इस समय वह हिंदी की एक बड़ी परिघटना है- नीला स्कार्फ. प्री-लांच यानी किताब छपने से पहले इस किताब की अब तक करीब 1400 प्रतियाँ बिक चुकी हैं. इस किताब ने हिंदी के बहुत सारे मिथों को तोड़ दिया है. जिसमें सबसे बड़ा मिथ यह है कि हिंदी में किताब बिकती नहीं है, यह कि जब तक कोई ‘बड़ा’ संपादक-आलोचक सर पर हाथ न रखे तब तक हिंदी में लेखक बनना असंभव है. अनु सिंह चौधरी के इस कहानी संग्रह ने न जाने कितने लेखकों में यह विश्वास पैदा किया है कि अपने लेखन के दम पर भी खड़ा हुआ जा सकता है. आज हजारों पाठकों की तरह मैं भी ‘नीला स्कार्फ’ की प्रतीक्षा में हूँ. फिलहाल पढ़ते हैं अनु सिंह चौधरी का लेखकीय वक्तव्य जो ‘नीला स्कार्फ’ के बनने को लेकर है, जीवन की आपाधापी में समय चुराकर लेखिका के बनने को लेकर है. ‘जानकी पुल’ के पाठकों के लिए ख़ास तौर पर- मॉडरेटर.
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डिस्केलमर – मैंने ऐसी कोई भी बात नहीं कही जो पहले किसी ने न कही हो। मैने कुछ भी ऐसा नहीं लिखा जो पहले लिखा न गया हो।
फिर ‘नीला स्कार्फ’ में ऐसा क्या था, जो किताब को इस किस्म की प्रतिक्रिया मिली? तब जब कि किताब छपी नहीं? मैं जानती हूं कि बारह-तेरह सौ की प्रीबुकिंग कोई अजूबा नहीं है। मैं ये भी जानती हूं कि एक बार किताब की रिलीज़ के बाद ये ज्वार उतर भी सकता है। मैं ये भी अच्छी तरह समझती हूं कि इस किस्म की प्रतिक्रिया ने मेरे माथे पर अपेक्षाओं का बोझ बढ़ा दिया है। मुझे लगातार ऐसा लग रहा है कि मैं ब्लॉग करते हुए, फेसबुक पर स्टेटस अपडेट डालते हुए, बिना किसी औपचारिकता के और बहुत बेबाकी से कतरा-कतरा अपनी ज़िन्दगी का हिस्सा पब्लिक प्लेटफॉर्म पर डालते हुए ही ठीक थी। मुझपर कल सुबह से कहीं किसी गुमनाम जगह भाग जाने का खयाल तारी है। मैंने कल एक बेहद करीबी दोस्त को कहा था, ‘दिस इज़ गेटिंग टू बिग फॉर माई कम्फर्ट।‘
लेकिन मेरे लिए अपनी किताब को लेकर डिटैच होना और फिर इस अप्रत्याशित फेनोमेनन को समझना और इसके बारे में बात करना बहुत ज़रूरी है। इसलिए भी क्योंकि जाने-अनजाने मैंने अपने ही जैसे कई क्लॉज़ेट राईटर्स (कमरों में बंद होकर लिखनेवालों, ख़ासकर लिखनेवालियों) की उम्मीदें हरी कर दी हैं। मेरे इनबॉक्स में आनेवाले ई-मेल्स और छोटे-छोटे संदेश इस बात के गवाह हैं कि एक किताब एक नहीं, कम-से-कम चार-पांच लेखकों को जन्म देती है। एक किताब कई सारे ख़्वाब भी जगा देती है।
सवाल ये है कि ‘नीला स्कार्फ’ है क्या?
