पिछले वर्ष ही सुदीप सोहनी का काव्य-संग्रह ‘मन्थर होती प्रार्थना’ प्रकाशित हुआ है । इस किताब की समीक्षा कर रही हैं डॉ. रेखा कस्तवार । रेखा कस्तवार मुख्यत: स्त्री-केंद्रित विषयों पर लेखन के लिए जानी जाती हैं । ‘किरदार ज़िन्दा है’, ‘स्त्री चिंतन की चुनौतियाँ’ उनकी दो प्रमुख किताबें हैं । यह समीक्षा आप भी पढ़ सकते हैं – अनुरंजनी
======================
सुदीप सोहनी को बहुत पहले कभी स्वराज भवन, भोपाल में मैंने कविता पढ़ते हुए पहली बार सुना था और यदि मैं गलत नहीं हूँ तो शायद वह उनका पहला कविता पाठ था। तब ‘ संतूर’ सीरीज़ की कविताएँ उन्होने सुनाई थीं । अलग मिजाज़ की उन कविताओं ने मुझे आकर्षित किया था, आज भी करती हैं । चाहें तो इन पंक्तियों के साथ आप भी साथ हो सकते है –
संतूर की आवाज़
भीतर सोयी नदी के करवट लेने की आवाज़ है
– जिसे देखा जा सकता है आँखें बंद कर
(संतूर / पृ. सं. 134)
संतूर बज रहा है
और धमनियों में
बहुत दिनों बाद
बह रही है साँसें
(संतूर बज रहा है / पृ. सं. 138)
या
पट खुलते हैं जैसे किसी नदी के तट के
और एक नाव जो सोयी पड़ी थी अंधेरे में
अचानक बर्फ के टुकड़ों में बदल जाती है
(संतूर पर राग पहाड़ी / पृ. सं. 137)
अगर इन कविताओं से होकर गुज़रे तो आप पाएँगे कि सुदीप की कविताएँ चमत्कृत करने वाले शब्दों से नहीं बनती, वे शब्दों में नहीं उलझती । सीधी सादी वाक्य रचना के साथ वे हमारे मानस में घुल-मिल जाती हैं । बार-बार पढ़ने पर और नज़दीक चले आती हैं, और अधिक खुलते हैं । जैसे माघ का यह पद –
“क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयताया: (जो क्षण-क्षण मे नवीनता को प्राप्त हो, वही तो रमणीयता है अर्थात सुंदरता है)”
गरिष्ठ वैचारिकी और लम्बी कथा-कविताओं के इस समय में ‘मन्थर होती प्रार्थना’ की कविताएँ अपने छोटे कलेवर से आकर्षित करती हैं । वे पाठक की कल्पना पर भरोसा करती है, उन्हें स्पेस देती हैं । हरेक पाठक में भीतर जितनी होती है उतनी अनुगूँज पैदा करती है रचना । इसलिए सब कुछ कह देने का उतावलापन इन कविताओं में नहीं है । दुष्यंत कुमार याद आते “मैं तुम्हें छू कर ज़रा-सा छेड़ देता हूँ और गीली पाँखुरी से ओस झरती है ।”
बड़बोलेपन के इस समय में यह फोटोग्राफर, फिल्म निर्देशक, कवि देखना तो जानता ही है सुनने की ताब भी रखता है । जब हम सुनना सीख जाते हैं तब प्रकृति का, जड़-चेतन का बोलना सुन पाते हैं । नदी, पहाड़, पेड़, धरती, पशु-पक्षी, मनुष्य को सम भाव से देखने वाली आँख अनंत में गूँजते स्वरों से एक तार हो पाती है । यह इन कविताओं में देखा जा सकता है । (मेरे व्यक्तिगत अनुभव में भी भीमबेटका के लगभग फॉसिल्स में तब्दील होते पेड़ मेरे वहाँ जाते ही बाँहें फैलाए यूँ ही नहीं दौड़े चले आते!)
इस संदर्भ में संग्रह की एक कविता, जो मेरी प्रिय कविताओं में से है, को साझा करना चाहती हूँ । शीर्षक है ‘अभिसारिका’
समन्दर
जब लहर बन मुस्कुराता है
तब दूर
नीले जंगलों के पीछे
चट्टान की ओट में
एक पहाड़ी नदी
मदहोश होकर
नहाती है
घण्टों
अपने ही पानी में
(अभिसारिका / पृ. सं. 123)
यह कविता मैंने तीन कारणों से साझा की है । पहली तो प्रकृति को किस तरह सुन रहे हैं सुदीप, दूसरी प्रेम को कैसे देख रहे हैं सुदीप । यदि गहरे प्रेम में है तो खूब जी पाएँगे आप यह कविता । प्रेमी का लहर बन मुस्कुराना, बहुत दूर रह कर भी प्रिया को महसूस कर लेना है और तीसरी ‘मदहोश होकर नहाती है घंटों अपने ही पानी में’ । इस कविता में ‘अपने ही पानी में’ पद बँध पर थोड़ा रुक कर मैं आपको केदारनाथ अग्रवाल की एक कविता की याद दिलाती हूँ –
आज नदी बिल्कुल उदास थी
सोई थी अपने पानी में
उसके दर्पण पर
बादल का वस्त्र पड़ा था
मैंने उसको नहीं जगाया
दबे पाँव घर वापस आया।
