युवा आलोचक राहुल सिंह कई विधाओं में अच्छी दखल रखते हैं, सिनेमा भी उनमें एक है. कुछ अरसे पहले आई फिल्म ‘लंचबॉक्स‘ पर उन्होंने कुछ ठहरकर जरूर लिखा है लेकिन बड़े विस्तार से और बड़ी बारीकी से लिखा है. फिल्म तब अच्छी लगी, अब पढ़ा तो उनका यह विश्लेषण एक बार फिर उस फिल्म की याद दिला गया. आप भी पढ़िए- जानकी पुल.
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कुछ फिल्में होती हैं, जो खत्म होने के बाद भी जारी रहती हैं। दिलो–दिमाग पर उनका असर इस कदर होता है कि एक अंतराल के बाद मौके–बेमौके आप उस तक लौट आते हैं। यह लौटना कुछ छूट चूके को समेटने के लिए होता है और समेटने की उस कोशिश में हर दफा कुछ अलहदा–सा हाथ लगता चलता है। ‘लंच बाॅक्स’ ऐसी ही फिल्म है। जैसे पूर्ण विराम के अभाव में कई दफा एक खूबसूरत वाक्य भी कुछ अधूरा–सा रह जाता है, ‘ओपेन एंडेड’ फिल्में एक हद तक वैसे ही पूर्णविराम विहीन खूबसूरत वाक्यों की तरह होती है, जिस खालीपन को अपने तसव्वुराना पूर्णविराम के जरिये हम खूबसूरती प्रदान करते हैं। पर जब तक उसके एक संभावित अंत, जिसकी संगति पूरी कथा के साथ न बैठती हो, की तलाश न कर ली जाये, मन किसी अभिशप्त बैताल की तरह उस डाल पर बारहा लौटता रहता है। आवाजाही के इस सिलसिले में ‘लंच बाॅक्स’ की सतह पर तिरते आशयों को एकसूत्र में पिरोने का जो अवसर मिला तो उसके कुछ दिलचस्प नतीजे उभर कर सामने आये। यहाँ उन्हीं नतीजों को साझा करने की कोशिश भर है।
फिल्म में कंट्रास्ट के दो युग्म हैं। एक जोड़ा जो बहुत आसानी से पहचान में आता है, वह तो साजन फर्नांडिस(इरफान खान) और असलम शेख (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) का है। एक की मितव्ययिता और दूसरे की वाचालता का कंट्रास्ट फिल्म की सतह पर पसरा है। पर असल कंट्रास्ट इला (निम्रत कौर) और साजन फर्नांडिस के बीच का है। साजन फर्नांडिस दुनिया से बेजार एक ऐसा जीव है, जिसने जीवन की एकरसता को अपने जीवन का स्थायी भाव स्वीकार कर लिया है। उसकी संवेदनायें छीज गई हैं (बच्चों के द्वारा गेंद मांगे जाने पर उसकी प्रतिक्रिया या फिर उसके सहकर्मियों के उसके बारे में व्यक्त की गई राय से इस बात की पुष्टि होती है)। वह एक स्तर पर लगभग यांत्रिक हो चुका है। अपने आत्मनिर्वासित एकाकीपन को उसने स्वीकार लिया है। इसके उलट इला के जीवन की पूरी जद्दोजहद उन संवेदनाओं को बचाये रखने की है। ऐन फिल्म की शुरुआत में ही जब कैमरा माँ–बेटी के एक जोड़े को अपनी जद में लेता है, जिसमें एक माँ अपनी बच्ची को स्कूल भेजते हुए उसको कुछ सावधानियाँ बरतने की हिदायत दे रही है। और उसके बाद के दृश्यों में गृहस्थन और पत्नी की भूमिका का जिस संजीदगी से निर्वाह कर रही है, या पति के संवेदना तन्तुओं में मौजूदगी दर्ज कराने की अपनी इकहरी कोशिशों में वह जिस कदर दुहरी हुई जा रही है, उन दृश्यों में उसके सांवलेपन के गहराने को आप महसूस कर सकें तो घर की चैखट के भीतर