मनोहर श्याम जोशी की पुण्यतिथि पर प्रस्तुत है यह साक्षात्कार जो सन 2004 में आकाशवाणी के अभिलेखगार के लिए की गई उनकी लंबी बातचीत का अंश है.यह बातचीत मैंने ही की थी। उसमें उन्होंने अपने जीवन के अनेक अनछुए पहलुओं को लेकर बात की थी। यहां एक अंश प्रस्तुत है जिसमें उन्होंने अपने जीवन और लेखन के कुछ निर्णायक पहलुओं को लेकर खुलकर बातें की हैं. पूरी ईमानदारी से. उनके अपने शब्दों में कहें तो ‘बायोग्राफी पॉइंट ऑफ व्यू’ से- प्रभात रंजन
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प्रश्न– आपके उपन्यास हों चाहे सीरियल उनमें चरित्र-चित्रण भी जबर्दस्त होता है और किस्सागोई भी सशक्त होता है। भाषा पात्रों के अनुकूल होती है। बड़ा जीवंत परिवेश होता है. यह गुण आपको कहाँ से मिला?
जोशीजी– माँ से। बल्कि मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि हालांकि मेरी माँ कभी स्कूल नहीं गई मुझे अपना बुनियादी साहित्य-संस्कार और तेवर उसी से विरासत में मिला है। उसे पढ़ने की इतनी ललक थी कि उसने भाइयों की किताबें देख-देखकर स्वयं को अक्षर ज्ञान कराया। धार्मिक ग्रंथ ही नहीं उपन्यास भी वह बहुत चाव से पढ़ती थी। शरत साहित्य, रवीन्द्र साहित्य, चंद्रकांता, सरस्वती सीरिज की किताबें ये सब हमारे घर में हुआ करती थी। प्रसंगवश, मेरे एक मामा लक्ष्मीदत्त जोशी को हिन्दी साहित्य के कुछ इतिहासों में बांग्ला साहित्य के हिन्दी में अनुवाद करने के लिए और‘जवाकुसुम’ नामक एक उपन्यास लिखने के लिए याद किया गया है। मतलब यह कि ननिहाल में अच्छा साहित्यिक माहौल था।
मेरी माँ कुशल किस्सागो और नक्काल थी। हर घटना का वह बहुत ही सजीव वर्णन करती थी और उसके बीच-बीच में पात्रों के संवादों के हूबहू नकल उतारकर प्रस्तुत किया करती थी। हमारे यहां बारात के रवाना हो जाने के बाद रतजगे में मेरी माँ के आइटमों की धूम रहती थी। हम सब भाई-बहनों को घटनाओं का सजीव वर्णन करने का और उससे संबद्ध लोगों की नकलें उतार सकने का गुण अपनी माँ से विरासत में मिला है। मैं खुद ही कितनी ही आवाजें बदल करके और कितनी ही आवाजों में बोल सकता हूं। जवानी के नादानी भरे दिनों में इस क्षमता का मैंने टेलिफोन पर मित्रों को बेवकूफ बनाने में अक्सर दुरुपयोग किया। आज जब मेरा सबसे छोटा बेटा फोन पर इस तरह बेवकूफ बनाता है तो जबर्दस्त खीज होती है।
प्रश्न- आपकी रचनाओं में हास्य-व्यंग्य प्रबल होता है। आपे ‘नेताजी कहिन’ जैसा व्यंग्य का लोकप्रिय स्तंभ लिखा। तो दूसरी तरफ आपके उपन्यासों में इसी व्यंग्य के साथ एक त्रासदी भी चलती रहती है। यह नजरिया आपने कहां से पाया?
जोशीजी- अपनी मां से ही। उनका व्यक्तित्व विचित्र प्रकार का था। एक तरफ वह बहुत धर्मपरायण और धर्मभीरु महिला थीं। निहायत दबी-ढकी, नपी-तुली जिंदगी जीने वाली। हमें धर्मभीरुता का संस्कार भी उसी से मिला। उसी के चलते अपने तमाम तथाकथित विद्रोह के बावजूद, जनेऊ को कील पर टांग देने और मुसलमानों के घड़े से पानी पी लेने के बावजूद कर्मकांड को कभी पूरी तरह से अस्वीकार नहीं कर पाया हूं। और इस मामले में मेरी माननेवालों और न माननेवालों के बीच की स्थिति बन गई।
एक ओर मेरी मां का व्यक्तित्व दबा-ढका था तो दूसरी ओर इतने जबर्दस्त ढंग से खिलंदड़ भी कि मध्यवर्गीय मानकों की ऐसी-तैसी कर जाए। खुद अपना और दूसरों का हास्यास्पद पक्ष उसे साफ नजर आता था। उस पर वह खिलखिलाकर हंस सकती थी और हंसा भी सकती थी।
वे बहुत ऊंचे परिवार की थी। दीवान-राठ थे मेरे ननिहाल वाले। गोया उस परिवार के, जिसके सदस्य राजाओं के दीवान होते आए थे। मेरे मां के परदादा थे हर्षदेव जोशी जिनका कुमाऊं, गढ़वाल, हिमाचल प्रदेश और रूहेलखंड के ब्रिटिशकालीन इतिहास में जिक्र आता है- कहीं नायक और कहीं खलनायक के रूप में। वे पंडित, राजनीतिज्ञ कूटनीतिक और सेनापति सभी कुछ थे। वे बराबर इस जोड़-तोड़ में रहे कि कुमाऊं के शासन की बागडोर कुमाउंनियों हाथ में आ जाए। इसीलिए जीवन के अंतिम दौर में उन्होंने गोरखाओं से दगा करके अंग्रेजों का साथ दिया। उन्हें गोरखाओं को हराने की विधि बताई। लेकिन इससे कुमाऊं का राज कुमाउंनियों को मिलने के बजाय अंग्रेजों को मिला। उनकी गिनती गद्दारों में हुईं वे राजनीति से विरक्त होकर आध्यात्म की शरण में गए।
प्रश्न- आपने हर्षदेव जोशी के चरित्र का कोई आधार बनाया? कभी उनके बारे में कुछ लिखने के बारे में सोचा?
जोशीजी- मैं हर्षदेव जोशी को लेकर एक नाटक लिखना चाहता था लेकिन मैं उनके बारे में जानकारी इकट्ठा करने का काम ही पूरा नहीं कर सका। कहा जाता है कि हर्षदेव जोशी को किसी ने वंश-नाश का शाप दिया था। मेरे ननिहाल में पुत्र बहुत कम हुए और उस वंश का जो ताजातरीन इकलौता मर्द वारिस है-मेरे मामा का पोता- उसके कोई पुत्र नहीं है। इसलिए लोग कहते हैं श्राप पूरा हो गया। मिथकीय किस्म के कैरेक्टर थे लेकिन उन पर कुछ लिखना नहीं हो पाया।
प्रश्न- आपने अपने पिता के बारे में विस्तार से नहीं लिखा है। केवल ‘कुरु कुरु स्वाहा’ में उनके बारे में कुछ सूचनाएं आती हैं?
