
Lovers Like you and I– यह पहला उपन्यास था जो इस साल मैंने पढ़ा था। पढ़कर गहरे अवसाद से भर गया। नयन, पलाश, मैथिल के जीवन के बारे में सोचकर। मीनाक्षी ठाकुर का यह उपन्यास भारतीय अंग्रेजी लेखन के प्रचलित रूपों से नितांत भिन्न है। इस अर्थ में कि यह अपने समाज, उसकी वर्जनाओं, उसकी कल्पनाओं, उसकी आकांक्षाओं में गहरे धंसा हुआ है। कविताओं, चिट्ठियों, स्थानों के माध्यम से एक ऐसा लोक रचा गया है जो अब नहीं है। शायद जो खो जाता है वही तो प्यार होता है। बहरहाल, मैंने कहा था कि इस उपन्यास पर लिखूंगा, जो मार्केज के ‘लव इन द टाइम ऑफ कॉलरा’ के बाद एक ऐसी प्रेम कहानी है जो मेरे अंदर गहरे बस गई। उसी की तरह अपने समाज में पूरी तरह से रुटेड। खैर, मुझसे पहले ही इस उपन्यास की एक गहरी समीक्षा लेखक प्रचंड प्रवीर ने लिखी है। आपके लिए- प्रभात रंजन
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मीर तक़ी मीर‘ जिनको हम ‘ख़ुदा–ए–सुखन‘ कह कर पुकारते हैं, उनका मानना था कि एक अच्छा लिख लेने वाले को लेख को सुधारने का हुनर आना चाहिए। उन्होंने बहुत सारे शायरों की गज़लों को सुधारा और सँवारा था। लिखे को कैसे ठीक करते हैं, इसका बकायदा सुझाव भी दिया था। जैसे कि सारे प्रतिभाशाली व्यक्ति आलोचक अवश्य होते हैं, लेकिन हर आलोचक प्रतिभाशाली हो कोई ज़रूरी नहीं। मीनाक्षी ठाकुर, जो हार्पर हिंदी की संपादक हैं, (उन्होंने हिंदी और अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में कविता संग्रह लिखा है और कई हिंदी किताबों की रूपरेखा तैयार की हैं), मानती हैं कि बहुत बिड़ले ही कोई अच्छा लेखक अच्छा संपादक हो पाता है।
मीनाक्षी जी की नयी किताब आने से दो सवाल उभर कर सामने आते हैं – पहला, मीनाक्षी जी जो खुद एक कुशल संपादिका हैं अपनी ही पुस्तक को कैसे देखती हैं? दूसरा, जो कि पहले सवाल से दस गुना ज्यादा बड़ा है – एक कवि जब गद्य लिखने पर आये तो कैसा रहता है?
हिन्दी साहित्य की बात की जाये तो महादेवी वर्मा ने निबंध और संस्मरण लिखें, पर उपन्यास और कहानियाँ नहीं। कृष्णा सोबती और मन्नू भण्डारी ने कभी कविता में जिज्ञासा नहीं दिखायी। विश्वपटल पर रवीन्द्रनाथ ठाकुर, जयशंकर प्रसाद, गेटे, शेक्सपियर, ऑस्कर वाइल्ड जैसे कुछ गिने–चुने लोग ही दोनों विधाओं में महान नज़र आते हैं। बोर्हेज़, विक्टर ह्यूगो, हेमिंग्वे, सैमुएल बेकेट, हांस क्रिस्चियन एंडरसन, सेसार पावसे जैसे विख्यात लेखकों ने कई प्रसिद्ध कविताएँ लिखीं भी, पर उनका गद्य उनके पद्य पर ऐसा भारी पड़ा कि लोग उन्हें गद्य रचनाकार के रूप में ही याद करते हैं। जॉर्ज इलियट और जेन ऑस्टेन अपने उपन्यासों के लिए, वर्जिनिया वूल्फ अपनी कहानियों के लिए, अन्ना अख्मातोवा, एमिली डीकिनसन, सिल्विया प्लाथ, गैब्रिएला मिस्ट्रेल अपनी कविताओं के लिए जानी जाती हैं। मलयाली लेखिका कमला दास (जो कि नोबल पुरस्कार के लिये नामित हुयी थी) जैसी कुछ ही लेखिकायें हैं जिन्होंने दोनों विधाओं में आलोचकों, पाठकों और बदलते समय का सम्मान पाया, ऐसे कि समय गुजर जाने के बाद भी उनकी रचनायें भूली नहीं जायें।