अपने संवेदनाओं को बचाये रखने की उसकी अकुलाहट को महसूसा जा सकता है। इला और साजन व्यक्तित्व के दो विपरीत छोरों पर हैं। इसे उस बिलकुल पहले मौके पर देखा जा सकता है, जब इला साजन को टिफिन के डब्बे में पहला खत भेजती है। उसके अल्फाज हैं-“कल खाली डब्बा भेजने के लिए आपका शुक्रिया, वैसे वह खाना मैंने अपने हसबेंड के लिए बनाकर भेजा था। और जब डब्बा वापस आया तो ऐसा लगा कि घर आकर आज वह मुझसे कुछ कहेंगे। कुछ घंटों के लिए सोचने लगी कि दिल का रास्ता वाकई पेट से होकर जाता है, उन घंटों के बदले आज भेज रही हूँ पनीर मेरे हसबेंड का फेवरेट–इला।” क्या कोई संवेदनशील व्यक्ति इसके जवाब में यह लिख सकता है कि“डियर इला, द फूड वाॅज वेरी साल्टी टूडे।” इसके बाद रोज के लंचबाॅक्स में खतों के आने–जाने का जो सिलसिला है, उसमें भी अपनी निजता को साझा करने का साहस इला ही दिखलाती है, साजन की संवेदनागत शुष्कता बनी रहती है। साजन के आत्मनिर्वासनगत सूखे को अपनी निजता से सींचने का काम यों तो इला करती है, पर इला से भी पहले उसके एकांत में शुरुआती सेंधमारी करने का काम असलम शेख करता है। लेकिन जिन क्षणों में साजन के मन में नमी घर करने लगती है, उन क्षणों से पूर्व फिल्म की कहानी में कुछ ऐसी चीजें गुंथी हुई हैं, जो इस फिल्म की भारतीयता को पुष्ट करती है। विवाहेतर संबंधों को लेकर भारतीय मन अब भी सहज नहीं हो सका है। इसलिए इला के जीवन में विकसित होनेवाले इस विवाहेतर सम्बन्ध को वैधता प्रदान करने के लिए इला के पति के ‘अफेयर’ और गृहस्थ जीवन के प्रति गैर–जिम्मेदार होने की बात, फिल्म पहले ‘इश्टेब्लिश’ करती है, उसके बाद इला के जीवन में साजन एक विकल्प के बतौर दाखिल होता है। फिल्म की बुनियादी फांस इस ‘विकल्प की विकल्पहीनता’ में निहित है। आमतौर पर कलायें असंभव कल्पनाओं को साकार किया करती हैं। इस लिहाज से फिल्म भी असंभव कल्पनाओं को साकार करनेवाली एक आधुनिक कला विधा है। आमतौर पर इला और साजन के बीच का उम्रगत फासला इतना है कि सामान्य स्थितियों में उनके बीच किसी किस्म के सम्बन्ध की संभाव्यता को सहजता से अस्वीकार किया जा सकता था। पर फिल्म अपनी कलागत–विधागत अहर्ता को पूरा करती है।
पर यह फिल्म भारतीय सन्दर्भों में स्त्रीत्व के कुछ ऐसे पहलुओं को उजागर करती है, जिसकी ओर एकबारगी हमारा ध्यान नहीं जाता है। ज्याँ पाल सार्त्रमानते थे कि किसी भी देश को समझने के लिए वहाँ की स्त्रियों को समझना जरुरी है। संयोग से इला, इला की अनदेखी पड़ोसन और इला की माँ की भूमिकाओं को गौर से देखें तो उनका समुच्चय भारतीय महिलाओं की एक बड़ी आबादी का प्रतिनिधित्व करती जान पड़ती हैं। यह सब भारतीय औरतों की उस जमात का नुमाइंदगी करती जान पड़ती हैं, जो बहुत महŸवाकांक्षी कभी नहीं रहीं, जिनके लिए उनका घर–आँगन ही सर्वोच्च प्राथमिकता पर रहता आया है। विवाह, परिवार और संतति से बाहर उनकी दुनिया कभी फैली ही नहीं है। सात्र्र की सहचर सिमोन द बोउवा