बुकर वाली हिंदी और हिंदी किताब की दुकानें

    हिंदी पट्टी में हिंदी किताब बेचने वाली दुकानों का क्या हाल-चाल है इसका एक अच्छा जायज़ा है इस लेख में। लेख लिखा है लखन रघुवंशी ने। लखन रघुवंशी मणिपाल यूनिवर्सिटी जयपुर में जनसंचार के प्राध्यापक हैं। आप उनका यह लेख पढ़िए-

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    लगातार दो वर्षों तक इंटरनेट पर ढूंढने और स्‍थानीय लोगों से पूछने के बाद अंतत: मुझे पता चला कि जयपुर में हिंदी साहित्‍य के लिए लोकायत प्रकाशन नाम से एक दुकान है। वैसे जयपुर में युनिवर्सल बुक स्‍टोर, रजत बुक कॉर्नर और क्रॉसवर्ड भी है लेकिन वहां हिंदी में अनूदित सेल्‍फ हेल्‍प की कुछ किताबें कोने में पड़ी होती हैं। लोकायत प्रकाशन जयपुर शहर के बीचोंबीच और सैलानियों के पसंदीदा आकर्षण स्‍थल एल्‍बर्ट हॉल से बस कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मोती डूंगरी नाम की तंग गली में आस-पास की किराना दुकानों के बीच दबी कुची से ये दुकान सड़क पर होने के बाद भी दूर से दिखाई नहीं देती और पास जाकर देखने पर पता चलता है कि यही लोकायत प्रकाशन है। दुकान के बाहर कई अनूदित  किताबें जिनके पृष्‍ठ अब पाठकों की प्रतीक्षा में पीले पड़ चुके हैं रखी हुईं है। इन अनुवादों में महान कवि पुश्किन की कविताओं की भी एक किताब है। शेक्‍सपीयर से लेकर विजय तेंदुलकर के नाटकों के अनुवाद भी रैक की शोभा बढ़ा रहे हैं। दुकान के मालिक दबे हुए से एक कोने में बैठे हैं और उन किताबों का हिसाब कर रहे हैं जो बिकी नहीं और जिन्‍हें प्रकाशकों को वापिस भेजना है। पांच या छ: रैक्‍स की इस दुकान में जहां सबसे आगे वाले में हाल ही में प्रकाशित उपन्‍यास और कविताएं हैं वहीं दूसरे में यात्रा वृतांत और तीसरे में निबंध और अंग्रेजी से अनुदित उपन्‍यास रखे हैं सबका मुआयना करने के बाद में इस निष्‍कर्ष पर पहुंचता हूं कि लोकायत के पास अच्‍छा और समृद्ध साहित्‍य है। दुकान के मालिक अभी भी अपने हिसाब में व्‍यस्‍त हैं। आकाशवाणी पर पचास के दौर का संगीत धीमे-धीमे सुनाई दे रहा है। कृष्‍ण बलदेव वैद की अब्र क्‍या चीज़ है, हवा क्‍या चीज़ है के कुछ पृष्‍ठ पलटता हूं और दुकान के मालिक की ओर मुखातिब होता हूं- क्‍या आपके मलयज की डायरी है़ॽ वो धीरे से मुस्‍कुराते हैं और सामने रखे बंडल की और इशारा करके बोलते हैं- अभी पैक किया है। रिटर्न कर रहा हूं। बिकी ही नहीं। मैंने कहा- आप मुझे दे दीजिए। उन्‍होंने कहा वो अपने रिटर्न के हिसाब में चढ़ाकर पैक कर चुके हैं। मेरे लिए नए सिरे से ऑर्डर करेंगे। अंतत: में अलेक्‍सांद्रे कुप्रिन के कुछ अनुवाद खरीद कर वहां से विदा लेता हूं। जब भी शहर की ओर जाना होता है या अचानक ही कोई किताब पढ़ने का मन कर जाता है तो मैं स्‍वयं को रोक नहीं पाता। पिछले मानसून जयपुर में इतनी बारिश हुई की लोकायत प्रकाशन में भी पानी भर गया। नीचे की रैक्‍स में रखी हुई किताबें पानी में भीग गई। जब मेरा जाना हुआ तो उन्‍होंने बताया कि भीगी हुई किताबों को भारी डिस्‍काउंट में दे रहे हैं। इस बार मैंने गिओर्गी प्‍लेखानोव का अनुवाद ले लिया। उन्‍होंने मुझे एक रैक में हिंदी किताबों के पीछे अंग्रेजी की कुछ बेहतरीन किताबें भी दिखाई। अब मेरे आने की नियमितता को देखते हुए मेरे पहुंचते  ही उपनी कुर्सी से उठ जाते और नई किताबें दिखाने लगते। मैं जब भी गया पाया कि दुकान पर सिर्फ हम दो ही लोग हैं और खरीददार सिर्फ एक। मैं उन्‍हें बताता कि आपके पास विनोदकुमार शुक्‍ल का महाविद्यालय नहीं है और वो अपनी डायरी में नोट कर लेते।

