राजकमल प्रकाशन समूह ने हाल ही में संपन्न हुए बनारस पुस्तक मेले में काशीनाथ सिंह और मैत्रेयी पुष्पा के नए उपन्यासों का प्रकाशन से पहले आदेश लेना शुरू किया. हिंदी के इन दो पाठकप्रिय कथाकारों के उपन्यासों—क्रमश:‘उपसंहार’ और‘फ़रिश्ते निकले’ की एडवांस बुकिंग 15 जनवरी 2014 तक जारी रहेगी. दोनों उपन्यासों का प्रकाशन जनवरी 2014 में राजकमल प्रकाशन से होने जा रहा है. हिंदी के इस अग्रणी प्रकाशन ने इन दोनों उपन्यासों के सजिल्द संस्करण की एडवांस बुकिंग के लिए पाठकों को 40% की छूट देने की घोषणा के साथ-साथ डाक-व्यय की जिम्मेदारी भी स्वयं ली हुई है. किताब की प्रति 15 फरवरी 2014 तक पाठकों के हाथों में पहुंचा देने का वादा भी प्रकाशन ने अपनी घोषणा में की हुई है.बनारस पुस्तक मेले में इस योजना की घोषणा के अवसर पर काशीनाथ सिंह ने इस योजना में शामिल अपने उपन्यास ‘उपसंहार’ से एक अंश का पाठ का पाठ किया.
‘उपसंहार’ में कृष्ण के जीवन के अंतिम दिनों की कथा कही गई है, यह जितनी कृष्ण की कथा है, उतनी ही द्वारका के बनने और बिगड़ने की भी. कौन सोच सकता था कि ‘अस्सी’ और ‘पहाड़पुर’ में रम चुके कथाकार काशीनाथ सिंह इस उम्र में महाभारतकालीन ‘द्वारका’ में जा बसेंगे! एक बार फिर उन्होंने अपने को तोड़ा है और जोड़ा है एकदम अछूते विषय, अनूठे शिल्प और लहलहाती भाषा से. प्रस्तुत है ‘जानकीपुल’ के पाठकों के लिए उपन्यास का एक अंश, साथ में लेखकीय टिपण्णी भी:
कृष्ण यदि ईश्वर या वासुदेव थे तो ‘महाभारत’ में, पुराणों में, धर्मग्रंथों में या भक्तिमार्गी और धर्मधुरीन उपन्यासों में. लेकिन कुरुक्षेत्र में महाभारत के बाद वे 36 वर्षों तक द्वारकाधीश मनुष्य के रूप में कैसे रहे, यह किसी ने देखने की जहमत नहीं उठाई. मनुष्य के रूप में अपने किये-कराये की स्मृतियों के साथ कितनी मानसिक और आध्यात्मिक यंत्रणाएं झेलीं— यह भी नहीं देखा. उन्होंने द्वारका बसाई थी, उसे अमरावती की गरिमा दी थी, यादवकुलों का गणराज्य स्थापित किया था, लेकिन यादवों का विनाश क्यों हुआ, द्वारका का ध्वंस क्यों हुआ, कृष्णा क्यों सामान्य मौत मरे और उन्हें मारने वाला निषाद जरा कौन था— यह सब जानने और समझने के क्रम में अपने मौजूदा भारतीय गणतंत्र की विडम्बनाओं पर भी ध्यान गया,यही से जन्म हुआ इस उपन्यास ‘उपसंहार’ का.—काशीनाथसिंह
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::उपन्यास अंश::
महाभारत खत्म हुए कई साल हो गये, लेकिन हर किसी को ऐसा लगता था, जैसे कल की ही बात हो। वह लोगों के दिमाग में था, लेकिन उसकी चर्चा जबान पर कोई नहीं लाता था।
कृष्ण द्वारका में होते तो दोपहर के बाद का अपना समय श्यामशिला पर बैठकर समुद्र के किनारे बिताते। हालांकि श्यामशिला अब पहले जैसी मखमली गद्दों जैसी नहीं रह गई थी! वे बैठे-बैठे थक जाते थे तो रेत पर टहलने लगते थे, लेकिन ज्यादातर समय वे द्वारका के बाहर ही रहते थे। कभी प्रभास तीर्थ, कभी रैवतक, कभी पिंडारक। सिर्फ वे और दारुक जानते थे कि रथ और घोड़े वैसे ही हैं, लेकिन ‘वह’ नहीं हैं। रथ की धुरी भी लोहे की है, गरुड़ध्वज की तरह ‘वज्रनाभ’ नहीं। लेकिन लोगों में भ्रम है अब भी, तो बना रहे।
वे अब सहज हो चले थे। वे अक्रूर, विदुर, सात्यकि, कृतवर्मा, आहुक, प्रभंजन – जो भी आता, उससे मिलते, द्वारका के बारे में जानकारी करते। उन्हें पता चलता कि द्वारका की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है, लोगों के घरों में महुए की शराब बनने लगी है, वारुणी पी जा रही है! वे बच्चे, जिनके पिता युद्ध में मारे गये थे और जो अब बड़े हो गये हैं, गुरुकुलों और अखाड़ों में रुचि नहीं रखते। गुरुकुल-मल्लविद्या के हों या धनुर्विद्या के, सुनसान पड़े रहते हैं। लड़कों का कहना था कि असुर नहीं हैं, राक्षस नहीं हैं, सीमा पर खतरे का डर नहीं है, तो काहे का गुरुकुल और अखाड़ा। काम भर की हर विद्या हम यादव होने के कारण थोड़ी-बहुत जानते हैं।