स्त्रियों की इस कैटेगरी के बारे में कुछ ऐसा सोचती थी कि ‘एक साफ–सुथरी चैकोर (स्क्वायर) पारिवारिक जीवन जीने वाली स्त्री कहीं भी स्वतंत्र नहीं है और न उसका कोई निजी अस्तित्व है। दरअसल सदियों से कंडीशंड होकर (जिसे भारत में संस्कार कहा जाता है) स्त्री के मन में एक ‘बैड फेथ’ के रुप में यह विश्वास बद्धमूल हो गया है कि पुरुष की छत्रछाया में रहकर भी वह स्वतंत्र है और उसका कोई निजी जीवन है। इसके बाद बच्चे पैदा होते हैं और‘परिवार’ बनता है तो स्त्री की स्वतंत्रता और सिकुड़ने लगती है और वे पति के साथ ही बच्चों की परवरिश में अपने को होम कर देती हैं।’ विवाह ऐसी स्त्रियों के लिए जीवन का सर्वाधिक निर्णायक पहलू होता है। उसमें ठगे जाने पर, संस्कार और नैतिकता की ओढ़ाई गई चादर, उन्हें धार्मिक और कर्मकाण्डी बनने की दिशा में ढकेलता है या फिर सर्वाधिक सहजता से उपलब्ध विकल्प को संबल के तौर पर स्वीकार करने की दिशा में, जो जीवन से पलायन भी हो सकता है। इला के लिए साजन वही सर्वाधिक सहजता से उपलब्ध संबल या विकल्प है। लेकिन सहजता से उपलब्ध यह संबल या विकल्प क्या वाकई में संबल और विकल्प होते हैं? मुझे लगता है कि यह सवाल ही ‘लंचबाॅक्स’ को देखने का एक बेहतर प्रस्थान बिन्दु हो सकता है, जहाँ से फिल्म की सतह के नीचे उतर कर उसके उत्स तक पहुँचा जा सकता है।
कागज पर कोई इबारत कलम और स्याही के बगैर नहीं लिखी जा सकती है, सिनेमाई संदर्भ में यह काम कैमरे और निगाह के बगैर नहीं किया जा सकता है। कैमरे और निगाह की अर्थपूर्ण युगलबंदी से ‘लंचबाॅक्स’ लबरेज है। (उन दृश्यों पर बात करने लगूं तो रस्ता भटक जाऊंगा, यथाप्रसंग उनको पिरोने की कोशिश करुंगा। अभी पहला नमूना।) फिल्म की शुरुआती चंद मिनटों के बाद एक दृश्य में गृहस्थी की जिम्मेदारियों के निभाने के क्रम में इला एक बेमतलब–सी हरकत करती नजर आती है। कपड़ों को धोने से पहले वह उन्हें सूंघ–सूंघ कर वाशिंग मशीन में डाल रही है। दूसरी बार जब वह इस बेमतलब–सी लगनेवाली हरकत को दुहरा रही होती है और कपड़ों से जब वह अपने पति के अफेयर को सूंघ लेती है। तब इस बात का भान होता है कि स्त्रियों की छठी इंद्रिय कितनी असाधारण और नायाब तरीके से काम करती है। यह इसका एक बेजोड़ नमूना है। यह फिल्म का टर्निंग प्वाइंट है। ससुराल में बिगाड़ होने पर ‘बैक–अप’ मायके का रहता है। वैवाहिक जीवन में हुए इस सेंधमारी पर, कपार पर हाथ धरे जब वह अपने माय–के पहुँचती है, गजब की त्रासदी वहाँ घटित होते हुए पाते हैं। जर्जर मायका और ध्वस्त होती गृहस्थी के बीच इला के लिए क्रमिक आत्महत्या का ही संभावित विकल्प बचता है।