पीयूष दईया की कविताओं को किसी परंपरा में नहीं रखा जा सकता. लेकिन उनमें परंपरा का गहरा बोध है. उनकी कविताओं में गहरी दार्शनिकता होती है, जीवन-जगत की तत्वमीमांसा, लगाव का अ-लगाव. पिता की मृत्यु पर लिखी उनकी इस कविता-श्रृंखला को हम आपके साथ साझा करने से स्वयं को रोक नहीं पाए- जानकी पुल.
पीठ कोरे पिता
डॉ. पूनम दईया के लिए
1.
मुझे थूक की तरह छोड़कर चले गये
पिता, घर जाते हो?
गति होगी
जहां तक वहीं तक तो जा सकोगे
—ऐसा सुनता रहा हूं
जलाया जाते हुए
अपने को
क्या सुन रहे थे?
आत्मा
शव को जला दो
वह लौट कर नहीं आएगा
२.
शंख फूंकता रहा हमें
.—रूह का क़ातिल
अनाम
अन्यत्र से
एक स्वप्न की तरह ऐन्द्रजालिक
वह अपना रहस्य बनाये रखती है
.—मृत्यु
प्रकृति का ऋण है
३.
पुराण-प्रज्ञा का फल भला कैसे भूल सकता हूं!
दाता का वहां
मेमने पर दिल आ जाता है
.—उसे खाने का
भागते न भागते
शरण लेते
आत्मा
छिपने के लिए है
काया में
ईश्वर से
स्वांग है लाश
४.
अब आवाज़ से डरने लगा हूं
सांस में सिक्का उछालने जैसे
—स्वयं को बरजता
माथे में रुई धुनते हुए–
विदा का शब्द नहीं है।
५.
एक कहानी में महज़ कहानी है
जिसे मैंने कभी जाना नहीं
प्रकट होते न होते
मकड़ी के देश में
पृथ्वी
प्रकाश में
पिता
जल जाएंगे
कल
६.
मंज़र
शायद विस्मृति की त्रुटि है
जो मैं बाहर आ गया हूं
अस्पताल से
अपनी सांस जैसा असली
पिता खो कर
अजब तरह के आश्चर्य में
वेश्या जानती है जिसे
इन्सान जीवित के साथ सोता है
मुर्दे के साथ नहीं।
७.
वह क्या है जिसे छिपा नहीं सके
अब प्रकट है जो
—एक लाश–
वियोग-उपहार
जिसे हिन्दू गलने से रोक लेते हैं
ले आते राख में
क्या इति का नक़ाब है?
अपनी ही पदचापों से बने
रास्ते पर
कौन-सा शब्द है जो जीने में आ सके
लाश–
८.
हंसो, हरि।
वे चिरनिद्रा में चले गये हैं तुम्हें देखने के लिए
क्या (अ) परिग्रह है
राह खोजते हुए आगे
बढ़ते चले जाने का
अपने प्रांजल प्रकाश में
ऐसे हमें देखते
हैं
सब में
: निशान उनके नहीं
जो प्रकट हुए
बल्कि उनके जो कभी घटे नहीं
पिता
अनुभूति माया है
हम गल्प
९.
जो नहीं है वह
जीने के लिए एक जगह बन जाती है जहां
वाणी शब्द नहीं देती
कलपती
हर सांस में
हमें।
१०.
जानता था मैं एक दिन
रोक नहीं सकूंगा और
गूंगी चीख़ से सना रह जाऊंगा
सदा के लिए
.—मर जाओगे
फूल-सा–
मासूम दिल लिये अपना
एक दिन
जानता था मैं
दिल से
मर जाएंगे आप
११.
असीम आकाश में सफ़ेद पड़ गये
सारे साल पहले के
जाते ही उनके
तिरोहित
ख़ामोशी
जला आऊंगा
फिर कभी न मिलने के लिए
१२.
मेरे पिता ने कभी एक शब्द भी नहीं कहा
अपने दुखों का
न मां ने
भाइयों से कभी बात नहीं हुई
चलते चलते भी साथ
हम
अकेले रहे
जीवन में
निज एकान्त
सादगी भीतर उदात्त
सजीव
खींच
लिया ना जाने किसने
पिता
बीते कल से आये
सामने हैं
—लाश
हमें अकेला छोड़ देती
१३.
और आपने जाना सब
पीठ कर लेते हैं छूटते
ही सांस
लाश
जला देने के लिए
आप
१४.
मैं शर्मसार हूं कि सारे दांव जीत गया
यहां तक कि सिक्कों को मेरी जेब से
बाहर तक आने की ज़हमत नहीं उठानी पड़ी
शुक्रगुज़ार हूं यह कहना न होगा
हार के आइने से बने मुझ पर
आप दिखते रहे
और जीत न सके
मुझ में भी।
पिता–
१५.
जलाया जाता हुआ वह नहीं जानता
कि वह शव है
छूट गयी शक्ति का
शक्ति शव में है
शोक।
१६.
क्या सच्ची है कविता कि आत्मा में आ गया हूं?
13 Comments
anant,asim,nissim….si kavitayen.kalawanti
These ruptures in the consciousness at the time of loss…some rare openings in the discourse of death….awaiting for more
ADHIKAASH KAVITAAYEN MUN KO SPARSH KARTEE HAIN
KAHIN – KAHIN LAGAA KI GAGAR MEIN SAGAR BHAR
DIYAA HAI .
true & very touching ….
… dil ko chhoone vaalaa lekhan … prasanshaneey prastuti !!
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