आज पढ़िए अशोक कुमार की कविताएँ। यह कविताएँ वर्तमान समय की उन प्रवृत्तियों की ओर ध्यान ले जाती हैं जिनमें हम सब जीने के लिए बाध्य हैं। जहाँ हर क्षण हम संदेह में जी रहे हैं, निराशा, दुःख के साथ ही हमारा जीवन चल रहा है। जीवन, यानी सोचते रहने का नाम, अशोक कुमार का यही काम उनकी इन कविताओं में भी देख सकते हैं। यह रही कविताएँ-
1. डर
अंधेरा इतना नहीं है
न भीतर न बाहर!
फिर भी मन की किसी भीतरी दीवाल पर
कोई अदृश्य भय
दस्तक देता रहता है लगातार
एकांत मे होता हूँ
तो ऐसा लगता है-
कि मानों नाउम्मीदीयों के भय से
मौन हो गई हैं ये चारदीवारियाँ
घर से निकलता हूँ
तो डरता हूँ कि-
शाम तक वापिस आ पाऊँगा कि नहीं
हमेशा छतरी लेकर निकलता हूँ
कि कहीं बारिश न आ जाए
कि कहीं धूप तेज़ न निकले
किसी से मिलता भी हूँ
तो इस संदेह के साथ
कि उस पर विश्वास करूँ या नहीं
किसी को प्रेम करते हुए डरता हूँ
कि कहीं नफरत न करने लगूँ
दुश्मनी रखता हूँ
तब भी डरता हूँ
कि कहीं ज्यादा ही शत्रुता न पाल लूँ
किसी किताब को खोलते हुए डरता हूँ
कि कहीं निकट भविष्य में
यह प्रतिबंधित न हो जाए
आहत भावनाओं के इस बीहड़ में
अपने प्रिय कवियों की
प्रिय कविताओं का पाठ करने से डरता हूँ
टीवी देखते हुए डरता हूँ
कि कहीं यह एंकर स्क्रीन से बाहर निकलकर
यह न कह दे कि आंखें नीची करो अपनी!
कि राजा का झूठ
झूठ नहीं होता
और मैं डरते हुए भी डरता हूँ
कि कहीं इतना न डर जाऊँ
कि फिर से कोई ईश्वर गढ़ लूँ
2. कविता
भागते–भागते मिली एक कविता
बोली ठहरो!
अभी काम पर जाना है
फिर काम पर मिली एक कविता
बोली प्रतीक्षा करो!
अभी बहुत व्यस्त हूँ
फिर काम के बाद मिली एक कविता
वह भूखी थी
उसे खाना बनाना था
फिर रात में मिली एक कविता
वह अपने हाथों में–
कल के कामों की सूची लिए हुए
बहुत तनाव में थी
बोली ठहरो कवि!
जीवन के गणित के बहुत से सवाल
अपने सूत्रों की तलाश में हैं
तुम कभी फुर्सत में मिलना मुझसे
3. रोग
इस प्रौढ़ सदी के कंठ में
अटकी है अतीत की बलगम
और पुरातन खाँस से
बाधित है इसका श्वसनतंत्र
कुशल वैद्य की प्रतीक्षा में
गहरा रहीं हैं व्याधियाँ
औषधियों की सुरक्षा हेतु
मंद है पृथ्वी की गति
स्थगित हैं ऋतुओं में बदलाव
किंतु अपने–अपने एकांत में
चुपचाप बैठे हैं
सबसे दक्ष शल्य चिकित्सक
और हम जिन्हें इसके लिए चिंतित होना था
वे पुरानी पोथियाँ बाँचते हुए
इस रोग का उत्सव मनाने में व्यस्त हैं
4. भय
अच्छी बात थी कि अब शहर में-
कम हो रहे थे मर्दाना कमज़ोरी के इश्तिहार
गृहकलेश और वशीकरण के भी
किन्तु अब इस नए शहर में-
प्रदूषण से ज्यादा अफवाहें थीं
खबरों से ज्यादा विज्ञापन
हमारी पीढ़ी के लोग
सब इश्तिहार देखकर ही चुनते थे
चाहे खाना-कपड़ा हो
साबुन तेल हो या फिर सरकार
बदले हुए नाम के मार्गों पर दौड़ते हुए यह शहर
अपने ही भीतर ही
निरंतर किसी भटकाव में था
मैंने ऐसे ही किसी
बदले हुए नाम वाले चौराहे पर रोककर
इस शहर उसका हाल पूछा
तब वह बोला
कि पुराने पड़ जाने के भय से ज्यादा–
वह इस तरह आधुनिक हो जाने से भयभीत है
5. अनुवाद
ठीक–ठीक अनुवाद कहाँ संभव था?