(या तो वह ‘धोबी घाट’ की‘यास्मीन’ की तरह आत्महत्या कर ले या‘15 पार्क एवेन्यू की ‘मीठी’ की तरह विक्षिप्त हो जाये।) इससे उबरने की इला की कोशिशों में असल त्रासदी निहित है। वह अपने दुख–दर्द को साजन से साझा करते हुए लिखती है – “हलो, मुझे आपको कुछ बताना है, मेरे हसबेंड का अफेयर चल रहा है, बहुत सोचा उनसे बात करुंगी पर हिम्मत नहीं जुटा पाई। बात करके जाती भी कहाँ? एक जगह है, यश्वी ने स्कूल में सीखा है, भूटान में सब खुश रहते हैं। वहाँ ग्राॅस डोमेस्टिक प्रोडक्ट नहीं है, ग्राॅस डोमेस्टिक हैप्पीनेस है, यहाँ भी ऐसा होता तो।” इस पर साजन का जवाब है “व्हाट इफ आई कम भूटान विथ यू?” इला भारतीय महिलाओं की जिस कैटेगरी की प्रोटोटाइप के रुप में ‘लंचबाॅक्स’ में उभरती है, उसमें जूझने की बजाय पलायन की उसकी मंशा कहीं से अस्वाभाविक नहीं लगती है। इस पूरे प्रसंग में जो अस्वाभाविक–सा है। वह है यश्वी का इस्तेमाल। यश्वी इला की पाँच–सात साल की बच्ची है। पाँच–सात साल की बच्ची के मार्फत जीडीपी (ग्राॅस डोमेस्टिक प्रोडक्ट) और ग्राॅस डोमेस्टिक हैप्पीनेस के बिन्दु को रखना, थोड़ा अस्वाभाविक लगता है। लेकिन इससे निकलनेवाली दूसरी अनुगूंज फिल्म की पूरी संरचना की लिहाज से ज्यादा मारक है। दो परिपक्व और प्रौढ़ लोग एक बच्ची की बातों में आ रहे हैं, इसे क्यों नहीं उनकी ‘बचकानी हरकत’ मानी जाये? विकल्प के रुप में भूटान के बचकानेपन की हवा तो अगले ही दृश्य में असलम शेख यह कर के निकाल देता है कि“वहाँ की इकोनाॅमी बहुत डाउन है, हमारा एक रुपया वहाँ के पाँच रुपये के बराबर है।” पर फिल्म में इस ‘इंसीडेन्ट’ के आस–पास की जो नाटकीयता है, उस नाटकीयता में अचानक आने–वाले उतार–चढ़ाव में यह बातें ओझल हो जाती हैं। खासकर इस पूरी नाटकीयता के केन्द्र में साजन की बदलती भाव–भंगिमायें हमें फुसला ले जाती हैं।“कभी–कभी गलत टेªन भी सही जगह पहुँचा देती है।” जैसे चमकते लेकिन खोखले शब्दाडम्बर में हम बह जाते हैं। ‘कभी–कभी’ की काव्यात्मकता में हम उसकी ‘रियलिस्टिक प्रोबेबिलिटी’ की नगण्यता की ओर ध्यान नहीं दे पाते हैं। इत्तेफाकों से जिंदगी नहीं चला करती। संयोग हमेशा दीर्घकालीक और दूरगामी विकल्पों के सर्जक नहीं होते हैं। दिल को बहलाने का यह अच्छा खयाल हमारे संवेदन तन्त्र को इस कदर अपने प्रभाव में लेता है कि ‘फीलगुड’ के चक्कर में हम फिल्म के मूल मर्म से महरुम हो जाते हैं। मूल मर्म बेहद त्रासद है। इसके लिए फिल्म के दो बिन्दुओं की ओर फिर से लौटना होगा। एक बिन्दु है–इला की पड़ोसन देशपांडे आंटी और दूसरी उसकी माँ। इन दोनों महिलाओं में एक अद्भुत साम्यता है और वह है अपने लगभग मरणासन्न पति की सेवा–सुश्रुषा में अपने जीवन को होम कर देने की भावना। यह उनके लिए बहुत सहज भी नहीं है। “देशपांडे आंटी के हसबेंड पिछले पन्द्रह साल से कोमा में है। एक दिन वे उठे और पंखे को घूरते रह गयेे तब से और कहीं नहीं देखते दिन भर पंखे को घूरते रहते हैं और रात को सो जाते हैं। फिर सुबह होती है और अंकल फिर पंखे को घूरने लगते हैं। कुछ नहीं कहते, पिछले पन्द्रह साल से यही चल रहा है। देशपांडे आंटी को लगता है कि अंकल की जान उस पंखे में अटकी है। एक दिन बिजली चली गई और पंखे के रुकते–रुकते अंकल की आंखें पलट गईं, धड़कन भी