युवा-कवि उमाशंकर चौधरी की कविताओं का एक अपना राजनीतिक मुहावरा है, जो उन्हें समकालीन कवियों में सबसे अलगाता है. वे विचारधारा के दवाब से बनी कविताएँ नहीं हैं, उनमें आम जन के सोच की अभिव्यक्ति है. इस कवि की कुछ कविताएँ, आज के राजनीतिक माहौल में जिनकी प्रासंगिकता समझ में आती है- जानकी पुल.
१.
प्रधानमंत्री पर अविश्वास
आजकल मैं जितनी भी बातों को देखता और सुनता हूं
उनमें सबसे अधिक मैं
प्रधानमंत्री की बातों पर अविश्वास करता हूं।
जानने को तो मैं यूं यह जानता ही हूं कि
यह जितना आश्चर्य और कौतूहल का समय है
उससे अधिक स्वीकार कर लेने का समय है
पर मैं प्रधानमंत्री की बातों को स्वीकार नहीं कर पाता हूं।
प्रधानमंत्री जो बोलते हैं
मैं उसे ठीक उसी रूप में नहीं ले पाता हूं
प्रधानमंत्री का झूठ मुझे उनके चेहरे पर हर बार दिखता है।
वैसे तो इस लोकतंत्र में मुझसे लगभग
यह वचन लिया गया था कि
मैं कम-से-कम प्रधानमंत्री की बातों पर जरूर विश्वास करूं
लेकिन आजकल देखी-सुनी सारी बातों में मैं
सबसे अधिक प्रधानमंत्री की बातों पर ही अविश्वास करता हूं।
मेरी गहरी नींद को चीरकर घुप्प अंधेरे में
अक्सर मेरे सपने में आते हैं प्रधानमंत्री।
सपने में आते हैं प्रधानमंत्री और मैं उन्हें पहचान लेता हूं
उस घुप्प अंधेरे वाले सपने में प्रधानमंत्री
कुछ बुदबुदाते हैं
कुछ ठोस वायदे करते हैं
कुछ सलाह और मशवरे देते हैं और गायब हो जाते हैं
मेरे सपने से गायब हुए प्रधानमंत्री
मुझे इस देश के सबसे बड़े मसखरे दिखते हैं।
दिन के उजाले में चाहता हूं
प्रधानमंत्री की ढेर सारी बातों पर विश्वास कर लूं
चाहता हूं मान लूं प्रधानमंत्री को ठोस प्रतिनिधि
लेकिन ऐसा सोचते ही हर बार करोड़ों भूखी आंखें मुझे घूरने लगती हैं
बन्दूकों की चलने की आवाजें मेरे दिमाग की नसों को
तड़काने लगती हैं
और फिर मैं अपने ऊपर अविश्वास की चादर ओढ़ लेता हूं।
कई बार मैं प्रधानमंत्री की मजबूरियों को
संजीदगी से सुनना चाहता हूं
कई बार मैं उनके चेहरे की दयनीयता को
अपने भीतर महसूस करना चाहता हूं
लेकिन अगले ही क्षण मैं सतर्क हो जाता हूं
कि ये प्रधानमंत्री मुझे बहुरूपिया लगते है।
ऐसा हर बार होता है
मैं प्रधानमंत्री को कैमरे के सामने लाचार देखता हूं
विवश देखता हूं
आश्वासन देते देखता हूं
लेकिन हर बार मुझे लगता है प्रधानमंत्री उस कैमरे के सामने हैं
पर प्रधानमंत्री का मस्तिष्क नहीं
प्रधानमंत्री का दिल नहीं
प्रधानमंत्री की निगाहें नहीं
प्रधानमंत्री कहते कुछ हैं और सच में कहना कुछ और चाहते हैं।
प्रधानमंत्री की निगाहें जहां हैं
उसे हम सब समझते हैं
इसलिए प्रधानमंत्री पर हम अविश्वास करते हैं।
२.