जोशीजी- मैं कुल 7-8 बरस का था जब मेरे पिता गुजर गए। इसलिए मैं उन्हें एक अनुपस्थिति के रूप में ही जानता हूं। एक ऐसी अनुपस्थिति जिसे मैंने उनके बारे में अपनी चंद यादों से, घर में उपलब्ध उनके चित्रों से और दूसरी सुनी-सुनाई बातों से- जो अक्सर परस्पर विरुद्ध होतीं मैंने दूर करने की कोशिश की। अपने पिता के बारे में सबसे ज्यादा जानकारी मुझे अपने भाई साहब से प्राप्त हुई। विडंबना यह है कि हम भाइयों में पिता के बारे में लंबी बातचीत तब हुई जब वह गंभीर रूप से बीमार थे। उनका इरादा पिता और अन्य पूर्वजों को लेकर एक वृहद उपन्यास लिखने का था। दुर्भाग्य से उसी बीमारी में उनकी असमय मृत्यु हो गई।
प्रश्न- आपके पिता की आपके अंदर कैसी छवि रही है?
जोशीजी- मेरे पिता राय साहब प्रेमवल्लभ जोशी कद-काठी, आवाज़, उपलब्धि हर दृष्टि से बहुत रोब-दाब वाले आदमी थे. गोया उनके बच्चों के लिए उनसे प्रभावित होने से ज्यादा उनसे आतंकित होने वाली स्थिति थी. मेरे भाई दुर्गादत्त एक तरह हमारे पिता की छवि से लड़ते हुए या होड़ करते हुए अपना जीवन बर्बाद करते रहे और असमय गुजर गए.
प्रश्न- रोब-दाब माने? क्या वे बहुत गुस्सैल थे?
जोशीजी- सवाल उनके गुस्सैल होने का नहीं है. इस बात का भी नहीं कि अपनी तमाम उपलब्धियों के बावजूद अधेडावस्था में मारे भग्नाशा के वे शराबी ही गए थे. सवाल है उनकी बहुमुखी प्रतिभा और उपलब्धियों का, जिनके सामने दूसरे लोग बौने नज़र आते थे. सवाल है उनके दबंग व्यक्तित्व का, उनकी महत्वाकांक्षा और आगे बढ़ने की धकापेल कोशिशों का. उनके सामने औसत दबा-ढका जीवन जीने वाले मध्यवर्गीय लोग हीन भावना का शिकार हो सकते थे. हमारे कुटुंब में वे पहले व्यक्ति थे जो प्रसिद्ध हुए. इसलिए उन्हें लगभग मिथकीय दर्ज़ा मिला परिवार-गाथा में. वे इतने योग्य माने गए कि हम उनके अयोग्य पुत्र-पुत्री ही हो सकते थे. आज भी परिवार के बुज़ुर्ग लोग जब पिता की चर्चा मेरे सामने करते हैं तो उसमें यह ध्वनि ज़रूर होती है कि बेटा हीरो तू अपने बाप के मुकाबले में जीरो है.
प्रश्न- आपने कहा कि आपके पिता प्रसिद्ध हुए, किस क्षेत्र में उनको प्रसिद्धि मिली?
जोशीजी- एक नहीं अनेक क्षेत्रों में. कुमाऊँनी ब्राह्मणों में पिछली सदी से ही आधुनिक शिक्षा का खूब प्रचार-प्रसार रहा था. मेरे पिता पढ़ने में बहुत होशियार थे और अल्मोड़ा से विज्ञान में इंटरमीडिएट करके आगे की पढाई के लिए उस समय इलाहाबाद गए जब वहाँ विश्वविद्यालय नहीं था केवल म्योर सेंट्रल कॉलेज था जो कलकत्ता विश्वविद्यालय की परीक्षा दिलवाता था. मेरे पिताजी ने बीएससी तब किया जब भारत में स्नातक इतने कम होते थे कि ‘ग्रेजुएट असोसिएशन ऑफ इंडिया’ जैसी एक संस्था हुआ करती थी. मेरे पिता की विज्ञान में गहरी रुचि थी और उन्होंने उसी ज़माने में अपने सहपाठी डॉ. गोरख प्रसाद के साथ मिलकर प्रयाग विज्ञान परिषद की स्थापना की थी. उन्होंने तब ‘पदार्थों के स्वभाव और गुण’ नामक एक पुस्तक लिखी थी जो शायद हिंदी में लिखी हुई विज्ञान की सबसे पुरानी पुस्तकों में से हो. तभी उन्होंने स्कूली छात्रों के लिए हिंदी में विज्ञान की पाठ्य पुस्तकें लिखी थी जो नवल किशोर बुक डिपो ने छापी थी.
बहरहाल, मेरे पिता स्नातकोत्तर शिक्षा के लिए क़ानून का विषय लेना चाहते थे. उनका ख़याल था, उनके प्रशंसकों का आज भी है कि अगर वह एलएलबी कर लेते तो न केवल नामी वकील बनते बल्कि अपने एक अन्य सहपाठी गोविन्दवल्लभ पन्त की तरह चोटी के नेता भी. लेकिन गर्मियों की छुट्टियों में उन्होंने अपनी आधुनिकता का परिचय देने के लिए अल्मोड़ा के भरे बाज़ार में अनुसूचित जाती की तब एकमात्र पढ़ी-लिखी महिला से हाथ मिला लिया और ब्राह्मणों के रोष से बचने के लिए उन्हें अल्मोड़ा छोड़कर सुदूर अजमेर जाना पडा. वकालत पढ़ने की बात धरी रह गई.
इसीलिए आगे चलकर उन्होंने बहुत जिद की कि उनका बड़ा बेटा दुर्गादत्त एलएलबी करे. जबकि भाई साहब साहित्य में एमए करना चाहते थे. एलएलबी होकर भी वकालत न करके भाई साहब ने पिता के आतंक के विरुद्ध वह विद्रोह शुरू किया जी अंततः उनके लिए बर्बादी का कारण बना. मेरे पिता अपने नैनीताल निवासी चाचा की सहायता से अजमेर गवर्नमेंट कॉलेज के प्रिंसिपल हैरिस के पास पहुंचे थे. वह लाइब्रेरियन नियुक्त हुए और उन्होंने हिस्ट्री में एमए किया. वहीँ कॉलेज में हिस्ट्री के प्रोफ़ेसर बने. हिस्ट्री की भी किताबें लिखी और इतिहासकारों की बिरादरी में भी सम्मान का स्थान पाया.
प्रश्न- यानी आपके पिता आलराउंडर थे? कई विधाओं में पारंगत?
