हिंदी में गंभीर विमर्श का माहौल खत्म होता जा रहा है, मर्यादाएं टूटती जा रही हैं. अभी कुछ दिन पहले वरिष्ठ कवि विष्णु खरे ने ‘कान्हा सान्निध्य‘ के सन्दर्भ में उसकी एक बानगी पेश की थी. आज उनके समर्थन में आग्नेय का यह पत्र ‘जनसत्ता‘ के ‘चौपाल‘ स्तंभ में प्रकाशित हुआ है. हिंदी दिवस की पूर्वसंध्या पर मैं यह समझना चाहता हूं कि आखिर इस तरह का विमर्श क्या है? क्या इसे हिंदी की वरिष्ठ पीढ़ी की हताशा के रूप में देखा जाए? पत्र पढ़िए और खुद सोचिये आखिर क्यों- जानकी पुल.
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विष्णु खरे को संगठित रूप से जिस तरह युवा लेखक गरिया रहे हैं, वह नितांत अशोभनीय और निंदनीय है। उनकी प्रतिक्रिया से ऐसा लगता है कि किसी हाथी ने गली के कुछ पिल्लों को अपनी सूंड से सूंघ लिया हो और उस गली के सारे अभिभावक और पालतू कुत्ते भौंक-भौंक कर उसे अपनी गली से निकालने के लिए उतारू हो जाएं। हमारे इन क्षुब्ध, विचलित, क्रोधित, भभरे, नकचढ़े युवा लेखकों को यह भूलना नहीं चाहिए कि विष्णु खरे एक अच्छे कवि, अनुवादक, समीक्षक और संपादक हैं। हिंदी साहित्य में उनका उल्लेखनीय अवदान है। न जाने कितने युवा लेखकों को उनका आदर, उनकी उदारता, उनका प्रेम और संरक्षण मिल चुका है।
मैं मानता हूं कि शैतान को भी ईश्वरीय अस्तित्व को चुनौती देने का अधिकार है। पापियों को भी अवसर मिलना चाहिए कि वे धर्मगुरुओं की लानत-मलामत कर सकें। यदि युवा लेखक उनकी टिप्पणी से नाखुश हैं तो उनको विष्णु खरे द्वारा उठाए गए सवालों और मुद्दों का संयमित तार्किक और विवेकपूर्ण उत्तर देना चाहिए। जहां तक व्यक्तिगत आरोपों का प्रश्न है, जिन पर वे लगाए गए हैं, उनको ही अपना स्पष्टीकरण देना होगा। यदि युवा लेखक उन आरोपित व्यक्तियों की ओर से बोलते हैं तो यह निष्कर्ष आसानी से निकाला जा सकता है कि वे अपने ऊपर किए उपकारों को चुकाने के लिए उतावलापन दिखा रहे हैं। विष्णु खरे ने अपनी टिप्पणी में जो मुद्दे उठाए हैं, उन पर अवश्य विचार किया जाना चाहिए। यह हिंदी साहित्य का दुर्भाग्य है कि कतिपय नौकरशाह उसकी रचनात्मकता का अपहरण करते रहे हैं और उनका दखल बढ़ता ही जा रहा है। विष्णु खरे ने अपनी तीखी धारदार टिप्पणी में जिस व्यक्ति पर आरोप लगाए हैं उसके बारे में हमारे युवा लेखकों को सोचना होगा। यदि वे अफसर न होते तो उनकी हिंदी साहित्य में क्या हैसियत होती? उनका दखल रोका जाना चाहिए। उनके पास पुरस्कृत करने और किसी को भी खरीद कर पथभ्रष्ट करने की अपार ताकत है।
आयोजन होते रहे हैं और होते रहेंगे। लेकिन लेखकों को अपने मान-सम्मान का ध्यान रखना होगा। भाड़े और आवास की व्यवस्था करके क्या कोई भी उनको पुतुरिया की तरह नचवा सकता है? सुना है रंडियां भी अपनी मर्यादा और प्रतिष्ठा का ध्यान रखती हैं। उनको भी नहीं कहना आता है।
अंत में इन बौखलाए युवा लेखकों से मेरा निवेदन है कि वे विनम्र होकर असहमत हों। विष्णु खरे ने एक लेखक के रूप में जो अर्जित किया है उस तक पहुंचने के लिए उन्हें न जाने कितने उपकारों की नदियों को पार करना होगा? इस अवसर पर उनको एक सीख भी देना चाहूंगा। यह सीख मेरी नहीं है यह सीख विलियम फाकनर की है जो युवा लेखकों को संबोधित है।
