग ने पूछा।
नवनीत ने धौंस ज़माते हुए कहा,- “तुम्ही तो सुबह–सुबह ये गाना गाते हो। मेरा भी नींद ख़राब करते हो।“
तरंग ने विरोध में कहा,- “ये तो इल्जाम है बाप।“
चौबे जी मुस्कुरा के बोले,- “बाप बोलना मेरा ‘कॉपीराइट’ है। तुम नौटंकी बोल सकते हो। ऐसे बोलो– “ये क्या नौटंकी है?”
तभी परमानन्द जी टहलते हुए आए। मोनू निगम के गले मिले और कहने लगे– “नवनीत जी, आप जाइए। काहे बेकार में आप लड़ाई करने लगियेगा।”
नवनीत को शायद देर हो रही थी। वो बाहर निकल गया। परमानन्द जी बोले– “मोनू जी, चलिए आपको ऑफिस जाना है न। हमको भी उधर से दशहरा का समान लेना हैं। नीचे नानी बैठती हैं। बेचारी उनको चाहिए। थोड़ा सा घर के लिए भी ले लेंगे।“
मोनू निगम और परमानन्द जी निकल पड़े। थोड़ी ही दूर चलने के बाद, बाहुबली छात्रावास के पास मोनू निगम जी को याद आया कि कहीं फ़ोन करना था। बगल में ही एक टेलीफोन बूथ था। जब दोनों फ़ोन करने लगे तो एक भी जगह बात नहीं हो पायी। जब जाने लगे तो बूथ वाले ने कहा, “भाई साहेब। आपके दो रुपये।“
मोनू निगम झल्ला कर बोले,- “क्या बात करते हैं आप? आपका दिमाग तो ठीक है? कहीं बात हुआ है?
बूथ वाला बोला,- “हुआ न, बिल उठा है तब तो मांग रहे हैं न।“
परमानन्द जी ने भी टोका,- “कहाँ भाई?”
वहीं पर एक लड़का फ़ोन कर रहा था। इन बातों से वो थोड़ा परेशान भी हो रहा था। परमानन्द जी ने थोड़ी देर तक वाद विवाद करने के बाद उसे दो रुपये दे दिए और मोनू निगम ने कह दिया कि आप दो रुपये रख लो। इससे आप अमीर नहीं होने वाले। आपको ये याद रखना चाहिए कि ये ग़लत करने से कोई लाभ नहीं होगा।
महाकवि पंडित शशिधर शास्त्री अनुवाद में कोई गलती नहीं करते हुए लिखते हैं– यह कह कर मोनू निगम और परमानन्द जी अपना बेचारा सा मुँह ले कर जाने लगे। उन दोनों की करुण अवस्था पर शायद टेलीफोन बूथ वाले को ग्लानि हुई। उसने उन दोनों को बाहर से फिर अन्दर बुलाया। लेकिन फिर वही बातें–
-“नहीं महाराज, ये आपका बिल किसी और का है।“
– देखिये २.५५ पर हमलोग ये नम्बर मिला रहे थे, जो इस चिटठा में है।
– आप सोचिये, मेरा इतना बड़ा दुकान है। आपसे दो रुपये के लिए झूठ बोलेंगे।
– वही तो आप कर रहे हैं। इतने बड़े हो कर आप ऐसे काम करते हैं।
– मोनू जी, जाने दीजिये।
– आप लोग हमपर झूठा इल्जाम लगा रहे हैं।
– कहे का झूठा इल्जाम। दो रूपया आप मार लिए हैं और हम लोग को बोल रहे हैं महाराज।
जो युवक फ़ोन पर बात कर रहा था, उसे कुछ तकलीफ हो गई। वो जनाब शायद अच्छे तहजीब वाले थे, इसलिए मोनू निगम जी की माता जी की शान में कुछ कह कर चुप रहने का इशारा किया। मोनू निगम जी, जिनके रगों में अचानक राणा प्रताप का शौर्य जाग उठा, अपनी बायीं भुजा को बिल्कुल पीछे तक घुमाया और पूरी ताकत से तहजीब वाले जनाब के गाल पर जड़ दिया। परमानन्द जी बाद में सूचित करते हैं कि उन जनाब के गालों पर पूरे पाँच उंगलियों के निशाँ कुछ ऐसे तशरीफ़ ले आए जैसे बसंत के दिनों खेतों में सरसों की बालियाँ। पूरे चेहरे पर वो लाल पाँच उंगलियाँ अलग ही नज़र आ रही थी।
जनाब पहले तो हक्के बक्के रह गए। फिर चिल्लाए– “अरे। बंद करो तो रे। दरवाज़ा बंद करो। हे रे मुनवा। मुनवा रे
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