युवा कवि त्रिपुरारि कुमार शर्मा की ये कविताएँ हमें कुछ सोचने के लिए विवश कर देती हैं, हमारी मनुष्यता पर सवाल उठती हैं- जानकी पुल.
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1. वाल ऑफ़ डेमोक्रेसी
जब इंडिया गेट के माथे पर मोमबत्तियाँ जलती हैं
तो उसकी सुगंध में सनक उठता है ‘जंतर-मंतर’
‘सज़ा’ के झुलसे हुए उदास होंठों पर
एक चीख़ चिपक जाती है काले जादू की तरह
लोग कहते हैं ‘समय’ को सिगरेट की आदत है
मैं तलाशने लगता हूँ अपनी बेआवाज़ पुकार
जो गुम गई है एक लड़की की मरी हुई आँखों में
लड़की, जो अब ज़िंदा है महज शब्दों के बीच…।
तो उसकी सुगंध में सनक उठता है ‘जंतर-मंतर’
‘सज़ा’ के झुलसे हुए उदास होंठों पर
एक चीख़ चिपक जाती है काले जादू की तरह
लोग कहते हैं ‘समय’ को सिगरेट की आदत है
मैं तलाशने लगता हूँ अपनी बेआवाज़ पुकार
जो गुम गई है एक लड़की की मरी हुई आँखों में
लड़की, जो अब ज़िंदा है महज शब्दों के बीच…।
भेड़िए अब भीड़ का हिस्सा बन चुके हैं
यह रंगों की साज़िश के सिवा भी बहुत कुछ है
जो अंत में उभरता है सिर्फ़ स्याह बनकर
मदद करने से पहले घंटों सोचने वाले लोग
घंटों खड़े होने से नहीं हिचकिचाते हैं
एक चिड़ियाघरनुमा भवन के सामने
जहाँ मैंने गीदड़ों के अलावा किसी को नहीं देखा
(क्योंकि अपनी आँखों पर आरोप नहीं उड़ेल सकता)
मैं ख़ुद को पागल घोषित करने पर मज़बूर हूँ।
यह रंगों की साज़िश के सिवा भी बहुत कुछ है
जो अंत में उभरता है सिर्फ़ स्याह बनकर
मदद करने से पहले घंटों सोचने वाले लोग
घंटों खड़े होने से नहीं हिचकिचाते हैं
एक चिड़ियाघरनुमा भवन के सामने
जहाँ मैंने गीदड़ों के अलावा किसी को नहीं देखा
(क्योंकि अपनी आँखों पर आरोप नहीं उड़ेल सकता)
मैं ख़ुद को पागल घोषित करने पर मज़बूर हूँ।
दिमाग़ की नसों में तैरती हैं दादी माँ की बातें
दादीमाँ कहती थी—
‘सितारे बन जाते हैं लोग मरने के बाद’
कुछ सोचकर अपने बदन पर मलने लगता हूँ
एक काँपती हुई गुहार की राख
(जो सितारों की राख की तरह रंगहीन है)
संवेदनाएं हाथी की पूँछ पर जा बैठी हैं
और हाथी के सिर से जूएँ निकाल रहा है एक बंदर
एक लोमड़ी कहती है—
‘हमारे पूर्वजों ने खट्टे अंगूर की प्रजातियाँ नष्ट कर दी है।’
दादीमाँ कहती थी—
‘सितारे बन जाते हैं लोग मरने के बाद’
कुछ सोचकर अपने बदन पर मलने लगता हूँ
एक काँपती हुई गुहार की राख
(जो सितारों की राख की तरह रंगहीन है)
संवेदनाएं हाथी की पूँछ पर जा बैठी हैं
और हाथी के सिर से जूएँ निकाल रहा है एक बंदर
एक लोमड़ी कहती है—
‘हमारे पूर्वजों ने खट्टे अंगूर की प्रजातियाँ नष्ट कर दी है।’
भारत के चेहरे पर अब भी हैं चकत्तों के दाग़
भले दिल्ली अपनी छाती का कोढ छुपा ले
बयानबाजी का ‘ब्लू पीरियड’ अभी गुज़रा नहीं है
‘वाल ऑफ़ डेमोक्रेसी’ पर कोई लिख गया है—
‘कुत्ते की दुम में पटाखों की लड़ी बाँधना मना है’
मुझे शक होता है उँगलियों की भाषा पर
हैरान हूँ साँस के उमड़ते हुए सैलाब को देखकर
उम्मीदों को शर्म की नदी में डूब मरना चाहिए
यह जानते हुए कि एक ‘डेड प्लेनेट’है चाँद