एक दूसरी समस्या भी खड़ी हो गई थी और वह ज्यादा चिन्ताजनक थी। यह समस्या भी कृष्ण की ही खड़ी की हुई थी। उन्होंने प्राग्ज्योतिषपुर में भौमासुर की कैद से सोलह हजार किशोरियों को मुक्त कराया था। वे भिन्न-भिन्न कुलों, जातियों और राज्यों की अत्यन्त आकर्षक और रूपसी लड़कियां थीं। मुक्त कराने के बाद जब कृष्ण ने कहा कि अब अपने-अपने घर जाओ, तब उन्होंने उत्तर दिया- कहां जायें? मां-बाप स्वीकार नहीं करेंगे। सास-ससुर घर में घुसने नहीं देंगे। कृष्ण ने फिर डोलियों में भर-भर कर उन्हें द्वारका भिजवाया। समुद्र के किनारे मीलों लम्बी रावटियां खड़ी करवाईं। उनका पुनर्वास किया। ये रावटियां द्वारका के उत्तर भल्लात द्वार के तट पर बसाई गई थीं। पता चला, यादवों के छोरे शाम ढलते ही रावटियों का चक्कर लगा रहे हैं और देर रात तक उनके साथ जल-विहार कर रहे हैं। वे किशोरियां निष्कंटक और निर्बाध जीवन जी सकें, इसके लिये कृष्ण ने प्रचार करवाया था कि उन्होंने सबमें अपने नाम का मंगलसूत्र बंटवाया है। छोरों का तर्क था कि बंटवाया है, पहनाया तो नहीं। बंटवाने का मतलब जैसे दान-दक्षिणा हो। और आज तक किसी ने उन्हें इधर आते-जाते भी तो नहीं देखा। अगर वे कामेच्छा से पीड़ित हैं और हमारा संसर्ग चाहती हैं, तो किसी को क्या आपत्ति?
इस समस्या का निदान सूझ नहीं रहा था कृष्ण को।
उन्होंने तटरक्षकों की संख्या बढ़ा दी और रक्षकों का जाल वहां तक फैलाया, जहां तक रावटियां थीं। कुछ दिन तक तो ठीक रहा, लेकिन कुछ दिनों बाद सुनाई पड़ने लगा कि वे रक्षक रावटियों के अन्दर चोरी-छिपे आते-जाते देखे जा रहे हैं।
अब इसका क्या करें कृष्ण?
कृष्ण का ध्यान सहसा गरुड़द्वार की ओर गया, जहां बलराम द्वारपालों से बातें कर रहे थे। वे समझ गये कि वे उन्हीं से मिलने आ रहे हैं। अब तक कृष्ण लोगों के बीच ही उनसे मिलते थे। अकेले मिलने से बचते थे।
बलराम हलधर थे यानी किसान।
गोकुल में बलराम खेती-बारी का काम देखते थे
और गौवें संभालते थे कृष्ण
बलराम गोरे थे, बलवान थे लेकिन सीधे-सादे,
गम्भीर, आध्यात्मिक किस्म के जीव
कायदे-कानून के पाबंद, नियम के पक्के, संयम के धनी
फालतू पचड़ों में पड़ने की आदत नहीं
लेकिन क्रुद्ध हो जायें किसी बात पर
तो छोटा भाई किशन ही था जो उन्हें रोकने का हौसला रखता था।
इसके ठीक उलट थे किशन
नटखट, चुलबुले, शेखचिल्ली और दिलफेंक
छोटे-बड़े सबमें उठने-बैठने, खेलने-कूदने
और बोलने-बतियाने के रसिया
ऐसे कि जो एक बार देखे तो बार-बार देखना चाहे
रंग ऐसा जैसे नीला आसमान
रूप ऐसा जैसे पूर्णिमा का चांद
तेज ऐसा जैसे दोपहर का सूर्य
मुसकान ऐसी, जैसे इन्द्रधनुष
लेकिन परम फितूरी, न चैन से खुद रहे न किसी को रहने दे
बलराम बेइंतहा प्यार करते थे इस किशन को
और चाहते थे कि सारी जिन्दगी ऐसा ही बना रहे
लेकिन हुआ ये कि वह एक से दूसरे, तीसरे, चौथेपेंचमें
उलझता गया
और उलझता क्या, खुद को उलझाता गया
और बाद में तो जैसे सारी दुनिया को ही
ठीक करने का ठेका ले लिया।
यह देख कर बलराम सुखी-दुःखी दोनों रहते थे।
महल में बलराम के आने के पहले ही कृष्ण ने चरण-स्पर्श किया और बैठने के लिये अपनी आरामकुर्सी दी।बैठते ही बलराम ने कहा- ‘तुम्हें अपने द्वारपालों के बारे में खबर है कि नहीं?
कृष्ण ने पूछा- क्या? ऐसे भी वे बलराम के आगे कम बोलते थे। कभी उनसे बहस तो करते ही नहीं थे।
‘जो लोग तुम्हारे दर्शन के लिये आते हैं- दूर-दूर से, जिन्हें ये जानते हैं, उन्हें तो कुछ नहीं बोलते, आने देते हैं, लेकिन जिन्हें नहीं जानते, उन्हें परेशान करते हैं और उनकी सामर्थ्य के अनुसार पण (तांबे का सिक्का) लेते हैं।
कृष्ण अवाक् उन्हें देखते रहे।
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