आज कलावंती की कविताएँ. कलावंती जी कविताएँ तो लिखती हैं लेकिन छपने-छपाने में खास यकीन नहीं करतीं. मन के उहापोहों, विचारों की घुमडन को शब्द भर देने के लिए. इसलिए उनकी कविताओं में वह पेशेवर अंदाज नहीं मिलेगा जो समकालीन कवियों में दिखाई देता है, लेकिन यही अनगढता, यही सादगी उनकी कविताओं को पढते हुए सबसे पहले आकर्षित करती है. कुछ कविताएँ आप भी पढकर देखिये- जानकी पुल.
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1
लड़की
लड़की भागती है
सपनों में, डायरी में
लड़़की घर से भागती है, घर की तलाश में ।
लड़की देखती है उड़ती पतंगे और तौलती है पांव।
उसके देह से निकली खुशबू फैलती है
घर आंगन तुलसी और देहरी तक।
बाबूजी की चिंताओं सी ताड़ हुई,
अम्मा की खीझ में पहाड़ हुई,
लड़की घुटनों पर सिर डाले
उलझे उलझे सपनों में आधी सोती, आधी जागती
सोचती है,
एक दिन जब उसके मन के दरवाजे होंगे साझीदार
और खिडकियां गवाह।
वह दूब से उसका हरापन मांग लाएगी,
सूरज से उधार लेगी रौशनी ।
चिडिया से पूछेगी दिशा,
और आसमान का नीला रंग
उसके दुपट्टे में सिमट आएगा.
2
नारी
वेदमंत्रों में उच्चरित
अर्धनारीश्वर की महिमा मुझे तो
कहीं दिखती नहीं, इसलिए बहुत सोचती हूं इस पर
मेरी सारी सोच जब किसी निराश बिंदू पर जाकर ठहर
जाती है
तो मेरी पूरी कोशिश होती है
मैं इस बंद दरवाजे के आगे की कोई राह तलाश लूं।
औरत से जुड़ी मेरी अनुभूतियां कैनवास की खोज करती
कागज पर उतरने से रूकती है, कांपती है।
नारी तुमसे जुड़े अंत नकारात्मक ही क्यों
ठहरते हैं मेरी चेतना में।
तुम उर्वशी हो, अहिल्या हो
कैकयी हो, कौशल्या हो
किंतु तुम सबकी नियति
किसी न किसी
से जुड़ी है!
3
पिता
पिता जब तक थे जीवित
कितनी बडी आश्वस्ति थे.
ठीक चले गये उस समय
जिस समय मेरे पंखो ने उडान की तैयारी की.
पिता ने अपनी अंतिम उड़ान ले ली.
पिता ने किये थे क्या क्या जतन मेरे लिए,
अब जब बिखरे हैं सुख मेरे आस पास
तो सोचती हूं
काश पिता देख पाते कि
मैंने ठीक उनके सपनों से
कुछ नीचे ही सही
पर बना तो ली है
अपनी एक दुनिया.
4
प्रेम
मैंने कहा
प्रेम,
और गिर पड़े
कुछ हरसिंगार.
मैंने कहा
स्नेह,
और बिछ गये गुलाब.
मैंने कहा
मित्रता,
और भर गयी
सिर से पांव तक अमलतास से.
और जिंदगी
तुम्हारी शुभाकांक्षाओं के उजास से.
5
स्त्रियां
अक्सर
स्त्रियां सुख का हाथ छोडकर
दुख को पार करा देती है सडक.
घर के चूल्हे चौके, बरतन बासन
की तरह ही है घरवाला भी
उसकी गृहस्थी का एक औजार.
कभी कभी सहती जूतम पैजार
गये के लौटने का
करती है इंतजार.
कि कहां जाएगा बुद्धू
लौट के घर को आएगा बुद्धू.
6
मंझले भैया
मंझले भैया मंझले भैया मैं तुमसे मिलना चाहती थी.
तुम तक पहुंचना चाहती थी.
देखना चाहती थी तुम्हें.
तुम्हारी कलाई पर बांधना चाहती थी इक कविता मंझले भैया.
उस श्रद्धा को ऊर्जा में बदलना चाहती थी,
जो समय के सवालों को हल करते हुये
तुमने अरजा छोटे भाई की पढाई के लिये.
बहुत बड़ी और बीहड़ है यह जिंदगी
काल से समय का एक टुकडा उठाकर,
एक कमीज सिलकर,
ठीक से काज बटन लगाने का हुनर जिसे पता होता है,
वो आप से होते हैं मंझले भैया.