जोशीजी- गज़ब के. जिस क्षेत्र में भी वे घुसे उसमें चोटी तक पहुँचने की कोशिश में लगे और अक्सर कामयाब रहे. राजस्थान में रहते हुए उन्हें राजपूत चित्रकारी के नमूने देखने को मिले और देखते ही देखते वह राजपूत और मुग़ल शैली की चित्रकारी के विशेषज्ञ बन गए. खुद उन्होंने उनका बहुत अच्छा संग्रह किया जो वह मरने से पहले अल्मोड़ा में नए-नए खुले उदयशंकर के केंद्र को भेंट कर आए. आज वह हमारे पास होता तो लाखों-करोड़ों का होता.
इसी तरह वे एम्बुलेंस और रेडक्रॉस के काम में घुसे. वे इतनी तेज़ी से आगे बढे कि अगर जीवित रहते और चाहते तो भारतीय रेडक्रॉस के पहले भारतीय अध्यक्ष बन जाते. तथाकथित सीक्रे सोसाइटी फ्रीमेंसंस में भी उन्हें उच्च पद प्राप्त हुआ. अब जब मेरे भांजे को इंग्लैंड में फ्रीमेंसन बनना था तो वह अपने नानाजी की मेसोनिक लॉज की सदस्यता के प्रमाण-तस्वीरें वगैरह साथ ले गया था.
मेरे पिता ने सबसे अधिक नाम संगीत के क्षेत्र में कमाया. उनसे पहले हमारे कुटुंब में गाने-बजाने की कोई परम्परा नहीं थी. कहना यह चाहिए कि यह शौक उन्हें ब्राह्मण बिरादरी से अलग भी करता था. भले ही उन्होंने कभी विधिवत संगीत की दीक्षा नहीं ली, उनकी गणना देश के शीर्षस्थ संगीत-शास्त्रियों में हुई. भारतीय शिक्षा सेवा के सदस्य के नाते अजमेर में नियुक्त होने के कारण सारा राजस्थान, मध्य भारत और ग्वालियर उनके कार्यक्षेत्र में शामिल था. यहाँ के रजवाडों से उन्हें न सिर्फ चित्रकला के बेहतरीन नमूने मिले बल्कि दरबारी संगीतज्ञों को निकट से जानने का अवसर भी.
इसके चलते वे हिन्दुस्तानी संगीत के पुनरोद्धारक भातखंडे जी के बहुत काम के साबित हुए. पुरानी बंदिशें जमा करने और उनकी स्वर लिपि दर्ज कर लेने के अभियान में मेरे पिता भातखंडे जी के सहयोगी बने. जनसंपर्क और संगठन में मेरे पिता अत्यंत कुशल थे. लखनऊ में मौरिस कॉलेज की स्थापना में उनका बड़ा हाथ था, जो अब भातखंडे संगीत विद्यालय कहलाता है. इसी तरह उन्होंने अखिल भारतीय संगीत-नृत्य सम्मेलनों का आयोजन किया जिससे शास्त्रीय संगीत दरबारों से बाहर निकलकर जनता के बीच पहुंचा. उनके जीवन का अंतिम काम ‘हिस्ट्री ऑफ इंडो-पर्शियन म्यूजिक’ नामक ग्रन्थ लिखना था.
प्रश्न- क्या वह किताब प्रकाशित हुई?
जोशीजी– अफ़सोस कि नहीं. वह उसे पूरा कर गए थे और विलायत के एक प्रकाशक ने उसे छापना मंज़ूर भी कर लिया था. उसे लिखने के सिलसिले में उन्होंने समय से पहले सरकारी सेवा से अवकाश ग्रहण कर लिया था और शराब पीना भी छोड़ दिया था क्योंकि उनको पता था कि जिगर इतना सड़ चुका है कि अब पियेंगे तो इधर शराब उनके गले से उतरेगी उधर वह मौत के मुंह में जायेंगे. प्रकाशक को किताब रवाना करने के बाद और अपनी सभी पारिवारिक दायित्वों की पूर्ति करने के लिए कुछ न कुछ व्यवस्था करने के बाद वे दिल्ली गए जहाँ एक तरह से उन्होंने संगीत-कला प्रेमियों के साथ जिंदगी का अपना आखिरी जश्न मनाया. वहाँ से जिस दिन लौटे उसी रात खून की उल्टियां करते हुए मर गए. वह युद्ध का ज़माना था. बाद में प्रकाशक ने लिखा कि एक परिच्छेद नहीं मिल रहा है. जिसे पांडुलिपि पूरा करने का काम दिया गया उसने वह परिच्छेद कभी लिखकर ही नहीं दिया.
प्रश्न– आपके भाई भी लेखक थे?
जोशीजी- उनकी कुछ रचनाएं प्रकाशित और प्रसारित भी हुई थीं। जिन्दगी में दो मर्तबा उन्होंने पत्रकार की हैसियत से काम किया था। मेरी बड़ी बहन भगवती दी की भी एक-दो रचनाएं प्रकाशित हुई थीं। आज भी वे अगर कोई भूले-भटके पत्र लिखती हैं तो सब लोग ले-लेकर पढ़ते हैं। मेरे ताऊजी और छोटे चाचा की रचनाएं भी प्रकाशित हुईं। पढ़ने-लिखने की हमारे परिवार में जबर्दस्त परंपरा थी और सो भी उस जमाने में जब फालतू किताबें पढ़ना उतना ही खराब समझा जाता था जितना आजकल टीवी देखते रहना।
प्रश्न– पिता की अनुपस्थिति को आप किस तरह से देखते रहे?
जोशीजी- इसके कारण मेरे जीवन में ही नहीं साहित्य में भी जबर्दस्त अनाथ काम्पलेक्स ढूंढा और दिखाया जा सकता है। मुझे खुद ही कभी-कभी आश्चर्य होता है मेरे लिए कोई व्यक्ति पिता प्रतीक बन जाता है और मुझे अपने बारे में उसकी राय अच्छी बनाने की, अपने किए पर उसकी दाद पाने की जरूरत महसूस होती है। कभी-कभी अपनी इस कमजोरी पर मैं इतना झुंझलाता हूं कि उसके द्वारा उपेक्षित किए जाने पर अपना आपा खो बैठते हुए उल्टा-सीधा कहने लगता हूं। मृत्युभय और असुरक्षा की सतत भावना भी मेरे अनाथ काम्पलेक्स के हिस्से हैं। भाई साहब की असमय मृत्यु और उनके जीवन में आए बेरोजगारी के अनेक दौर इस भावना को और भी दृढ़ कर गए।
प्रश्न- इसका आपके जीवन पर क्या असर पड़ा?
