पवन करण के कविता संग्रह ‘स्त्री मेरे भीतर’ पर यह सुविचारित टिप्पणी लिखी है युवा लेखिका अनु रंजनी ने। आप भी पढ़ सकते हैं-
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जब हम स्त्री-गुण या पौरुष-गुण की बात करते हैं तो हम कहीं न कहीं समाज द्वारा निर्मित मापदंडों को ही सच मान रहे होते हैं। जबकि किसी भी गुण पर किसी जेण्डर का ‘कॉपीराइट’ नहीं होता। इसलिए यह कहना कि अमुक पुरुष में स्त्री-गुण है या अमुक स्त्री पौरुषता से परिपूर्ण है, यह अपने आप में लैंगिक भेद हो जाता है। पवन करण का काव्य-संग्रह ‘स्त्री मेरे भीतर’(2004 ई.) शीर्षक भी पहली नज़र में यही भाव देता है कि एक पुरुष के भीतर स्त्री-गुण की उपस्थिति का बखान है यह। लेकिन जैसे ही हम किताब में प्रवेश करते हैं तो सबसे पहले हमारा परिचय एक पुरुष मन से होता है और फिर ये कविताएँ सिर्फ पुरुष-मन पर केंद्रित न होकर स्त्री, प्रेम, समाज इन सबसे साक्षात्कार कराती चली जाती हैं।
पुरुष जब दो विवाह करता है, या एक से अधिक संबंध रखता है तो यह संभव नहीं है कि इस से सिर्फ तीन लोग- वह पुरुष और दो पत्नियाँ प्रभावित होती हैं बल्कि उसके आसपास, उससे जुड़े सब लोग प्रभावित होते हैं। लेकिन लोगों का अधिकांशत: ध्यान उन दो स्त्रियों पर ही रहता है। दो विवाह कर रहा है पुरुष लेकिन लड़ कौन रही? वे दो स्त्रियाँ, जिसे समाज सौत का नाम देता है। इस सौत की अवधारणा, उन दो स्त्रियों की निर्मिति, जिसमें पहली पत्नी की लाचारी तथा दूसरी पत्नी की अधिकार भावना और इससे बच्चे पर पड़े मनोवैज्ञानिक प्रभाव को ही कवि ‘जिसे तुम मेरा पिता कहती हो’ कविता में दर्ज़ करते हैं।
किसी भी स्त्री के लिए यह ख्याल ही कितना खूबसूरत और सुकूनदायक हो सकता है कि उसके पिता उसके प्रेम करने की स्थिति पर विचार कर रहे हों। ‘एक खूबसूरत बेटी का पिता’ कविता ऐसे ही एक पिता का रूप रखती है जो अपनी बेटी के प्रेम के बारे में सोच रहा है, जो पुरुष के दंभ से हटकर बतौर पिता सोच रहा है । हालाँकि यह तय कर पाना मुश्किल है कि यहाँ खूबसूरती के क्या पैमाने हैं इसलिए कवि शुरुआती पंक्तियों से ही स्पष्ट कर देते हैं कि
“ इस दुनिया में तमाम पिता हैं जिनकी बेटियाँ खूबसूरत हैं
फिर बेटी कैसी भी हो वह अपने पिता को
खूबसूरत ही आती है नज़र”
यह कविता ऐसे पुरुष से मिलवाती है जो पिता के रूप में हर हाल में अपनी बेटी का साथ देने के लिए दृढ़ है, तत्पर है, एक ऐसा पिता जो पितृसत्ता के विचार से नहीं संचालित हो रहा –
“सिर्फ भय ही नहीं एक खूबसूरत बेटी का पिता होने का
जो उल्लास होना चाहिए मेरे भीतर
वह मेरे भीतर है और दो गुना है
फिर भी मेरी चिन्ता में मेरी बेटी की खूबसूरती
शामिल है और शामिल है यह दृढ़ता