राहुल गांधी की बंडी की जेब
राहुल गांधी की बंडी की जेब को देखकर
अक्सर सोचता हूं कि क्या इसमें भी होती होंगी
स्टेट बैंक का एटीएम कार्ड
दिल्ली मेट्रो का स्मार्ट कार्ड या फिर
दिल्ली से गाजियाबाद या फिर फरीदाबाद जाने वाली
लोकल ट्रेन का मासिक पास- एमएसटी
क्या राहुल गांधी भी घर से निकलते हुए सोचते होंगे कि
आज नहीं हैं जेब में छुट्टे पैसे और आज फिर ब्लू लाइन बस पर
पांच रुपये की टिकट के लिए करनी होगी
हील हुज्जत
क्या राहुल गांधी की जेब में भी होती होगी
महीने के राशन की लिस्ट
कितना अजीब लग सकता है जब
राहुल गांधी रुकवा दें किसी परचून की दुकान पर अपनी गाड़ी
और खरीदने लगें मसूर की दाल
एक किलो चना, धनिया का पाउडर, हल्दी
और गुजारिश कर दें दुकानदार से कि
28 वाला चावल 26 का लगा दो
यह तो बहुत हो गया अजीब तो इतने से भी लग सकता है
जब परचून की दुकान पर पहुंचने से ठीक पहले
स्टेट बैंक के किसी एटीएम पर अपनी गाड़ी रुकवा कर राहुल गांधी
निकालने लगें दो हजार रुपये
सोचता हूं क्या राहुल गांधी भी करते होंगे जमा
डाकघर में जाकर आवर्ती जमा की मासिक किस्त
क्या उन्होंने भी पूछा होगा किसी डाकघर में कि
इस पासबुक से उनको
कितने दिनों में कितनी मिल सकती है राशि
क्या उन्होंने भी कभी सोचा होगा कि
अभी होम लोन थोड़ा सस्ता हो गया है और
इस साल द्वारका सै. 23 में लेकर छोड़ दूं पचास गज ज़मीन
क्या उनके भी सपने में आता होगा उस पचास गज ज़मीन पर
भविष्य में बनने वाला दो कमरों का घर
और उस घर की सजावट
जो राहुल गांधी के करीब हैं वे जानते हैं
जो उनके करीब नहीं हैं वे भी जानते हैं कि
कुछ नहीं होता है राहुल गांधी की जेब में
एकदम खाली है उनकी जेब
न ही होता है उसमें एटीएम कार्ड
न ही स्मार्ट कार्ड
न ही एमएसटी
और न ही राशन की लिस्ट
राहुल गांधी को न ही जाना पड़ा है आजतक
कभी राशन की दुकान पर
और न ही डाकघर
और न ही सस्ते लोन की तलाश में कोई बैंक
उन्होंने नहीं देखा है अभी तक किसी प्रापर्टी डीलर का दरवाजा
एकदम खाली है राहुल गांधी की बंडी की जेब
कितना अजीब लगता है कि
एकदम खाली है राहुल गांधी की बंडी की जेब
उसमें नहीं है भविष्य की आशंका
उसमें नहीं है वर्तमान को जीने और
भविष्य को सुरक्षित रख ले जाने की कोई तरकीब
लेकिन राहुल गांधी खुश हैं
और राहुल गांधी ही क्यों ऐसे बहुत से लोग हैं
जिनकी जेबों में नहीं है कुछ और वे खुश हैं
यह विरोधभास बहुत अजीब है कि जेबें खाली हैं और लोग खुश हैं
लेकिन किसी भ्रम में न पड़ जायें
यह विरोधभास सिर्फ चंद लोगों के लिए है वरना
खाली जेबों वाले लोग तो
पटपटा कर मर रहे हैं.
३.
दौड़ते हुए
दौड़ते हुए
जो अपनी सांसों की आवाज़ सुनते हैं
उन्हें पहुंचने में अभी वक्त लगेगा
दौड़ने में
अपने कदमों की नाप याद रखने वाले को भी
अभी वक्त लगेगा
वे आयेंगे
दौड़ना शुरू करेंगे
और दौड़ते चले जायेंगे
वे जो दौड़गे
गिरते हुए बुजुर्ग को थामने के लिए
वे जो दौड़ेंगे
बाढ़ में फंसे बच्चे को बचाने के लिए
या फिर दौड़ेंगे
खेत में बैलों के पीछे-पीछे
उनके भीतर होगी एक आग
और उन्हें अभी सांसों पर ध्यान नहीं होगा
४.
