हिंदी सिनेमा के प्रयोगधर्मी निर्देशक और खब्बू अभिनेता गुरुदत्त ने अपने साथ एक जमात तैयार की। वहीदा रहमान, कैमरामैन वी.के. मूर्ति, एस. डी. बर्मन जॉनी वाकर, महमूद, अबरार अलवी, राज खोसला सहित कई ऐसे नाम हैं, जिन्होंने ‘गुरुदत्त फिल्म्स’ के साथ जुड़ अपनी-अपनी हुनरमंदी और नेक शख्सियत के दम पर फिल्मी दुनिया में अपनी एक पहचान बनाई। अबरार ने गुरु का साथ उनके दुनिया से अलविदा कहने तक निभाया। गुरुदत्त के साथ एक दशक के सफर के बारे में ‘फेमिना’ की संपादिका रह चुकीं सत्या सरन ने अबरार अल्वी से कई शनिवार घंटों बातचीत की और aअंग्रेजी में पुस्तक बनाई ‘द ईयर्स विथ गुरुदत्त: अबरार अल्वीज़ जर्नी’. हाल में यादों में बसी उस पुस्तक का हिंदी अनुवाद आया है. पुस्तक के एक रोचक अंश को हमारे लिए प्रस्तुत किया है युवा पत्रकार स्वतंत्र मिश्र ने- जानकी पुल.
‘प्यासा’ आज भी हिंदी फिल्म जगत के इतिहास में उत्कृष्टता के सोपान पर खड़ी शीर्ष फिल्मों में से एक है। इस फिल्म के निर्माण में दो नारियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा। वहीदा रहमान और गुलाबो। ये दोनों हस्तियां आपस में कोई संबंध नहीं रखती हैं। अबरार की गुलाबो से मुलाकात संयोगवश हुई और वहीदा ‘गुरुदत्त की फिल्मों में एक वेश्या बनकर आयीं। वह भी एक भैंस के साभार से। अबरार इन दोनों रोचक किस्सों का वर्णन बड़े ही विस्तार और भवनात्मक तरीके से करते हैं।
उन दिनों में ‘आर-पार’ का लेखन कर रहा था। अब तक मेरा ठिकाना चचेरे भाई यशवन्त का घर ही था। यशवन्त अपनी प्रेमिकर हरिदर्शन कौर से विवाह करने के लिए गंभीरता से विचार कर रहे थे।
उन्होंने हरिदर्शन कौर से आगे जाकर विवाह किया भी और उन दोनों की सुपुत्री योगिता बाली 1970 में एक अभिनेत्री बनीं।
कॉलेज के दिनों में मेरे साथ कुछ हैदराबाद के छात्र थे। मेरी उनसे मित्रता हो गई थी। उनमें से कुछ एक मेरे साथ वाई.एम.सी.ए. में रहा करते थे। कॉलेज के बाद भी मैंने उनसे संपर्क बनाए रखा था। वो सब एक बार अपनी गाड़ी में हैदराबाद से मुंबई आए, कुछ मौज-मस्ती करने। उन्हें जब यह पता चला कि मैं फिल्म लाईन में हूं तो उनके अरमान और जवान हो उठे। वे सारे के सारे गाड़ी में बैठे मुझसे मिलने आ पहुंचे। मेरे पास उनको बैठाने तक की जगह नहीं थी, खातिरदारी और खिदमत, जिसके वे आदी थे, उसका तो सवाल ही नहीं उठता। मैंने उन्हें पास ही स्थित ईरानी होटल में खाना खिलाने की पेशकश की पर उन्होंने जोर देकर मुझे अपनी कार में बैठा लिया और कहा, ‘हम साथ खाएंगे और रात को तुम्हें वापस छोड़ देंगे।‘ हम सब कार में सवार हो समुद्र के किनारे जा पहुंचे। वहां कई सारे कुटीर बने हुए थे, उन प्रेमियों के लिए जो गुपचुप मिलने आया करते थे। मेरें मित्रों ने उनमें से एक भाड़े पर ले रखा था। आजकल वह जगह विकसित हो चुकी है और उन कुटीरों के स्थान पर प्रसिद्ध ‘जानकी कुटीर रेजिडेंशियल कॉम्पलेक्स’ खड़ा है। उन दिनों वह जगह बिल्कुल एकांत और शांत थी। हवा में झूलते ताड़ के वृक्षों के पत्तों की सरसराहट के सिवा वहां पूरा सन्नाटा था। एक हसीन शाम की पूरी तैयारी थी। रम की बोतलें, गिलास, खाने-पीने का सामना और साफ-सुथरी प्लेटें। मुझे कुछ बेचैनी हो रही थी। मैंने इससे पहले कभी शराब नहीं छुई थी। कुछ भी हो अपने पुराने मित्रों की संगति में आकर मुझे काफी खुशी हो रही थी। मेरे मित्रों ने मेरे स्वागत सत्कार में कोई कमी नहीं छोड़ी थी। जल्द ही मैं उनके साथ बातचीत में व्यस्त हो गया। शाम ढलने लगी, अचानक ही मुझे परदे के पीछे से अशिष्टता भरी खिलखिलाहट सुनाई पड़ी। इससे पहले मैं यह जानने का प्रयत्न करता कि बात क्या थी, परदा हटाते हुए तीन युवतियां हमारे कमरे में अंदर आयीं और पास बैठ गयीं। उनकी उम्र पंद्रह-सोलह साल रही होगी। उनके साथ एक बड़ी लड़की भी थी। अट्ठाइस-उन्नतीस साल की। या शायद उससे भी कम। सारी लड़कियां उसकी बातें मान रही थी। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। जैसा कि कहा जाता है, मैं इन सब मामलों में ‘अनाड़ी’ था।
