आज पढ़िए युवा लेखक आलोक रंजन की कहानी ‘स्वाँग से बाहर’। आलोक रंजन को हम उनके यात्रा वृत्तांत ‘सियाहत’ से जानते हैं लेकिन उनकी कहानियों की भी अपनी अलग जमीन है। बिना किसी शोर-शराबे के जीवन की जटिलताओं को अपनी कहानियों में वे दर्ज करते हैं। प्रस्तुत कहानी इसका अच्छा उदाहरण है। कहानी पढ़कर बताइएगा- प्रभात रंजन
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‘मुझे तुमसे बात करनी है … खाना खाने के बाद बाहर आ जाना।‘
उस वक़्त कमरे में अंधेरा था लेकिन बाहर अंधेरे की सीमा में प्रकाश की ख़ासी मिलावट! मोरों की आवाज़ की असीम निरंतरता उसे भली लगती थी और इस तरह कमरे की बत्ती बंद कर खिड़की और दरवाजे से शाम को ज़र्रे–ज़र्रे पर घिरते देखना उसे अच्छा लगता था। उसे यहाँ तीन महीने रहना था, एक निश्चित दिन वह निकल जाएगा यह सब छोड़ कर, फिर हॉस्टल के इस हिस्से का अर्थ उसके लिए शून्य रह जाएगा! प्रतिदिन शाम को वह इस कमरे की निरर्थकता के बारे में सोचता, फिर सोचता सामने के विशाल पीपल के पेड़, उस पर आने वाले मोर, उनकी आवाज़, कभी कभी उड़ने वाले मोरों की पंखों से घर्षित होती हवा की भारी आवाज़, सब निरर्थकता के कूड़ेदान में समा जाने के बारे में। यादें रहेंगी लेकिन उनसे इन्हें निकालकर देखने का वक़्त या फिर इनकी ज़रूरत किसे होगी! यहाँ उसके पास समय का यही टुकड़ा है, तीन महीने का, जिसमें लंबे समय के बाद और शायद आख़िरी बार उसे कॉलेज के छात्र की तरह रहने को मिला है। इन दिनों को वह उसी तरह देख रहा है जैसे कॉलेज के दिनों को देखता था पर उदासी के कुछ टुकड़े जो भीतर धँसे हैं वे बार-बार बता देते हैं कि इस उम्र में यह बस एक स्वांग भर है, असल नहीं। इस समय की ज़रूरत है एक बर्बर निर्लिप्तता, मगर स्वांग भरते-भरते भी वह सच में उतरता जा रहा है, जैसे मंच का अद्भुत कलाकार अपने पात्र में ही तब्दील होने में लगा हो। इस समय में कॉलेज का विद्यार्थी बनकर रहना, किसी बड़े अनुष्ठान में प्रवेश कर जाने जैसा है – नए ग्रंथ, नई उपासना पद्धति और पौरोहित्य का नया आडंबर! इन सबके बीच पुराने समय की बस दो ही चीज़ें अपनी गरिमामय उपस्थिति के साथ बची हैं उसमें – आलस और ऊब! कभी कभी उसे लगता है कि उसने शाम होने से पहले ही बिस्तर पर पसर जाने की आलस भरी गतिविधि के अपराध बोध से बचने के लिए अपने को भी समझा दिया है कि वह दरवाजे से घिरती शाम को देखने का सुकून चाहता है। वह चाहता है कि लोग शाम की इस पूरी संरचना में मोरों की आवाज़ जो संगीत रच रही है उसे सुनने का एक शास्त्र विकसित हो और लोग उसे इसका प्रणेता मानें! जबकि सच इतना ही है कि अब से पहले तक उसने मोरों को बस चिड़ियाघर में ही देखा था, कमरे के बाहर पड़े कूड़ेदान तक आ जाने वाले सुंदर पंखों से लदे मोर को देखने का सुख उसने इससे पहले कभी अर्जित नहीं किया। उसके जीवन की मोर-शून्यता का अंदाज़ा इसी से लगा लिया जाना चाहिए कि वह मोर देखने के लिए उसी तरह उत्साहित रहता है जिस तरह जंगल के हाथी को देखने के लिए पर्यटक। उसे लगता है कि वह क़ायदे से सोचता भी नहीं है या फिर विचार बड़ी तेज़ी से उसके भीतर आवाजाही करते हैं। वह ठहरकर उनमें से किसी एक पर या एक-एक पर देर तक नहीं सोचता। इसे गुण माने या अवगुण? पहली बार किसी ने उससे अंधेरे कमरे में पड़े रहने का कारण पूछा तो उसका उत्तर था – अंधेरे में कीड़े कम आते हैं। उसके बाद किसी ने नहीं पूछा। अब तक सब उसे एक अलग ही तरह का व्यक्ति मान चुके होंगे। हॉस्टल के किसी कमरे से उस व्यक्ति की जोरदार आवाज़ आ रही थी जो सभी विद्यार्थियों का नेतृत्व की इच्छा रखता था। वह अपनी बुज़ुर्गियत की हैसियत से ऐसा चाहता है जबकि उसमें रत्ती भर भी नेतृत्व क्षमता नहीं थी। वह ठीक आज के नेताओं की तरह था पर कामुक नहीं था। सोचने के इसी अजीबोगरीब क्रम में वह फोन आया था। तब से वह मेस में आने वाले खाने का इंतज़ार कर रहा था। उसने खिड़की की ओर देखा, खाने की जगह से आने वाली रोशनी बंद थी। लक्ष्मण खाना लाने के बाद सबसे पहला काम उस बड़े