कुर्सी
ऐसा क्यों होता है कि
जब मैं सड़क पर निठल्ला घूमता हूं
तब मुझे अक्सर लगता है
कि इस सड़क पर निठल्लों की भीड़ बढ़ती जा रही है
मैं आगे बढ़ता हूं और
निठल्लों का एक हुजूम मुझसे टकराता रहता है
और हमेशा हमें संभलना मुश्किल हो जाता है
मैं पहुंचता हूं वहां, जहां
रखी हुई है कुर्सी
थोड़ी उम्मीद
एक निश्चिंतता
पर हर बार मैं निराश होता हूं
मुझे हर बार वह कुर्सी भरी हुई दिखती है
हर बार मुझे उस कुर्सी पर बैठा दिखता है
वह आदमी, जिसने कल मुझसे पूछा था
इस देश के प्रधानमंत्री का नाम
हवा में आक्सीजन की मात्रा
राह चलते आदमी की दिशा
मैं वहां जाता हूं
और खड़ा हो जाता हूं उसके सामने
वह देखता है मेरी ओर
और मुझे पहचानने की करता है कोशिश
और कहता है ऐसे नहीं पंक्ति में जाकर खड़े हो जाओ
और मैं ढूंढने लग जाता हूं पंक्ति का आखिरी छोर
जहां जाकर हो सकूं खड़ा
और ढ़ूंढ़ता रह जाता हूं
इस पंक्ति को खींचकर इतना लम्बा किसने बनाया
इसे मैं जानता हूं
आप सोचने बैठेंगे तो आप भी जान जायेंगे
मुझे कुर्सी पर बैठे हर आदमी का चेहरा
एक जैसा दिखता है
वही दो कान, एक नाक, एक मुंह
वही चेहरे पर एक संतुष्ट मुस्कान
मुझे कुर्सी पर बैठे हर आदमी का चेहरा
एक ही चेहरा लगता है
जैसे एक ही आदमी की रूह
बैठी हो इस देश की तमाम कुर्सियों पर
मुझे उन सबमें एकजुटता दिखती है
और एक गहरी योजना
मैं निठल्ला घूमता हूं
दौड़ता हूं, पस्त होता हूं
चाहता हूं अपने लिए थोड़ी सी जगह
और हार जाता हूं
या हरा दिया जाता हूं
और एक दिन जब मेरी बेरोजगारी
मेरे भीतर कुलाचें मारती हैं
मेरे पेट की भूखी अंतडि़यां
जब एक कठोर गोले में परिणत हो जाती हैं तब
मैं उन कुर्सियों में से
सबसे छोटी कुर्सी के सामने जाकर गालियां देता हूं
लेकिन तब भौंचक हो जाता हूं जब
उस छोटी कुर्सी के बचाव में
सबसे बड़ी कुर्सी पर बैठा आदमी
अपने ओहदे की चिंता किए बगैर अपनी कुर्सी से उतरकर
मेरे सामने आ जाता है
वह चट्टान की तरह मेरे सामने खड़ा हो जाता है
और मैं देखता हूं कि
यह शक्ल भी उन शक्लों में से ही एक है
जो इस देश की तमाम कुर्सियों पर बैठी हैं
५.
समूह में
वे जो मारे गए हैं समूह में
उनकी कोई शिनाख्त नहीं है
न ही कोई कसूर
वे थे एकत्रित और करना चाहते थे आवाज़ को भी एक़ित्रत
वे जो मारे गए हैं समूह में
उन्हें नहीं मिलेगा मुआवज़ा
न ही कोई पहचान
वे आज खबर में भी हैं समूह में
वे जो मारे गए हैं समूह में
वे समझते थे कि समूह की आवाज से
वे बदल देगें यह दुनिया
या दुनिया की सोच
वे आज मरे पड़े हैं और दुनिया ठीक वैसी ही चल रही है।
18 Comments
कमाल की कविताएँ हैं -समसामयिक विषयों को निर्भीक ढंग से प्रस्तुति …ग़जब की ताजगी है.