लोग अब भी आसमान की ओर ताक रहे हैं।
भले दिल्ली अपनी छाती का कोढ छुपा ले
बयानबाजी का ‘ब्लू पीरियड’ अभी गुज़रा नहीं है
‘वाल ऑफ़ डेमोक्रेसी’ पर कोई लिख गया है—
‘कुत्ते की दुम में पटाखों की लड़ी बाँधना मना है’
मुझे शक होता है उँगलियों की भाषा पर
हैरान हूँ साँस के उमड़ते हुए सैलाब को देखकर
उम्मीदों को शर्म की नदी में डूब मरना चाहिए
यह जानते हुए कि एक ‘डेड प्लेनेट’है चाँद
लोग अब भी आसमान की ओर ताक रहे हैं।
2. दिल्ली के दिल में दरार
जबसे दिल्ली के दिल में दरार देखा है
मेरे गले के गुलदान में रखी हुई
साँस की सफ़ेद कलियाँ सूखने लगी हैं
गुलाब की पंखुड़ियों से लहू की बू आ रही है
किसी ‘पथार’ की तरह टूटने लगी है आवाज़
पपनियों के पोरों पर स्याह बर्फ़ जम गई है
नसों में उड़ते घोड़ों के पंख पिघल गए हैं
रह-रहकर सिहर उठता है उदासी का सिरा
वक़्त की मटमैली और बंज़र धड़कनों में
मैं एक बार फिर बात के बीज बोने लगता हूँ।
मेरे गले के गुलदान में रखी हुई
साँस की सफ़ेद कलियाँ सूखने लगी हैं
गुलाब की पंखुड़ियों से लहू की बू आ रही है
किसी ‘पथार’ की तरह टूटने लगी है आवाज़
पपनियों के पोरों पर स्याह बर्फ़ जम गई है
नसों में उड़ते घोड़ों के पंख पिघल गए हैं
रह-रहकर सिहर उठता है उदासी का सिरा
वक़्त की मटमैली और बंज़र धड़कनों में
मैं एक बार फिर बात के बीज बोने लगता हूँ।
देह की दीवार पर शर्म के धब्बे धधक रहे हैं
खौलता हुआ ज़ेहन आज फिर शर्मिंदा है
अपनी ही तरह के नैन-नक़्श वाले लोगों पर
(उन्हें ‘अपना’ कहते हुए मेरे होंठ झुलस गए हैं)
आख़िर क्यों जब खिलता है ख़्वाब का कोई फूल
तो जुनून की जाँघों में अंधी जलन होती है
आख़िर क्यों ‘रोलर’ चलाकर रौंदा जाता है
किसी मासूम की छलकती हुई छाती को
आख़िर क्यों चाँद की चमकदार झिल्लियाँ
बीमार और पीली पुतलियों में ‘कार्बाइट’से पकाई जाती हैं।
खौलता हुआ ज़ेहन आज फिर शर्मिंदा है
अपनी ही तरह के नैन-नक़्श वाले लोगों पर
(उन्हें ‘अपना’ कहते हुए मेरे होंठ झुलस गए हैं)
आख़िर क्यों जब खिलता है ख़्वाब का कोई फूल
तो जुनून की जाँघों में अंधी जलन होती है
आख़िर क्यों ‘रोलर’ चलाकर रौंदा जाता है
किसी मासूम की छलकती हुई छाती को
आख़िर क्यों चाँद की चमकदार झिल्लियाँ
बीमार और पीली पुतलियों में ‘कार्बाइट’से पकाई जाती हैं।
बवंडर बनकर उठते हैं जब सवाल
आसमान में तैरने लगती हैं मछलियाँ
हवा हथेलियों पर बिखेर जाती है सिहरन
एक जानवर आदमी को देखकर मुस्काता है
झाग बनाने से इंकार कर देता है समंदर
आग की आहटें बचती हैं बासी अँधेरों के बीच
कोई कान पर काँपता हुआ सन्नाटा उड़ेलता है
बाँग देने लगते हैं दुनिया के तमाम मुर्गे
एक चूहा कुतर जाता है सुबह की नींद
उजली कोख की काली क़िस्मत बाँझ होना चाहती है।
आसमान में तैरने लगती हैं मछलियाँ
हवा हथेलियों पर बिखेर जाती है सिहरन
एक जानवर आदमी को देखकर मुस्काता है
झाग बनाने से इंकार कर देता है समंदर
आग की आहटें बचती हैं बासी अँधेरों के बीच
कोई कान पर काँपता हुआ सन्नाटा उड़ेलता है