से कमरे में रोशनी करने का करता है। कहने के लिए बचाए रखता है या फिर अपने साथ रहने वाली लड़की की चुगली या फिर कहीं जाने की योजना बनेगी। यूं तो उसने बात करने के लिए कभी अलग से नहीं कहा, तब भी नहीं जब उसे उसका लाइब्रेरी कार्ड चाहिए था। उसे तो बाद में पता चला कि उसका कट गया है! उसे ब्यूटी पार्लर के डिस्काउंट के लिए अपना कार्ड चाहिए था। लेकिन पुस्तकालय से किताबें भी चाहिए थीं, फिर किताबों के लिए किसी और का कार्ड! उस दोपहर वह खाकर एक लंबी नींद लेने की सोच रहा था लेकिन हॉस्टल से कार्ड लेकर आया तो इधर ही रह गया। उसने उस लड़की में एक निस्संगता देखी है। उसे देखकर कक्षा में चारों ओर निरंतर लालसा सुलगती रहती है फिर भी उसने कहीं रुककर किसी को नहीं देखा। याद नहीं किसी से अभिवादन भर तक के संवाद से आगे कुछ कहा हो। पर उससे बात ही नहीं करती बल्कि कॉलेज के बाहर चाय पीने भी जाती है तब सड़क पर आते जाते लोगों को उसकी ओर घूरते देखता है उसने। उन क्षणों में उसे वहाँ होने पर अच्छा महसूस हुआ है। उसी दौरान उसने अपनी वास्तविकता को पीछे रखने की पहली बार सफल कोशिश की थी। तीन महीने के लिए उसकी दुनिया बेशक अलग हो पर उसकी मियाद इतनी ही थी। उसे जुड़ाव महसूस करना था, वह कर भी रहा था, लेकिन वह अपनी सजगता से बाहर नहीं आ सकता था। सोने के पानी से लिखे दिनों में हीरे की मज़बूती वाले इतिहास के साथ वह आया था। हाल में उसने अपने इतिहास पर जुड़ाव को कई बार हावी होते देखा। तब की बेचैनी के बीच उसने चाय के साथ भद्दे समझौते किए। कई बार चाय की दुकान पर आया और आती जाती गाड़ियों को देखता रहा। उसे अपनी ज़िंदगी में गाड़ियों के आने और जाने की जगह की ज़ोरदार तलब लग रही थी। राजू चाय वाले के पास भीड़ बनी ही रहती थी, उसे कभी खाली नहीं देखा। बहुत पैसे कमाता होगा बंदा! एक शाम उसने डायरी में अपने लिए कुछ दर्ज़ किया –
तुम अनायास क्यों भटक रहे रहो? कोई अपनेपन के साथ आएगा, खींचेगा लेकिन यह भी तो है कि वह अपने साथ अपनी दुनिया, भूत और भविष्य की कल्पना लेकर आयेगा। सवाल उठता है कि आनेवाला तुम्हारी तरह बिना किसी अपेक्षा के नहीं आया तो? तुम उसकी अपेक्षाओं के लिए रहोगे ही नहीं… बेशक तुम उसकी ज़िंदगी की दिक्कतें सम्भाल सकते हो, जीवन बदलने में भूमिका निभा सकते हो लेकिन अपेक्षाओं को ढोने के लिए तैयार नहीं होगे, तुम जानते हो।
तुम अपनी आकांक्षाएँ छिपा लोगे… असुविधा भी छिपा लोगे और ज़रूरत भी। गिल्ट में रहोगे पर अपेक्षाएँ स्वीकार नहीं करोगे क्योंकि तुम्हारी स्थिति तुम्हें इजाजत नहीं देती।
उस रात अपने लिए इतना लिखने के बाद वह सो गया और अपने लिखे के बारे में भूल गया। एक तड़प अपना सर उठाने लगी थी उसके भीतर। उसने कई बार ख़्याल किया कि वह कभी उसके इतने करीब रहे कि उसे कुछ दिखाई ही न दे जैसे चंद्रमा सूरज और पृथ्वी के बीच आ जाता है वैसे ही।
मोर अब शांत होकर नींद की ओर बढ़ गए थे। उनकी इक्का-दुक्का पुकार सुनाई दे जाती थी जैसे करवट बदलते हुए गिरकर चोट से चीख पड़े हों। लक्ष्मण खाना ला चुका था, मेस की रोशनी में गंदी पड़ी खाने की टेबल भी चमकने लगी थी और रहवासियों की आवाज़ में एक हड़बड़ी घुस चुकी थी। कहीं से कमरे की कुंडी लगने की आवाज़, बाथरूम में नलके के नीचे धुलती प्लेट और कोई पुकार सब एक दूसरे में घुल रहे थे। खाना आ जाने पर रोज़ होने वाली बातें थी ये सभी। सब विद्यार्थी मनोविज्ञान पढ़ने आए थे और पैवलॉव के कुत्ते की तरह ही उनकी भी कंडीशनिंग हो गयी थी। वह उन लोगों से ज्यादा देर तक बिस्तर में पड़े रहकर अपने को बार-बार जताने की कोशिश कर रहा था कि उसकी कंडीशनिंग नहीं हुई है लेकिन हुई तो उसकी भी थी।
बाहर वाली सड़क जिस पर राजू की दुकान है, लंबी और सीधी है पर दूर जहाँ से सड़क घरों के बीच गुम हो जाती है वहीं से मुड़कर वह झील का दूसरा किनारा बनने लगती है। सड़क की धूल जैसे गाड़ियों से बदला लेने के लिए बार-बार गुस्से मे उठकर खड़ी हो रही थी। बाहर उसे वह नहीं दिखा जिसने उसे बुलाया था।
-कहाँ हो?