अनुवादक ने बीच–बीच में
कहीं–कहीं रख दिए थे अपने भी भाव
कविता इस तरह पहुँची
नए देस में नई भाषा पहनकर
नई परंपरा में लिपटी हुई
नए–नए अर्थों के साथ
जैसे ब्याही गई हों बेटियाँ
एक गाँव से दूसरे गाँव
6. भाषा
उजाले जो अंधेरों से मिलकर
षड्यंत्र रचते हैं सूर्य के विरुद्ध
मुझे उनके बारे में कुछ नहीं कहना
मुझे उस पृथ्वी के बारे में भी कुछ नहीं कहना
जिसकी पुरातन देह पर
हमारे बेढंगे नृत्य से बने ताजे जख्म हैं
पुरखिनियों की लम्बी चुप को
संस्कारों की तरह ओढ़े हुए
तुम्हारे चेहरे के बारे में भी मुझे कुछ नहीं कहना
मूक होती एक भाषा में
मर रही किसी दूसरी भाषा के बारे में भी
मुझे कुछ नहीं कहना
यह समय भाषाओं के अकाल का समय है
मुझे इस समय के बारे में भी कुछ नहीं कहना
जो बीतने से पहले ही
समा रहा है किसी ब्लैकहोल में
समयविहीन इस ब्रह्माण्ड में
हम वर्जित संवादों के लिए
किसी आदिम भाषा की तलाश में हैं
हमारे बीच किसी संवाद के लिए
हम भाषा नहीं तलाशेंगे
अब हमारे संवादों से जन्मेंगी नई भाषाएँ
7. संदेह
किसी अनिष्ट की आशंका से अचानक
अर्धरात्रि में टूटती है नींद
और गहरे स्याह सन्नाटे में
बढ़ने लगतीं हैं फुसफुसाहटें लगातार
लगता है कि कुछ अदृश्य हाथ
टटोल रहे हैं कुछ
और संदिग्ध माने जाने के भय से भयभीत उम्मीदें
तलाश रही हैं सुरक्षित कोने
आधी पढ़ी गई कहानियों से अचानक
विलुप्त हो रहे हैं किरदार
यह रुत इतनी शुष्क है कि
कविताओं से भी कम हो रही है नमी
लगता है कि रौशनदानों के बाहर
उग आई हैं अनेकों आँखें
जो किसी गुप्तचर सी झाँक रही हैं भीतर
मेरा अपना एक हाथ दूसरे हाथ का मुखबिर बना है
और मेरी ही एक आँख
मेरी दूसरी आँख की जासूस
सुइयों की अनवरत गति के बावजूद
दीवाल पर टँगा यह समय
लगता है युगों से नहीं बीता
और सूचनाओं के समंदर की तलहटी में
आखिरी साँसें भरता सत्य
प्रार्थनाओं को दोहराते हुए
मुक्ति का मार्ग तलाश रहा है
8. वारिस
साँसों की आवाजाही रुकते ही
सफ़ेद कपडे में बंधी
किसी गठरी में बदल गयी थी वह
सिसकियाँ सन्नाटे में
और सुबह खौफ में बदल गई थी अचानक
लोगों ने कहा कि प्रसव के दौरान
प्रसव पीड़ा से मर गई वह
दवाखाना अगर होता
तो शायद बच सकती थी जान
भीड़ में कोई फुसफुसाया
कि बड़ी सख्त जान थी
पूरे तीन दिन जूझती रही दाँतों को भींचे
आवाज़ तक नहीं निकाली
कोई बोला-
‘कोई धूनी-धागा काम नहीं आया‘
‘दुआ-अरदास नहीं फली‘