जनमानस पर साहित्य का सही मूल्यांकन बहुत समय के बाद ही हो पाता है। समय का यही अंतर साहित्य और कला की नियति है। असीम धैर्य और गहन चिंतन के बाद ही पुस्तक आनी चाहिए, वरना किताब न छपे तो ही बढ़िया है। चूँकि मैं इस प्रमेयिका का समर्थन करता हूँ, मीनाक्षी जी के नयी पुस्तक भी बहुत दिनों के बाद सही रूप से चर्चित होगी। मीनाक्षी जी ने ये किताब नौ साल पहले लिखी थी और अब छपवाया, जब उन्हें लगा कि यह किताब इतने सालों के बाद भी छपने और पढ़ने लायक है। जोजेफ हेलर ने ‘कैच –२२‘ लिखने के आठ साल बाद छपवाया था। विस्लावा शिम्बोर्स्का बड़ी मुश्किल से ही अपनी कविता सार्वजनिक करती थीं। मोपासां ने बाईस साल की उम्र में ‘बॉल ऑफ़ फैट‘ लिखी थी, पर तीस की उम्र में ही छपवाने का फैसला किया, जब उन्हें लगा कि वो आलोचकों के सभी सवालों के जवाब देने में सक्षम हैं। ये मोपासां की उपलब्धि थी कि अपनी पहली ही रचना से दार्शनिक नीत्शे और महानतम लेखक टॉलस्टॉय तक का ध्यान आकर्षित कर लिया।
बहरहाल एक बात जो बिना किसी असहमति के साथ कही जा सकती है कि यह आधुनिक हिंदी का नुकसान है जो यह पुस्तक अंग्रेजी में लिखी गयी। ‘लवर्स लाइक यू एंड आई‘ में पढ़ने के बाद कुछ प्रश्न खड़े होते हैं – एक पीढ़ी जो अपने समय के आदर्श में पढ़ लिख कर, अच्छी नौकरी करते हुए अपने काम में जुटी रहती है, और एक नयी पीढ़ी जो सवालों में कहीं खो गयी है – क्या यह बदलते भारत की सटीक तस्वीर है? पिछली पीढ़ी ने बहुत कम सुविधाओं में अनवरत मेहनत कर के यह देश तैयार किया, और इतनी सुविधाओं के बाद जब मन चाहा सलिल की तरह बैग उठा कर कहीं भी निकल जाने वाले आज की पीढी ऐसी खोयी सी क्यों हैं? रात्रि संगीत साधना में लगी रहती है, राग मारवा गाती है, वहीं उसकी बेटी नयन मूकदर्शक सी कभी संगीत तो कभी नौकरी, कभी प्रेम तलाश करती नज़र आती है। नयन के लिये कई वर्जनायें हैं ही नहीं। जो इस उपन्यास का सबसे सशक्त पहलू है भारत की विविधता का वर्णन। दुनिया इतनी बड़ी और विचित्र है, बड़े से बड़ा लेखक भी बहुत थोड़ा ही उतार पाता है। दिल्ली में ग़ालिब की पुरानी दिल्ली, बंगाल का दुर्गा पूजा, आसाम का कामरूप कामाख्या, काठमाण्डू का पशुपतिनाथ, हरिद्वार की हर की पौड़ी, काशी का दशाश्वमेध घाट – इन सब के बीच बहुत सारी प्रेम कहानियाँ, पीढ़ियाँ, संगीत, कवितायें, ग़जलें और प्रेम पत्र।
कहानी का नायक सलिल कहता है कवितायें एक झूठ का पुलिंदा होती हैं। ऐसी बहुत से झूठों के पुलिंदो में एक कहानी है पलाश और मैथिली की प्रेम कहानी। सालों बाद जब पलाश अपनी प्रेमिका की बेटी गहना से मिलता है, नयन के भाई नील को अचानक अपनी जिंदगी आर के नारायण की गाइड जैसी, और पलाश मार्को जैसा दिख रहा होता है – और किसी जादू की तरह शुरू होती है नील और गहना की अनकही प्रेम कहानी, जिसका अंदाजा लगाना पाठकों का सुखद काम हो जाता है। इतनी चिट्ठियों में फैली कहानी लोगों को उन दिनों की याद दिलाती हैं जब चिट्ठियों के आने में हफ्तों लगते थे और चिट्ठियाँ जीवन भर संभाल कर रखी जाती थी।
मीनाक्षी जी खुद को पहले खुद को एक पाठक मानती हैं, फिर कवि, और उसके कहीं बाद गद्य लेखिका – पर हमेशा संपादिका की दृष्टि के साथ। उनके लिए कविता स्वतः–स्फूर्त है और गद्य परिश्रम है। कविता कभी भी, कहीं भी चुपके से उनके आँचल में ओस में भीगे सुबह के फूलों जैसे भर जाती हैं। ऐसे ही फूलों से बड़े जतन से उन्होंने अपने उपन्यास को रंगोली की तरह सजाया है। यह सजाना ही कवियत्री का भावुक संपादन है। ऐसा लालित्यपूर्ण गद्य सराहनीय है, पर