‘नीला स्कार्फ’ उन कहानियों का संग्रह है जो मैंने अपना खाली वक़्त भरने के लिए, अपने बच्चों को बड़ा करते हुए लिखीं। ‘नीला स्कार्फ’ उस सफ़र का गवाह है जो पिछले पांच-छह सालों में मैंने तय किया।
शुरुआत कुछ ऐसे हुई। एक दिन फेसबुक अकाउंट बना दिया गया – मेरे छोटे भाई ने बनाया था शायद। मुझे ठीक-ठीक याद भी नहीं कि बच्चे तब कितने छोटे थे। फिर एक दिन प्रियदर्शन जी ने कहा कि घर में रहती हो तो कुछ लिखती क्यों नहीं? ब्लॉग लिखो। एक दिन आकर मेरे टूटी-फूटी कविताओं पर (बहुत तीखी और बेबाक) प्रतिक्रिया भी दे गए। फिर पता नहीं कैसे पहला ब्लॉग लिखा, फिर दूसरा और फिर तीसरा। और फिर डायरी की तरह वो ब्लॉग लिखती रही, लिखती रही। कभी बच्चों को सुलाकर लिखा, कभी उन्हें प्लेस्कूल भेजने के बाद लिखा। कभी एडिटिंग और अनुवाद के असाईनमेंट्स के बीच लिखा, कभी मायके-ससुराल में बैठकर लिखा। कभी ट्रेन में वक्त काटने के लिए लिखा, कभी एयरपोर्ट पर अपने दाएं-बाएं उछलते बच्चों की शरारत से ध्यान हटाने के लिए लिखा।
फेसबुक का इस्तेमाल करते हुए पता चला कि मुझे बांटने की बीमारी थी, अपने आस-पास के कई और लोगों की तरह। (जानकी पुल भी उसी बीमारी का नतीजा है – फ्री कॉन्टेंट बांटने की बीमारी का)। अच्छी कविता पढ़ी तो अपने जैसे दो-चार लोगों को पढ़वाने का जी चाहा। किसी याद ने सताया तो पूछ बैठी कि तुम्हारे साथ भी ऐसा होता है क्या? फिल्म देखी तो तीन लाईन में रिव्यू लिख दिया। कहीं काम के सिलसिले में घूमने गई तो पूरा का पूरा ट्रैवेलॉग दस लाइनों में फेसबुक पर डाल दिया। मैं अकेली नहीं थी जो ये कर रही थी। मेरे जैसे हज़ारों लोग हैं जो फेसबुक का क्रिएटिव इस्तेमाल कर रहे हैं।
बहरहाल, फेसबुक वो खिड़की थी जो दुनिया को नई नज़र से देखने का रास्ता खोल रही थी मेरे लिए। फेसबुक और ब्लॉग वो ज़रिया भी बन गया जिसके रास्ते मुझसे लोग पूछने लगे, ‘तुम हमारे लिए ये लिख सकोगी? या फिल्म बना सकोगी? या कन्सलटेंसी का काम कर सकोगी?’ मैं जिन निजी कहानियों को साझा कर रही थी उसके बदले कई सारे दोस्त और शुभचिंतक बनने लगे। मैं जिस फेसबुक पर अपनी ज़िन्दगी के टुकड़े बांट रही थी, उसी फेसबुक के ज़रिए मुझे अपने वजूद की ख़ातिर बड़ा मकसद मिलने लगा। ‘गांव कनेक्शन’ उनमें से एक था। ‘याद शहर’ उनमें से एक था। यात्रा बुक्स और बाद में हार्पर हिंदी के साथ मेरा रिश्ता उसी फेसबुक असोसिएशन का नतीजा था।
खुलकर अपनी बात कहने, और ईमानदार बने रहने ने मुझे क्लायंट्स कम, दोस्त ज़्यादा दिए। उन्हें मालूम था कि मैं गायब नहीं हो सकती। मैं कहां हूं, क्या कर रही हूं, किन रास्तों पर चल रही हूं – पता लगाना बहुत आसान था। मेरा रेफरेंस चेक करना बहुत आसान था। इसलिए असाइनमेंट्स के लिए, काम के लिए मुझे कभी पिच नहीं करना पड़ा। मुझे काम मांगने की ज़रूरत नहीं पड़ी। फेसबुक, गूगल और ब्लॉग मेरे लिए उस रेफ़री का काम कर रहे थे जिनकी ज़रूरत नौकरियां या काम ढूंढते हुए आपको पड़ती है। मुझे पब्लिशर खोजने की ज़रूरत भी नहीं पड़ी। मेरा लिखा हुआ जो भी अच्छा-बुरा था, पब्लिक प्लैटफॉर्म पर मौजूद था।