बस रुक ही गई थी कि बिजली वापस आ गई और उस दिन से आंटी ने घर में जेनिरेटर लगवा लिया।” देशपांडे आंटी के इस वस्तुस्थिति को उनके ही एक और संदर्भ से जोड़ कर देखने की जरुरत है और वह फिल्म के आखिर से पहले आता है, जब वह इला को कह रही होती है कि “पता है इला आज तेरे अंकल का चलता हुआ पंखा साफ किया मैंने।” चलते हुए पंखे को साफ करने की कठिनता या असंभाव्यता का अनुमान करें और उनके जीवन की कठिनता से उसका मिलान करें तो इस वाक्य की बेधकता का अनुमान किया जा सकता है। देशपांडे आंटी की रोजमर्रे की जिंदगी का निर्वाह किसी चलते हुए पंखे को साफ करने जितना ही कठिन है। पर उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया है और अपने बूते निभा रही हैं। दूसरे बिन्दु की ओर गौर करें, जब इला के पिता की मौत होती है तब इला की माँ अपनी बेटी से जिस बेतकल्लुफी से यह कहती है कि“मुझे बहुत भूख लग रही है, पराठे खाने का मन कर रहा है। सुबह नाश्ता नही किया था मैंने, इनके लिए नाश्ता बना रही थी। मुझे हमेशा फिकर लगता था कि इनके जाने के बाद क्या होगा। लेकिन अब सिर्फ भूख लग रही है। शुरु–शुरु में हमारे बीच बहुत प्यार था, जब तू पैदा हुई थी, लेकिन सालों से इनसे इतनी घिन आती थी। तब भी रोज–रोज इनका नाश्ता–दवा–नहाना, नाश्ता–दवा–नहाना।” कथाकार अखिलेश के शब्दों में कहें तो“एक भयानक हादसे में इतनी भी ताकत नहीं होती है कि वइ इंसान की एक वक्त की भूख भूला दे।”
बारीकी से देखें तो क्या देशपांडे आंटी और इला की माँ एक ही यातना के साझीदार नहीं हैं? फर्क है तो उन स्थितियों के प्रति स्वेच्छा या अनिच्छापूर्वक स्वीकार का। पर बावजूद इसके क्या वे दोनों समान परिस्थितियों में पड़े एक ही किरदार के विस्तार या एक्सटेंशन्स नहीं जान पड़ते हैं? क्या यह महज इत्तेफाक है कि देशपांडे आंटी का कोई चेहरा नहीं है, इला के लंग कैंसर से पीड़ित पिता की निर्जीव–सी लगती देह का भी कोई चेहरा कभी फिल्म में नहीं दिखता है। क्या अपने जीवन के उत्तरार्ध में सिगरेट पीने वाले साजन की वह संभावित परिणति नहीं हो सकती है? इस लिहाज से कोमा में पड़े देशपांडे अंकल और इला के पिता को फिल्म में दो अलग किरदारों के बतौर नहीं अलगाया जा सकता है। देशपांडे अंकल और इला के पिता वे सूत्र हैं, जो इस फिल्म के उस पहलू को उजागर करते हैं, जिसकी ओर असल में हमारा ध्यान नहीं जा पाता है और वह है फिल्म के समापन का दृश्य। दरअसल यह फिल्म का समापन ही था, जिसने मुझे परेशान कर रखा था और आखिर में कई दफा देखने के बाद यह सूत्र हाथ लगा कि फिल्म ‘ओपेनएंडेड’ नहीं थी। असल में देशपांडे आंटी और इला की माँ एक दूसरे के प्रतिरुप नहीं थे बल्कि वे इला के भविष्य के दो ‘प्रोजेक्शन’ थे। इला के जीवन का उत्तरार्ध भी यही होना था, या तो वह स्वेच्छा से साजन के डायपर बदल रही होती या फिर शुरुआती दिनों के प्यार के बाद अपनी माँ की भांति अनिच्छापूर्वक नाश्ता–दवा–नहाने की अंतहीन