आज मनोहर श्याम जोशी की पुण्यतिथि है। आज एक दुर्लभ पत्र पढ़िए। जो मनोहर श्याम जोशी को उनके गुरु अमृतलाल नागर ने लिखा था। अमृतलाल नागर को वे अपना गुरु मानते थे। पत्र का प्रसंग यह है कि 47 साल की उम्र में शिष्य मनोहर श्याम जोशी का पहला उपन्यास ‘कुरु कुरु स्वाहा’ प्रकाशित हुआ तो उन्होंने गुरु जी को पढ़ने के लिए भेजा। लेकिन गुरु शिष्य की तारीफ़ करने के साथ साथ कमियों के बारे में भी खुलकर बता रहा है। यह पत्र इसलिए प्रस्तुत कर रहा हूँ ताकि हम दो मूर्धन्य लेखकों के आपसी संवाद का खुलापन देख सकें। सोच रहा हूँ कि आज कोई वरिष्ठ लेखक किसी युवा लेखक की ऐसी आलोचना कर दे तो शिष्य की प्रतिक्रिया क्या होगी? हाँ, पत्र पढ़ते हुए भी मनोहर श्याम जोशी जी याद आए। नागर जी की भाषा का प्रभाव उनके लेखन पर सबसे अधिक था। ख़ासकर शब्द बनाने के मामले में। जैसे नागर जी ने अपने पत्र में एबसर्डियत एक शब्द बनाया है। मनोहर श्याम जोशी को याद करते हैं और इस पत्र को पढ़ते हैं- प्रभात रंजन
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09-06-80
परमप्रिय चि. मनोहर,
2 जून को ढाई मास के बाद लखनऊ लौटा हूँ, आठ दस दिनों में ही एक बार फिर अज्ञातवास के हेतु बाहर जाऊँगा। सबसे बड़ी कठिनाई इस बार यह है कि बोल कर लिखा नहीं पाता अतः दिन भर चलने के वावजूद “नौ दिन में अढ़ाई कोस” ही चल पाता हूँ। इसलिये अनडिस्टर्ब्ड एकांत की अत्यधिक आवश्यकता है।
यहाँ आकर तुम्हारा उपन्यास “कुरु कुरु स्वाहा” बड़े चाव से पढ़ गया। तुम्हारी एब्सर्डियत बहार दे गई। लेखन शैली में ताज़गी है।
“पहुँचेली” के लिए तुम्हें मेरा प्यार पहुँचे. अच्छा कैरेक्टर है, बस, थोड़ी गहराई और माँगता था।
“मनोहर—मनोहर श्याम—जोशीजी” की सूझ के लिए बड़ी बड़ी असीसें! मैं समझता था कि “सूरज-सूरस्वामी-श्याम” में मैंने ही नयापन दिया है पर तुम्हारी तरकीब पहले ही प्रकाशित हो गई. चेतन उपचेतन, अचेतन, दोहरे, तिहरे व्यक्तित्व, इस तरकीब से अधिक स्पष्ट रुपेण उजागर होते हैं। तरकीब तो तुम अवश्य दे गये हो पर जहाँ तल सुतल अतल और पाताल में इनकी अलग अलग व्यक्तित्वों की संधि होती है उसके वर्णन मेरे “ख़ंजन नैन” में ही देख पाओगे।
तंत्र न तो “बाणभट्ट” जैसा शरबत बना और न ही समुद्री पानी ही बन सका. स्वादिष्ट दाल या सब्ज़ी में न घुल पायी नमक की कंकडियों जैसा किरकिराता है। तुम्हारी तथाकथित एब्सर्डियत में भी घुल नहीं पाया वरना “पहुँचेली” नायाब प्रतीक बनती।
तुम्हारा कामरेड शायर भी अच्छा है। धड़ तक बनाया, टाँगें भी बना देते, भले लँगड़ा होता तो अपने फ़िनिश्ड फ़ॉर्म में और भी बहार देता।
डायलाग्ज़ उम्दा मगर कहीं कहीं बहक कर लायडाग्ज़ बन जाते हैं। “बहक” लेखनशैली की ताज़गी भी बना है यह मानते हुए भी कहना चाहूँगा कि भविष्य में इसकी नोक-पलक सम्भालने और सँवारने पर “बालक मनोहर” को मनोहरश्याम जोशी जी की बढ़ती प्रतिष्ठा का ध्यान रखना चाहिए।
लेखन काल में आमतौर से किसी अन्य की रचनायें नहीं पढ़ता लेकिन तुम्हारी रचना से प्रति ममत्वभरा आग्रह था. बहरहाल यह उपन्यास निश्चय ही सराहा जायगा. “काम का इनाम और काम” वाली अंग्रेज़ी कहावत के अनुसार मैं तुमसे नये उपन्यास की माँग करता हूँ. तुम्हारा वर्धमान यश देखकर पुलकित होता हूँ, यह पुलकन उत्तरोत्तर बढ़े. अपनी यह मनोकामना प्रभु को अर्पित करता हूँ.
सौ. बहुरानी और चि. बेटे को (नाम भूल गया) मेरा हार्दिक शुभाषीश!
मंगलाकांक्षी
अमृतलाल नागर