यदि इस सबके बावजूद भी उससे कोई गलती होती है तो हो जाए
उसके पीछे उसे उबारने के लिए मीन खड़ा हूँ तत्पर”
सोशल मीडिया के दौर में स्त्रियों के इनबॉक्स देखे जाने चाहिए, जहाँ कितने ही संदेश उन पुरुषों के होते हैं, जो लड़कियों को बस पा लेने की ख्वाहिश पालते रहते हैं, इसके लिए तारीफ़ों के पुल बांधते जाते हैं, उनकी खूबसूरती के कसीदे पढ़ते जाते हैं लेकिन भीतरी इच्छा, जो देह को पाने की रहती है उसे छिपाए रहते हैं। ऐसे समय में कोई पुरुष जैसा है वह वैसा ही अपने को प्रस्तुत करे यह विरले ही होता है। इसी विरलेपन की अभिव्यक्ति है ‘मैं उससे अब भी प्रेम नहीं करता’ –
“मैं उसे प्रेम नहीं करता था मैं
मैं उसे अब भी प्रेम नहीं करता
मैं उसे पसंद करता था
मैं उसे पाना चाहता था
दरअसल मैं उसकी देह को पाना चाहता था”
‘पुरुष के बिना रह भी सकती हो तुम’ यह कविता पुरुष की उस मानसिकता को बताती है जो कितनी चालाकी से सब कुछ, सारा दोष स्त्री पर थोप देना जानता है। एक पुरुष है जिसने अपनी प्रेमिका से अलग दूसरी स्त्री से विवाह कर लिया है। अब एक ओर प्रेमिका दुखी है लेकिन वह सामाजिक सच्चाई को स्वीकारते हुए उस पुरुष को कहती है कि अब अपनी पत्नी के साथ उसे खुश रहना चाहिए। इतने पर भी वह नहीं मानता तो वह साफ कहती है कि इतना ही प्रेम है तो पत्नी और बच्चे को छोड़ कर उसके पास फिर से वह चला जाए। लेकिन प्रेमिका की इस बात से वह तुरंत उसे स्वार्थी घोषित कर दे रहा है –
तुम जानती हो तुम ये कैसी शर्त रख रही हो मेरे सामने
तुम्हें तो बस मुझसे मतलब होना चाहिए
अब तुम्हीं बताओ बच्चे को कहाँ छोड़ सकता हूँ मैं
पत्नी से कैसे कर सकता हूँ विच्छेद
कैसी स्त्री हो तुम जो दूसरी स्त्री का बुरा चाहती हो
और अपने प्रिय उस पुरुष का घर बरबाद करना चाहती हो
जिसके बिना कभी एक पल भी नहीं रह पातीं थीं तुम
जिसके हाथ इन दिनों फिर से तुम्हें पाने के लिए कसमसाने लगे हैं
साथ ही वह अपनी प्रेमिका को ‘टेकेन फॉर ग्रान्टेड’ भी समझता रहा है, सोचता रहा कि वो जब चाहे उसके साथ हो सकता है जब चाहे उसे छोड़ सकता है इसलिए यह बात उसके लिए अकल्पनीय है कि वह उसके बिना भी रह सकती है –
“ये कैसे हो गया तुम पुरुष के बिना रह रही हो
तुम जीने लगी हो पुरुष के बिना
इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकता मैं
कि मेरा चस्का तुमसे छूट भी सकता है”
इनके अतिरिक्त संग्रह की ये सारी कविताएँ ‘बहन का प्रेमी’, ‘हम पति अनाकर्षक पत्नियों के’, ‘किस तरह मिलूँ तुम्हें’, ‘गुल्लक’,’उसे कहना ही पड़े तो’, ‘मगर यह तो बताओ’, ‘स्पर्श जो किसी और को सौंपना चाहती थी वह’ पुरुष-मन के अन्तःमन की पड़ताल करती हैं।
