कल ‘जनसत्ता’ में सुधीश पचौरी का यह लेख आया था. जिन्होंने नहीं पढ़ा हो उनके लिए इसे साझा कर रहा हूं- प्रभात रंजन
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यों यह एक इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनी का विज्ञापन मात्र है। लेकिन यह विज्ञापन, अनेक विज्ञापनों में प्रतिबिंबित समाज की आकांक्षाओं के बीच कुछ खास कहता दिखता है। यह साइबर ग्लोबलाइजेशन के सामाजिक जलवे का विज्ञापन है, जो बहुत दिन बाद इंटरनेट सेवा की कथित ‘असामाजिकता’ को सामाजिकता में बदलता है। वह एक नए किस्म के ‘साथीपन’ की हुलास का वितरण करता है, लेकिन उसी वर्ग में जो इंटरनेट सेवा का उपयोग अक्सर करता है, जो ट्विटर पर अपना एकाउंट रखता है, जो अपनी राय देने के लिए उसका उपयोग करता है, जो फेसबुक पर अपना एकाउंट रखता है और जिसकी एक मित्र मंडली है। इंटरनेट का विविध और नियमित इस्तेमाल करने वालों की संख्या भारत में तकरीबन पंद्रह करोड़ है जो दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। यह विज्ञापन इनके साथ-साथ आगामी इंटरनेट सेवा उपभोक्ताओं को भी एक लुभावना संदेश देता है कि वे इस सेवा को प्राप्त करें और एक नई साथी दुनिया से एक खास तरीके से जुड़ने का लाभ उठाएं।
एक इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनी का यह विज्ञापन मंदी पूर्व के ‘तेज चढ़त’ वाले और अब के मंदी के कारण कुछ ‘उतार’ वाले भूमंडलीकरण के नए आयामों की व्याख्या करता चलता है। यह तब साफ होता है जब ‘फार्मूला वन’ के सबसे बड़े आइकन का दर्जा पाया ड्राइवर शुमाकर ‘जो तेरा है वो मेरा है’ गाने वाली लड़की श्वेता से बात करता है जिसमें शुमाकर श्वेता का नाम लेकर ‘हाय श्वेता’ कहता है और श्वेता उससे ‘ओ शुमाकर! आइ लव यू’ कहती सुनी जाती है। यह ‘फार्मूला वन कार रेस’ भी उसी इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनी की मार्फत प्रायोजित है।
इस प्रसंग में इस विज्ञापन के गीत का जायजा लिया जाना चाहिए। यह इसलिए भी जरूरी है कि इन दिनों इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनियों के बीच बाजार को कब्जाने का तीखा घमासान उसी तरह चल रहा है जिस तरह पिछले बीस-पचीस साल में हमने कोक-पेप्सी के बीच देखा है, जो हर मौसम में एक नया नारा लेकर आती रही हैं। अपने-अपने पेय को लोकप्रिय करती रही हैं जिसमें उनके लक्षित उपभोक्ता को रिझाने के नए से नए संदेश होते हैं। विज्ञापन बड़ी जटिल और ठोस आर्थिक प्रक्रिया में काम करते हैं। उनके निर्माण की जटिल और बड़ी निर्माण प्रक्रिया को छोड़ कर अगर उनके प्रकट रूप को भी डिकोड करें तो वे सारे लक्षण प्रकट हो सकते हैं जो ऐसे ब्रांड के बुनियादी गुण-चिह्न कहे जाते हैं। इस तरह विज्ञापन एक निहायत पारदर्शी कारोबार की तरह काम करते हैं, वे उपभोक्ता समाज के मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय जटिलताओं का सहारा लेते हैं। इस तरह वे अपने समय और समाज के प्रतिबिंब माने जा सकते हैं। पूरा नहीं तो आंशिक सत्य वे भी कहा करते हैं।
मंदी के दौर में विज्ञापन अधिक सामाजिक-संदेशमूलक हुए हैं। शुरुआती दिनों में विज्ञापन अपनी प्रचारित वस्तु की या ब्रांड की सीधी व्यावहारिक महत्ता और उपयोगिता बता कर काम चलाया करते थे, लेकिन आर्थिक संकट गहराने के इन दिनों में विज्ञापन एक प्रकार की ‘कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसीबिलिटी’ यानी ‘सीएसआर’ को निभाने का काम करने लगे हैं और जब से वे ऐसी ‘कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसीबिलटी’ की ओर बढ़े हैं उनमें कविता की तरह की तीखी समकालीनता और प्रतिबिंबन की क्षमता बढ़ती गई है। और बात यहीं तक नहीं रही है, बल्कि वे इन दिनों दूर तक ऐसे हस्तक्षेपकारी सामाजिक संदेश देते हैं जो समकालीन भारतीय यथार्थ और उसके राजनीतिक-आर्थिक उतार-चढ़ाव और तनावों में कुछ न कुछ कहते नजर आते हैं जो कि उनका काम नहीं है। लेकिन वे दीदादिलेरी से ऐसा करने लगे हैं और यह तब और दर्दनाक लगता है जब ब्रॉडकास्टिंग अथॉरिटी की पट््टी चैनलों पर बराबर कहती रहती है कि अगर आपको इस चैनल पर प्रसारित किसी कार्यक्रम पर कोई बात आपत्तिजनक लगती हो तो अथॉरिटी से अवश्य शिकायत करें। हमारा पता है ये ये ये…!