प्रक्रिया को दुहरा रही होती। फिल्म भले एक खुले अंत का खुशनुमा–सा भ्रम रचती है। पर अंततः सच यह है कि यह कथा के फेरे को बहुत कायदे से पूरा करती है। इसी बिन्दु पर इला के समक्ष उपलब्ध ‘विकल्प की विकल्पहीनता’ का अहसास होता है। इस बिन्दु पर फिल्म जिस गहरी त्रासदी में तब्दील होती है, वह अद्भुत है। अद्भुत इस दृष्टि से भी कि आये दिन अखबारों में इस किस्म की हेडिंग देखने को मिलती है कि ‘दो बच्चो की माँ अपने प्रेमी के साथ फरार’ या एक बच्चे की माँ अपने आशिक के संग फुर्र’। इसमें जो भाव निहित है, उसमें एक किस्म के मजे का भाव समाहित है। ‘लंचबाॅक्स’ इसी विषय को उठाती है, पर इतनी संजीदगी से कि अखबारों की खबरों वाला हल्कापन इससे कोसों दूर नजर आता है। पर बावजूद इसके फिल्म इस बिन्दु पर न ठिठक कर एक दूसरे बिन्दु की ओर प्रयाण कर जाती है। एक ओर तो इला की विकल्पहीनता की ओर और दूसरी ओर प्रारब्ध, नियति या भाग्य जैसे सवालों की ओर। क्योंकि इला की यातना का उसके तईं कोई वैध कारण नहीं है। वह इस यातना की हकदार नहीं है, जो उसके पति के कारण उसके जीवन में आकार ले रहा है। इस या ऐसे अनेक किस्म के अयाचित यातनाओं(अनडिजव्र्ड सफरिंग) का स्त्रियों के सन्दर्भ में भारतीय परम्परा और संस्कार यही संतोषप्रद उत्तर देती आई है कि यह पूर्व जन्म के कर्मों का फल हो सकता है, जिसे प्रारब्ध कहा जाता है। प्रारब्ध जो इस जीवन की नियति या भाग्य पर हावी है। इला संघर्ष करती तो इसके दूसरे नतीजे सामने आते पर खुद उसके परिवार के हालात से उसके समर्पण और पलायन की मानसिकता या संस्कार की पुष्टि होती है। एक घंटे पैंतालीस मिनट की फिल्म में इतनी बातों को पूरी कलात्मकता के साथ पिरोने और साकार करने की रितेश बत्रा की सिनेमाई चेतना की जितनी तारीफ की जाये, वह कम है।
इस फिल्म में एक गजब की बात और है। वह इसके ‘कंटेट’ से नहीं इसके ‘क्राफ्ट’ से वाबस्ता है। एक स्वाद जो जिंदगी भर के लिए आपकी जिह्वा पर घर कर जाये, मामूली बात नहीं है। जीवन में चुनींदा जायके ही हमारी स्मृतियों में अपनी जगह बना पाते हैं। इस जायके को सिरजने की प्रक्रिया पर गौर करें तब यादगार जायके या स्वाद के जन्म की कथा का भान हमें होता है। कोई भी भोजन कई चरणों और प्रक्रियाओं से गुजरकर अपने मुकाम तक पहुँचता है। अलग–अलग खाद्य पदार्थों के बीच सही आनुपातिकता के संधान में पूरी उम्र गुजर सकती है। अलग–अलग खाद्य पदार्थ अलग–अलग स्वाद(स्वभाव) को धारण करते हैं। उन अलग–अलग आस्वाद वाले भोज्य पदार्थों के मध्य आपसी साझेदारी से एक साझे स्वाद का जन्म होता है। एक आँच या ताप के आगे वे सभी अपनी–अपनी तासीर को छोड़कर एक दूसरे में घुलने को आतुर होकर उस स्वाद को सिरजते हैं। यह स्वाद उसके नियंता की तन्मयता, संतुलन, अनुभव, समर्पण और भावनाओं का सूचक होता है। इनमें से किसी एक के भी अभाव में उस यादगार जायके की निर्मिति संभव नहीं है। जायका एक कलेक्टिविटी, एक साझेपन को दर्शाता