-घर पर।
-पर तुमने तो बुलाया था।
-तुम हो शीघ्रपतन के रोगी, पूरी बात सुनते नहीं फोन काटने की शीघ्रता में रहते हो… मैं जगह के बारे में पूछने ही वाली थी कि फोन काट दिया… अब बोलो भी कहाँ आना है।
-चौपाटी पर आ जाओ।
उसे शीघ्रपतन के रोगी वाली बात पर हँसी आ गयी। वह चाहता था कि उससे कह दे कि कम से कम शीघ्रपतन का रोगी तो वह नहीं ही है, बेशक कोई और रोग भले उसके भीतर पल रहा हो। पर क्या होता कह कर! उसकी निस्संगता में इस तरह की बातों के लिए जगह कहाँ है। है तो बस एक हास्य भर की हैसियत!
खाना खा चुकने के बाद सड़क पर वह किसी लड़की का इंतज़ार कर रहा था। यह वह समय था जब राजू अपनी दुकान बढ़ाने की जुगत में लग जाता और घरों में खाना खा चुके लोग चौपाटी पर सैर के लिए आने लग जाते, चौपाटी के किनारे-किनारे लगे खाने पीने के ठेलों की रौनक बढ़ने लगती थी। चौपाटी की शाम अपने चरमोत्कर्ष की ओर बढ़ने लगी थी। चौपाटी से आगे झील का खुला पेट जिसमें अभी अभी गए बारिश के मौसम की निशानी पड़ी हुई थी। किनारों पर हवा की सवारी करती मछलियों जैसी गंध फैली थी जो एकबारगी किसी समुद्र तट का भाव दे देती।
वह आयी पर उसका इंतज़ार नहीं था। उसे तो आना ही था अपनी बात कहने। इंतज़ार उसकी बात का था । वह झील के किनारे लगे खंभों से उतरती पीली रोशनी में भी सुंदर लग रही थी। दोनों उन लोगों में शामिल हो गए जो झील के किनारे किनारे सैर कर रहे थे पर वे सैर करने नहीं आए थे। उन्हें तलाश थी एक जगह की जहाँ बैठकर बिना व्यवधान बात हो सके। झील के जिस हिस्से वे रुके वहाँ तक सैर करने वाले कम ही आते थे। वहाँ झील में चलने वाली नावें उल्टी पड़ी थी। उन नावों को देखकर लगता था कि वे महीनों से अपने प्रेमी से मुँह फेरकर लेटी हैं। प्रेमी जा चुके हैं और इन प्रेमिकाओं की जीर्णता को झुककर चूमने वाला भी कोई नहीं।
इस ओर रात के सन्नाटे का प्रभाव दिख रहा था। दृश्य को इससे ज्यादा क्या ही रूमानी होना था कि झील के किनारे एक लड़का और एक लड़की चुपचाप बैठे हों, चाँद की रोशनी तो नहीं पर झील पर पड़ रही पीली रोशनी में भी कोई ताप नहीं, पानी में उठती हल्की-हल्की लहरें अपनी ओर देखने को मजबूर करती हुई प्रतीत हों। दोनों के बीच कोई बातचीत नहीं हो रही थी, लेकिन उनकी बीच की हवा में कोई तनाव भी न था। वे एक-दूसरे के करीब होने के बावजूद, एक भावनात्मक दूरी पर साफ साफ खड़े दिख रहे थे।
वह झील की ओर देख रहा था, जैसे उसके मन में कोई गहरी सोच चल रही हो, जबकि लड़की धीरे-धीरे अपने पैरों को हिला रही है, मानो वह किसी और चीज़ पर ध्यान केंद्रित करना चाहती हो। दोनों के चेहरे पर एक हल्की उदासी झलक रही थी, लेकिन वह किसी व्यक्तिगत निराशा की नहीं, बल्कि एक गहरी सोच या किसी अनकही समझ की बात थी। उसठ और ऊब भरे क्षण को चुप्पी के साथ पसरती पीली रोशनी का साथ मिला हुआ था। हवा में मछेरी गंध थी और आसपास कोई आवाज़ नहीं।
-समझ नहीं आता कहाँ से शुरू करूँ।
-अंत से शुरू करो।
कहकर वह हँस पड़ा। यूँ तो यह कोई हँसने वाली बात थी नहीं, लेकिन उसके चेहरे पर भी मुस्कान आ गयी। हँसने पर उसके होंठ ज्यादा खुलने से सामने के दाँत अपनी पूरी चमक के साथ दिखते हैं। उसने फिर से उसकी ओर देखा, अब वह झील की ओर देखने लगी।
उसके मुड़ने से ऐसा लगा कि वह अब बोलेगी लेकिन तभी एक झुंड उधर से गुजरा। झुंड की उम्र ऐसी लग रही थी जैसे वे सिवाय घूमने के किसी और काम के नहीं बचे हैं, लेकिन इस उम्र में भी नहीं थे कि लाठी के सहारे चलते चलते बस मौत का इंतज़ार कर रहे हों। उनमें से एक की आवाज़ सब सुन रहे थे वह बोले जा रहा था।
‘इतनी तेज़ गंध है इस पानी में … पानी एकदम सड़ गया है। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि इसके भीतर के सारे जीव मर चुके होंगे। इतने खराब पानी में भी कोई जीवित रह सकता है भला’!