जो देख सकते हैं सपने औरों के लिये.
छोटों को ताप रौशनी और ऊर्जा देने के लिये सुलगते हैं,
सिगड़ी में आधी कच्ची लकड़ी और अधसुखे गेायठे की तरह.
काश कि हर घर में होता कोई मंझला भैया.
शुक्रवार पत्रिका के साहित्य वार्षिकी में लीलाधर मंडलोई के संस्मरण मंझले भैया की प्रतिक्रिया में यह कविता. मंझले भैया ने उन्हें पढाने हेतु स्वंय दर्जी का काम किया.
कलावंती से 09771484961 पर संपर्क किया जा सकता है.
19 Comments
Congrats! I am not an avid reader of Hindi poems but you have really expressed your emotions so lucidly that it really touched the heart. I think any Indian woman can well identify with them. Keep it up!!!
बहुत खूबसूरती से कही और बहुत प्यारी है सारी कविताएं….शुक्रिया जानकीपुल…मुझे इनका यह परिचय देने के लिए…
खूबसूरत
अच्छी और सच्ची कविताएं हैं… बिना किसी लाग-लपेट के अपनी बात कहने का यह कौशल इन कविताओं को अलग से रेखांकित करता है… मेरी शुभकामनाएं।
दिल को छूने वाली कविताएं…बधाई
good poems, keep writing….
Congrats! bahut achhi… bahut achhi. fresh and sensible poems, portraying love, loss and fragrance of life, simultaneously. she should do justice with herself by — (a) sparing more time for writing, (b) go deeper to the feelinga (and issues) playing in her mind, (c) take them to their logical conclusion. excellent. best wishes.
ye kavitayen we reshe bunti hain to hamare parivar aur samaj ke un sacchaiyon ko kuredti hain jinhe samaj khula dekhte hi namak malne ko machal uthta hai…
अपनौती से भरी कवितायें लगी मुझे.. ठहरकर गहरी संवेदना से लिखी गयीं.. कभी कभी सच में चाहता हूँ मैं कि बिम्ब /घोर बिम्ब से आज़ादी मिल जाए कविता को.. और इनकी कवितायें बिना वैचारिक बोझ डाले इतनी सहजता से बही हैं कि कविता पढने का पूरा सुकून पा लिया मैंने.. शुक्रिया कहना बनता है.. शुक्रिया जानकीपुल का – स्वागत कवयित्री जी का..
ये पंक्तियाँ अपने पास सहेज रहा हूँ फिलवक्त-
'' लड़की भागती है
सपनों में, डायरी में
लड़की घर से भागती है, घर की तलाश में ।''
kalawanti di ki kavitayen, taazgi or apnepan se bhari hoti hai. itni sundar kavitaon ke liye we badhai ki patra hain.
कलावंती की कविताओं में टटकेपन की खुशबू है, जो खींचती है. खूबसूरत कविताएं.
कविताओं में एक ताजगी का अह्सास है जो आमतौर पर हिन्दी कविता से मिटता जा रहा है. नारी की संवेदनाओं का स्वानुभूत चित्रण कलावंती जी की इन कविताओं में दिखता है. ये कविताएँ सिर्फ पडी नहीं जाएँ, देखी जाने योग्य भी हैं प्रेम का एक सांकेतिक व रोमांटिक चित्रण बिना शब्दों की अधिकता के किया गया है जो दिल को छू जाता है.
कलावंती जी को साधुबाद व पत्रिका के संपादक महोदय को उंकी पारखी नजर के लिए साधुबाद
भवदीय
ओम प्रकाश मिश्र
साहित्य का एक पैदल सिपाही
उडीसा
बहुत अच्छी कवितायेँ. स्त्री जीवन के संवेदन की प्रतीति कराती हुई कवितायेँ. अंतरतम को नम कर गयी ये कवितायेँ. इनकी बदौलत आज के दिन की बहुत अच्छी भावपूर्ण शुरुआत.
bhaavpravan kavitaen hain sabhi… achchhi lagin.
kavitayen an saajhaa karati hain . bahut achchi lagin
अक्सर
स्त्रियां सुख का हाथ छोडकर
दुख को पार करा देती है सडक.
घर के चूल्हे चौके, बरतन बासन
की तरह ही है घरवाला भी
उसकी गृहस्थी का एक औजार.
इसे कई-कई बार पढ़ने का मन करता है…
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