एक बार जब फाकनर से पूछा गया कि वे लेखकों की युवा पीढ़ी के बारे में क्या सोचते हैं? उनका उत्तर था- वह कुछ भी मूल्यवान नहीं दे पाएंगी। उसके पास और कुछ अधिक कहने के लिए नहीं है। लिखने के लिए, तुम्हें उन महान प्राथमिक सत्यों को अपने अंदर जड़ें बनाने देना होगा और अपने लेखन को एक समय में एक या सब सत्यों की ओर निर्देशित करना पड़ेगा। वे जो यह नहीं जानते हैं कि आत्माभिमान, सम्मान और व्यथा के विषय में कैसे बोला जाए, किसी काम के लेखक नहीं हैं। उनकी रचनाएं, उनके साथ या उससे पहले ही मर जाएंगी।
— आग्नेय, भोपाल
17 Comments
क्या हमारे भीतर ठीक से सोचने की आदत खत्म हो गई है .हम क्यो इतनी जल्दी रियेक्ट कर जाते है.आग्नेय जी ने जो कहा उसके प्रतिरोध की एक भाषा होनी चहिये..बहुत पहले बिजय कुमार जी ने युवा रचनाकारो के बारे में कुछ सवाल उठाये थे लेकिन वे घेर लिये गये.सम्वाद बहुत जरूरी है.इसमे नई और पुरानी पीढी का कोई सवाल नही होना चाहिये,इस तरह के खेल से किसी का भला नही होगा.हमें सूत्रधारो के चेहरे पहचानने चाहिये .
क्या कान्हा प्रकरण कांडा जैसा बाजारू प्रकरण था जिसे हमारे साहित्य के तथाकथित मसीहा माने जानेवाले लेखकों के लिए नाक का सवाल हो गया है? गैर साहित्यिक कारणों से इस छिद्रान्वेषण की परिणिति कब और कहां होगी, उसके क्या परिणाम क्या होंगे और साहित्य को समाज का दर्पण मानने वाले समाज में साहित्य के इन ठेकेदारों की क्या छवि सामने आएगी, क्या कोई इस पर भी कभी विचार कर रहा है? पहले विष्णु खरे और अब आग्नेय का आलेख पढकर सिर्फ़ और सिर्फ़ अफ़सोस किया जा सकता है, सचमुच इसे हिन्दी साहित्य की नीच ट्रेजेडी ही कहना ठीक है, विभूति नारायण राय के छिनाल प्रकरण से शुरु आग्नेय के इस आलेख में भाषा की मर्यादाओं का यह स्खलन और क्या-क्या सामने लाने वाला है, समय ही बताएगा। राजनीतिज्ञों के घोटालों की तरह साहित्य के तथाकथित नामवरों के जो नामवरी घोटाले सामने आ रहे हैं, उससे शब्द की सच्चाई और ईमानदारी की ठेकेदारी करनेवालों का सच सामने आ गया है, नौकरशाह लेखक किस तरह, कहां-कहां किस तरह छाए हैं और अपने सिट्टे सेंक रहे हैं, साहित्य के मर्यादा पुरुषोत्तमों में कितनी मर्यादाएं है, ये भी सामने आ गयी हैं,मर्यादा को लेकर पहले केवल हंस, और राजेन्द्र यादव पर अंगुलियां उठा करती थी, कोसा जाता था..पर यह सब पढकर तो अब लगता है, अधिकांशत: छुपे हुए ’हंस’ और राजेन्द्र यादव हैं…ऎसा लग रहा है साहित्य में कुलीन दर्जा प्राप्त सांमतों के बीच अघोषित कुत्ताफ़जीती कप के लिए मुकाबला हो रहा है..बिना इस अहसास और यह जाने कि यह गोष्ठियों के बाद उनके द्वारा होटलों का वह बंद कमरा नहीं है (जिसमें जानेवाली वह परंपरागत सुरा महफ़िल नहीं है जिस में वे साहित्य जगत को सरकारी-संस्थानों से मिलने वाले लाभों के लिए गैर साहित्यिक कारणों से एक-दूसरे की मां-बहन करने से भी नहीं चूकते।) और जहां कही बात आफ़ दी रिकार्ड मान कर धड़ेबंदी बनती-बिगड़ती रहती है और दुर्भिसंधियां कर समझौते कर लिए जाते हैं। यह फ़ेस बुकिया जमाना है, सब कुछ सामने आ जाता है, मीडिया इतना जागरूक और सक्रिय है, जहां कुछ भी छिपा नहीं रहता। बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी……
हेमंत जी ! आज 'हिन्दी ' जरुर अपनी दुर्दशा पर धार-धार रो रही होगी…! ….ओह..!!! भाषा का 'उम्र' से क्या लेना-देना आखिर…??