कविताएं सीधी हैं, पर व्यंग्य काफ़ी तीखा है. लगभग हर कविता में. प्रधान मंत्री और राहुल गांधी से जुड़ी कविताओं में तो और भी प्रखर.
उम्दा कविताएं… उमाशंकर जी की कविताएं अलग ही अंदाज में हमसे बतियाती चलती है… उनकी कोशिश यही होती है कि वो सीधे हमसे बात करे… इस मायने में वे कविताएं लिखते नहीं गुनते है… बहुत बधाई… आभार प्रभात रंजन जी का साझे के लिए…
सबसे अच्छी बात है उमाशंकर ने अपनी भाषा का शिल्प स्वयं रचा है, उनकी कविताओं में एक सहजता भी होती है और कहन की भिन्न शालीनता भी और कभी कभी चौकानें वाले विषय भी. प्रस्तुत राजनीतिक कविताएं उम्दा हैं. हालांकि इनमें से कुछ कविताएं (राहुल गांधी की बंडी के जेब, कुर्सी आदि) कहीं हाल-फिलहाल में ही पढ़ चुका हूं. बहरहाल उमाशंकर और आपको बधाई – प्रदीप जिलवाने
इन कविताओ की जितनी प्रशंशा की जाये कम है ! उत्तम सम्प्रेस्नियता , अनुभूति गह्वरता, सहज भाषा , अद्भुत बिम्ब ! कुल मिलाकर उत्तम कोटि की कविता !पढवाने हेतु धन्यवाद !
अच्छी कवितायेँ ! सीधी,सपाट लेकिन नयी तरह से बात कहती हैं ये कवितायेँ ! प्रभावशाली ! आभार जानकी पुल !
"कितना अजीब लगता है कि
एकदम खाली है राहुल गांधी की बंडी की जेब
उसमें नहीं है भविष्य की आशंका
उसमें नहीं है वर्तमान को जीने और
भविष्य को सुरक्षित रख ले जाने की कोई तरकीब
लेकिन राहुल गांधी खुश हैं
और राहुल गांधी ही क्यों ऐसे बहुत से लोग हैं
जिनकी जेबों में नहीं है कुछ और वे खुश हैं
यह विरोधभास बहुत अजीब है कि जेबें खाली हैं और लोग खुश हैं"
उमाशंकर की कविताएँ चौंकाऊँ शिल्पगत प्रयोगों से दूर अपनी ही लय में जिस तरह विन्यस्त होती हैं वह उम्मीद जगाती है और पाठक को आंदोलित करती हैं. उन्हें बधाई…जान्कीपुल और आबाद हुआ…
उमाजी की एक कविता अक्सर याद आती है-कहते हैं शहंशाह सो रहे थे और वो भी पढ़कर नहीं। एक दिलचस्प संस्मरण के साथ। भारतीय ज्ञानपीठ का कार्यक्रम था जिसमें कि शीला दीक्षित को आना था। उनके आने में वक्त था तो उपस्थित और सम्मानित होनेवाले कवियों को कविता पाठ के लिए मंच पर बुलाया गया। तब उमाजी कविता पढ़ रहे थे और शीला दीक्षित आ गयी। कुछ लोगों ने ऐसा माहौल बनाया कि अब आ ही गई है तो कविता रोक दी जाए लेकिन हम जैसे लोगों को बहुत मजा आ रहा था। लिहाजा दर्शक दीर्घा ने जोर से कहा-जारी रखिए। दरअसल जो कविता उमाजी पढ़ रहे थे,वो शीला दीक्षिति या किसी भी सत्ताधारी को सुनना जरुरी ही था। उन्होंने पूरी कविता पढ़ी और मेरी आंखें एकटक शीला दीक्षित पर टिकी थी।..अंत में उन्होंने भी ताली बजायी थी और मैं उमाजी मुख्यमंत्री के सामने और लगभीग उनके ही खिलाफ(अगर प्रधानमंत्री होते तो उनके भी) कविता पाठ करते हुए देख-सुन रहा था।
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