जोशीजी- इसकी वजह से मेरे भीतर का डर कुछ और बढ़ गया। कुछ पैदाइशी डर था और कुछ परिस्थितियों ने बना दिया। कोई विद्रोह करते हुए या बड़ा खतरा मोल लेते हुए मुझे यह डर सताता रहा कि कहीं भाई साहब की तरह मेरी जिन्दगी भी तबाह न हो जाए। मध्यवर्गीय मानकों के अनुसार जब छोटे-मोटे कुछ विद्रोह किए तब यही सुनने को मिला कि अपने भाई के नक्शे-कदम पर चल रहा है। यह भी उसी तरह लायक बाप का नालायक बेटा साबित होगा। इसी के चलते विशेष महत्वाकांक्षी न होते हुए भी मैंने महत्वपूर्ण गोया लायक बनने कर कोशिश की और अपने को बराबर नालायक ही पाता रहा। इसी तरह मुझे इस बात का भी अहसास रहा कि शराब और विलासिता मेरे पिता की कमजोरी बने। अगर उनमें परिवार के संस्कारों के विरुद्ध जाने वाली यह प्रवृत्ति न होती तो वे दीर्घायु होते और जीवन में कहीं अधिक सफलता पाते। इसके कारण मैं कभी पूरी तरह विद्रोही नहीं हो सका।
प्रश्न- तो आप अपने को अधूरी तरह के विद्रोही मानते हैं?
जोशीजी- हां. और इसी के चलते मैं न तो कलाकारों वाले सांचे में फिट हो सका और न घरेलू सांचे में. जैसा कि मैंने बहुत पहले अपने बारे में कहा था मैं एक पालतू बोहेमियन होकर रह गया. लेखक जोशीजी बेचारे घर-परिवार में थोड़े बोहेमियन होने के नाते विचित्र समझे गए और बोहेमियन बिरादरी को उनका घरेलूपन अजीब नज़र आया. यह उनके पालतू बोहेमियन, अधूरे विद्रोही होने का ही प्रमाण है कि शराब पीते हुए भी उनका सारा ध्यान इस ओर रहा कि कहीं होश न खो बैठूं. इसी के चलते उन्हें हर सुरा-संध्या के अंत में किसी लड़खड़ाते मित्र को उनके घर पहुंचाने का और उनके स्वजनों की फटकार सुनने का सौभाग्य प्राप्त होता रहा.
प्रश्न- अनाथ कॉम्प्लेक्स से आर्थिक असुरक्षा भी होती होगी?
जोशीजी- बहुत ज्यादा. मेरे पिता कि गिनती तब के मानकों के अनुसार रईसों में होती थी. घर में तब दो-दो कारें थी. उनके गुजरते ही हम एक झटके के साथ आर्थिक दृष्टि से सिफार ही गए क्योंकि ठाठ की जिंदगी जीने वाले हमारे पिता विशेष कुछ छोड़कर नहीं गए और मेरे भाई साहब तब मामूली क्लर्की कर रहे थे जो उन्होंने सिर्फ इसलिये कर ली थी कि अफसर वर्ग के हमारे पिता के प्रति विद्रोह जता सकें. बाद में उन्होंने यह नौकरी छोड़ दी और उनके बीच-बीच में बेरोजगार होने का सिलसिला चल निकला. इस आर्थिक असुरक्षा की भावना ने ही मुझे हमेशा लेखन से पैसे कमाते रहने के लिए बाध्य किया है. आज भी जबकि मुझे पैसा कमाने की कोई ज़रूरत नहीं है मैं व्यावसायिक लेखन को छोड़ नहीं पाता.
मैंने शुरू से ही दोनों तरह का लेखन खूब किया. छात्र जीवन से मैंने साहित्य और पत्रकारिता दोनों में एक साथ कदम रख दिया था. अनुवाद का काम भी मैंने जमकर किया. गोया मैं शुरू से उच्चभ्रू और निम्नभ्रू दोनों तरह का लेखन लगभग साथ-साथ करता आया हूँ. गोया मुझे परहेज रहा है तो मध्यभ्रू लेखन से. न मैं उसे पढ़ना शुरू करता हूँ न लिखना. जनता छाप और इंटेलेक्चुअल छाप चीज़ें पढ़ने और लिखने में मुझे रस आता है. यों इसके चलते मेरी जनता छाप कृतियों में भी थोड़ी-बहुत साहित्यिकता है और साहित्यिक कृतियाँ भी इस माने में जनता छाप हैं कि अपनी तमाम इंटेलेक्चुअलता-यह मेरे गुरु नागरजी का चहेता शब्द है- के बावजूद वे पठनीय हैं.
प्रश्न- नागर जी की शिष्यता में जाने के लिए आप लखनऊ किस प्रसंग में गए?
जोशीजी- मैं संयोग से ही लखनऊ पहुंचा और संयोग से ही लेखक बन गया. जब मैंने इंटर पास कर लिया तब मेरे चाचाओं ने, जिन्होंने पिता की मृत्यु के बाद हमें पाला-पोसा, यह सुझाव दिया कि मैं सिविल इंजीनियरिंग पढ़ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय चला जाऊं. सुझाव बहुत नेक था लेकिन मैंने इसका विरोध किया क्योंकि मेरा विश्वास था कि इंजीनियरी एक भ्रष्ट पेशा है जिसमें अच्छे लोग नहीं पनप सकते. प्रेमचंद की कहानी ‘सज्जनता का दंड’ मेरे दिमाग में तब ताज़ा थी. इसलिए मैंने जिद पकड़ ली कि अपने पिता और भाई की तरह इलाहाबाद युनिवर्सिटी में पढूंगा. जाना था इलाहाबाद पहुँच गया लखनऊ. इसलिए कि तब तक इलाहाबाद में दाखिला लेने की तारीख निकल चुकी थी और लखनऊ में पिताजी के एक छात्र जो तब उपमंत्री थे मुझे दाखिला दिलवा सकते थे. इस तरह मैं लखनऊ पहुँच गया और एक दिन महान वैज्ञानिक बनने के सपने देखने लगा.
प्रश्न- वैज्ञानिक बनने के सपने का क्या किस्सा है? क्या हुआ?
जोशीजी- इसके बावजूद कि हमारे घर में बड़ा साहित्यिक माहौल था खुद मुझे साहित्य में कोई रूचि नहीं थी. मैं ज्ञान-विज्ञान की पुस्तकें ज्यादा पढ़ा करता था. बीएससी के पहले साल में मुझे उस ज़माने के शिक्षामंत्री सम्पूर्नान्दजी ने मेरे निबंध ‘रोमांस ऑफ इलेक्ट्रांस’ पर कल के वैज्ञानिक पुरस्कार दिया था. अब सोचता हूँ कि यह तो निबंध के शीर्षक से ही ज़ाहिर हो जाना चाहिए था कि यह लड़का साहित्यिक हो जाए तो हो जाए वैज्ञानिक नहीं हो सकता.
प्रश्न- वैज्ञानिक बनने के उस सपने के पूरे न हो पाने का कोई अफ़सोस होता है?
जोशीजी- मैंने पहले ही कहा कि मैं वैज्ञानिक बनने लायक था ही नहीं. लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि विज्ञान मेरा प्रिय विषय था और आज भी है. पिछले कुछ दशकों से तो मैं कविता, कहानी, उपन्यास से कहीं ज्यादा विज्ञान की पुस्तकें पढता रहा हूँ. एक कारण तो यह भी हो सकता है कि उम्र बढ़ने के साथ किस्से-कहानी में और उस तरह की कविता में जिस तरह की आज लिखी जाती है रूचि घटने लगती है. लेकिन दूसरा बड़ा कारण यह है कि मैं समझता हूँ इस दौर के सबसे रचनात्मक लोग, सबसे बड़े दार्शनिक विज्ञान के क्षेत्र में ही कार्यरत है. अगली सदी की दुनिया की संभावनाओं और खतरों का विज्ञान से उतना ही संबंध है जितना कि राजनीति से.
