कुछ लेखक-कवि ऐसे होते हैं जिनका सम्मान उस भाषा-समाज का सम्मान भी होता है जिसके जन उनको अपनी बोली-बानी का प्रतिनिधि मानते हैं. केदारनाथ सिंह ऐसी ही कवि हैं. उनको ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने पर उनसे उनकी कविताओं को लेकर आत्मीय, सहज बातचीत की युवा लेखक-कवि सत्यानन्द निरुपम ने. आज ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ में प्रकाशित हुआ है. जिन्होंने न पढ़ा हो उनके लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ. सहज भाषा में कविता, उसकी परंपरा को लेकर एक गहरी बातचीत- मॉडरेटर.
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वैसे तो हर आदमी अपने भीतर अपने अनुकूल कोई संसार बसाए रखता है, प्रत्यक्ष संसार से किनारा कर उसमें शरण पा सकने के लिए. लेकिन जाने क्यों, कवि केदारनाथ सिंह से हुई हर मुलाकात के दौरान मुझे यही लगा है कि वे जरुरत के हिसाब से ही प्रत्यक्ष संसार में लौटते हैं, अन्यथा अपनी आतंरिक दुनिया में ही विचरते रहते हैं. और शायद यही वजह है कि उनकी स्मृति में वैसी बहुत-सी बातें नहीं अंट पातीं, जिनका होना व्यावहारिक जगत में जरूरी समझा जाता है. एक-दो मुलाकात में किसी का नाम याद रह जाये, यह विरल बात है. पिछली बार फोन पर हुई बातचीत में कुछ तय किया था, याद रह जाये— यह जरूरी नहीं. कोई सवाल पूछ कर देखिये, जवाब ऐसे नहीं आएगा जैसे कोई व्यक्ति हाथ बढ़ाये खड़ा हो, एकदम से सवाल लपक लेने को. आप ऐसा महसूस करेंगे जैसे एक बंद दरवाजा खुला है, कोई निकला है और तब एक हाथ सामने आया है सवाल ग्रहण करने को. यह व्यक्तित्व का ठहराव कहा जा सकता है, लेकिन मुझे यह एक दुनिया से दूसरी दुनिया में आने का अंतराल लगता है. उनके आसपास रहने वाले लोग इस स्थिति से सहज हैं और यह कभी हमें बनावटी नहीं लगा.
केदार जी अपनी कोई भी कविता पहले ड्राफ्ट में ही प्रकाशन योग्य समझ लें, ऐसा नहीं हुआ. कोई कविता लिखी, उसे सहेज कर रख दिया. हफ्ता-दस दिन बाद, महीनों बाद उसे निकाला. फिर काम किया. ठीक लगी तो लगी, नहीं तो छोड़ दिया. कई कवितायेँ सालों बाद निकलीं. कई कवितायेँ नष्ट कर दीं. कुछेक की केवल कुछ पंक्तियाँ भर सहेज लीं, शेष को नष्ट कर दिया. कई कवितायेँ ऐसी हैं जो पहले ड्राफ्ट में कुछ और लिखी गयी थीं, लेकिन दूसरे या तीसरे ड्राफ्ट के समय वो किसी और कविता के साथ मिल कर एक अन्य कविता बन गयीं. जैसे ‘बनारस’ कविता. पहले किसी और शीर्षक से कुछ और ही थी. बाद में एक और कविता के साथ मिल कर वह ‘बनारस’ बन गयी.
केदार जी को कवि-संस्कार कैसे मिला? उन्हीं के शब्दों में “गाँव-देहात से आया हुआ एक आदमी हूँ तो कहना चाहिए कि कवि-संस्कार मिला या ना मिला, लेकिन गाने-गुनगुनाने की एक सीख मुझे गांव के लोकगीतों से मिली थी. मेरे पिता स्वयं संगीत के प्रेमी थे. संगीत में उनकी गति भी थी. तो शायद वही प्रेरणा काम कर रही हो मेरे भीतर.” अपने गाँव के माहौल को अपने लिए प्रेरणादायक मानने वाले केदार जी ने प्रसंग छिड़ते ही सिलसिलेवार बताना शुरू किया कि संस्कार वहीँ से बनना शुरू हुआ. उसके बाद वे बनारस जिस स्कूल में पढ़ने गए, “वहां का माहौल बहुत काव्यमय था. वहाँ उन दिनों जितने भी अच्छे साहित्यकार थे, आते-जाते थे.” वहीँ उन्होंने दिनकर और हरिवंश राय बच्चन को देखा-सुना. उनको लगा कि “अच्छी चीज़ है कविता”.
