यदि हमलोग इतने भी उदार होते कि ‘दूसरे’ धर्म की रीति अपनाने में कोई झिझक नहीं होती तब यह दुनिया निश्चित ही ज़्यादा सुंदर होती। बसंत पंचमी और अमीर ख़ुसरो से संबंधित कथा बहुत से लोग जानते होंगे, बहुत से नहीं भी जानते होंगे। आज उसी कथा की चर्चा कर रहे हैं पीयूष प्रिय। बसंत की शुभकामनाओं सहित – अनुरंजनी
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‘बसंत पंचमी और अमीर ख़ुसरो का सकल बन’
कुंभ की चर्चा हर जगह है, हमारे गाँव में अभी एक और चर्चा और तैयारी जोर- सोर से चल रही होगी। यह बिहार के लगभग हरेक गाँव की तैयारी होगी जिसे हम सरस्वती पूजा या बसंत पंचमी कहते हैं। अब कुंभ से ये तस्वीरें सामने आ रही हैं कि कैसे प्रयाग के मुसलमान वहाँ के हिंदू श्रद्धालुओं की मदद कर करे हैं और यही कुंभ की सबसे अच्छी तस्वीरें हैं।
कुछ ऐसे ही सौहार्द की कथा बसंत पंचमी से जुड़ी हुई है।यह कथा भारत की ही है, जिसमें दो भिन्न संस्कृतियां एक दूसरे से सीखने को तत्पर रहती थीं। जवाहर लाल नेहरू ने अपने किताब विश्व इतिहास की झलक में लिखते है कि कैसे बगदाद या अरब ज्ञान का बहुत बड़ा भंडार बन चुका था जिसने भारतीय तथा यूनानी संस्कृति से बहुत कुछ सिखा। 800 साल पहले भारत में भी एक ऐसे ही विलक्षण थे।’आमिर खुसरो’, नाम तो सुन ही होगा, हिंदी-फ़ारसी संस्कृति के प्रणेता।
अमीर ख़ुसरो ऐसे प्रथम मुस्लिम कवि थे जिनके यहाँ हिंदी शब्दों का खुलकर प्रयोग मिलता हैI वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हिंदी, हिन्दवी और फ़ारसी में एक साथ लिखाI उन्हें खड़ी बोली के अविष्कार का श्रेय दिया जाता है। वे अपनी पहेलियों और मुकरियों के लिए जाने जाते हैं। सबसे पहले उन्हीं ने अपनी भाषा के लिए हिंदवी का उल्लेख किया था। सबसे बड़ी विशेषता उनकी ये थी वो हिन्दी या हिंदुस्तान को बहुत कुछ दे कर गए और यहाँ की संस्कृति से बहुत कुछ सीखा भी।
आइए देखते हैं कैसे उन्होंने हिंदू संस्कृति से कुछ सीखकर एक अतिसुंदर गीत की रचना की।
एक गीत या उत्सव जो बसंत, वसंत, या सकल बन के आगमन का प्रतीक है, जो नज़र आता है उससे कहीं अधिक है। हाँ, इसमें सभी तरह के भंसाली सौंदर्यशास्त्र हैं, महिलाएँ नवरस का प्रतिनिधित्व करती हैं, और राजा हसन गीत के सबसे बेदाग शब्दों को गाते हैं। लेकिन गीत के नीचे एक लोककथा है जो समय जितनी पुरानी है और केवल संजय लीला भंसाली जैसे कद का एक फिल्म निर्माता ही इतनी गहराई तक जाकर उस व्यक्ति की भक्ति में अपनी प्रेरणा पा सकता है जो 800 साल पहले अस्तित्व में थी। अपने भगवान की मुस्कुराहट के लिए यह उनका समर्पण था, यह उनकी लालसा थी कि वह अपने प्रिय सर्वोच्च को फिर से जीवित होते हुए देख सके, और यही सकल बन को कला का इतना शक्तिशाली नमूना बनाती है।