प्रश्न- लखनऊ में वैज्ञानिक बनने का सपना लेखक बनने के सपने में कैसे बदल गया? लेखन की तरफ कैसे मुड़े आप?
जोशीजी- जब मैं लखनऊ पहुंचा तो मुझे उस हबीबुल्लाह हॉस्टल में जगह मिली जिसमें नवाबजादे रहा करते थे. तब मैंने पहली बार पाया कि अजमेर की तरह यहाँ मशहूर राय साहब प्रेमवल्लभ जोशी मरहूम का बेटा न होकर एक अदद हास्यास्पद किस्म का जीव हूँ. निहायत लंबा और पतला, थोड़ा उचक-उचक कर चलने वाला एक फटेहाल किशोर जो अपनी मिमियाती हुई आवाज़ में अपने पिता से विरासत में मिले हुए ऑकसोनियन लहजे में गिटपिट अंग्रेजी बोलता था. मेरा नाम माइकल सैमुएल जोशुआ रख दिया गया. रघुवीर सही बाद में कभी-कभी मुझे इस नाम से बुलाया करते थे. जवाब में मैंने उनका नाम रैग बीयर सैवाय रखा था. खैर, तो मैंने पाया कि मैं तो यहाँ हास्यास्पद हूँ. लिहाज़ा मैं अपना ज्यादा वक्त पुस्तकालय में बिताने लगा. ज़ाहिर है मुझे वहाँ इंटलैक्चुअलाने यूनिवर्सिटी मिलते रहते थे. और इंटेलेक्चुअल आप जानते हैं वामपंथी होते हैं. वामपंथियों में कुमाऊँनी छात्रों की तादाद बहुत ज्यादा थी और कुमाऊँनी होने के कारण उनसे घुल-मिल सका और अपना अकेलापन दूर कर सका. इन छात्रों में एक थे सरदार त्रिलोक सिंह, जो पीढ़ियों से नैनीताल में बसे होने के कारण मुझसे कहीं अधिक कुमाऊँनी थे. उन्होंने एक दिन मेरी बातचीत सुनकर कहा यार तू तो कहानीकार है, जैसा बोलता है वैसा लिख दिया कर. यह कल के वैज्ञानिक जोशीजी के लिए बड़ी चौंकाने वाली सूचना थी.
यों शायद उन्हें ज्यादा चौंकना नहीं चाहिए था. जब वह हाई स्कूल में पढते थे तब छोटे चाचा के यहाँ रात के खाने के लिए आने का निमंत्रण मारे डर के अस्वीकार करने पर उनसे पूछा गया कि किस चीज़ से डरता है, और उन्होंने डर पर एक निबंध लिखकर दे दिया जिसमें अंतिम पंक्ति थी- इसलिए सज्जनों, मैं डर के नतीजे के डर से सबसे ज्यादा घबराता हूँ. साथ ही बिगड़ी हुई हाफ पैंट का चित्र था. कथाकार चाचाजी ने फतवा दिया कि तू लेखक बनेगा. उनका हमेशा दावा रहा कि मैं उनका ही चेला हूँ.
इसी तरह जब मैं इंटरमीडिएट में था तब मैंने अपने अंग्रेजी अध्यापक से कहा कि आप निबंध लिखने के लिए बड़े पिटे-पिटाए विषय देते हैं. उन्होंने चुनौती दी कि तुम्हें जो विषय पसंद हो उस पर लिखकर लाओ. मैं एक निबंध ‘ऑन माईसेल्फ लिखकर ले गया. जिसे पढकर मिस्टर सकुएरा, जिन्हें छात्र मिस्टर सकोरा पुकारते थे, गदगद हो गए. उन्होंने कॉपी पर लिखकर दिया कि तुम किसी दिन लेखक बनोगे. मैं साहित्य नहीं पढता था और मुझे इतिहास में बेहद रूचि थी, देखो, हिस्ट्री भी तो स्टोरी ही है न.
प्रश्न- आप अपने लेखक बनने का श्रेय सरदार त्रिलोक सिंह को देते हैं? आपने उनके सुझाव पर कहानी लिखना शुरू किया?
जोशीजी- शुरू में तो नहीं. फिर उन्होंने आर्मेनियाई मूल के अमेरिकी लेखक विलियम सारोयाँ का कहानी संग्रह लाकर दिया कि इसे पढ़ो. पढकर मुझे लगा ऐसा तो मैं भी लिख सकता हूँ. अनाथ काम्प्लेक्स से प्रेरित मेरी पहली कहानी ‘नीली ऑस्टिन’ आनन-फानन में तैयार हो गई. यह कहानी मेरे पिता की नीले रंग की ऑस्टिन कार के बारे में थी. यह मेरी पहली और आखिरी ऐसी रचना थी जो पूरी तरह आत्म-चरितात्मक थी. भले ही यह कहानी सभी जगह से सधन्यवाद लौट आई इसके नाते मैं लेखक बन गया.
प्रश्न- लेखक तो आप बन गए लेकिन लखनऊ के साहित्यिक सर्कल में आप किस तरह शामिल हुए? अमृतलाल नागर के शिष्य कैसे बने?
जोशीजी- एक वामपंथी कि सलाह पर और वामपंथियों के सानिध्य में लेखक बना था इसलिए प्रगतिशील लेखक संघ की गोष्ठियों में जाने लगा. उस ज़माने में प्रगतिशील लेखक संघ की एक विश्वविद्यालय शाखा भी हुआ करती थी. लखनऊ प्रगतिशील लेखक संघ में उर्दूवालों का बोलबाला था. गोया मैंने शुरुआत ही उर्दू वालों के बीच उठने-बैठने से की. मुझे इस बात का बहुत मलाल रहा और अब भी है कि मैंने कभी बाकायदा उर्दू नहीं सीखी. हिंदी-उर्दू के लेखकों की बैठक तब सरुपरानी बख्शी के घर में हुआ करती थी और उसमें भगवती बाबू, आनंद नारायण मुल्ला शोभायमान रहा करते थे. लेकिन कांग्रेसियों की इस जमात में जाने से हम वामपंथी थोड़ा परहेज़ करते थे. वामपंथी रुझान के कुछ साहित्यकारों ने, जिनमें कृष्ण नारायण कक्कड प्रमुख थे, लेखक संघ नामक एक संस्था बना रखी थी जिसकी गोष्ठी यशपालजी के घर पर हुआ करती थी. लेखक संघ किसी दल से नहीं जुड़ा हुआ था इसलिए उसमें सभी तरह के लेखक आते थे. हिंदी के तीन बड़े उपन्यासकार- यशपाल, भगवतीचरण वर्मा और अमृतलाल नागर उस समय लखनऊ में थे और तीनों ही लेखक संघ की गोष्ठियों में मौजूद रहते थे.