कुछ गैर साहित्यिक- मीडियोकर टाइप लोग अपने आपको अधेडावस्था में भी जवान समझें तो उनकी आत्मप्रवंचना को नमन!
साथियों ने साथ देना साथियों का सीख लिया
भूल गए साथ में कुछ हाथ (सूंढ़ पढ़िए) हाथियों का भी है (हाथी मेरे साथी …!)om globalaaya namah …………….
इन बुजुर्गों का यह स्तर देखकर लग रहा है कि नई पीढ़ी अगर इनसे कुछ नहीं सीख रही तो अच्छा ही है… हे.शे. का स्तर तो जगजाहिर हो ही चुका है… सच में यह सठियाई पीढ़ी का प्रलाप है… जिस गैया को उम्र भर दुहते रहे, अब दूध ना देने की हालत में उसे गरियाना पुराना बुजुर्गाना शगल है…
kya star hai bahas ka aaj!
आग्नेय के बारे में मूर्खतापूर्ण टिप्पणीकार पहले तो ' पहचान ' सीरीज़ की याद करें
ऐसे कुछ थर्ड ग्रेड लोग आहत ज़रूर होंगे जिन्हें हिन्दी साहित्य में कोई पूछता ही नहीं न पूछेगा!
प्रिय एवं मूर्धन्य आग्नेयजी , आप को यहाँ देखना कितना सुखद है इसका श्रेय आप से ज्यादा 'जानकीपुल' को!पर आपकी बातों से मेरी सहमति इसलिए है कि कोई नया अपनी उद्धत मानसिकता, स्वयम्भू अहंकार, प्रतिभाहीनता के कारण हिन्दी में जगह बना सकेगा, संदिग्ध नहीं, अटल प्रश्न है! आपकी पत्रिका के लिए आपने माँगा, मैं आलसी हूँ, थोड़ा मशरूफ सा भी, पर जल्द!
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विनीत
हे शे
बढ़िया किया आग्नेय महोदय ने… पहले हम सब पिल्लों को हाथी [ श्री खरे ] के सूंड से सूंघवाया, फिर हमारे साथी पालतू कुत्तों के भौंकने से हमें अवगत कराया और फिर अतिशय शालीनता में यह अपील भी की .. '' अंत में इन बौखलाए युवा लेखकों से मेरा निवेदन है कि वे विनम्र होकर असहमत हों। ''…… यह पत्र एक ही आदमी श्री आग्नेय ने लिखा है कि श्री खरे की बैठकी में बैठे चार अलग अलग लोगों ने अलग अलग हिस्सा लिखा है.. ? इस पत्र के बहाने मुझे यह भी लगता है 'चौपाल' बढ़िया कोलम है जनसत्ता का जहाँ थानवी जी की दखलंदाजी के बिना हाथी, पिल्ला, कुत्ता, सूअर कोई भी प्रवेश पा सकता है.. जय हो..
जिन्हें अपनी शालीनता का चोगा सम्हालने का संस्कार नहीं, ….. उनसे किसी बौद्धिक विमर्श की आशा व्यर्थ है।
अरे बड़ी घटिया भाषा का इस्तेमाल किया है आग्नेय जी ने तो …इस पर कोई बात हो ही नहीं सकती…. छि छि !
ऐसे महान वरिष्ठों से हम क्या सीखें प्रभात भाई…
"हाथी ने गली के कुछ पिल्लों को अपनी सूंड से सूंघ लिया हो और उस गली के सारे अभिभावक और पालतू कुत्ते भौंक-भौंक कर… क्षुब्ध, विचलित, क्रोधित, भभरे, नकचढ़े…शैतान को भी ईश्वरीय अस्तित्व…. रंडियां भी अपनी मर्यादा और प्रतिष्ठा का ध्यान रखती हैं….बौखलाए युवा लेखकों…. लिखने के लिए, तुम्हें उन महान प्राथमिक सत्यों को अपने अंदर जड़ें बनाने देना होगा….आत्माभिमान, सम्मान और व्यथा के विषय में कैसे बोला जाए, किसी काम के लेखक नहीं हैं। उनकी रचनाएं, उनके साथ या उससे पहले ही मर जाएंगी" हिंदी दिवस के पावन अवसर पर यह संयमित लेख पढ़ कर ज्ञानवर्धन हुआ, धन्यवाद
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