इस बात ने लड़की पर क्या प्रभाव छोड़ा पता नहीं लेकिन उसके सामने बैठा लड़का चिढ़ गया। उसकी पीठ जो रेलिंग से टिकी थी सीधी हो गयी।
-कैसे अजीब लोग हैं… इनकी पूरी उमर इस नासमझी में गुजर गयी कि जीवों को पानी में रहने के लिए किस तरह का वातावरण चाहिए। हमारे यहाँ विज्ञान की पढ़ाई का हिसाब ही अजीब है। पढ़ तो लेते हैं पर ऊपर-ऊपर से। प्रत्येक जीव को मनुष्य की तरह देखने की आदत विज्ञान के हिसाब से ठीक नहीं है। पानी के अंदर वाले जीवों को तो जाने दो, गाय आदि इससे भी खराब पानी को पीकर जीवित रह सकती हैं। उनके शरीर का तापमान मनुष्य के शरीर के मुक़ाबले ज्यादा होता है और वही उन्हें इसके योग्य बनाता है। पानी के भीतर की तो बात ही अलग है।
वह उसकी ओर देख रही थी जैसे कोई विद्यार्थी अपने अध्यापक को यह सोचते हुए देखता है कि उसकी बात एकदम सही हो और उससे ऊपर कुछ भी नहीं। देखते देखते उसकी नज़र फिर पानी की ओर मुड़ गयी जैसे फिल्मों के दृश्य एक से दूसरे में बदल जाते हैं।
दोनों के बीच चुप्पी फिर से छा गयी। गंध, हवा और रोशनी अपनी जगह थे और कभी कभी उनके भीतर लोगों का आना भी जारी ही था। पर इतने लोग नहीं थे कि वे इन्हें बात न करने दें। वह इतनी देर चुप नहीं रह सकता। लेकिन कितना ही बोले। ये लोग हस्की को यहाँ इतनी गर्मी में रख रहे हैं … यूरोप के ठंडे इलाके की नस्ल यहाँ अजमेर की गर्मी में क्या ही महसूस करती होगी या अनुकूलित हो गयी होगी। जीवित रहने के लिए वातावरण से सहकार सीखना ही पड़ता है। पूरा जीवन सामंजस्य बैठाने में ही खप जाता है। इसे कुछ कहना है पर कह नहीं रही। क्या करे सीधे पूछ ले? न! पूछना सही नहीं होगा। आंतरिक संघर्ष से जूझते लोग चुप हो ही जाते हैं। अपने भीतर की कश्मकश की अभिव्यक्ति यूँ मौन होकर करना भी संवाद है। सारे उसकी तरह के नहीं होते। उसका काम बिना बोले नहीं चलता। वह दूर देखने लगा। अंधेरे में उतनी दूर ही देख सकते हैं जितनी दूर तक रोशनी हो। वहाँ एक दुकान के बोर्ड पर लिखा था मिस्टर बूदन। बूदन पढ़ते ही उसे हँसी आ गयी। हँसी की चमक या उसकी आवाज़ ने लड़की का ध्यान भंग किया होगा।
-क्या हुआ … हँस क्यों रहे हो?