मेरा मानना है इसका रस लेने के लिए पाठक पास वैसा कवि हृदय, आकांक्षा और मनोवृति होनी चाहिये। मीनाक्षी जी मेरी आलोचना से सहमत हैं, और मानती हैं कि नौ साल के बाद वह अपने ही कृति के गुण–दोष को देख पाने में सक्षम हैं। मेरे अनुसार किसी भी संपादक के लिए यह बड़ी उपलब्धि है कि अपनी रचना के कमजोर और मजबूत पहलू को समझ पाये। क्या मीर या ग़ालिब अपनी किसी ग़जल को भला–बुरा समझते होंगे? निश्चय ही लोकप्रियता उनके निर्णय का पैमाना न रहा होगा। क्या प्रेमचंद कह पाते होंगे कि सेवा सदन, निर्मला जैसी विलक्षण नहीं हो पायी, या शरतचंद्र ‘श्रीकांत‘ को ‘देवदास‘ या ‘बड़ी दीदी‘ से ज्यादा तरजीह देते होंगे? इसका एक सहज उत्तर आ सकता है कि वो ऐसा सोचते नहीं होंगे। ऐसा विश्लेषण आलोचकों का काम है, रचनाकारों का नहीं।
बोर्हेज बहुत कम लिखते थे, बहुत छोटा लिखना चाहते थे, और हमेशा और पढ़ना चाहते थे। वह अपनी उपलब्धियाँ बतौर पाठक गिनाते थे, न कि लेखक के रूप में। पूरे उपन्यास में मीनाक्षी जी कम से कम शब्दों में, कई बार बिना कुछ कहे कह देना चाहती हैं। बुकोवस्की का कहना था कि एक बुद्धिजीवी साधारण सी बात को कठिन बना कर पेश करता है, और एक कलाकार कठिन बात को बहुत आसान बना कर सामने लाता है। गद्य तर्कों और कठिनता से भागे तो वह गद्य कम पद्य अधिक नज़र आता है। मीनाक्षी जी मुझे एक ऐसी हिंदी लेखिका नज़र आती हैं जिनकी अंग्रेजी बहुत अच्छी है। उनकी रचना एक लम्बी सुरीली कविता जैसी है, जो विरह में विलाप करती है। समय के बीत जाने का शोक भी करती हैं, प्रेम का उत्सव मनाती हैं, और बदलते समय की साक्षी हैं।
कई लेखक बनना चाहते हैं, पर मुश्किल से ही कोई संपादक, अनुवादक, या आलोचक बनना चाहता है। क्या ऐसा मान लिया जाये कि बाकि साहित्यिक कामों में कम उर्जा लगती है या कम चुनौतियाँ हैं? संपादन एक बहुत बड़ी विधा और बहुधा उपेक्षित है। एक ज़माने में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी के बड़े–बड़े लेखक पैदा कर दिए थे। दोस्तोएव्स्की ने जब अपनी पत्रिका ‘ऐपॉक‘ शुरू की थी, तब उन्होंने तुर्गेनेव की प्रसिद्ध कहानी ‘फैन्टम‘ को शामिल किया था, जो कि आठ सालों में लिखी गयी थी। सम्पादकों का दुर्भाग्य विलक्षण शिक्षकों जैसा होता है जो विद्यार्थियों को सही राह दिखाते हैं और खुद गुमनाम रह जाते हैं। मीनाक्षी जी के प्रशंसकों को उनकी अगली पुस्तक तक लम्बा इंतज़ार करना पड़ेगा।
अभिलाषा है कि हिंदी में ऐसी रचनायें आयें, जो लेखक बड़े ही संकोच से, लगभग लजाते हुए अपना हस्त–लिखित उपन्यास हमारे तुम्हारे जैसी प्रेमियों के हाथों में तब सौंपे जब उसके पन्ने पीले पड़ गयें हों, तारीखें गुम गयीं हो, स्याही सूख कर कुछ मद्धिम पड़ गयी हो, कॉपी के पन्नों के किनारे थोड़े मुड़ गए हों। कुछ पृष्ठों पर असावधानी से तेल की बूँदें फ़ैल गयी हों, कुछ पन्ने फट जाने से खो गये हों और जिनको पढ़ते दिल जोरों से ऐसे धड़क उठे कि नाजुक रगें टूटने लगें। हमारा ऐसा हाल देख कर लेखक अपने कॉपी फ़ौरन वापस खींचते हुए बोल पड़े – ‘अरे, ऐसे नहीं रोते! बुद्धू, एक कहानी ही तो है!’
गई उम्र दर बंद–ऐ–फ़िक्र–ऐ–ग़ज़ल
सो इस फ़न को ऐसा बड़ा कर चले
कहें क्या जो पूछे कोई हम से “मीर“
जहाँ में तुम आए थे, क्या कर चले
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