साहित्य में स्वानुभूति बनाम सहानुभूति का सवाल बहुत आम है और महत्त्वपूर्ण भी। स्त्री के ‘मुद्दों’ पर लिखने के संबंध में भी यह सवाल आता है कि यदि कोई पुरुष स्त्री-मुद्दों पर लिख रहा है तो क्या वह न्याय कर पाएगा? इस संकलन को पढ़ते हुए दोनों स्थितियाँ नज़र आती हैं। स्त्री से संबंधित अधिकांशत: कविताएँ इस तसल्ली का एहसास कराती हैं कि कोई पुरुष भी स्त्री-जीवन को इतनी बारीकी से समझ सकता है, उसके खिलाफ़ पितृसत्ता की साज़िश को विफल करने के बारे में सोच सकता है। कवि यह जानते हैं कि “औरत-औरत की दुश्मन होती है” इस तरह के कथन पितृसत्ता द्वारा ही बनाए गए हैं इसलिए वे स्त्री-स्त्री का एक दूसरे के लिए, एक दूसरे के साथ को अनिवार्य मानते हैं –
“निराशा ने बनाया है उन्हें एक-दूसरे के प्रति विश्वसनीय
एक दूसरे के लिए दीवार की तरह डटकर खड़े हो जाना
उन्हें चाटने को लपलपाती जीभों ने सिखाया है”
इसके साथ ही कवि यह भी जानते हैं कि घर किस तरह लड़कियों के लिए समय-सीमा, पाबंदी निर्धारित करता रहा है, इसलिए वे लिखते हैं –
“इस समय इनके घरों से आतीं इन्हें लगातार पुकारतीं
आवाजों को कोई समझाए
कोई समझाए उन्हें
साँझी सिर्फ़ खेल नहीं
कोई उनसे कहे कि वे आएँ
और पूजा के बाद नाचती गातीं
चने मुरमुरे बाँटतीं
लड़कियों की खुशी में झाँककर देखें”
स्त्री चाहे जो कुछ भी कर ले, क्या यह दुनिया इतनी सभ्य होगी कि स्त्री को उसकी पहचान से जाना जाए, एक इंसान के रूप में देखा जाए या केवल उसकी देह ही देखी जाएगी और क्या वहीं सब सिमट जाएगा? ऐसे ही गंभीर सवाल लेकर आती है ‘टायपिस्ट’ कविता। ऑफिस में टायपिस्ट का काम करती स्त्री को सारे पुरुष एक देह के रूप में देखते हैं और उससे संबंध बनाने के ख्यालों में डूबे रहते हैं और वह स्त्री इन सबसे अनभिज्ञ है –
“उसे इस बात का कतई पता नहीं
हम उसके साथ कितनी ही बार
कल्पनाओं और सपनों के
चीर-युवा बिस्तर पर कर चुके हैं सहवास”
धर्म के रक्षकों में गीता का यह श्लोक अति-प्रमुख है “यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।” अर्थात् “जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब-तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ।” इसी तरह स्त्रियों के मामले यह कहना गलत नहीं होगा कि जब-जब युद्ध या दंगे होते हैं तब-तब न जाने कितनी स्त्रियों का बलात्कार होता है । उन अनगिनत स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करती है ‘यह आवाज मुझे सच्ची नहीं लगती’ की यह पंक्तियाँ –
“एक चिथड़ा तक नहीं बदन पर मेरे कपड़े का गुजरात की सड़कों पर, दंगाइयों से बचकर भागती एक औरत हूँ मैं”
कवि इस दुखद स्थिति से वाकिफ़ हैं कि जब भी युद्ध या दंगे होंगे, स्त्रियों का यही हश्र होगा , इसलिए वे अंत में लिखते हैं –
“दूर कहीं से चलकर आवाज आती है दंगा खत्म हो गया है