बाँग देने लगते हैं दुनिया के तमाम मुर्गे
एक चूहा कुतर जाता है सुबह की नींद
उजली कोख की काली क़िस्मत बाँझ होना चाहती है।
बहन की आँखों में चुप्पियों का जाला है
और माथे पर शक की कई शिकनें हैं
महीनों हो गए हैं साथ खाना खाए हुए
बहुत दिनों से घर नहीं लौटा है भाई
(वह जानता है कि तूफ़ान जल्द आएगा,
अगर दिमाग़ से कूड़ा नहीं निकल जाता)
माँ की रूह घुट गई यह कहते हुए—
समस्या की जड़ों तक कोई भी नहीं जाता
इतना तो मुझे मालूम है कि
बाबूजी दवा से ज़्यादा, सर्जरी में यक़ीन रखते थे।
और माथे पर शक की कई शिकनें हैं
महीनों हो गए हैं साथ खाना खाए हुए
बहुत दिनों से घर नहीं लौटा है भाई
(वह जानता है कि तूफ़ान जल्द आएगा,
अगर दिमाग़ से कूड़ा नहीं निकल जाता)
माँ की रूह घुट गई यह कहते हुए—
समस्या की जड़ों तक कोई भी नहीं जाता
इतना तो मुझे मालूम है कि
बाबूजी दवा से ज़्यादा, सर्जरी में यक़ीन रखते थे।
15 Comments
त्रिपुरारी जी की कवितायेँ एक दस्तक है बरसों से बंद दरवाजों पर .सार्थक कवितायेँ .
हमे लगता था कि खून दौडता है पूरी देह में
और देह देती है प्रीत का रंग
वह भी होता है लाल,
अब लगता है सारा खून एकत्र हो गया है
केवल और केवल एक जगह.
कृपया दूसरी कविता की पहली पंक्ति यूँ पढ़ें…
"जबसे दिल्ली के दिल में दरार देखी है"
शुक्रिया!
आख़िर क्यों ‘रोलर’ चलाकर रौंदा जाता है
किसी मासूम की छलकती हुई छाती को
आख़िर क्यों चाँद की चमकदार झिल्लियाँ
बीमार और पीली पुतलियों में ‘कार्बाइट’ से पकाई जाती हैं।
Tripurari jee aapko pahalee baar pada. Phir padna chahunga. Saarthak kavitain. Dhanyavaad. – kamal jeet Choudhary ( j and k )
umda, behtreen
अब आप की कविता में गहराई और बेचनी दिखने लगी है पर बेवजह से शब्द का से खिल्वाद्पन उसकी गंभीरता को नस्ट कर रहा है मित्र आपकी अच्छी कविता की लिए बधाई हो मित्र
अद्भुत…..
निःशब्द करती हैं दोनों रचनाएँ…
बधाई त्रिपुरारी !!
शुक्रिया जानकीपुल !!!
अनु
Madad karne se pahle log ghanto hichkichate khade rahte hain.phir ghanto mombatiyan lekar dukh jatate hain.yah chalan badhia hai. Pahli kavita behad achchhi lagi.
"मां की रूह घुट गई यह कहते हुए-
समस्या की जड़ों तक कोई भी नहीं जाता
इतना तो मुझे मालूम है कि
बाबूजी दवा से ज़्यादा, सर्जरी में यक़ीन रखते थे…"
"जब से दिल्ली के दिल में दरार देखा है/ मेरे गले के गुलदान में रखी हुई/ सांस की सफेद कलियां सूखने लगी हैं/ गुलाब की पंखुड़ियों में लहू की बू आ रही है" नि:शब्द कर देने वाले मौजूदा हालात में इससे तल्ख और विकल कर देने वाली और क्या अभिव्यक्ति होगी। त्रिपुरारी की ये दोनों कविताएं हमारे समय और व्यवस्था की गिरावट पर तो सख्त टिप्पणी करती ही हैं, ये युवा मन की बेचैनी को भी गहराई से व्यक्त करती हैं। इतनी अच्छी कविताओं के लिए इस युवा कवि को सलाम ओर 'जानकीपुल' का शुक्रिया।
सोचने-समझने को विवश करती हैं दोनों कविताएं. काश !
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