‘एक सेक्स मरीज़ का रोगनामचा: सेक्स ज़्यादा अश्लील है या कला जगत’ की समीक्षा
प्रसिद्ध कला एवं फिल्म समीक्षक विनोद भारद्वाज ने कला जगत को लेकर दो उपन्यास पहले लिखे थे. हाल में ही उनका तीसरा उपन्यास आया है ‘एक सेक्स मरीज़ का रोगनामचा: सेक्स ज़्यादा अश्लील है या कला जगत’, इस उपन्यास की समीक्षा इण्डिया टुडे के नए अंक में प्रकाशित हुई है जिसे युवा लेखिका रश्मि भारद्वाज ने लिखा है- मॉडरेटर
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विनोद भारद्वाज अपने त्रयी श्रृंखला के अंतिम उपन्यास ‘एक सेक्स मरीज़ का रोगनामचा’ में कला जगत की अंदरूनी सच्चाई और त्रासदी को मनोविकार के माध्यम से प्रस्तुत करते हुए सवाल करते हैं कि सेक्स ज़्यादा अश्लील है या कला जगत. वाणी प्रकाशन द्वारा आए इस उपन्यास का नायक जयकुमार ख़ुद को एक सेक्स मरीज़ मानता है जबकि दरअसल वह कला जगत की वजह से अपने जीवन में आई अस्थिरता, कुंठा और हताशा को दूर करने के लिए सेक्स को एक ‘एस्केप’ की तरह प्रयुक्त करता प्रतीत होता है. जयकुमार की रंगीन ज़िन्दगी में कई अँधेरे कोने हैं जो पूरे उपन्यास पर हावी हैं. अक्सर देखा जाता है कि कला एवं साहित्य की तमाम उपरी चमक दमक के नीचे अकेलेपन और असफलता की घुटन छिपी होती है. इस उपन्यास के मूल में वही काफ़्का शैली का अवसाद है जो अंत में नायक को सेक्स से भी विरक्त कर देता है. एक स्थायी करियर, रिश्ते और पैसे के बिना अकेला छूट चुका नायक अंत में ख़ुद से सवाल करता है: ‘तो क्या ख़ुशी सच में चली गयी है?’ अंतिम अध्याय में आने वाली यह लड़की ख़ुशी जिसके नाम पर यह अध्याय भी है ‘ख़ुशी का आना और जाना’ दरअसल ख़ुशी को एक प्रतीक की तरह दिखाता है. ख़ुशी सिर्फ जय को लड़कियां उपलब्ध करने वाली एजेंट ही नहीं है, वह सभी बाहरी कृत्रिम आकर्षण और भौतिक छलावों के विरुद्ध नायक को अपनी आंतरिक प्रसन्नता एवं संतुष्टि तलाशने के लिए प्रवृत करती है. यह ओपन एंडेड अंत ओशो की तर्ज़ पर एक ख़ास तरह की आध्यात्मिक आत्मसंतुष्टि की बात करता है.
यहाँ नायिकाएं भी अपनी यौनिकता के लिए पूर्णतः सजग एवं मुखर है और कई बार अपनी फंतासियों को पूरा करने के लिए समाज द्वारा तय की गयी सीमाओं का अतिक्रमण भी करती हैं. रिश्तों में अक्सर प्रयुक्त होने वाले अदृश्य चेस्टिटी बेल्ट का ज़िक्र कर लेखक ने उन्हें पुरुषों के समकक्ष यौनिक स्वतंत्रता दिलाने का प्रयास किया है.
दूसरे अध्याय ‘फ़ पेंटिंग की नायिका कहती है कि फ़ के कई अर्थ हो सकते हैं, फ्लावर, फ़ाइन या फ़क. अपनी रचनात्मकता को नए आयाम देने और अपने अंदर के ‘रचनात्मक जानवर’ को जगाए रखने के लिए के लिए सभी कलाकार नए एवं रोमांचकारी प्रयोग करते हैं जिसका प्रभाव उनकी निज़ी ज़िन्दगियों पर भी पड़ता है. रिश्तों की गरिमा एवं प्रतिबद्धता यहाँ कहीं दिखाई नहीं देती. शायद यही वजह है कि लगभग हर पात्र अपने अकेलेपन एवं जीवन की अस्थिरता से आक्रांत है. हमारे उत्तर आधुनिक समाज की वह विडंबना यहाँ पूरी शिद्दत से चित्रित की गयी है जहाँ स्त्रियाँ भी अपनी आंतरिक मुक्ति को तरज़ीह नहीं देकर यौन मुक्ति को ही असली आज़ादी मान बैठती हैं. नायक ख़ुद को ‘कनिलिंगस किंग’ कहता है और स्त्रियों की यौनिकता एवं इच्छा का पूरा सम्मान करता है लेकिन इसके अतिरिक्त स्त्रियों से कोई भावनात्मक जुड़ाव नहीं रख पाता. जिस स्त्री से वह मन से जुड़ जाता है, उसके साथ सहजता से सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाता. यह सिर्फ़ नायक की अक्षमता नहीं, हमारे समय के खोखले हो रहे रिश्तों की भयावह सच्चाई है.
ऊपरी तौर पर यह किताब एक सेक्स मरीज़ की डायरी प्रतीत हो सकती है लेकिन यहाँ कई महत्वपूर्ण सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक मुद्दे अन्तर्निहित हैं जो पाठकों को सोचने के लिए बाध्य करेंगे. इस उपन्यास की पृष्ठभूमि मूलतः राजनैतिक है एवं वर्तमान सरकार की कला एव संस्कृति विरोधी नीतियों के विरुद्ध यहाँ एक तीव्र प्रतिरोध का स्वर मुखरित है. नोटबंदी को केंद्र में रखकर लेखक ने वर्तमान सरकार की नीतियों और उसकी वजह से कला जगत पर आये दुष्प्रभावों का सोदाहरण वर्णन किया है.
हमेशा से कट्टरपंथियों के निशाने पर रहा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मुद्दा इस उपन्यास में प्रमुखता से चित्रित है. कोणार्क की मूर्तियों को अश्लील करार देकर उन्हें ढकने के लिए चलाये जा रहे कुछ शुद्धतावादी नेताओं के प्रसंग द्वारा यह सवाल बख़ूबी उठाया गया है. इसके अतिरिक्त सदियों से चला आ रहा यह प्रश्न कि कला सिर्फ़ कला के लिए हो या उसकी समाज के लिए कोई नैतिक ज़िम्मेदारी भी बनती है, यहाँ बड़ी ही कुशलता से उठाया गया है.
एक कला समीक्षक के नाते लेखक विनोद भारद्वाज कला जगत के अंदरूनी गलियारों में आवाजाही करते रहे हैं. वहीँ से वास्तविक पात्र एवं घटनाएँ उठाकर वह हमें चमकीले रंगों के नेपथ्य में छिपी एक बदरंग और भयावह दुनिया की झलक दिखाते हैं. वह दुनिया दरअसल हमारे इस जटिल उत्तरआधुनिक समय का एक टुकड़ा भर है जहाँ तकनीकी, विज्ञान, धर्म एवं सत्ता के चौतरफ़ा आक्रमण से संवेदना एवं मानवीय रिश्तों की ऊष्मा क्षीण पड़ती जा रही. जो कुछ भी सुन्दर एवं कोमल है, वह नष्ट होने की कगार पर है.