भाषा, जिसमें हम हर वक्त जीते हैं। एक बात जो बहुत ज़्यादा महसूस होती है कि भाषा के बारे में शुरुआती स्तर पर हर कोई यही कहते आए हैं कि ‘भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है’ लेकिन क्या यह बस इतना ही है? क्या ऐसा नहीं कि भाषा जितनी अभिव्यक्ति का माध्यम है उतनी ही अभिव्यक्ति की सीमितता भी है? दूसरी बात यह भी कि प्रत्येक भाषा का अपना इतिहास होता है, उसके बनने-बिगड़ने की अपनी एक प्रक्रिया (प्रक्रियाएँ भी कह सकते हैं) होती है। साथ ही यह भी कि किसी शब्द का उचित प्रयोग कहाँ होगा यह भी महत्त्वपूर्ण है। मसलन, सोच कर देखिए कि यदि महादेवी वर्मा ‘मैं नीर भरी दुख की बदली’ में नीर की जगह कोई दूसरा पर्याय रखतीं, उदाहरण के लिए जल, पानी, तो कैसा लगता? ‘शब्दों के साथ-साथ’ एवं ‘शब्दों के साथ-साथ-2’, इन दो पुस्तकों में भाषा संबंधी अनेक बारीकियों सहित इस तरह के प्रयोगों के बारे में भी सुरेश पंत बताते हैं। इन किताबों पर अपनी टिप्पणी दे रहे हैं जनसत्ता के साहित्य संपादक सूर्यनाथ सिंह। आप भी पढ़ सकते हैं- अनुरंजनी
========================================
‘शब्दों के साथ-साथ’ और ‘शब्दों के साथ-साथ-2’ ये दो किताबों के नाम हैं । शब्दों के बहाने भाषा की कुछ टेढ़ी हो गई चाल को दुरुस्त करने की कोशिश में सुरेश पंत द्वारा लिखी गई दो किताबें । सुरेश पंत भाषा विज्ञान और व्याकरण दोनों के विशेषज्ञ हैं । शब्दों की जन्मपत्री बाँचना उनका शगल है । चुटीले ढंग से कहना-बतियाना उनकी शैली है । बहुत सारे शब्द, पद और मुहावरे अपने मूल अर्थ खोकर दूसरे रूपों में, बिल्कुल भिन्न अर्थ में प्रचलित हो चले हैं, हो गए हैं। उनकी धज बदल गई है। उनके हिज्जे तक बदल गए या बदल दिए गए हैं खासकर मीडिया के अंधड़ ने भाषा के शाख-पत्ते कुछ अधिक ही नोचे, तोड़, उड़ा दिए हैं । पूरी भाषा ही अपना रूप-रंग बदलने को उतावली नजर आने लगी है । शब्दों की बनावट, उनकी मर्यादा को लेकर एक तरह का अक्षम्य अनादर, घोर लापरवाही नजर आती है।
सुरेश पंत की नजर ऐसे शब्दों की चाल पर कुछ अधिक रहती है, जिनकी बनावट कुछ विकृत हो गई, जिनकी चाल कुछ बदल गई । सुरेश पंत शुद्धता के आग्रही नहीं, परिवर्तन के प्रशंसक हैं । बदलाव को वे एक सहज प्रक्रिया मानते हैं। ‘भाषा बहता नीर’ के समर्थक, इसलिए शब्दों में स्वाभाविक बदलाव को वे सहज स्वीकार करते हैं मगर कोई भी बदलाव अनायास नहीं होता । उसके पीछे कुछ वास्तविक कारण होते हैं । हर बदलाव का एक ढंग-ढर्रा होता है । ऐसा नहीं हो सकता कि किसी का मन हुआ कि बदलाव करना है और वह अपनी मर्जी से बदलाव कर दे और स्थापित करने पर तुल जाए कि उसने जो बदलाव किया है, उसे ही स्वीकार किया जाए । नए शब्द गढ़े जाते हैं, हर बड़ा रचनाकार नए शब्द पैदा करता है, करना ही चाहिए, इससे भाषा समृद्ध ही होती है, मगर उसका भी नियम-कायदा है । सुरेश पंत की नज़र शब्दों के बनने और बिगड़ने की इन्हीं प्रक्रियाओं पर रहती है । खासकर ऐसे शब्दों, मुहावरों, पदों पर, जिन्हें बरतते समय अक्सर लोगों में भ्रम बना रहता है।
चूँकि भाषा को बरतने वाला एक बड़ा समुदाय दूसरों की नकल करता है, वह व्याकरण और भाषा विज्ञान के सिद्धांतों के झमेले में नहीं पड़ता, इसलिए भी खासकर मीडिया में शब्दों के उपयोग को लेकर व्यापक भ्रम की स्थिति है । उसी भ्रम को दूर करने के मकसद से सुरेश पंत ने शब्दों की जन्मपत्री बाँचनी शुरू की ।
यह जन्मपत्री पहले उन्होंने ‘सोशल मीडिया’ पर बाँचनी शुरू की । लोगों को उनका तरीका बहुत पसंद आय़ा । कुछ संपादकों ने उनकी टिप्पणियों को आग्रहपूर्वक अपने पत्रों में प्रकाशित करना शुरू किया । इस तरह सिलसिला बढ़ा और अब तक बना हुआ है । उन्हीं टिप्पणियों को पेंगुइन बुक्स ने ‘शब्दों के साथ-साथ’ नाम से पुस्तकाकार प्रकाशित किया । इस पुस्तक के प्रभाव का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रकाशित होने के कुछ ही महीनों में इसका दूसरा संस्करण लाना पड़ा । सर्वाधिक लोकप्रिय पुस्तकों की श्रेणी में यह पुस्तक ऊपर की दो-तीन पुस्तकों में जा पहुँची।