मेरे मित्र जमींदारों के बेटे होने के नाते इन सब मामलों में काफी अनुभवी थे। कोठों पर आना-जाना और लड़कियों से मिलना-जुलना उनके लिए एक आम बात थी।
मुझे एक झटका सा लगा जब उन्होंने मुझसे अपनी पसंद चुन लेने को कहा।
मैं अभी तक कुंवारा था और अब तक किसी लड़की से कोई वास्ता नहीं था। हालांकि बार-बार आग्रह के बाद प्रलोभित होकर मैंने शराब की कुछ चुस्कियां ले ली थीं, फिर भी इतने होशो-हवास में था कि इस पेशकश को ठुकरा दूं।
पर वो कहां मानने वाले थे। उन्होंने कहा कि मैं उनका मेहमान था और ‘अतिथि देवो भव’ के हिसाब से मुझे पहला अधिकार था अपनी पसंद चुनने का। मेरे बाद ही बाकी लोग अपने-अपने जोड़े बनाते।
बार-बार मना करने के बाद मैंने उस सबसे ज्यादा उम्र वाली लड़की की तरफ इशारा किया।
वह भौंचक्की रह गयी मेरी पसंद देखकर। उसने विस्मित होकर कहा ‘इन कमसिन कलियों के होते हुए, मुझे?’
मैं अपनी पसंद पर अड़ा रहा, बाकी लोगों ने भी अपनी-अपनी संगिनियां पसंद कर ली थीं। धीरे-धीरे, एक-एक कर, सब समुद्र के किनारे निकल लिए मौज-मस्ती करने।
शाम ढली, रात आयी और जैसे-जैसे रात जवान हुई मेरे मित्र उस कुटीर के अंदर बाहर आते जाते रहे। मैं अपनी चुनी हुई लड़की के साथ अंदर ही बैठा रहा। हम आपस में बातें करते रहे। उसका नाम गुलाबो था। वह मुझे रोचक लगी।
अबरार का गुलाबो से सम्पर्क अगलेतीन सालों तक कायम रहा। उस नारी ने अबरार के मानसपटल पर एक अमिट छाप छोड़ी। परिणामस्वरूप हिंदी सिनेमा को एक ऐसा चरित्र मिला, जो कभी नहीं भुलाया जा सकता है।
फिल्म ‘प्यासा’ में गुलाबो की पहली झलक भ्रामक है। वह अपनी पीठ कैमरे की ओर किए खड़ी होती है, एक महीन, पारदर्शी साड़ी में लिपटी। अचानक जब वह गाना शुरू करती है और शरमाते नयनों से गुरुदत्त को बहकाती अपने पीछे-पीछे आकर्षित करती है, तब शालीनता में आवृत्त चोंचलेपन का पर्दाफाश होता है। जैसे-जैसे फिल्म की कहानी आगे बढ़ती है, गुलाबो का चरित्र खुलकर सामने आने लगता है। वह एक पारंपरिक सड़क छाप वेश्या से हट कर है। उसमें एक गरिमा छिपी है और साथ ही उस शायर के लिए प्रेम और सम्मान, जिसकी नज्में उसके दिल की धड़कन हैं। यही प्रेम और सम्मान उसे धैर्य और शक्ति देते हैं, अंत तक, उस संघर्ष करते शायर का साथ निभाने को।
‘प्यासा’ में हर कलाकार ने उत्कृष्ट अभिनय किया है पर गुलाबो का चरित्र अपनी सुरभि बिखेरता हुआ अलग खड़ा नजर आता है। नायक के अभिनय की ऊंचाइयों को करीब-करीब छूता हुआ।
आश्चर्य की बात यह है कि जब पहली बार प्यासा बनाने की बात आयी थी तो उसमें गुलाबो का चरित्र था ही नहीं, अबरार बताते हैं। उनके दिमाग में एक खास विषय था जिस पर वह प्यासा की कहानी निर्धारित करना चाहते थे। गुरुदत्त के मन में एक धनवान और प्रभावशाली उच्चवर्गीय नारी की छवि थी। वह एक ऐसी नारी है जो कला और युवा कलाकारों को संरक्षण देती है। किसी प्रतिभाशाली कलाकार को चुनकर उसकी कला का विकास करना और फिर उसे आसमान से धरती पर पटक देना, सब कुछ अपने स्वार्थ के लिए। प्यासा का नायक भी एक ऐसा ही युवा कलाकार होता है जो कि इस कुलीन नारी के संपर्क में आता। फर्क सिर्फ इतना था कि यह कलाकार अंततः तिरस्कृत होने से पहले ही नारी के जाल से बच निकलता।