-नहीं कुछ नहीं।
-अरे बताओ भी अब।
वह कहानी सुनाने की मुद्रा में आ गया।
-मेरे पिताजी ने अपने एक सहकर्मी के साथ डेयरी खोली। घनिष्ठता इतनी कि दोनों ने साथ में जमीन ख़रीदी, घर बनाया और सीधे कहें तो भाइयों की तरह हो गए। पिता के सहकर्मी हमारे चाचा हुए उनकी पत्नी चाची और बच्चे भाई-बहन। उनका घर नेपाल की तराई में था। वे लोग गर्व से बताते थे कि गायक उदित नारायण का घर उधर ही है और बचपन में उस ओर चरवाही करते देखे जाते थे। एक बार उनके पिता शहर आए। उनका नाम था– बूदन झा। संयोग से उन दिनों मेरे भाई की भूगोल की किताब में एक चिकमंगलूर की ओर की किसी पहाड़ का नाम था बाबा बूदन गिरि, उसका जिक्र आया था। जैसे ही हमने उनका नाम सुना, हमारी हँसी छूट गयी। उसके बाद से उन्हें देखते ही हम हँसने लगते थे।
उन्हीं का एक और किस्सा है। चाचा की बड़ी बेटी की शादी थी और वे अपने गाँव में ही शादी करना चाहते थे। हमारे लिए नेपाल देखने का शानदार अवसर बनकर आयी थी वह शादी। शादी खत्म हो चुकी थी। चाचा का घर अपनी सामान्य अवस्था में लौट रहा था। सामान जो दूसरे घरों में रखे गए थे वे क्रमशः अपनी जगह लेने लग गए थे। एक शाम उनके पशु भी लौट आए। घर के सारे लोग अपनी थकान मिटा रहे होंगे उसी बीच उनकी भैंस खूँटे से रस्सी तुड़ाकर भाग गयी। जिसकी फसल खा रही होगी उसने शोर मचाया। लोग बाहर निकले। बाबा बूदन भी निकले! निकलते ही उन्होंने ज़ोर की हाँक लगायी।
‘ओ महिषासुर की पत्नी… लौट आओ’।
जिस जिस ने सुना सबकी हँसी छूट गयी। भैंस जिसकी फसल चर रही थी वही भैंस को पकड़ लाया। उस दिन से ‘बाबा बूदन’ के साथ ‘महिषासुर की पत्नी’ भी हमारे हास्य का हिस्सा हो गया।
महिषासुर की पत्नी सुनकर वह भी हँसने लगी। उसकी हँसी सुनकर मछलियाँ भी उसकी ओर देखने लगीं ऐसी खूबसूरत हँसी थी उसकी। अंधेरे में एक चमक-सी! उसकी हँसी झील के शांत वातावरण में गूँज रही थी, मानो उसकी हँसी में भी एक अलग तरह की ऊर्जा और जीवन का संचार हो। उसका चेहरा खिलखिलाती मुस्कान से भरा हुआ था, जैसे उसे इस क्षण में किसी चीज़ की चिंता नहीं थी। उसकी मासूमियत और बेफ़िक्री उस वातावरण में और भी जादू भर रही थी। बाबा बूदन जो उसके किसी काम में नहीं आने वाले थे यहाँ इस वातावरण में रस घोलने का निमित्त बन रहे थे। वह भूलने लगा था कि उसे लड़की की किसी बात का इंतजार था। रात तेज़ी से गिर रही थी। मोरों की आवाज़ इधर तक नहीं आती। झील के भीतर चलने वाला झरना और पानी की लय के साथ बजते देशभक्ति गीत कब के बंद हो चुके थे। सारा परिवेश स्थगन की प्रतीक्षा में आ चुका था जैसे कमरे के दरवाज़े रात में सबके सोने से पहले बंद होना चाहते हों। अब तो उसका न बोलना भी चलेगा। यह समय इसी तरह किसी लूप में समा जाये और बाबा बूदन की महिषासुर की पत्नी खेत-दर-खेत चौकड़ी भरती रहे। वक़्त के इस ठहराव की आकांक्षा में उसे याद आया कि इन सब बातों को उसने अरसे से याद नहीं किया था। घटनाएँ हमारे सामने घटती हुई स्मृतियों के खाते में जमा होती जाती हैं फिर अलग अलग संदर्भों में याद आती हैं। अफसोस उन घटनाओं और शक्लों के लिए है जिन्हें याद आने के लिए संदर्भ नहीं मिलेंगे, वे हमारी मौत तक स्मृति में ही पड़ी रहेंगी।
– मैं 16 साल से एक रिलेशनशिप में हूँ और अब वह टूट रहा है। उसके टूटने में अजमेर के इन महीनों का बड़ा हाथ है।
उसे इतना ही बोलना था? इतनी सारी कवायद बस इसलिए कि उसका संबंध टूट रहा है? पिछले दिनों वह फोन पर ज़्यादा ही लगी रहती, किसी दिन चिल्ला भी रही थी फोन पर।
– तुम लोग शादी करने वाले थे?
