रम्माण उत्सव उत्तराखण्ड के गढ़वाल क्षेत्र के चमोली ज़िले के गाँवों में मनाया जाने वाला उत्सव है। रम्माण नाम रामायण का स्थानीय नाम है, जो विशुद्ध रूप से रामायण न होकर उसका लोकनाट्य रूपान्तरण है, जिसमें स्थानीय कथाओं व प्रसंगो का नाट्यरूप भी साथ साथ प्रस्तुत किया जाता है। यह आयोजन प्रतिवर्ष बैशाख माह में बैशाखी के दिन प्रारम्भ होता है व 11 या 13 दिन तक इस लोकनाट्य का मंचन किया जाता है। गढ़वाल के प्रसिद्ध पांडव नृत्य की तरह ही इसमें भी लोक कलाकार गांव के सामान्य लोग होते हैं। इसमें लोक प्रस्तुति, लोकनाट्य, स्वांग, देवजात्रा ,भूमियाल देवता की वार्षिक पूजा व ग्रामीणों की वार्षिक देव भेंट शामिल है। इस उत्सव पर विस्तार से लिखा है मोहित नेगी ने। मोहित पेशे से इंजीनियर हैं और इन दिनों कुमाऊँ विश्वविद्यालय से शोध कर रहे हैं। पढ़िए रम्माण की कथा विस्तार से- मॉडरेटर
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उत्तराखंड के देवभूमि नाम से ही ज्ञात हो जाता है कि यह अपने में सनातन धर्म के विविध सम्प्रदायों की पौराणिक धरोहर को संजोए हुए है। जहाँ वैष्णव मतावलम्बियों के लिये यह भगवान बद्री विशाल की भूमि और ज्योतिर्मठ जैसे पवित्र स्थानों को धारण करने वाली भूमि है, वहीं शैव अनुयायियों के लिये यह बाबा केदार का विचरण स्थल व मां नन्दा (पार्वती) का प्राकट्य स्थल है। प्रस्तुत लेख में हम उत्तराखंड के जिस अद्वितीय उत्सव(कौथिग) पर चर्चा करने वाले हैं वह है रम्माण महोत्सव या रम्माण कौथिग।
यह उत्सव UNESCO की अमूर्त विश्व धरोहर के रूप में सूचीबद्ध है, जिस कारण यह केवल उत्तराखंड की ही नहीं अपितु सारे विश्व की साझी सांस्कृतिक विरासत है। इसका आयोजन चमोली जिले के जोशीमठ तहसील के अंतर्गत पेनखण्डा पट्टी के सलुड डूंगरी गांव में होता है। वैसे तो यह उत्सव सलुड, डूंगरी, बरोशी ,सेलँग आदि गांवों में भी आयोजित किया जाता है, परंतु उक्त दोनों गांवों में आयोजित होने वाला रम्माण अत्यंत लोकप्रिय है, जिसके कारण इसकी पहचान सलुड़ डूंगरी से जुड़ी है।
रम्माण नाम रामायण का स्थानीय नाम है, जो विशुद्ध रूप से रामायण न होकर उसका लोकनाट्य रूपान्तरण है, जिसमें स्थानीय कथाओं व प्रसंगो का नाटकीकरण भी साथ साथ प्रस्तुत किया जाता है। यह आयोजन प्रतिवर्ष बैशाख माह में बैशाखी के दिन प्रारम्भ होता है व 11 या 13 दिन तक इस लोकनाट्य का मंचन किया जाता है। गढ़वाल के प्रसिद्ध पांडव नृत्य की तरह ही इसमें भी लोक कलाकार गांव के सामान्य लोग होते हैं। इसमें लोक प्रस्तुति, लोकनाट्य, स्वांग, देवजात्रा ,भूमियाल देवता की वार्षिक पूजा व ग्रामीणों की वार्षिक देव भेंट शामिल है।
इस लोक उत्सव की अनूठी विशेषता यह है कि इसमें पात्रों द्वारा मुखौटा पहन कर नृत्य किया जाता है, जिन मुखौटों को पत्तर कहते हैं।इस लोक नाट्य में सम्वादों का प्रयोग नहीं किया जाता है। पत्तर (मुखोटे) शहतूत की लकड़ी से निर्मित किये जाते हैं। पत्तर दो प्रकार के होते हैं -दयो पत्तर और ख्यलयरी पत्तर । दयो पत्तर उन कलाकारों द्वारा धारण किये जाते हैं, जो देवताओं की भूमिका में होते हैं जबकि ख्यलयरी पत्तर मनोरंजक /हास्य / जोकर की भूमिका निभाने वाले पात्रों द्वारा धारण किये जाते हैं।