    मई 2022 समाचार पत्र गीतांजली श्री को मिले अंतरराष्‍ट्रीय बुकर सम्‍मान की प्रशंसा करते हैं। व्‍हॉटसप स्‍टेटस से लेकर इंस्‍टाग्राम स्‍टोरीज़ में हिंदी साहित्‍य को मिले पहले बुकर की चर्चा होने लगती है। पत्रिकाओं में अनुवादकों की भूमिका पर विमर्श होने लगता है। मैं दुकान में प्रवेश करता हूं और पाता हूं कि इस बार वे अपनी कुर्सी पर नहीं है। दुकान के भीतर कुछ पाठक हैं। मुझे देखकर मुस्‍कुराते हैं। इतने में ही एक पाठक रेत समाधि के लिए पूछता हैं। वे बताते हैं कि किताब कल तक थी और आज आउट ऑफ स्‍टॉक हो गई है और उन्‍होंने ऑर्डर कर दिया है। इस घटना को मैं उल्‍टे क्रम में दोहराना चाहता हूं। अधिक दूर नहीं सिर्फ एक सप्‍ताह पहले जब गीतांजली की सभी किताबें रैक्‍स में रखी हुई थी और एक पाठक भी उनको देखने और पढ़ने के लिए नहीं था और अचानक ही खुशी ही जगह एक गहरी पीड़ा होती है। क्‍या आज भी अच्‍छा साहित्‍य अखबार की सुर्खियों का मोहताज है या राष्‍ट्रीय अंतराष्‍ट्रीय पुरस्‍कार ही बेहतर किताबों के मानक तय करेंगेॽ ऐसे तो कितनी ही अच्‍छी किताबें जिन्‍हें कोई सम्‍मान नहीं मिला पाठकों से दूर होती जाएंगी और दुकान के मालिक मलयज की डायरी की ही तरह उसे यह कहकर रिर्टन करेंगे कि ये बिकती ही नहीं। क्‍या साहित्‍य को लेकर हमारी चेतना आज भी शून्‍य है। मानता हूं कि हर पाठक इतना जागरुक नहीं होता। लेकिन इस दौर में जब विकल्‍प अधिक हैं क्‍या हम पढ़ने को एक महत्‍वपूर्ण और गंभीर कार्य की तरह नहीं ले सकतेॽ हिंदी साहित्‍य को यह बुकर बहुत पहले मिल जाना था लेकिन इस देरी के लिए भी हम ही जिम्‍मेदार हैं और आगे होने वाली हर देरी के लिए भी हम ही उत्‍तरदायीं होगे। क्षणिक उत्‍सुकता और प्रशंसा को एक नियमित गतिविधि बनाना होगा।

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    लखन रघुवंशी

    सहायक प्राध्‍यापक, मणिपाल यूनिवर्सिटी जयपुर

    9993429097

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