– नहीं हमारी शादी हो भी नहीं सकती, वह पहले से शादीशुदा है … मेरी जिंदगी में आने से पहले उसकी शादी हो चुकी थी। इसलिए उस बात को तो हम लोग पहले ही खारिज कर चुके थे… मुझे पता है, कहने–सुनने में यह अजीब लगता है लेकिन यही सच है। तुम लोग किसी को मेरा बॉयफ्रेंड कहते हो न यह वही व्यक्ति है लेकिन मैं उसे बॉयफ्रेंड नहीं मानती। इस उम्र में आकर लगता है कोई भी हो बस मेरा हो।
-हाँ तुम्हारे अच्छे–बुरे में तुम्हारे साथ खड़ा होने वाला भी तो चाहिए।
-नहीं ऐसी बात नहीं है। वह बहुत अच्छा व्यक्ति है। उस व्यक्ति ने मेरे लिए जो सब किया है उतना तो कोई सगा भी नहीं कर सकता। उसके लिए आदर मेरे जीवन में कभी खत्म हो ही नहीं सकता। पर मेरी ओर से प्यार नहीं है अब। पहले मैं कोशिश भी करती थी पर अब मन नहीं है उन कोशिशों का।
-ठीक! जब मन ही नहीं है तो कहीं ठहरना ज़बरदस्ती ही होगी… हर जगह से उस व्यक्ति से संपर्क काट दो जल्दी निकल जाओगी।
-नहीं मैं यह नहीं कर सकती। उस व्यक्ति ने जो सब मेरे लिए किया है और जितना सम्मान उसके प्रति मेरे मन में है उसे देखते हुए यदि मैं उससे सारे संपर्क काट दूँ तो मुझसे बड़ा पापी कोई नहीं होगा… वह बहुत अच्छा व्यक्ति है। वैसा इंसान मिलना मुश्किल है।
-जब अपने प्रेमी को डिफेंड करना पड़े तो समझो कि प्रेम जा चुका है अब जो भी हो प्रेम तो क़तई नहीं है।
-पता है, मेरे घर में इस संबंध के बारे में सब जानते हैं, मम्मी पापा भी… निस्संदेह उन्हें सब कुछ नहीं पता पर वे जानते हैं।
-पता तो उन्हें सब ही होगा… फिर भी तुम्हारे माता पिता बहुत समझदार निकले। हमारे घरवाले होते तो काट डालते अब तक तो। उनकी लड़की पैंतीस की होकर भी शादी न करे यह चल जाता लेकिन एक शादीशुदा मर्द से सोलह सालों से प्रेम करे यह पचा पाना कठिन होता उनके लिए।
-हाँ मेरे माँ- बाप अच्छे हैं… पर समझ नहीं आता क्या करूँ…
– करना कुछ नहीं है… प्यार तुम्हें इससे है नहीं अब। रही सही कसर यहाँ रहते हुए पूरी हो गयी… माँ–बाप को बोल दो लड़का ढूँढ कर शादी कर दें।
-लड़का तो जैसे उनकी जेब में पड़ा है कोई!
बोलते बोलते वह फिर झील की निस्सीमता को देखने लगी। उसे महसूस हुआ कि अंधेरे ने झील को छोटा कर दिया है। दूर से आता प्रकाश झील के ठीक ऊपर लगी रोशनी सा लगता है। अंधेरे भर झील और उसके पार आबाद अजमेर।
-पता है, सारी दिक्कत इस कोर्स की वजह से हुई। इधर आकर सारा रूटीन बिगड़ गया। मैं उसे समय ही नहीं दे पायी। हमारे बीच झगड़े बढ़ गए। झगड़े से मेरा मतलब बहस से है। वह इतना अच्छा आदमी है कि उससे किसी का झगड़ा हो ही नहीं सकता।
-फिर क्यों परेशान होती हो… शादी की जल्दी तुम्हें है नहीं। प्रेमी तुम्हारा इतना अच्छा आदमी है उसके प्रति सम्मान भी बहुत है मन में तुम्हारे… रही बात समय न दे पाने की तो एक बार यहाँ से वापस जाओगी तो सब कुछ पहले वाले रूटीन में ढल जाएगा। चीजों को ठीक होने में देर नहीं लगती।
लड़की ने पता नहीं क्यों उसकी ओर जलती नज़रों से देखा और नीचे देखने लगी। उसे लगा फिर एक लंबी चुप्पी आने वाली है। इस समय चाहे लड़की के प्रेम का पोस्टमॉर्टम हो पर चुप्पी न हो।
-तुम उल्लू हो? तुम्हें क्या लगता है कि ये बातें मैं किसी और से नहीं कर सकती? और ये बातें करने के लिए तुम ही बचे हो?
-‘?’
-उल्टी खोपड़ी, ये तुम हो जिसके कारण यह सब हुआ। इतने दिनों तक कोई मिला ही नहीं जिसे देखकर, जानकर यह लगा कि इसके साथ रहा जाये। इसलिए शादी की ओर मैंने ध्यान देना भी बंद कर दिया। लेकिन तुम्हें देखकर लगा कि इसके साथ रहा जा सकता है। एक तड़प जगी, पहली बार अच्छा लगा। इसी दौरान उधर से मेरा ध्यान भटका और चीजें खत्म होने लगी। इतनी रात गए यहाँ मैं तुम्हें यही बताने आयी हूँ। लेकिन मेरी किस्मत देखो कि तुम भी शादीशुदा निकले… तुम्हें छोटी छोटी चीज़ों में खुशियाँ तलाशते देखा, तुम्हें किसी खास क्षण को उसकी संपूर्णता में जीते देखा। इतना सब होने के बाद पता चला कि तुम शादीशुदा हो। तुम भी सिर्फ़ मेरे नहीं हो सकते!