नृत्य में 18 पत्तरों का प्रयोग किया जाता है, जिसमे मुख्य पत्तर राम , लक्ष्मण , सीता व हनुमान ,सूर्य , मां काली , नरसिंह के हैं। साथ ही एक दर्जन ढोल दमाऊं , 18 ताल व 8 भँकोरे ( तांबे का वाद्य जो मूहँ से फूंका जाता है ) प्रयुक्त होता है।
इस लोक नृत्य में रामायण के पात्रों के अलावा स्थानीय देवताओं में भूमियाल देवता प्रमुख हैं, जो इस उत्सव से पूर्व एक वर्ष तक अपने थान ( मूल स्थान ) पर विराजमान रहते हैं व उत्सव के दौरान ही अपने स्थान से बाहर आते हैं।
रम्माण में मंचित किये जाने वाले प्रमुख दृश्य
1 बण्या -बण्याण नृत्य
बण्या (बनिया) व बण्याण (बनिया की पत्नी) का नृत्य है। यह मुलतः तिब्बत के समय के व्यापारियों , उनकी जीवन शैली , उनके साथ तिब्बत से भारत व्यापारिक यात्रा के दौरान होने वाली लूट खसोट व चोरी की घटनाओं पर आधारित है। यह नृत्य प्रमाणित करता है कि कभी भारत व तिब्बत के बीच समृद्ध व्यापार हुआ करता था परंतु कालांतर में कई महत्वपूर्ण राष्ट्रीय विषयों के कारण व्यापार बन्द हो गया ,स्थानीय जनमानस भी इससे भली भांति परिचित थे। इनके मुखोटों में एक विशेषता यह है कि गले मे घेंघा रोग को भी दिखाया जाता है। शायद इसका उद्देश्य लोगों को यह समझाना रहा हो कि यह एक सामान्य बीमारी है इससे लज्जित होने की कोई आवश्यकता नहीं है । तो यह भी प्रतीत होता है कि उस समय काफी लोग घेंघा रोग से ग्रसित रहे होंगे।
2 म्योर -मुरैण
यह नृत्य पहाड़ की स्थानीय समस्याओं पर आधारित होता है, जिसमे स्थानीय जीवन को दर्शातें हुए पहाड़ के लोगों की परेशानियों पर आधारित प्रसंग होते हैं, जैसे घास काटती हुई महिला पर बाघ द्वारा हमला करके मार डालना आदि ।
3 माल -मल्ल
माल शब्द का प्रयोग गढ़वाली भाषा मे वीर योद्धाओं के लिये किया जाता है। मल्ल शब्द यहां सम्भवतः नेपाल के नरेशों के लिये प्रयुक्त हो क्योंकि यह मंचन नेपाली सैनिकों से लड़ाई को दर्शाता है व साथ ही नेपाल में 1200 ई० के आसपास मल्ल राजवंश के शासन था जो अगले 550 वर्षों तक चला । अतः माल मल्ल प्रसंग स्थानीय सिपाहियों व नेपाली राज्य के सैनिकों के युद्ध का नृत्यनाटिका रूपांतरण है। जो रम्माण नृत्य के अंतर्गत अत्यंत रोचक भाग है।
इसमें दो सफ़ेद मल्ल व दो लाल मल्ल कुल चार मल्ल होते हैं। सफ़ेद मल्ल गढ़वाली सैनिकों का प्रतिनिधित्व करते हैं जबकि लाल मल्ल गोरखा सैनिकों का । मल्ल युद्ध एक प्रकार से प्रतिष्ठा से भी जुड़ा हुआ है इसमे मल्ल का अभिनय करने वाले अलग अलग जातियों के होते हैं उदाहरणतः एक मल्ल भण्डारी जाति का एक नेगी जाति का एक कुंवर जाति का होगा इस तरह हर बार इनके अभिनय के लिये वहां की राजपूत जातियों हेतु मल्ल का अभिनय निर्धारित किया जाता है। एक लाल मल्ल हमेशा “रॉट” तोक (हेमलेट)से होता है क्योंकि किवदन्तियों में यह कहा जाता है कि “रॉट ” तोक के लोगों ने गोरखा सैनिकों को संरक्षण दिया था।