बहुत शिकायतबाजी की जगह हम सीधे इस विज्ञापन की बात करते हैं जो इंटरनेट सेवा का उपयोग करने वालों को एक खास तरह की ‘कामरेडियरी’ का भाव देता है। साथीपन का भाव देता है। समानता का भाव देता है जिसे सरल शब्दों में कॉरपोरेट किस्म का ‘समाजवाद’ भी कहा जा सकता है जो किसी प्रगतिशील गीत को धोखा दे सकता है!
गाना शुरू होता है इस उठान से कि ‘इंटरनेट है तो फ्रेंडशिप है। फ्रेंडशिप है तो शेयरिंग है। शेयरिंग से है जिंदगी…’ ‘आई, मी, माइसेल्फ बोरिंग है। ‘वी’ और ‘अस’ इंटरेस्टिंग है’… ‘जो तेरा है वो मेरा है जो मेरा है वो तेरा’…गाना दो मिनट का है, मानो आप कोई वीडियो सुन रहे हों जो पूरा दो मिनट बजता हो। उसके बाद उसके पंद्रह सेकेंड से लेकर आधा मिनट और एक मिनट से दो मिनट तक के टुकड़े यत्र तत्र हर चैनल पर बजते रहते हैं। इन दिनों का यह सुपरहिट विज्ञापन है।
गूगल पर उपलब्ध इस गीत को अब तक बारह लाख से ज्यादा हिट मिले हैं और बढ़ते जा रहे हैं। आप कह सकते हैं कि ‘मुन्नी बदनाम हुई’ और ‘शीला की जवानी’ के बाद का यह सबसे बड़ा हिट गाना है जिसे आप चाहें तो अपनी कालरट्यून बना सकते हैं। आदि आदि।
इस गाने में समाज के नए आपसी रिश्तों का बखान है। इंअरनेट पीढ़ी के मूल्यों में एक शिफ्ट बताई जाती है। गाना कहता है: ‘आइ मी माइसेल्फ’ वाली पीढ़ी की जगह ‘वी’ और ‘अस’ को ‘इंटरेस्टिंग’ कहने वाली पीढ़ी का अवतार हो चुका है। ‘आइ मी माइसेल्फ’ का दावा करने वाली पीढ़ी कुछ ही दिन पहले मीडिया में आई थी। जमी थी। उसका जलवा दिनों तक रहा और
अब लगभग वही पीढ़ी ‘आइ मी माइसेल्फ’ को ‘बोरिंग’ कह रही है और ‘वी’ और ‘अस’ उसके लिए ‘इंटरेस्ंिटग’ हो उठे हैं। पता नहीं मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्री एक साथ कभी मिल कर बैठेंगे और इस पर बात करेंगे कि ऐसी शिफ्ट क्योंकर हुई जबकि भूमंडलीकरण के लाभ-लोभ अभी कुल पंद्रह-बीस फीसद लोगों तक ही पहुंचे हैं।
जिन्होंने ‘आइ मी माइसेल्फ’ का नारा दिया था, अब वही उसे ‘बोरिंग’ बता कर ‘वी’ और ‘अस’ को इंटरेस्टिंग बता रहे हैं। वैसे ‘बोरिंग’ और ‘इंटरेस्टिंग’ का मनोविज्ञान समझने योग्य होना चाहिए। बहुत जल्द ही बिना किसी पश्चाताप के ‘बोरिंग’ कह देने के बाद, नए ‘sudheesh pachauri
7 Comments
pachori ji ne baat to bade hi marke ki kahi hai ki vyakti 'samparkit' to hai 'sambandhin' nahin,
aur jab tak sambandh sthaapit nahin hotaa tab tak 'aatmhantaa' ki stithi badhati hi chli jaati hai.
vyakti aakhir main 'me' aur 'mine' hi rah jaataa hai itane'friends' hone ke baa-vazood.
इस प्रसिद्ध विज्ञापन गीत के मार्फ़त बाजारिक प्रवृति का बढ़िया मनोविश्लेषण किया है लेखक ने .. इस विज्ञापन के विडियो से फैलते सन्देश में वाकई बाजारू मापदंडो से रु ब रु मौजूदा समय की नब्ज पर हाथ धड़ा जा सकता है.. इस 'हट के' लेखन के लिए साधुवाद श्री पचौरी को.. श्री पचौरी की नजर गहरी है और एक विज्ञापन के बहाने चीजों को यूँ समझना वाकई उनके हुनर की बात है जिसकी तारीफ़ करता हूँ मैं..
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