मुंबई में काला घोड़ा स्थित चेतना आर्ट गैलरी इस कहानी की प्रेरणास्रोत थी। उस नारी के चरित्र की शिल्पकारी संभवतः छाया आर्य के इर्द-गिर्द हुई है। संयोग से आजकल उस गैलरी को छाया आर्या ही चलाती हैं। यह गैलरी आजकल छोटे कारीगरों द्वारा बनाए कपड़े बेचती हैं। उन दिनों छाया के पिता इसे चलाते थे और इसमे विभिन्न प्रकार के पेंटिंगों की प्रदर्शनी लगती थी।
उन दिनों गुरुदत्त फिल्म बनाने के लिए एक धनवान, कुलीन गैलरी की मालकिन के विषय सूत्र पर विचार कर रहे थे। दूसरी तरफ अबरार की गुलाबो से तीन साल पुरानी पहचान हो चली थी। अबरार का अवचेतन मन ग्लानि से भरा हुआ था। दिल पर एक बोझ था कि उनके अंदर के पुरुष ने एक नारी को दगा दिया था। वह नारी जो उन पर भावनात्मक रूप से पूरी तरह आश्रित थी।
अबरार की गुलाबो से मित्रता की शुरुआत कौतूहलवश हुई थी।
कुछ भी हो, वह एक लेखक थे और यह एक अवसर था ऐसी नारी की मानसिकता जानने का जिसका चरित्र संदिग्ध था। बिल्कुल नजदीक से! उस शाम जब उसके मित्रों ने उन्हें और गुलाबो को कुटीर के एकांत में अकेला छोड़ दिया था, अबरार ने उससे पहली बार बात की थी। बातचीत में जितना कौतूहल था, उतनी ही सावधानी भी। एक लेखक का कौतूहल और उसी संभ्रान्त लेखक की एक अनजान नारी से अधिक निकटता न बनाने की सावधानी।
उस रात जब मित्र मंडली रंगरलियां मनाने में व्यस्त थी अबरार ने अपनी इस नई मित्र से भरपूर बातें की। सुबह जब करीब छह बजे मौज मस्ती खत्म हुई, सारे लड़के-लड़कियां कार में ठसाठस लद गए। लड़कियों को रास्ते में उनके निवास स्थान पर छोड़ना था। गुलाबो ने जोर देकर कहा कि हम दोनों साथ-साथ कार तक जाएं ताकि हमें कुछ और बात करने का मौका मिले, अबरार याद करते हैं। उसने अचानक मेरी कलाई पकड़ कर कहा, मेरे साथ चलो न कुछ देर और साथ रहेगा। मैंने कहा कि कार में इतनी जगह नहीं है कि सब अट पाएं। ‘gurudatt
17 Comments
आप सबों का हार्दिक धन्यवाद। इस पुस्तक का अनुवाद मैंने किया है। बस शब्द और भाषा प्रेम की खातिर। पेशे से मैं एक नौसैनिक आधिकारी हूँ पर हिन्दी मेरी आत्मा है। एक हिन्दी शिक्षक का सुपुत्र और अन्ग्रेज़ी पत्रकार का पति। अपनी युवास्था में इन्जिनीरिंग पढ़ने की आपाधापी में भाषाप्रेम कहीं दब कर रह गया था। नौसेना में भरती होने के बाद जब समुद्र की गहराइयों ने मुझे एकाकीपन दिखाया तो भाषा प्रेम पुन: प्रखर हुआ। ये पुस्तक उसी प्रेम का परिणाम है।
अगर राष्ट्र भाषा की सेवा का कोई अवसर मिला तो अपने को कृतार्थ समझूंगा।
सविनय
प्रवीण सिंह
pks65@hotmail.com
such a wonder man himself… 'guru'
बहुत बढ़िया पोस्ट. आपका और स्वतंत्र जी का आभार.
मार्मिक रहा गुलाबो-अबरार प्रसंग ! अच्छा अनुवाद और प्रस्तुति !
prabhaji ! bahut badhiya!! bahut marmik! hindi anuvaad kahan se prakashit hua hai?
लाजवाब प्रस्तुति के भाई स्वतंत्र और आपको बधाई… 'फिल्म में मन की भावनाओं को रोमांस के ऊपर वरीयता दी जाए और नीरवता को शब्दों पर छाने की पूरी स्वतंत्रता।' यह पंक्ति 'प्यासा' के निर्माण का आधार सूत्र यों ही नहीं है। गुरूदत्त और अबरार अल्वी के साथ ने 'प्यासा' और 'साहिब बीबी और गुलाम' स्त्री पात्रों को (अलग-अलग तरह के चरित्र होने के बावजूद) जो गहराई और मानवीय गरिमा प्रदान की है वह भारतीय सिनेमा ही नहीं वरन विश्व सिनेमा की अनमोल विरासत है।
..बहुत अच्छी प्रस्तुति ..आपका शुक्रिया ..अफ़सोस कि लोग किस तटस्थ भाव से भाव भी इस्तमाल कर ही लेते हैं …
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