लड़की बोले जा रही थी और शब्द इसके खत्म हो चुके थे। एक अफसोस सा लड़की के चेहरे पर था। अब हवा भारी हो गयी थी, पानी की गंध तेज़ तेज़ महसूस हो रही थी।
-अब बता दिया है तो भाव मत खाने लगना!
कहते कहते लड़की मुस्कुरा उठी।
-अब बोलो भी… ऐसे लग रहा है जैसे साँप सूंघ गया हो। अब तक तो बड़ा बाबा बूदन और महिषासुर की पत्नी वगैरह की कहानियाँ सुना रहे थे। अब चुप क्यों हो गए?
वह इस ताने के बाद भी नहीं बोला। उसके पास कहने को कुछ नहीं था। वह क्या कहे! आख़िर लड़की ही बोल पड़ी।
-ऊपर से ये लॉन्ग डिस्टेन्स।
लॉन्ग डिस्टेंस की बात आते ही अब तक शब्दहीन पड़ा लड़का बोल पड़ा।
-लॉन्ग डिस्टेंस मतलब?
-यही कि इंसान एक बार को पैंतीस की उम्र में प्यार कर भी ले पर दूर दूर रहकर उस प्यार का क्या मतलब!
-लॉन्ग डिस्टेंस संबंध के प्रति हमारे इस तरह के दृष्टिकोण से मुझे आपत्ति है। हम दूरी का ख़्याल केवल प्यार वाले संबंध में ही करते हैं। बाक़ी के रिश्तों से भी तो हम दूर ही रहते हैं। तुम नौकरी की वजह से कहीं रह रही हो तुम्हारे भाई और बहन अपनी अपनी वजहों से अन्यत्र रह रहे हैं। तुम सबने अपने माँ–बाप को छोड़ दिया। वे भी तो दूर हैं तुमसे। सेक्स हटा दो तो कौन सा प्यार है जो उनके प्यार की बराबरी कर ले! भाई–बहन बचपन में खूब झगड़ते हैं और फिर अलग अलग परिवार बसा लेते हैं, उस प्यार की दूरी के बारे में हम क्यों नहीं सोचते?
-कहना क्या चाहते हो?
-यही कि हमारा समय लॉन्ग डिस्टेंस का ही है। इसी के बीच से प्रेम के लिए वक्त और जगह तलाशनी पड़ेगी। दूरी तो रहेगी लेकिन इसकी वजह से प्रेम को स्थगित नहीं किया जा सकता है।
-तुमने चीजों को सुलझाने के बजाय उलझा दिया… यही सीख रहे हो कोर्स में?
जीवन के विस्तार में सबसे आसानी से मिलने वाली अनचाही चीज है उलझन। उलझनें अमानवीय हैं, उन्हें मानव की सीमा को समझते हुए सरलता अपना लेनी चाहिए। वह उस पुरुषोचित आदिम चाह का शिकार हो रहा है जिसमें सबको हासिल करने की बात निहित होती है। सब उसके लिए हो, वह सब चला लेगा, सबको संभाल लेगा। एक शाश्वत प्यास में डूबना उतरना शुरू कर दिया उसने। समझाइश की ज़रूरत तो उसे है। सुनते सुनते वही भटक गया। कई सारे सवाल एक साथ उठकर सामने आ गए। जो भी हो लड़की को उसके प्रति अपने भाव नहीं बताने चाहिए थे। वह शादीशुदा है यह एक तथ्य है लेकिन सामने वाली लड़की उसे चाहती है। इस चाह ने बड़ा आकर्षण पैदा कर दिया। वह उसे भरपूर नज़र देखता है। अस्थिर मन एक स्थिरता अनुभव करता है। लड़की ने अपना पैर झील की ओर लटका दिया। वह उसके पैरों की ख़ूबसूरती देखने लगा- क्या इसके प्रेमी ने इन्हें चूमा होगा? ये पैर झील पर पसरे सघन अंधेरे में कितने चमक रहे हैं, जैसे सफ़ेदे की दो टहनियाँ पानी छूने को आतुर हों। क्या इन पैरों को पता होगा कि यहाँ की हवा भारी हो चली है?
-मुझे क्या करना चाहिए?