सकल बन, जो कि एक इंडो-फ़ारसी सूफी गायक, कवि, संगीतकार और विद्वान अमीर ख़ुसरो द्वारा लिखा और प्रस्तुत किया गया है। यह एक गाना है जो उन्होंने अपने पीर को मुस्कुराने के लिए प्रस्तुत किया था। अस्पष्ट? वैसे, हज़रत अमीर ख़ुसरो हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के अनुयायी थे, जिन्हें खुसरो अपने ईश्वर के स्थान पर देखते थे। हज़रत निज़ामुद्दीन, जो निःसंतान थे, अपनी बहन के बेटे ख्वाजा तकीउद्दीन नूह से बहुत प्यार करते थे। लेकिन नियति की कुछ और ही योजनाएँ थीं, क्योंकि नूह एक घातक बीमारी का शिकार हो गया और अपने साथ निज़ामुद्दीन औलिया की खुशियाँ भी ले गया।
ख्वाजा तकीउद्दीन नूह की मृत्यु के बाद उनके शिष्य अपने हज़रत को फिर से मुस्कुराते हुए देखने के लिए तरस रहे थे और उन्होंने वह सब किया जो वे कर सकते थे। अमीर ख़ुसरो अपने हज़रत को अब और दुखी नहीं देख सकते थे और कुछ भी करने को तैयार थे। एक दिन, जब वह निज़ामुद्दीन औलिया के खानकाह (मठ) की ओर जा रहे थे, तो उन्होंने हिंदू महिलाओं के एक समूह को पीले कपड़े पहने, पीले सरसों के फूल लेकर सड़कों पर गाते हुए देखा। ख़ुसरो ने उनसे पूछा कि वे क्या कर रहे हैं, और उन्होंने उसे बताया कि वे भगवान को सरसों के फूल चढ़ाने के लिए मंदिर जा रहे हैं। जिज्ञासु अमीर खुसरो ने उनसे पूछा कि क्या इससे उनके भगवान खुश होते हैं, और उन्हें सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली।
बिना एक पल भी बर्बाद किए उन्होंने पीली साड़ी पहनी, सरसों के कुछ फूल लिए और हजरत निज़ामुद्दीन के सामने पेश हुए और सकल बन गाया। हजरत उस पोशाक में अपने प्रिय शिष्य को देखकर और कविता सुनकर मुस्कुराए और अमीर खुसरो की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उस दिन से, हर साल हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह में बसंत पंचमी मनाई जाती है, वहाँ भक्त पीले कपड़े पहनते हैं और कव्वाली गाते हैं।
लोकगीत अब ‘हीरामंडी’ में पहुंच गया है क्योंकि सकल बन कविता ‘एल्बम’ के एक गीत में बदल जाती है जिसमें कई और बेदाग गाने हैं। कहानी आपको संजय लीला भंसाली की दुनिया के विवरणों की सराहना करने पर मजबूर कर देती है क्योंकि पीले कपड़े पहने महिलाएं, शर्मिन सहगल का उदास होना- यह सब बहुत मायने रखता है। और अगर इस समय भारतीय सिनेमा में कोई एक फिल्म निर्माता है जो यह कर सकता है, तो वह संजय लीला भंसाली है।
यहाँ एक गीत है जो दो संस्कृतियों को जोड़ता है, धार्मिक सद्भाव का प्रमाण है, और कला का एक टुकड़ा है जो समय के अंत तक प्रासंगिक रहेगा, और यह सब एक संगीतकार से मिलता है जो संस्कृति के महत्व को समझता है ।
सकल बन फूल रही सरसों- अमीर खुसरो
बन बन फूल रही सरसों
अम्बवा फूटे टेसू फूले
कोयल बोले डार-डार
और गोरी करत सिंगार
मलनियाँ गढवा ले आईं कर सों
सकल बन फूल रही सरसों
तरह तरह के फूल खिलाए
ले गढवा हाथन में आए
निजामुद्दीन के दरवज्जे पर
आवन कह गए आशिक़ रंग
और बीत गए बरसों
सकल बन फूल रही सरसों
(तस्वीर गूगल से साभार)