है। ‘लंचबाॅक्स’ को लगभग फिल्म समीक्षकों ने इला ओर साजन की कहानी के तौर पर बयां किया है। यह लगभग वैसा ही है जैसे हम आलू–गोभी की सब्जी कहते हुए उसकी निर्मिति में शामिल मिर्च, नमक, तेल जैसे अन्य सहायक सामग्रियों के वजूद की अनदेखी कर देते हैं। क्योंकि इनकी मात्रा इतनी कम होती है, हम इनके अस्तित्व को नगण्य मान कर चलते हैं। पर आस्वाद की निर्मिति में इनमें से किसी एक को भी दरकिनार कर दें तो स्वाद, बेस्वाद हो जायेगा। खाना बनाने के इस बुनियादी फलसफे को ‘लंचबाॅक्स’ के‘क्राफ्ट’ के स्तर पर लागू करें तो इस फिल्म के हर किरदार की अपरिहार्यता को आप महसूस कर सकते हैं। तब असलम शेख (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) के किरदार के मायने को समझा जा सकता है। इला और साजन की केन्द्रीयता के बीच असलम शेख एक तरीके से हाशिये पर है। पर जैसे–जैसे फिल्म आगे बढ़ती है, उसका कैरेक्टर‘अनफोल्ड’ होना शुरु होता है। एक दर्शक के सारे पूर्वानुमानों को झुठलाता हुआ वह अप्रत्याशित तौर पर उभरता है। उसकी चापलूसी से भरी चिपकू अदायें और काम निकालनेवाली भंगिमायें अनायस उसके ‘सर्वाइवल इंस्टिक्ट’ में तब्दील हो जाती है। इसलिए फिल्म का ‘पोजीटिव नोट’ तो असलम शेख की दास्तान है। इला और साजन तो निमित्त मात्र है, जो असलम शेख के बरक्स एक बड़ा कंट्रास्ट रचते हैं। असलम शेख की जिजीविषा और संघर्षशीलता को ‘लंचबाॅक्स’ के एक जायके के बतौर देखा जा सकता है। एक छोटा–सा सिरा और है, नगण्य–सा, पर उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती है। यह सिरा है यश्वी और फिल्म में शामिल दूसरे बच्चों का। बच्चों की संवेदनशीलता इतनी निष्कलुष होती है कि उनकी संवेदनाओं पर पहुँची चोटें उनके मन–मस्तिष्क तक सीमित नहीं रहती है, बल्कि सालों वे एक दुःस्वप्न की भांति उनकी स्मृतियों में अपना घर–बार बसाये रहते हैं। दो मौकों पर यश्वी की निगाहों के ‘पाॅज’ को आप गौर करें तो उसकी सांकेतिकता में निहित अर्थवत्ताको भाप सकते हैं। पहला, जब इला डब्बे के गलत जगह पहुँच जाने की बात का जिक्र देशपांडे आंटी से कर रही है और आवाज बाहर न जाये इस लिए रसोई का नल खोल रखा है। बहते पानी के शोर में अपनी मासूमियत से निकल कर समझने की जिस कोशिश के साथ अपनी माँ को देख रही है, उसको महसूसने के लिए आपको वितोरियो डे सिका की ‘चिल्ड्रेन आर वाचिंग अस’ सरीखी कई फिल्में देखनीं होंगी। या फिर बच्चों के द्वारा गेंद माँगे जाने पर साजन फर्नांडिस के व्यवहार पर रात के खाने के दौरान खिड़की के स्लाइडर को बंद करने के बच्ची के हरकत में उसके प्रतिकार को देख सकते हैं। वहीं बाद में साजन के बदले आचरण का सम्मान करते हुए वही बच्ची खाने के दौरान न सिर्फ अपनी खिड़की खुली रहने देती है बल्कि साजन का अभिवादन भी करती है। इला के दुखपूर्ण जीवन की छांह में यश्वी के कुम्हलाये बचपन को देखा जा सकता है। बचपन व एकाकीपन एक दूसरे के विपर्यय हैं। पर यश्वी के अपनी गुड्डी के संग आँख–मिचैनी खेलने की मार्मिकता को उस दृश्य के दौरान ही अनुभूत किया जा सकता है।
