मराठी के प्रसिद्ध लेखक विश्वास पाटिल ने शिवाजी पर उपन्यास त्रयी लिखा है और ऐतिहासिक उपन्यासों में उनका बहुत ऊँचा मेयार है। आज पढ़िए उनका लिखा यह प्रसंग- मॉडरेटर
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औरंगजेब की लड़ाकू ब्राह्मण सरदारनी! जिसने शिवाजी महाराज के खिलाफ तलवार उठाई! साथ ही अफजल खान की मदद करने और अपनी रियासतों के लिए शिवाजी महाराज की जान के दुश्मन बने मराठा सरदारों की सूची! -विश्वास पाटील इतिहास का चक्र बड़ा ही विचित्र है। विदर्भ स्थित माहूर की रायबाघन देशमुख औरंगजेब की प्रिय सिपहसालार थी। शिवाजी महाराज के खिलाफ उसने कई लड़ाइयों में हिस्सा लिया और मैदान-ए-जंग में अपनी तलवार के जौहर दिखाए थे। वहीं जब अफजल खान महाराष्ट्र पर चढ़ाई करने आया, तो अनेक मराठा सरदार उसके कंधे से कंधा मिला कर मदद के लिए दौड़े थे।
इनमें मंबाजी भोसले नामक शिवाजी महाराज के चाचा भी थे, जो 10 नवंबर 1659 को प्रतापगढ़ लड़ाई में बीजापुर के नमक का कर्ज अदा करते हुए मारे गए। वाशिम के नजदीक सावरगांव में रहने वाले उदामराव कुलकर्णी नामक एक ब्राह्मण ने उस काल में फारसी भाषा में महारत हासिल कर ली थी। उसकी इस बात पर दिल्ली के मुगल बादशाह अकबर को बड़ा कौतुक हुआ। अकबर ने 1592 में वाशिम और माहूर के नजदीक 52 गांव उसके अधिकार में देकर, उसे देशमुख बना दिया। 1624 की भातवडी की लड़ाई में वह मुगल-सरदार के रूप में शिवाजी महाराज के पिता शहाजी महाराज के खिलाफ भी लड़ा था। इस उदामराव की मृत्यु के बाद के काल में हरचंद राजपूत नाम के सरदार ने माहूर पर चढ़ाई कर दी। जागीर पर दावा किया। तब ‘बहन की लाज’ रखने की विनती करते हुए, रायबाघन औरंगजेब के पास गई।
ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के बावजूद रायबाघन ने घुड़सवारी और शस्त्रास्त्र चलाने का जो कौशल हासिल किया था, वह देख कर औरंगजेब आश्चर्यचकित रह गया। तब उसने रायबाघन को स्थायी रूप से सरदार के पद पर नियुक्त कर दिया। यही नहीं, औरंगजेब का मामा शाइस्ता खान जब महाराष्ट्र पर आक्रमण करने आया, तो उसने अपने वरिष्ठ सरदार कारतलब खान और रायबाघन को शिवाजी महाराज के कोंकण के ठिकानों को नष्ट करने के लिए विशेष रूप से नियुक्त किया। 3 फरवरी 1661 को उंबरखिंड की लड़ाई में रायबाघन स्वयं मोर्चा संभाले हुए थीं। रायबाघन के इतिहास का यह प्रमाण, उसी काल में परमानंद स्वामी द्वारा लिखित ‘शिवभारत’ नामक संस्कृत महाकाव्य के 25वें और 28वें खंड में मिलता है, जहां उसके इस युद्ध का संपूर्ण वर्णन है। इसके साथ ही प्रसिद्ध इतिहासकार और लेखक गोविंद सखाराम सरदेसाई, बाबासाहेब पुरंदरे, विजयराव देशमुख और प्रारंभिक इतिहासकार केलुस्कर गुरुजी जैसे कई विद्वानों के ग्रंथों में यह पूरा प्रकरण और निर्विवाद प्रमाण मिलते हैं। (इसी तरह मैंने भी शिवाजी महाराज पर लिखी उपन्यास श्रृंखला ‘महासम्राट’ के दूसरे खंड -रणखैंदळ, जो हिंदी में ‘घमासान’ नाम से शीघ्र प्रकाशित होने वाला है- में उपरोक्त सभी प्रकरणों को विस्तार से लिखा है।