‘सब मन्नत-मनौवत बेकार गयीं‘
और किसी ने कहा-
‘जो भी हो वारिस देकर गयी है भागों वाली‘
जितने लोग मौजूद थे आँगन में
उतनी ही फुसफुसाहटें थीं वहाँ
आखिर वारिस देकर गयी थी छः बेटियों की माँ
वारिस कि जिसके दीयों से
रोशन होने थे स्वर्ग के रास्ते
कि जिसके किए गौदान से पार उतरनी थी वैतरणी
कि जिसके दिए भोग से
भरे जाने थे प्रेतात्माओं के खाली उदर
9. बैलेंस
वह लौट रही है काम से
एक भीड़ भरी बस में
एक हाथ में बैग दूसरे से हैंडरेल पकड़ कर
बैलेंस बनाती हुई
वह बस से बाहर देख रही है
कारों में बैठी हुई औरतें को
रेडलाइट पर खड़ी, एफ. एम. सुनती हुई औरतों को
घर की पार्किंग में खड़ी है दहेज में आई कार
ए..से एक्सेलेरेटर, बी… से ब्रेक
उसे कुछ भी याद नहीं है
वह ड्राइविंग पूरी तरह भूल चुकी है अब
वह अपनी आँखें बंद करती हैं कुछ देर
कुछ याद करती है
और मुस्कुरा देती है
उतरते हुए सटकर उतरते हैं लड़के
छूकर कर निकलते हैं अधेड़
और कुटिल हँसी हँसते हैं कुछ वृद्ध
वह बिल्कुल खमोश है
उसे जल्द लौटना है घर
वह लौट रही है काम से
मन की खरोंचों के साथ
हैंडरेल की पकड़ को बार-बार मजबूत करके
बैलेंस बनाते हुए
वह बस स्टैंड पर चुपचाप उतरती हैं
इधर-उधर देखती है
कि कोई बड़ा उसे ऐसे देखता न हो
वह आस्तीनों को अन्फ़ोल्ड करती हैं
गले से स्कार्फ उतारती है
और अपने बैग में रख लेती है
वह नीले रंग का मैचिंग दुपट्टे को
जल्दी-जल्दी ओढ़ती है आँखों के नीचे तक
और मुड़ जाती है गली में
तेज़ कदमों से बैलेंस बनाती हुई
10. पुकार
कार्तिक के इस उत्तरार्द्ध में
कुछ नर्म होने लगी है धूप
रात से मिलने की आतुरता में
जल्दी ढलने लगे हैं दिन
सबसे खूबसूरत दरख्तों के पत्ते
झरने से पूर्व अपने हरे में
कुछ देर और ठहर जाना चाहते हैं
वे कुछ देर और ठहरेंगे यहाँ
और फिर झर जाएँगे
घनी उदासी का गहरा पीला ओढ़कर
शिशिर की शीतरात्रियों से पहले
लोकधुनों की मीठी तान पर
फिर से गूँजेगा विरह का कोई सर्द गीत
स्मृतिलोप से उपजे ये संदेह
दुःस्वप्नों की लम्बी श्रृंखलाएं रचेंगे
और भविष्य की यह एकाकी यात्रा
बेहद कुरूप दिखेगी दर्पण में
किन्तु इस ऋतु-अंतराल में
तुम बार-बार पुकारना मुझे
और मेरी यात्राओं की सारी थकान को
इस पुकार के माधुर्य में घोल लेना
गहरे कोहरे-कुहासे के बीच
रोज़ एक नया निर्वात पनपेगा भीतर
तुम रोज़ उस खालीपन को
अपनी उपस्थिति से भर देना