इसी लेखक संघ की गोष्ठी में मैंने अपनी दूसरी कहानी ‘मैडिरा मैरून’ पढकर सुनाई. उन दिनों न शेवरलेट कार की बड़ी धूम थी और मैडिरा वाइन के रंग की कत्थई शेवरलेट कार खरीदना फख्र की बात समझी जाती थी. यह कहानी एक ऐसे अफसर के बारे में थी जो एक छोटे कस्बे में इसी रंग की गाडी खरीदने की बात कर ही रहा होता है कि कोई दूसरा व्यक्ति खरीदकर ले भी आता है. जहाँ नीली ऑस्टिन कहानी में भावुकता थी वहाँ मैडिरा मैरून में हास्य-व्यंग्य था. मेरी शुरू की रचनाएँ कभी खालिस भावुक कभी खालिस व्यंग्यात्मक हुआ करती थी. एक लंबे मौन के बाद जब मैंने लिखना शुरू किया तब मेरे ये दोनों ही तेवर घुल-मिल गए.
प्रश्न- लेखक संघ की उस गोष्ठी में आपकी कहानी पर किस तरह की प्रतिक्रियाँ आई. नागर जी से वहीं भेंट हुई होगी आपकी?
जोशीजी- उसकी काफी सराहना हुई और मुझे इस बात की खुशी हुई कि अलग-अलग नज़रिए वाले उन तीनों बड़े उपन्यासकारों ने कहानी को बहुत अच्छा बताया. नागरजी ने तो आकार बाकायदा पीठ थपथपाई और मैं बाद में बाकायदा उनका शिष्य बन गया. नागरजी भांग का सेवन करने के बाद गाव तकिये का सहारा लेकर बैठ जाते थे और अपनी रचना किसी शिष्य को बोल-बोलकर लिखवाते थे. उनसे डिक्टेशन लेने का काम सबसे ज्यादा मुद्राराक्षस ने किया जो उन दिनों सुभाष के नाम से जाने जाते थे. मैं भी इस काम में लगा. इसी मारे मुझे भी बोलकर लिखवाने की बुरी आदत पड़ गई.
प्रश्न- नागरजी उस समय क्या लिखवा रहे थे?
जोशीजी- ‘बूँद और समुद्र’. जिसने भी बूँद और समुद्र पढ़ा हो वह सहज ही देख सकता है कि उसके कुछ हिस्सों के कातिब की हैसियत से मैंने नागर जी से कितना कुछ सीखा. लिखाते-लिखाते वह बताया करते थे कि अमुक पात्र अमुक शहर का और अमुक जाती या मोहल्ले का है इसलिए इस तरह बोलता है. नागरजी फिल्मों में संवाद लेखक रह चुके थे और रंगमंच से उन्हें गहरा लगाव था लिहाजा उपन्यास लिखते हुए सभी पात्रों के संवाद ठीक उन्हीं की तरह बोलकर दिखाते थे. मुझे माँ से नकलें उतारने क जो हुनर मिला वह नागरजी की शिष्यता में और भी विकसित हो गया. बोलियों का महत्व मुझे नागर जी ने ही सिखाया. बल्कि सच कहूँ तो नागरजी ने ही मुझे हिंदी सिखाई. मैं तो खुद हिंदी में ख़ासा गोल था.
नागरजी ने ही यह अहसास करवाया कि उर्दू की तरह हिंदी जुबां भी आते-आते ही आती है. उन्होंने मुझे खड़ी बोली अच्छी तरह सीखने की सलाह दी और इस सिलसिले में रानी केतकी की कहानी, फ़साना-ए-आज़ाद, उमराव जान अदा वगैरह पढ़ने को कहा. माधुरी और सरस्वती के पुराने अंक और हिंदी के निबंधकारों के संग्रह भी पढ़ने को दिए. और हां उन्होंने ही मुझे शब्दकोश देखते रहने की आदत डलवाई. नागरजी फिल्म क्षेत्र से लौटकर साहित्य में आए थे इसलिए उनकी शैली पर पटकथा की शैली का ख़ासा प्रभाव था. इसलिए सिनेमा और पटकथा दोनों के प्रति मेरे मन में शुरू से जबर्दस्त आकर्षण हो गया. मैं तभी फिल्म लेखक बनने के लिए जाना चाहता था लेकिन नागरजी ने मना कर दिया तो नहीं गया.
प्रश्न- आप अपनी पुस्तकों में अपने गुरु के रूप में नागरजी और अज्ञेय का उल्लेख अपने गुरु के रूप में करते रहे हैं. साहित्य में इस तरह से गुरु की भूमिका को आप किस रूप में देखते हैं?
जोशीजी- गुरु को श्रेय तो दिया जाना चाहिए. दुर्भाग्य से हिंदी में किसी को उस्ताद बनाने या मानने की वैसी परम्परा कभी नहीं रही जैसी उर्दू में थी. यहाँ हर कोई कलम पकड़ते ही उस्तादों का उस्ताद हो जाता है. किसी स्वार्थ से, किसी अग्रज के चरणों में बिठा भी रहा करे तो कभी सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार नहीं करना चाहता कि मैं जो हूँ उनकी बदौलत हूँ. दिक्कत यह है कि हिंदीवाले यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि साहित्य में भाषा और शिल्प का जो पक्ष है वह बहुत महत्वपूर्ण है और सीखा-सिखाया जा सकता है. इस तरह की बात करते ही आपको रूपवादी कहकर गोली मार दी जाती है.
प्रसंगवश, मेरे लेखकीय व्यक्तित्व के विकास में मेरे चचाजाद बड़े भाई पूरनचंद्र जोशी का भी विशिष्ट योगदान रहा. उन्होंने मुझे साहित्य, इतिहास, समाजशास्त्र, नृतत्व, दर्शन, मनोविज्ञान, विज्ञान, मिथक-पुराण जैसे विषयों पर लिखी हुई १०० मशहूर पुस्तकों की सूची बनाकर दी कि इन्हें पढ़ो. उन्होंने ही यह बताया कि यूरोप के किस कवि-कथाकार की कौन-कौन सी खास रचनाएँ हैं और उसके जीवन और साहित्य पर लिखी कौन सी किताब सबसे अच्छी है. काश मैंने उनके बनाए हुए पाठ्यक्रम की सभी पुस्तकों का अध्ययन किया होता. उनकी यह सलाह भी मानी होती कि कुछ महान ग्रंथों का जीवन में उसी तरह बार-बार पारायण किया जाना चाहिए जिस तरह श्रद्धालुजन धार्मिक ग्रंथों का करते हैं. लेकिन जैसा कि पूरन दा ने मेरी चंचलवृत्ति को देखकर तभी कह दिया था मुझे कल का वैज्ञानिक या विद्वान नहीं होना था. बस हर विषय की थोड़ी सुंघा-सूंघी करके काम चला लेनेवाला पत्रकार बनना था.