हिंदी में इस उपन्यास श्रृंखला का पहला खंड ‘झंझावात’ राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है। वहीं ‘रणखैंदळ’ का अंग्रेजी अनुवाद “Shivaji Mahasamrat The Wild Warfront” published by Wasteland eka नई दिल्ली से प्रकाशित होकर पाठकों के लिए उपलब्ध है।) उंबरखिंड के दस साल पश्चात यानी 1670 में, जब शिवाजी महाराज दूसरी बार मुगलों के सूरत को लूट कर वापस लौट रहे थे, तब दिंडोरी और चांदवड के पास राजा का रास्ता रोककर उन्हें मारने के इरादे से दाऊद खान और महाबत खान जैसे मुगल सरदार दौड़े आए थे। उसी समय औरंगजेब के आदेश पर रायबाघन देशमुख भी अपनी सेना लेकर शिवाजी महाराज के रास्ते का रोड़ा बनने के लिए पहुंची थी। उस युद्ध में शिवाजी महाराज ने उसे परास्त कर कैद कर लिया। दस साल बाद रायबाघन फिर से अपनी तलवार लेकर युद्ध के लिए आई, यह देख कर राजा चकित थे। मगर उदार हृदय वाले शिवाजी महाराज ने उसे माफी दे कर छोड़ दिया। जब अफजल खान ने शिवाजी महाराज का समूल नाश करने की शपथ लेकर चढ़ाई की, तो उसका साथ देते हुए प्रतापगढ़ की लड़ाई में अंतिम दिन तक अनेक बहादुर मराठा सरदार बीजापुर के नमक के प्रति वफादार बने रहे। इन सरदारों में शामिल थे- मलवडी के नाइकजी राजे पांढरे, फलटण के बजाजी नाइक निंबालकर, मसूर के सुलतानजी जगदाले, खंडोजी खोपडे, गुंजन मावल के विठोजी हैबतराव देशमुख, मुधोल के बाजी घोरपडे, सरदार खराडे, कल्याणजी यादव, झुंजारराव घाटगे, प्रतापराव मोरे, जिवाजी देवकाते, सरदार काटे, पिलाजी मोहिते और शंकरजी मोहिते।
इन्हीं में शामिल शिवाजी महाराज के चाचा, मंबाजी भोसले नामक सरदार भी प्रतापगढ़ के युद्ध में मारे गए। यह एक निर्विवाद सूची है और हमें ध्यान रखना होगा कि इस इतिहास के प्रामाणिक दस्तावेज कम से कम 50 जगहों पर उपलब्ध हैं। प्रसिद्ध मिर्जा राजा जयसिंह नौ साल की उम्र में ही मुगलों की सेवा में शामिल हो चुके थे। राणा जसवंत सिंह और मिर्जा राजे ने जीवन भर औरंगजेब की चाकरी की और उसके कद को बड़ा बनाया। साथ ही उसकी मदद और आशीर्वाद से राजस्थान में बड़ी धन-संपत्ति-वैभव खड़ा किया। औरंगजेब के साथ छोटे-बड़े 22 राजपूत सरदार अलग-अलग समय पर वीर शिवाजी और संभाजी महाराज के खिलाफ लड़े थे। कम से कम अब इस ‘शुभ मुहूर्त’ में इन सभी सरदारों की समाधियां कहां हैं, उनके अध्ययन के लिए ही सही, उन्हें खोज कर उनके संरक्षण का जतन किया जाना चाहिए! छत्रपति शिवाजी और संभाजी महाराज जैसे दिव्य महापुरुष इस धरती पर पैदा हुए, यह हमारी मिट्टी का सौभाग्य है। लेकिन आज एक-दूसरे पर उंगली उठाने वाले तमाम मराठा, राजपूत और ब्राह्मण वर्ग के लोगों ने, उस काल में कई बार धोखाधड़ी, विश्वासघात और दगाबाजी करके इन दोनों महान पिता-पुत्रों समेत स्वराज्य धर्म का ही नहीं, बल्कि मानव धर्म का भी नुकसान किया था। उनके ऐसे ‘पुण्यकर्मों’ के कम से कम 60-70 ठोस प्रमाण मैं स्वयं इतिहास की कसौटी पर कस कर दिखा सकता हूं। सचाई यह है कि आज शिवाजी महाराज और संभाजी महाराज का प्रेरणादायी इतिहास हमारी प्रेरणा के लिए नहीं, बल्कि सभी दलों की वोटों की राजनीति को चमकाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।