तकरीबन एक घंटे पैंतालीस मिनट की अवधि में यह फिल्म अपनी एक आहिस्ता गति से खुलती है। इस खुलने के क्रम में जिस कदर बारीकी और ब्यौरो के यथाप्रसंग युगलबंदी से अपने परास का फैलाती है, उससे रितेश बत्रा की सिनेमाई चेतना का अहसास होता है। बेहद चुस्त एडिटिंग और दृश्यों के मार्फत् कहानी को बयां करने की जिद की वजह से ‘लंचबाॅक्स’ समकालीन फिल्मकारों के फिल्मगोई के बीच अपनी एक अलग पहचान बनाती दिखती है। रितेश बत्रा की सिनेमाई चेतना के बहाने ‘लंचबाॅक्स’ और ‘लंचबाॅक्स’ के जरिये रितेश बत्रा पर थोड़ी और बातें करने की इच्छा है। भले ‘लंच बाॅक्स’ के शुरुआती दृश्यों और बीच के हिस्सों में मुम्बई को फिल्माने की जो कोशिशें हैं, वह किरण राव के ‘धोबी घाट’ में मुम्बई और शुजाॅय घोष की ‘कहानी’ में कोलकाता को फिल्माने की संजीदगी से कमतर है। खासकर ‘घोबी घाट’ और ‘कहानी’ में शहरों के लिए जो बैकग्राउण्ड स्कोर है, वैसे सिनेमेटिक सेन्स को रितेश बत्रा ने ‘लंच बाॅक्स’ में इस्तेमाल नहीं किया है (संभव है कि इसकी एक बड़ी वजह फिल्म का बजट रही हो)। पूरी फिल्म देखने के बाद यह बात थोड़ी खटकने वाली लग रही थी। क्योंकि अगर‘लंच बाॅक्स’ की ओपनिंग सीन को आप देखें तो मंथर गति से खुलती मुम्बई लोकलों की समांतरता और छत पर अपने पंख संवारते कबूतरों का जत्था निहायत ही खूबसूरती से फिल्माया गया है। पर उसके बाद मुम्बई की बजाय मुम्बई के डब्बेवालों की निगाह से मुम्बई को फिल्माने में जो फिल्मांकन के ‘डाक्यूमेंट्री फार्म’ का इस्तेमाल किया गया है, दृश्यों में उसके कारण अचानक से जो रुखरापन या खुरदरापन आता है। दृश्यों का वह खुरदरापन मुम्बई के डिब्बेवालों को फिल्म के एक अनिवार्य सन्दर्भ के बतौर स्थापित करता है। बाद में जानने की कोशिश की तो मालूम हुआ कि रितेश बत्रा बुनियादी तौर पर मुम्बई के इन डिब्बावालों पर फिल्मनुमा कुछ बनाना चाह रहे थे जिसके लिए 2007 से वह उन पर काम कर रहे थे। बल्कि फिल्म के दौरान जो डिब्बेवालें हैं। वे वास्तविक डिब्बेवाले हैं। पूरे फिल्म के दौरान इला के द्वारा साजन फर्नांडिस को भेजा गया खाने का डब्बा इन्हीं डिब्बेवालों के साथ नत्थी कर दिया गया था। और सात दिन तक उस डिब्बे को शहर के अलग–अलग राहों और हाथों से गुजरते हुए फिल्माया गया है। फिल्माने की इस अदा और बाद में फिल्म के समापन पर उसके प्रभावों के बारे में आप सोचें तो आप कुछ–कुछ ईरानी फिल्मों के आस्वाद–सा अपने भीतर घुलता महसूस कर सकते हैं। जैसे ईरानी फिल्मकारों की एक पूरी पीढ़ी बेहद छोटे–छोटे विषयों पर नायाब फिल्मों का निर्माण करती आई है। वैसे ही ‘लंच बाॅक्स’ एक ऐसी ही मामूली–सी लगनेवाली गैरमामूली फिल्म है।
रितेश बत्रा के शार्ट फिल्मों को गर आप देखें और उसी सिलसिले में ‘लंच
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