प्रश्न- आप तो कई विषयों के जानकार बताये जाते हैं. किताबों में आपके परिचय में भी यही लिखा रहता है. आपने दर्शन, विज्ञान, खेलकूद, पटकथा जैसे विषयों पर किताब लिख चुके हैं.
जोशीजी- मेरी जानकारी सतही है. यह सही है कि मुझे बहुत सारे विषयों में रूचि रही और जिस लखनऊ में साहित्यिक संस्कार मिला उसमें कॉफी हाउस छाप इंटेलेक्चुअलता का बोलबाला था. कई शीर्षस्थ विद्वान विश्वविद्यालय में पढ़ाते थे. हमारे उपकुलपति आचार्य नरेंद्रदेव थे. नई से नई किताब पढ़ने की होड़ लगी रहती थी. जैसा कि मैंने कुरु कुरु स्वाहा में लिखा है जोशीजी भी एक साथ तीन-तीन किताबें हाथ में लेकर घूमने लगे- एक ज्ञान-विज्ञान सम्बन्धी, दूसरी साहित्य सम्बन्धी और तीसरी जासूसी पंजा या भांग की पकौड़ीनुमा कोई चालु किताब. आज भी मैं किसी गंभीर किताब के साथ-साथ कोई हलकी-फुलकी किताब भी उलटता-पुलटता रहता हूँ. लेकिन मुझे खेद है कि मिथक-पुराण, संस्कृत साहित्य, हिंदी के प्राचीन साहित्य जैसे तमाम विषयों पर मैंने बहुत कम पढ़ा है. बिना अपनी परम्परा को जाने उससे विद्रोह की बात काफी निरर्थक लगती है.
यह बड़ा दुर्भाग्य है कि हिंदी में ऐसी किताबें लगभग नहीं के बराबर हैं जिन्हें पढ़ने से परम्परा के बारे में मुझ जैसे व्यक्ति को थोड़ा-बहुत ज्ञान हो सके. और तो और ऐसे संग्रह भी नहीं हैं जिनसे पता चल सके कि हिंदी में शुरू से अब तक लिखी हुई श्रेष्ठ कविताएँ या कहानियाँ ये हैं. कभी बहुत पहले रामनरेश त्रिपाठी ने कविता कौमुदी ज़रूर निकाली थी मैंने इस बारे में अज्ञेय जी से कई बार चर्चा भी की कि आप उसी तरह का एक नया संकलन निकालें. हमारे यहाँ गुटबाजी, नए-पुराने का झगड़ा ये सब तो बहुत होता है लेकिन साहित्यिक मानकों के अनुसार श्रेष्ठ रचनाएं कौन सी हैं और किस क्रम से हिंदी की अपनी परम्परा का विकास हुआ है ऐसा दर्शाने वाले संकलन और सरस समीक्षा ग्रन्थ न के बराबर हैं. इससे एक बड़ी खराब सी स्थिति पैदा होती है कि जिन्हें कलम पकड़ने की तमीज न हो उन्हें गुट के प्रति वफादारी के कारण या सत्तावान होने के कारण साहित्यकार मान लिया जाता है. सता, प्रचार-प्रसार और गुटबंदियों से दूर पड़े अच्छे लेखक भी उपेक्षित रह जाते हैं. उदाहरण के लिए शमशेर जी के भाई तेज बहादुर चौधरी ने एक ज़माने में बहुत ही अच्छी कहानियाँ लिखी थी लेकिन उनका कहीं कोई ज़िक्र नहीं आता. इसी तरह चन्द्रकुंवर बर्तवाल बड़े अच्छे कवि थे लेकिन उपेक्षित ही रह गए.
प्रश्न- अज्ञेय जी से आप कैसे जुड़े?
जोशीजी- मैं दिल्ली आया तो रघुवीर सहाय ने मेरी मदद करने के क्रम में अज्ञेय जी से मेरी सिफारिश की. वे पहले मेरी कहानी अपनी पत्रिका में छाप भी चुके थे. मैं शुरू-शुरू में उनसे बिदकता रहा. वह बहुत श्रद्धास्पद थे और मैं थोड़ा अश्रद्धालु था शुरू से. कुछ ऐसा भी दुराग्रह था कि भले मैं आपका शिष्य बन गया होऊं लेकिन हूँ मैं आपका राजनैतिक विरोधी.मुझे याद है मैंने उन्हें एक बार कविता लिखकर दी थी ‘हम नहीं कहते कि हम नदी के द्वीप हैं’. इसी तरह जब उन्होंने मेरी सहायता करने के लिए मुझे अमेरिकी सूचना सेवा से अनुवाद कार्य दिलवाने की पेशकश की तो यह जानते हुए भी कि तमाम और लेखक बड़ी खुशी से यह काम आकर रहे हैं, मैंने इनकार कर दिया. उन्होंने मुझे समझाया भी कि अनुवाद के लिए दी गई पुस्तक ललित कला सम्बन्धी है, फिर आपको क्या आपत्ति है? लेकिन मैं नहीं माना.
अज्ञेय जी उस समय आकाशवाणी के समाचार विभाग में हिंदी सलाहकार का काम कर रहे थे मुझे हिंदी यूनिट में स्टाफ आर्टिस्ट उपसंपादक का काम दिला दिया. इस तरह करियर के शुरुआत से ही अज्ञेय जी की मेरे जीवन में बड़ी भूमिका रही. पिछले दिनों अमेरिका से एक किताब छपी है जिसमें संयोगों को बहुत महत्वपूर्ण बताया गया है. तो इसे संयोग ही कहिये अपने स्कूल में हिंदी वाद-विवाद प्रतियोगिता में हिंदी बनाम हिन्दुस्तानी वाली बहस में हिंदी के खिलाफ जोरदार तक़रीर फरमाने पर मुझे प्रथम पुरस्कार स्वरुप एक किताब मिली थी ‘शेखर एक जीवनी’. उसे मैंने खोलकर भी नहीं देखा था. और जब मेरे एक साहित्यानुरागी चचाज़ाद भाई ने मुझसे वह पुस्तक मांगी तो मैंने सहर्ष दे दी.