इस पुस्तक की टिप्पणियों का मकसद पाठकों को व्याकरण या भाषाविज्ञान पढ़ाना नहीं है । यह एक तरह से भाषा को बरत रहे लाखों लोगों के भ्रमों का निवारण करने की मंशा से लिखी गई हैं । इस तरह यह उन तमाम किताबों से इसीलिए भिन्न है, जो अकादमिक दुनिया, विद्यार्थियों के पाठ्यक्रमों को ध्यान में रख कर लिखी जाती हैं इसीलिए इसकी शैली बतकही की है । इसीलिए ये टिप्पणियाँ चुपके से, चुटीले अंदाज में व्याकरण और भाषाविज्ञान का ज्ञान भी करा देती हैं मगर व्याकरण और भाषाविज्ञान के सिद्धांत शब्दों की यात्रा को बोझिल, ऊबाऊ नहीं बनाते बल्कि कथा-तत्त्व की तरह बातचीत में बहते रहते हैं । पाठक उन सिद्धांतों को समझे, याद रखे, न रखे, कोई फर्क नहीं पड़ता । वह शब्दों के असल स्वरूप, उनके असल स्वभाव को अवश्य समझ जाता और फिर उनके गलत प्रयोग से सदा बचता रहता है ।
‘शब्दों के साथ-साथ’ पुस्तक की एक टिप्पणी बानगी के तौर पर देखी जा सकती है-
“गिरना-ढहना- ‘एक पत्रकार मित्र ने पूछा है, बुलडोज़र से मकान ढहाए गए या गिराए गए?
वे गिरना-गिराना और ढहना-ढहाना में अंतर जानना चाहते हैं । गिरना और ढहना में भेद करना इतना कठिन तो नहीं है, फिर भी इस बीच माध्यमों से प्रचारित, प्रसारित समाचारों से ऐसा अवश्य लगता है कि कहीं भ्रम की स्थिति है।
गिरना प्राकृत *गिरति > गिरइ या संस्कृत गल् गलन से व्युत्पन्न अकर्मक क्रिया है । गिरने का काम स्वतः होता है- (ओले गिरे)। गिराना सकर्मक है। यह काम किसी माध्यम से होता है।
तुमने चाबी कहाँ गिरा दी ? इसी प्रकार ढहना (संस्कृत ध्वंस > ध्वंसन से व्युत्पन्न) अकर्मक क्रिया है ।
बाढ़ से दो मकान ढह गए । गिराना और ढहाना सकर्मक क्रियाएँ हैं, अर्थात कोई वस्तु या ढाँचा किसी के द्वारा गिराया या ढहाया जाता है । नगर निगम ने दो मकान ढहा दिए । नगर निगम द्वारा अवैध निर्माण गिराए गए। यहाँ तक तो ठीक है । दोनों क्रियाओं के अर्थ और प्रयोग में अंतर है।”
ऐसी ही अनेक छोटी-बड़ी टिप्पणियाँ पुस्तक में संकलित हैं । इसी पुस्तक की दूसरी कड़ी है- ‘भाषा के बहाने’।
इसे नवारुण प्रकाशन ने प्रकाशित किया है । इसमें शब्दों के स्वरूप पर चर्चा के साथ-साथ भाषा संबंधी चिंताओं पर भी विमर्शात्मक टिप्पणियाँ हैं।
‘आदर’ और ‘सत्कार’ में अंतर स्पष्ट करते हुए लेखक बताता है कि शब्द समानार्थी होने पर भी उनके प्रयोग प्रकरण सापेक्ष हो जाते हैं। ‘आदर’ में मानसिक भाव है और ‘सत्कार’ में क्रियात्मक पक्ष है । पहले मन में आदर की भावना हो उसके बाद सत्कार की औपचारिकता पूरी होती है, इसलिए शब्द युग्म है ‘आदर-सत्कार । इसी तरह आग्रह, विनम्रता और निवेदन का अंतर दिखलाने में लेखक जिस सूक्ष्मता का परिचय देता है, वह उनके दार्शनिक पक्ष को न केवल प्रकट करता है, बल्कि हमारी भाषा की संपन्नता और सौंदर्य को भी उजागर करता है. “आग्रह में ढिठाई हो सकती है, पर अनुरोध में मधुरता का भाव मुख्य है।”
निस्संदेह ऐसी पुस्तकें हमें भाषा व्यवहार में ‘पतित’ होने से बचाती हैं । हिन्दी पढ़ने-लिखने वालों के लिए, विशेष कर मीडियाकर्मियों, अनुवादकों, शिक्षकों के लिए पुस्तकों का यह जोड़ा बहुत उपयोगी है । पुस्तकों में विस्तार से समझाए गए शब्दों के बारे में गहन जानकारी मिलने के अलावा यह समझ भी बनने लगती है कि शब्द बनते-बिगड़ते कैसे हैं । ये दोनों भाषा के रहस्यों को खोलने वाली और भाषा के शब्द भंडार और शब्द विवेक को समझाने वाली उत्कृष्ट रचनाएँ हैं जो हिंदी को बरतने वालों के लिए नित्य काम में आने वाली संदर्भ पुस्तकें हैं।