‘नीला स्कार्फ’ कई सालों की उसी ईमानदारी का प्रतिफल है। मेरी किताब खरीदने वाले वो क्लायंट हैं जिनसे मैंने कभी नहीं पूछा कि आप मुझसे प्रो-बोनो काम करा रहे हैं, या पैसे भी देंगे मुझे? किताब खरीदने वाले वो पुराने सहयोगी हैं जिन्होंने मुझे काम करते देखा है। किताब खरीदने वाले फेसबुक के वो दोस्त हैं जिन्हें एक पोस्ट में अपनी परछाई नजर आती है। किताब खरीदने वाले वो दो सौ फॉलोअर्स हैं जो मेक्सिको, चिली, चाइना, नाइजीरिया और पता नहीं कहां कहां से मेरे बेहद निजी पोस्ट्स पढ़ते हैं (जिन्हें मैं सिर्फ और सिर्फ भड़ास मानती रही आज तक)। किताब खरीदने वाले और उसके बारे में बात करने वाले वो लोग हैं जो मुझे सालों से निजी तौर पर जानते हैं – जिन्होंने पंद्रह साल की लड़की से पैंतीस साल की औरत हो जाने का मेरा सफ़र देखा है – मेरे दूर के रिश्तेदर, मेरे बचपन के दोस्त जिनसे मैं फेसबुक से वापस जुड़ी। मेरी ग़लतियों के साक्षी रहे हैं ये लोग, मेरे आलोचक रहे हैं, कभी प्यार किया है मुझसे तो कभी मेरी बेवकूफ़ियों पर मुझे माफ़ न करने की कसमें खाई हैं।
‘नीला स्कार्फ’ और कुछ नहीं है, ऐसे ही कई बेहद करीबी रिश्तों का सेलीब्रेशन है।
लिखने के लिहाज़ से मैं चाहे जितनी भी आलसी रहूं, ऑर्गनाइज़ करने के मामले में (और टू-डू लिस्ट बनाने में) मैं अव्वल दर्ज़े की फ़ितूरी हूं। मुझे हर काम योजना के तहत, सलीके से किया हुआ चाहिए। मेरी तमाम बेतरतीबियों के बीच काम के मामले में सलीका वो लक्ष्य है जिसे मैं हर रोज़ पूरा करने की कोशिश करती रहती हूं। लेकिन ‘नीला स्कार्फ’ लिखने और उसे किताब की शक्ल देने में कोई स्ट्रैटजी, कोई योजना काम नहीं आई। बल्कि इस एक किताब ने मेरी समझ की कई सारी धारणाओं को धराशायी कर दिया है। मैंने तय किया कि किताब नए और छोटे पब्लिशर के पास ले जाऊंगी (शैलेश से मैंने कहा था कि दो सौ कॉपियां मेरा लक्ष्य हैं)। मैंने ये भी तय किया कि मैं किसी से इस किताब के बारे में बात नहीं करूंगी (किताब के प्रोमोशन को लेकर मेरे और शैलेश के बीच में भयंकर मतभेद हुए)। अपनी सारी कमज़ोरियां यहां इस पन्ने पर आकर लिख देना भी एक पुरानी धारणा को तोड़ने जैसा ही है कि हम अपने लिखे हुए के बारे में खुद ही कैसे बात करें? ये अपना पीआर खुद करना होगा। मैं नहीं जानती कि पीआर का असली मतलब क्या होता है, लेकिन वन-ऑन-वन रिलेशन की जो कमाई मैंने पिछले पांच सालों में हासिल की, ‘नीला स्कार्फ’ वो जमापूंजी है (और उसी जमापूंजी की बदौलत मैं खुलकर अपनी किताब के बारे में यहां लिख पा रही हूं)।
‘नीला स्कार्फ’ कई सारी तकलीफ़ों का गवाह भी है। ये तकलीफ़ें अकेले बैठकर रात-रात भर खुद से जूझते हुए कहानी लिखने की कोशिश और फिर उसमें असफल हो जाने से पैदा होती रहीं। ये तकलीफ़ें उन सवालों से पैदा हुईं जो अक्सर अपने ही घर में अपने ही लोग पूछते थे – इतना क्या लिखती रहती हो? ये तकलीफ़ें उस बेचैनी, उस गुमख़्याली से पैदा हुईं, जो सिर्फ एक लिखनेवाला ही समझ सकता है। कि जब आप एक कहानी को किसी मुकाम पर पहुंचा न पा रहे हों तो क्यों आस-पास की आवाज़ें आपको रुचिकर नहीं लगतीं? कि जब आप कहानियां लिखना शुरु करते हैं तो क्यों सतह से खरोंचकर भीतर की परतों में झांकने का पागलपन आप पर सवार हो जाता है? ये एक लिखने वाला ही समझ सकता है कि अपने लिए लिखने की ज़िद और किसी दूसरे मकसद से (जैसे क्लायंट, फॉर्मैट या डेडलाइन) के लिए लिखे के बीच का संतुलन कैसे आपको पागल बना सकता है। ‘नीला स्कार्फ’ उसी संतुलन को बनाने-बचाने की ज़िद का नतीजा है।
‘नीला स्कार्फ’ एक कन्फेशन भी है – कि आप लिख रहे होंगे तो वो नहीं होंगे जो आप आम तौर पर हैं। आपके भीतर की कई दुनिया आपको दिन-रात परेशान किए रहेगी और ये परेशानी आपका दिमागी हालत पर गहरा असर कर सकती है। ‘नीला स्कार्फ’ ने एक और बात सिखाई है मुझे – जब आप नया रचने की कोशिश कर रहे होते हैं (चाहे वो कुछ भी हो, कितना ही अदना और साधारण क्यों न हो) तो इस दौरान कभी आप ग़लत समझे जाएंगे कभी आपकी समझ ग़लत होगी। ‘नीला स्कार्फ’ इसी अन्वेषण से पैदा हुआ प्रॉडक्ट है।