आप यहाँ स्टिल फोटोग्राफी का मज़ा तो ले सकते हैं पर अपने ही पानी में नदी के साथ नहीं हो पाते । शामिल हो जाने की फितरत सुदीप की कविताओं में बखूबी देखी जा सकती है । कविता की यह समृद्धि सह-यात्रा से ही पाई जा सकती है। सुदीप यूँ ही नहीं कहते – यात्रा एक अनन्त सम्भावना है । यात्रा ख़ुद में ख़ुद को खोजने का अनवरत प्रयास है तो अपने भीतर ब्रह्माण्ड सिरजने का अवसर भी ।
दस छोटी कविताओं की इस सीरीज़ में आप देखें –
तलाश है यात्रा
ख़ुद से ख़ुद की
ख़ुद से बिछड़ने की
ख़ुद को खोजने की
मैं खोज रहा हूँ मुझमें किसी को
मैं यात्रा में हूँ
(पृ. सं. 124)
और फिर यह देखें –
यात्रा सिर्फ़ यात्रा नहीं होती
सृष्टि होती है
अपने ही सूर्यो, नक्षत्रों और ग्रहों की
यात्रा जन्म देती है
एक पूरे ब्रहमाण्ड को
(पृ. सं. 126)
यह तथ्य है कि ‘मन्थर होती प्रार्थना’ चार उप-शीर्षकों में है – प्रेम प्रार्थना, यथार्थ कल्पना, यात्रा सम्भावना और व्यक्ति केन्द्रित कविताओं ‘एक कविता’ में। परन्तु उनका मन रमता है प्रेम कविताओं में और प्रकृति के सानिध्य वाली यात्रा सम्भावनाओं में । वहाँ भी अभिव्यक्ति प्रेम की ही होती रहती है । कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि सुदीप की कविताओं का आधार प्रेम है । इस प्रेम में जिज्ञासा है, अकुलाहट है, बेसब्री है, बेबसी है, असह्य पीड़ा है, गहरी उदासी है, यादें हैं । इन कविताओं में बहुत गहरे जाकर प्रेम जीता है, साँसें लेता है और कई ऐसी पंक्तियाँ हाथ आती है जिन्हें उद्धरण की तरह याद रखा जा सकता है । एक जगह सुदीप लिखते हैं – ‘प्रेम की असह्य पीड़ाओं में एक है सुख के बारे में सोचना’। मुझे जयशंकर प्रासाद की कालजयी कृति ‘स्कन्दगुप्त’ की नायिका देवसेना याद आती है जब वह इन पंक्तियों के ठीक विपरीत कहती है लेकिन अर्थ में एकदम निकट खड़ी दिखाई देती है । वह कहती हे “माँगे हुए दु:ख को हम ऐश्वर्य की तरह भोगते हैं।”
एक कविता में सुदीप कहते है ‘’बेचैनी प्रेम की साँसे हैं’’ तो दूसरी जगह उन्हें बेचैनी, बेबसी लगती है । और कहीं बेसब्री भी ।
पानी वाले बादल पहाड़-से लग रहे
दिखते हैं
भाप के साथ भागते बादल-
बेचैनी की तरह
(पहाड़ से खिड़की / पृ. सं. 131)
बेचैनी, एक बेबसी है!
(बेबसी / पृ. सं. 21)
वही बेसब्री, वही इंतजार, वही तड़प
अकेलापन प्रेमपत्र की तरह होता है
जिसे पढ़ा, समझा और जिया जा सकता है
चुप्पेपन में ही कई-कई बार
(बेसब्री / पृ. सं. 84)
प्रेम पर कुछ कविताएँ है जैसे प्रेम का उद्दाम आवेग झरता है कविताओं में ।
पेड़ के तने जितने सख़्त होते हैं
रूठे प्रेमी के शब्द
उस पर उम्मीद के पंख नहीं चिपकते
प्रेमिका आने वाले समय में, आने वाले दु:ख खरीदती है
प्रेमी गुज़रे से कुछ सुख चुगता है
(रूठे प्रेमी के शब्द / पृ. सं. 24)
सुना था कहीं
प्रेम करना गुलामी है और किया जाना बादशाहत
(हारा हुआ प्रेमी / पृ. सं. 43)
पर प्रेम पर वे कविताएँ बहुत अच्छी है जहाँ प्रेम व्यक्त करने से परहेज है ।
मैं प्रार्थना की तरह बुदबुदाना चाहता हूँ प्रेम को
पर चाहता हूँ सुने कोई नहीं इसे मेरे अलावा
(प्रार्थना की तरह / पृ. सं. 13)
या कि
हम साँस लेते है
और भूल जाते हैं
साँसें चलती रहती है तब भी
मैं प्रेम करूँ और भूल भी जाऊँ,
प्रेम करना
चाहता हूँ ऐसे ही
(साँस/ पृ. सं. 89)
हो ऐसा, प्रेम!
कविता की तरह छप जाए
सीने में, भीतर
– रह जाए स्मृति में
हर साँस के साथ
आती रहे आवाज़
डूबने की
(डुबुक/ पृ. सं. 29)
सुदीप की कविताओं को उन्हीं की कविता से समझने की कोशिश में उनकी अन्तिम कविता पढ़ी जानी चाहिए जिसका शीर्षक है ‘एक कविता जैसे जन्म पिछला कोई’ (पृ. सं. 159-160)
एक कविता जैसे
छूट चुके जीवन को पकड़ना
छूट चुके हाथ की तरह
और फिर से वापस घर लौटना!
(एक कविता को हथेली पर महसूस करने की इच्छा में,
फिर से गुनना और ख़ुश होना)
हम सभी इस प्रक्रिया से हो कर बार-बार गुज़रें!
पद्मश्री भूरी बाई ने ‘मन्थर होती प्रार्थना’ के आवरण पृष्ठ का अंकन किया है। महत्वाकांक्षा की ऊँची चोटी के अकेलेपन और संघर्ष से लहूलुहान हमारे वक्त में यह चित्र सह अस्तित्व में भरोसे का उद्घोष है और सुदीप सोहनी की कविताओं की मूल मंशा भी ।