माल मल्ल युद्ध को अगर दूसरी दृष्टि से देखें तो ये अलग अलग राजपूत जातियों के बीच कम्युनिटी कॉन्फ्लिक्ट को भी दर्शाता है क्योंकि इन जातियों में हमेशा से अपने को एक दूसरे से ऊंचा मानने की प्रवृति रही है, उत्तराखंड में दूसरा बड़ा कारण कम्यूनिटी कॉन्फ्लिक्ट का यह भी रहा कि यहाँ राजपूत भी दो प्रकार के है एक वे जो राजपूत बाहरी प्रांतों से आकर बसे और दूसरे वे जो खस थे और धीरे धीरे उनका राजपूतीकरण हुआ और वे भी स्वयं को राजपूत कहने लगे जबकि उन्हें बाकी समाज खस या खसिया ही कहता था। राजपूत जातियों के भीतर जाति भेद का प्रमाण यह भी है कि उत्तराखंड के लगभग सभी गांवों में राजपूत जातियाँ विवाह समारोह या किसी भी अन्य सामुहिक भोज के अवसर पर एक दूसरे के हाथ का बना हुआ भात(चावल ) नहीं खाते हैं ,चावल बनाने के लिये अलग से पण्डित होते हैं जिनको सारोला ब्राह्मण कहते हैं । इस प्रकार तो यह युद्ध नाट्य सामुदायिक संघर्ष को मंचित कर लोगों के आपसी द्वेष को बाहर निकलने का काम भी करता है। गोरख्यानी काल में गोरखा सैनिकों को हराकर उनसे तलवार व ढाल आदि ज़ब्त कर लिये गए जो आज भी मन्दिर में रखी हैं व माल मल्ल युद्व में इन्हीं हथियारों का प्रयोग किया जाता है। इस युद्ध की घटना को याद रखने के लिये रम्माण में यह प्रसंग भी जोड़ा गया।
4 कुरु नृत्य
कुरु हिमालयी क्षेत्रों में पाई जाने वाली स्थानीय घास है , जिसका फूल कपड़ों पर चिपक जाता है, क्योंकि यह काँटेनुमा होता है । इसमें पात्र अपने पूरे शरीर पर कुरु घास चिपका देता है व लोंगो की और जाने की कोशिश करता है ताकि कुरु लोगों के कपड़ों पर चिपक जाए ,यह एक मनोरंजक नृत्य है । इसके पात्र की तुलना हम जोकर से कर सकते हैं।
रम्माण का इतिहास:किवदन्तियों के हवाले से
कहा जाता है कि 8वीं सदी में आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा जब हिन्दू धर्म को एकजुट करने के लिये भारतवर्ष में चार वैष्णव मठों ज्योतिर्मठ, द्वारकामठ , पूरी श्रृंगेरी की स्थापना की गई तो जिन दिनों वे ज्योतिर्मठ की स्थापना हेतु उत्तराखंड के इन स्थानों में आये तो तत्समय हिन्दू धर्म अपनी दयनीय स्थिति में था व हिमालय क्षेत्र में बौद्ध धर्म का प्रभाव काफ़ी अधिक हो गया था । इस समय आदिगुरू शंकराचार्य व उनके शिष्यों द्वारा सनातन धर्म की पताका लिये हुए सम्पूर्ण भारत वर्ष का भ्रमण किया जा रहा था ।उनके शिष्यों द्वारा ज्योतिर्मठ (वर्तमान जोशीमठ) के निकटवर्ती गांवों में इसी प्रकार के मुखोटे लगाकर धार्मिक नृत्यनाटिकाओं का मंचन किया जा रहा था ताकि सुप्त हिन्दू धर्मावलंबियों को जगाकर उन्हें उनके धर्म के प्रति सचेत किया जा सके । यही नृत्य कालांतर में कुछ परिवर्तित होकर व लोक के तत्व ग्रहण कर “रम्माण” नामक लोकनाट्य में परिवर्तित हो गया।
8वी सदी में उत्तराखंड के इस क्षेत्र में वैष्णव धर्म का प्रचार हुआ ,इस दौरान कई रामभक्त सन्त यहाँ आये क्योंकि सन्त सावन भादो अर्थात चातुर्मास में एक ही जगह टिककर रहते हैं तो इस दौरान भी यहाँ रामकथा व उस पर आधारित नाट्य मंचित किये गए ।क्योंकि गढ़वाल क्षेत्र यक्षों की भूमि रही है और हनुमान को यक्ष से जोड़ा जाता है। अतः इसमे हनुमान भी मुख्य देवता केरूप में हैं ,अतः इसमे अंत सदैव लंका दहन से ही होता था ।