वे एक प्रसंग बताते हैं. एक बहुत सामान्य कवि थे जो उनके स्कूल में एक बार कवि सम्मलेन में आये थे. उनकी एक पंक्ति उनको छू गयी जो उन्हें अब तक याद है- “केवल कदम बढ़ाना होगा, पथ तो स्वयं बनेगा.” केदार जी को बात अच्छी लगी. कहने का सीधा-सादा ढंग पसंद आया. सिखने-गुनने की उम्र थी, असर पड़ा. फिर एक गुरु मिले वहीँ हाई स्कूल में- मार्कंडेय सिंह. उनके बारे में परम श्रद्धा से केदार जी बहुत सारी बाते बताते हैं. उनसे बहुत कुछ सीखा. मसलन साहित्य क्या होता है, क्या नहीं होता है, पुराना साहित्य नया साहित्य, इनके बीच का सम्बन्ध, अंतर वगैरह. इसे केदार जी कवि-संस्कार के निर्मिति की पृष्ठभूमि कहते हैं.
शब्दों के स्वभाव की परख कैसे विकसित हुई, इस बारे में बताते हुए त्रिलोचन के संपर्क में आने से बात शुरू करते हुए कहते हैं कि उनसे तो जीवन भर सीखता ही रहा. जब तक थे, कहीं किसी शब्द पर अटकता था तो ये विश्वास था कि एक महा शब्दकोष है जो कही अलग पड़ा हुआ है. उसका नाम है त्रिलोचन शास्त्री.
‘सीधी-सादी’ भाषा से प्रभावित होने वाले केदार जी को भाषा की एक चेतना अपने स्कूल के संस्कृत के एक अध्यापक, नए ढंग से सोचने वाले, पंडित विजयशंकर मिश्र से मिली. उनसे एक दिन छात्र केदार ने एक शब्द के बारे में पूछा कि यह संस्कृत के किस शब्द का बिगड़ा हुआ रूप है. पंडित जी की त्योरी चढ़ गयी. बोले, “प्रश्न ठीक करो. तुम्हारा प्रश्न यह होना चाहिए कि यह शब्द संस्कृत के किस शब्द का विकसित रूप है. शब्द बिगड़ता नहीं है.” पंडित जी की वह सीख केदार जी से कभी विस्मृत नहीं हुई. वे भी अब मानते हैं कि भाषा हमेशा बनती है और बनती है जनता की टकसाल में. लोगों का बोलना ही भाषा के बनने का सबसे बड़ा आधार है. गुरुओं और वरिष्ठ कवियों से जो सीखा वह तो सीखा ही, संयोग से सहपाठी बन गए विश्वनाथ त्रिपाठी की सोहबत में उर्दू में पैठ बढ़ाने की बात बताना भी वे नहीं भूलते.
कविता की भूमिका के बारे में केदार जी का कहना है कि “कविता एक ऐसी चीज़ है जो आदमी के जीवन में बहुत काम आती है. सुख में, दुःख में, कई बार एक पंक्ति याद आती है जो आपको परेशान भी बहुत करती है तो ताकत भी बहुत देती है. यह काम तुलसीदास, कबीर की कविता करती है, ये ग़ालिब, मीर करते हैं. मैं दबे स्वर में यह कहना चाहता हूँ कि हिंदी की आधुनिक कविता, सारी आधुनिक कविता, उस हद तक तक यह काम नहीं करती. केदार जी इसकी वजह पर विस्तार से बात करते हैं. वे कविता से छंद के साथ-साथ आतंरिक लय की भी विदाई हो जाने को कविता के लिए अच्छा नहीं मानते. स्वयं छंद में लिखना क्यों छोड़ा- इस बारे में उनका जवाब है कि छंद छोड़ा नहीं, वह बंधन न बने, इसलिए लचीला बनाया. आन्तरिक लय को बनाये रखा.
स्मृतियों की अनुगूँज को कविता में सहेजने वाले कवि केदार स्वयं को भोजपुरी और हिंदी के बीच का कवि मानते हैं. उनके भीतर एक कसक है कि उन्होंने अभी तक अपनी बोली का कर्ज अदा नहीं किया है, लेकिन करेंगे, यह हौसला अभी जिन्दा रखा है.