-स्वार्थी होकर कहूँ तो तुम मुझसे प्यार कर लो… लॉन्ग डिस्टेंस आदि सब झेल लिया जाएगा लेकिन मुझसे प्यार करके तुम्हें कुछ मिलेगा नहीं। तुम्हारी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आएगा। सब कुछ वही रहेगा। तुम्हारे हारे गाढ़े जिस तरह वह खड़ा नहीं होता है मैं भी नहीं रहूँगा। ऐसा रहेगा जैसे किसी मास्टर का तबादला एक विद्यालय से दूसरे विद्यालय हो गया हो, बस इतना ही ! शेष कुछ नहीं बदलेगा। मैं वैसे भी थोड़े दिनों तक तुम्हारे सामने हूँ , नज़र से ओझल होते ही मैं बहुत दिनों तक तुम्हें याद नहीं रहने वाला।
– यह तुम्हें कैसे पता… काश ऐसा हो जाता कि तुम नज़र से ओझल होकर यूं हो जाते जैसे मैं तुमसे कभी मिली ही नहीं! मेरा मन लगातार यही सब सोचता रहता है, खिन्न रहता है, और सोचता रहता है कि कहीं कोई उपाय हो जिससे यह सोचना छूट जाए।
-ऐसा है तो जीवन के नए अध्याय में प्रवेश करो।
-वह भी नहीं कर सकती। तुम्हारा शादीशुदा होना पर्याप्त वजह है मेरे लिए।
-जबकि अब तक तुम शादीशुदा के प्रेम में ही थी।
रात अब उस मुकाम पर पहुँच चुकी थी जब लोगों का सड़क पर रहना सरकार के हिसाब से ठीक नहीं है। सरकार ने इसके लिए पुलिस के जवानों की तैनाती कर रखी थी जो न सिर्फ चाय–आइसक्रीम के ठीहे बंद करवाते हैं बल्कि अपनी मोटरसाइकिल दौड़ा दौड़ा कर लोगों को भी झील की सीमा से बाहर करते हैं। उन्हें चौपाटी जन-शून्य चाहिए, सड़क पर टहलते हुए आप घर जाएँ या कुत्तों से जूझें, आपका सरदर्द! एक पुलिसवाले की मोटरसाइकिल उनके पास भी रुकी।
-आप लोग अब घर चले जाओ।
पुलिस वाले के अनुसार वे एक घर के लोग थे जैसे पति-पत्नी होते हैं। उन्होंने अपना घर से बाहर रहने वाला वक़्त जी लिया, अब उन्हें घर जाना चाहिए।
वह उसे घर तक छोड़ने गया। दाधीच निवास के बड़े से दरवाजे में वह प्रवेश कर जाती उससे पहले उसने पूछ लिया।
-तो इस पूरी बातचीत में मेरे लिए कुछ नहीं था?
-नहीं! इसे इसी तरह देखना ठीक है कि मैंने तुम्हारे तीन घंटे खराब कर दिए। उसके लिए माफी चाहूंगी और शुक्रिया कि तुमने मेरे लिए वे तीन घंटे निकाले।
वह हॉस्टल की ओर लौट रहा था, उसे सड़क की धूल और सघन महसूस हो रही थी। मोर दिन भर साँपों के पीछे पड़े रहते हैं वरना इस खराब वक़्त में एकाध वे भी निकल ही आते। कहीं से खिन्नता लिए लौटना बहुत भारी होता है। अपने भीतर का कोहराम उसे दे गई। यह कब तक उसके साथ रहेगा नहीं पता। उसके भीतर के वर्तमान उचाट का कोई एक कारण नहीं दिख रहा है लेकिन उन कारणों के पीछे वही लड़की है।
बगल के कमरे में रहने वाला रजनीश उसे हिला रहा था। इसी क्रम में उसकी नींद खुली थी।
-भाई कितनी गहरी नींद सो गए थे, कम से कम दरवाजा तो बंद कर लिया करो… किसी दिन बिस्तर पर साँप आ गया न तो सब शाम के अंधेरे का आनंद लेना निकल जाएगा!
– खाना आ गया क्या?
यह सवाल निरर्थक था। उसके कमरे की खिड़की से दो चीज़ें बख़ूबी आती हैं, एक तो संडास से उठती पेशाब की गंध दूसरी मेस की रोशनी। यह पता नहीं किस तरह हुआ कि उसे खाना खाकर बाहर किसी से मिलने जाना है याद ही नहीं रहा! वह खाना छोड़कर बाहर राजू की चाय की दुकान की ओर लपका।
4 Comments
वह उसकी ओर देख रही थी जैसे कोई विद्यार्थी अपने अध्यापक को यह सोचते हुए देखता है कि उसकी बात एकदम सही हो और उससे ऊपर कुछ भी नहीं।❤️❤️
आलोक रंजन की कहानी’ स्वांग से बाहर’ , कहीं भी कही – सुनी जा सकती है। पर आलोक के कहने का ढंग दो – चार पीढ़ी जीने के बराबर । हूं- हां और काफी बातों से निस्तेज पात्र इतने साफ – सुथरा होने की कोशिश करते हुए हर बार हालात के मारे होते हैं। उसके कमरे का अँधेरापन, मोरों की उपस्थिति,नेपन,बाबा बूदन हों या महिषासुर की पत्नी , सोलह साल के संबंध समय की मुहर लगाते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। नाटकों में काॅमिकल इंटरलुयड की तरह शीघ्र पतन की बात मुस्कान देती उसे छोड़ जाती है। झील की निस्तेजता, लांग डिस्टेंस ऐसे शब्द कहानी को अर्थ देते हैं।पात्र की वापसी बहुत सहज है।
अच्छी कहानी है। प्रवाह अंत तक बांधे रखने में सक्षम है।
एक ऐसी कहानी जिसे इतनी जल्दी ख़त्म नहीं होना चाहिए था।