नरसिंह देवता व भूमियाल देवता – रम्माण में सबसे भारी मुखोटा 25 किलो का भगवान नरसिंग देवता का है वे भी रम्माण के मुख्य व बड़े देवताओं में से हैं । उनके मुखोटे को बड़ी जतन से रखा व नृत्य कराया जाता है । किसी भी प्रकार की त्रुटि से अनिष्ट की आशंका रहती है। अगर गढ़वाल की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि देखें तो ज्योतिषपुर (जोशीमठ) में कत्यूरी राजवंश का शासन था व उनके आराध्य देवता नरसिंह थे , इसी कारण शासक का कुलदेवता होने के कारण व जोशीमठ से सलुड़ डूंगरी के नज़दीक होने के कारण नरसिंह देवता का यहाँ के लोक पर गहरा प्रभाव है। रम्माण में नरसिंह देवता के अवतरण से पहले विष्णु सहस्रं पाठ किया जाता है ततपश्चात वे अवतरित होते हैं व उनको नारियल की बलि चढ़ाई जाती है ।वे 18 बार प्रह्लाद को बचाने का प्रयास करते हैं व अंततः 18वी बार बचाने में सफल होते हैं
एक अन्य मुख्य देवता भूमियाल देवता हैं जो भूमि के रक्षक या मालिक हैं वे सम्पूर्ण क्षेत्र के आराध्य देवता हैं। वे पौराणिक देवता न होकर लोक के देवता हैं। नरसिंह देवता व भूमियाल देवता से जुड़ा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जब नरसिंह देवता अवतरित होते हैं तो भूमियाल देवता अपने गर्भगृह में चले जाते हैं। उनकी कभी भेंट नहीं होती है व वे कभी भी साथ साथ नृत्य नहीं करते हैं। क्योंकि वे दोनों बड़े देवता माने जाते हैं अतः एक की अर्चना के दौरान दूसरे वहाँ उपस्थित नही रहते हैं। गौरतलब है कि उत्तराखंड के लोक में पूजे जाने वाले देवता नर्सिंग , पौराणिक देवता नरसिंह न होकर नाथ सम्प्रदाय के सिद्धपुरुष थे, उनसे सम्पूर्ण जनमानस इतना प्रभावित था कि वे यहाँ के लोक देवता हो गये। जब नर्सिंग देवता को पूजा जाता है तो उनके जागरों में सुनाया जाने वाला सम्पूर्ण वृत्तांत उदाहरण के लिये -तेरु गुरु गोरखनाथ को आदेश, तेरु माँ काली को आदेश, तेरी जोशीमठ की नगरी को आदेश, तेरु नेपाली चिमटा, ठेमरु को सौंठा को आदेश, जलती जलंधरी तेरी धूनी को आदेश।
उन्हें नाथ साधु सिद्ध करने को पर्याप्त है । साथ ही उनका नेपाली चिमटा , खरूवा की झोली , बभूत लगाना , आदेश बोलना, उनके गुरु गोरखनाथ आदि आदि वे साक्ष्य हैं जो उन्हें नाथ सिद्ध करता है। धीरे धीरे समय बीतने के साथ लोक के नर्सिंग देवता का विष्णु के अवतार नरसिंह भगवान से भेद ख़त्म होता चला गया और वर्तमान में तो लोकजागरों में भी उनकी नाथ सम्प्रदाय की कहानियों के साथ साथ नरसिंह भगवान व प्रह्लाद की भी कहानियाँ गाई जाती हैं। साथ ही यहाँ पूजे जाने वाले नरसिंह “दूधिया नरसिंह” हैं ( गढ़वाल क्षेत्र में पूजे जाने वाले नौ नृसिंगों में से एक) अतः वे सात्विक हैं जबकि भूमियाल देवता को पशुबलि चढ़ती है । इसलिये जब नरसिंह देवता नृत्य कर अपने गर्भगृह में चले जाते हैं तब भूमियाल देवता बाहर आकर नृत्य करते हैं व भक्तो से भेंट स्वीकार करते हैं और आशीर्वाद देते हैं।
रम्माण को विश्व धरोहर बनाने का श्रेय चमोली के ही एक स्थानीय शिक्षक डॉ कुशल सिंह भण्डारी को जाता है, जिन्होंने रम्माण को लिपिबद्ध किया व उसका अंग्रेजी अनुवाद भी किया । सन 2008 में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के कला निष्पादन केंद्र द्वारा इस को इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र दिल्ली भेजा गया व बाद में भारत सरकार द्वारा इसको UNESCO भेजा गया ।फलतः सन 2009 में UNESCO द्वारा इसको विश्व धरोहर घोषित किया गया ।
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मोहित नेगी ‘मुंतज़िर’
पीएचडी शोधार्थी ( कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल)
पता – सौंराखाल , रुद्रप्रयाग
उत्तराखंड 246475
दूरभाष 9568525433
7452836222