बाद में लखनऊ आने पर परगतिशील बिरादरी में मैंने अज्ञेय का नाम हम लोगों के सबसे बड़े साहित्यिक शत्रु के रूप में सुना. उस दौर में प्रगतिशीलों में अपने शत्रुओं की किताबें ज़रूरी तौर से पढ़ी जाती थी. सो मैं भी अज्ञेय साहित्य का विद्यार्थी बन गया. उसके अभिजात, उसकी अंग्रेजियत, उसकी आधुनिकता तीनों से बहुत प्रभावित हुआ, लेकिन उसकी रूमानियत से नहीं. मैं तब खुद ‘अंत और आदि’ नाम से एक उपन्यास लिखने बैठ गया, जो एक तरह से ‘मनहर एक जीवनी’ ही था. वह अब भी मेरे पास सुरक्षित है. प्रसंगवश, इस उपन्यास के कुछ अंश मैंने करोलबाग वालों की साहित्यिक संस्था ‘कल्चरल फोरम’ में पढकर सुनाये थे. वहाँ पहली बार भीष्म साहनी, कृष्ण बलदेव वैद, और निर्मल वर्मा से मुलाकात हुई थी. निर्मल तब लिखते नहीं थे. उनके भाई रामकुमार को चित्रकार के साथ-साथ अलबत्ता लेखक भी माना जाता था. निर्मल से उन दिनों मेरी बहुत दोस्ती हुई और मैंने एक लंबी कविता ‘निर्मल के नाम’ लिखी.
प्रश्न- आपने अपनी कविता की बात की, इससे याद आया कि आपने लंबे दौर तक कविताएँ लिखीं. फिर एकदम छोड़ दिया. कभी कविताओं का कोई संकलन नहीं छपवाया…?
जोशीजी- अज्ञेय को गुरु बना लिया था लो कविता लिखना लाजिमी था. वैसे भी आज की तरह तब भी यही स्थिति थी कि आंदोलन-वान्दोलन, चर्चा-वर्चा कविता के ही संबंध में होती थी. मैं तीन तरह की कविताएँ लिखने लगा. पहली वे जो लोकगीतों से प्रभावित थी और उनके छंद में ही लिखी गई थी. दूसरी चार-चार, छः-छः लाइनों की कविताएँ जैसी आज भी‘पेड़’, ‘चिड़िया’ जैसे शीर्षकों से लिखी जा रही हैं. तीसरी वे जो टीएस एलिअट, हार्टक्रेन और ऑडेन जैसे अंग्रेजी कवियों के प्रभाव में लिखी गई थीं तथा जिनका आकार आमतौर पर बहुत बड़ा होता था. इन कविताओं में से एक ‘निवृत्ति’नाम से ‘कल्पना’ में कई अंकों में धारावाहिक रूप से छपी थी. अज्ञेय जी को मेरी पहली दो तरह कविताएँ बहुत पसंद थी लेकिन तीसरी तरह की नहीं. वह मुझे अपने तीसरा सप्तक में रखना चाहते थे लेकिन मैंने उन्हें वे छोटी कविताएँ छापने को नहीं दी.
प्रश्न- लेकिन संग्रह क्यों नहीं छपवाया.- पहली और दूसरी तरह की कविताओं का भी नहीं?
जोशीजी- मुझे अपना लिखा अक्सर पसंद नहीं आता है. कविताएँ तो बिलकुल ही पसंद नहीं आती थी. इसीलिए मैं उनको कूर्मान्चली के उपनाम से छपवाया करता था. कुछ ही वषों बाद मझे लगा कि मैं मूलतः क्या भूलतः भी कवि नहीं हूँ. इसलिए संग्रह नहीं छपवाया. कुछ मित्रों ने पेशकश ज़रूर की थी. लेकिन बाद में वे भी पीछे हट गए.
प्रश्न- आपने कहा कि अमृतलाल नागर कि शिष्यता में आपने हिंदी भाषा को विधिवत ग्रहण किया, अज्ञेय की शिष्यता में आपने क्या सीखा?
जोशीजी- आधुनिक साहित्य की सारी समझ उनसे ही मिली मुझे. भाषा का आरंभिक ज्ञान नागर जी ने कराया तो उसका उच्चतर ज्ञान कह सकते हो कि उन्होंने दिया. मैं उनके आगे लाख विद्रोही बना रहा लेकिन वे मेरे लिए पिता प्रतीक भी थे. उनका भी मेरे लिए वैसा ही आतंक था जैसा कि अपने पिता के बारे में सुनी हुई बातों का. शायद मेरा यह कहना बहुत न हो उनके आसपास के लोगों में मेरी ही पारिवारिक पृष्ठभूमि ऐसी थी जो उनके जैसी थी. भले ही मैं कभी उनके बहुत निकट नहीं आया लेकिन उनसे एक तरह की आतंरिक निकटता हमेशा रही.
प्रश्न- आपको उपन्यासकार-धारावाहिक लेखक के रूप में सफलता मिली. उत्तर-आधुनिक ढंग के लेखक के तौर पर आपको जाना गया. लेकिन आपने सबसे अंत में उपन्यास को लेखक के तौर पर अपनाया?
जोशीजी- एक लंबे अरसे तक मैं सोचता रहा कि शायद जोशीजी एक ठो वार एंड पीस और एक ठो वेस्टलैंड हिन्दी साहित्य को दे सकेंगे आगे चलकर कभी। जब ऐसा लगा कि आगे तो जिन्दगी ही बहुत नहीं रह गई है तो लेखनी फिर उठा ली। पहले बहुत दिनों तक मैं सोचता रहा कि रचनाकार अपनी पैतृक विरासत, अपने संस्कार, अपने आरंभिक परिवेश को दरकिनार करते हुए कुछ रच सकता है। बहुत बाद में यह समझ आया यह लगभग असंभव है। मैं चाहे कुछ भी कर लूं अपने लेखन में बुनियादी तौर से एक खास कुमाउंनी ब्राह्मण के घर में, एक खास परिस्थिति में पैदा हुआ और पला-बढ़ा व्यक्ति ही रहूंगा। इस समझ के बाद लेखन शुरु किया।
वैसे मुझे अपने लेखन से बिलकुल संतोष नहीं है, न व्यावसायिक लेखन से न रचनात्मक लेखन से. मेरे रचनात्मक लेखन से तो औरों को भी कुल मिलाकर कोई संतोष नहीं है. मेरे लिखे धारावाहिकों की तारीफ़ ज़रूर हुई है लेकिन वे भी मुझे कोई खास धांसू नहीं लगते. अपना सोचा हुआ लिख डालने पर बुरा ही लगा है मुझे हमेशा. इसलिए न जाने कितनी रचनाएं ऐसी हैं जो मैंने सिर्फ दिमाग में लिखी और कागज़ पर उतारी नहीं. दिमाग ससुरा ऐसा कम्पूटर भी नहीं होता कि अब उससे पूछूं तो तब का दर्ज किया हुआ ज्यों का त्यों सारा उगल दे. लिखे हुए को काटते जाना और बार-बार लिखते जाना मेरी पुरानी आदत है. उसको ध्यान में रखते हुए प्रेस वाले मेरे हाथ से कॉपी छीनकर ले जाते थे और प्रूफ मुझे पढ़ने के लिए नहीं देते थे. मुझे अपने लेखन से असंतोष होता रहा है और अपने साथी लेखकों की रचनाओं से भी. मुझे अपने ही मानकों से अव्वल दर्जे का लेखक सिद्ध न होने का बहुत ज्यादा अफ़सोस और बहुत गहरा अवसाद है