अगला साल हिंदी के उपेक्षित कवि गोपाल सिंह नेपाली की जन्मशताब्दी का साल है. इसको ध्यान में रखते हुए उनकी कविताएँ हम समय-समय पर देते रहे हैं. आगे भी देते रहेंगे- जानकी पुल.
एक रुबाई
अफ़सोस नहीं इसका हमको, जीवन में हम कुछ कर न सके
झोलियाँ किसी की भर न सके, संताप किसी का हर न सके
अपने प्रति सच्चा रहने का, जीवन भर हमने काम किया
देखा-देखी हम जी न सके, देखादेखी हम मर न सके.
२.
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ
तू चलती है पन्ने-पन्ने, मैं लोचन-लोचन बढ़ता हूँ
मैं खुली कलम का जादूगर
तू बंद किताब कहानी की
मैं हंसी-खुशी का सौदागर
तू रात हसीन जवानी की
तू श्याम नयन से देखे तो, मैं नील गगन में उड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ.
तू मन के भाव मिलाती है
मेरी कविता के भावों से
मैं अपने भाव मिलाता हूँ
तेरी पलकों की छांवों से
तू मेरी बात पकड़ती है, मैं तेरा मौन पकड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ.
तू पृष्ठ-पृष्ठ से खेल रही
मैं पृष्ठों से आगे-आगे
तू व्यर्थ अर्थ में उलझ रही
मेरी चुप्पी उत्तर मांगे
तू ढाल बनाती पुस्तक को, मैं अपने मन से लड़ता हूँ,
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ.
तू छंदों के द्वारा जाने
मेरी उमंग के रंग-ढंग
मैं तेरी आँखों से देखूं
अपने भविष्य का रूप-रंग
तू मन-मन मुझे बुलाती है, मैं नयना-नयना मुड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ.
मेरी कविता के दर्पण में
जो कुछ है तेरी परछाईं
कोने में मेरा नाम छपा
तू सारी पुस्तक में छाई
देवता समझती तू मुझको, मैं तेरे पैयां पड़ता हूँ,
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ.
तेरी बातों की रिमझिम से
कानों में मिसरी घुलती है
मेरी तो पुस्तक बंद हुई
अब तेरी पुस्तक खुलती है
तू मेरे जीवन में आई, मैं जग से आज बिछड़ता हूँ,
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ.
मेरे जीवन में फूल-फूल
तेरे मन में कलियाँ-कलियाँ
रेशमी शरम में सिमट चलीं
रंगीन रात की रंगरलियाँ
चन्दा डूबे, सूरज डूबे, प्राणों से प्यार जकड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ.
धर्मयुग, १० जून, १९५६ को प्रकाशित
३.
तारे चमके, तुम भी चमको, अब बीती रात न लौटेगी,
लौटी भी तो एक दिन फिर यह, हम-दो के साथ न लौटेगी.
जब तक नयनों में ज्योति जली, कुछ प्रीत चली कुछ रीत चली
ही जायेंगे जब बंद नयन, नयनों की घात न लौटेगी.
मन देकर भी तन दे बैठे, मरने तक जीवन दे बैठे
होगा फिर जन्म-मरण होगा, पर वह सौगात न लौटेगी.
एक दिन को मिलने साजन से, बारात उठेगी आँगन से
शहनाई फिर बज सकती है, पर यह बारात ना लौटेगी
क्या पूरब है, क्या पश्चिम है, हम दोनों हैं और रिमझिम है
बरसेगी फिर यह श्याम घटा, पर यह बरसात न लौटेगी.
10 Comments
jivan ke antim padav ka chitran marmik hai
adbhut , aabhaar.
अद्भुत……
क्या बात है – नेपाली जी मेरे प्रिय कवि रहे हैं। उनका संग्रह नहीं मिलता। कृपया नेपाली जी की और कविताएं पढ़वाएं। जैसे, मेरा धन है स्वाधीन कलम और मेरी दुल्हन सी रातों को नौलाख सितारों ने लूटा। आप पर बड़ा कर्ज रहेगा।
बढ़िया कवितायेँ. साझा करने के लिए शुक्रिया.
nice
bahut umda kavita hai.
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