सच्ची नहीं लगती मुझे यह आवाज
मुझे नहीं लगता दंगा खत्म हुआ है अभी
ये दंगा कभी खत्म होगा भी नहीं, मेरे और
मेरी देह के खिलाफ ये दंगा सदियों से जारी है
और जारी है इन दंगाइयों से बचकर मेरा भागना
जैसे मैं इन दिनों भाग रही हूँ गुजरात की सड़कों पर”
‘उसका दु:ख’ कविता भी एक स्त्री के यौन-उत्पीड़न के दुख को अभिव्यक्त करती है।
इन कविताओं में शामिल एक कविता ‘बुर्का’ है जिसके जरिए बेहद सशक्ति से सवाल करती स्त्री आई है जो बुर्का पहनने की अनिवार्यता थोपे जाने के संबंध में स्पष्ट नकार करती है –
“स्वीकार नहीं करती
हर बार चीख-चीखकर कहती है
नहीं इसे खुदा ने नहीं तुमने बनाया है
मेरा खुदा कहलाने के लोभ में मुझे इसे तुमने पहनाया है”
संकलन की और कुछ कविताएँ इस तसल्ली का एहसास कराती हैं कि एक पुरुष स्त्री से संबंधित इतनी संवेदनशीलता से लिख रहा मसलन ‘तुम जैसी चाहते हो वैसी नहीं हूँ मैं’, ‘संख्या’, ‘एक स्त्री मेरे भीतर’, उसकी जिद: छह कविताएँ’, प्यार में डूबी हुई माँ’, ‘इस जबरन लिख दिए गए को ही’ लेकिन एक कविता ऐसी भी है (स्तन) जो स्त्री के दुख से संबंधित होते हुए भी खटक जाती है। यह तुरंत लग जाता है कि यदि किसी स्त्री ने इस विषय (स्तन के कैंसर के कारण स्त्री के एक स्तन गँवा दिए जाने) पर लिखा होता तो इस तरह की कविता नहीं रहती। यह कविता संवेदना के स्तर पर होते हुए भी स्त्री के साथ न्याय नहीं कर पाती है, कहीं न कहीं वह स्तन के वस्तुकरण जैसा ही हो जाता है। उदाहरणत: कुछ पंक्तियाँ –
“वह उन दोनों को कभी शहद के छत्ते
तो कभी दशहरी आमों की जोड़ी कहता
उनके बारे में उसकी बातें सुन-सुनकर बौराई
वह भी जब कभी खड़ी होकर आगे आईने के
इन्हें देखती अपलक तो झूम उठती
वह कई दफे सोचती इन दोनों को एक साथ
उसके मुँह में भर दे और मूँद ले अपनी आँखें”
अत: शुरुआत में जिस स्वानुभूति बनाम सहानुभूति की बात कही जा रही थी उसका जवाब मिल पाना भी बहुत जटिल है।
स्त्री-पुरुष से संबंधित विभिन्न कविताओं में ही प्रेम और समाज से जुड़ी कविताएँ भी शामिल मिलती हैं, मसलन ‘आपत्तियों के बीच प्रेम’। यह कविता जैसे समाज की बुनावट को रेशा-रेशा उघारने का काम करती हो। किसी को देख कर दूसरे लोग जिस तरह कल्पनाएँ करते हैं, (जो कि हम सब करते हैं) उसका सूक्ष्म से सूक्ष्म विवरण है जो हमें खुद अपने भीतर झाँकने को मजबूर करता है और पढ़ने वाला खुद कह उठता है कि ‘अरे! यही तो होता है मेरे साथ’ और फिर तुरंत यह वाक्य भी मन में आ जाता है कि ‘अरे! हम भी तो यही करते हैं दूसरों के साथ’। इस तरह यह संग्रह स्त्री-पुरुष दोनों के मन की अलग-अलग पड़ताल भी करता है साथ ही स्त्री व पुरुष को यह नजरिया भी देता है कि हम अपनी व एक-दूसरे के मन की भी पड़ताल करें।