हाल में ही युवा शायर और दिल्ली विश्वविद्यालय के शोध छात्र अभिषेक कुमार अम्बर प्रसिद्ध आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी से मिलने गये। उस मुलाक़ात का बड़ा जीवंत वर्णन किया है अभिषेक ने। आप भी पढ़ सकते हैं- मॉडरेटर
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ये मेरी उनसे पहली मुलाक़ात थी, जो तक़रीबन 7-8 साल से संभव नहीं हो पाई थी। मुझे याद आता है उस समय मैं कक्षा बारहवीं का छात्र था और हमारे हिन्दी के पाठ्यक्रम में विश्वनाथ त्रिपाठी की आत्मकथा ‘बिस्कोहर की माटी’ का अंश लगा था। हमारे हिन्दी के अध्यापक ने जब यह पाठ पढ़ाया तो उसमें दिलशाद गार्डन के डियर पार्क का ज़िक्र आया, हम सभी छात्र चकित हो गए कि जिस रचना का पाठ कक्षा में हो रहा है उसके लेखक हमारे स्कूल के पास में ही रहते हैं और डियर पार्क में सैर के लिए आते हैं। मैं विद्यालय के समय से ही थोड़ा-बहुत लिखने लगा था तो यह मेरे लिए और भी सुखद था। मुझे ‘बिस्कोहर की माटी’ का अंश बहुत पसंद आया था, मैंने मन ही मन विश्वनाथ जी से मिलने का सोच लिया था।
एक दिन मैंने हिन्दी की एक पत्रिका से विश्वनाथ जी का पता और नम्बर निकाला और उनको फोन लगा दिया। विश्वनाथ जी ने फोन उठाया, मैंने उनको परिचय दिया कि “मैं कक्षा बारहवीं का विद्यार्थी हूँ एवं आपका प्रशंसक। आपके घर के पास रहता एवं आपसे मिलने का इच्छुक हूँ।”
विश्वनाथ जी ख़ुश हुए और उन्होंने मुझसे पूछा कि ‘आपने मेरी कौनसी रचनाएँ पढ़ी है?’ मैंने कहा -‘बिस्कोहर की माटी’ उन्होंने कहा ठीक है आप जिस दिन आएँ उससे एक-दो दिन पहले सूचित कर दीजिएगा।
फोन काटने के बाद मैं काफ़ी ख़ुश हुआ, लेकिन उनसे मिलने नहीं गया। मुझे यह डर लगने लगा कि अगर मैं विश्वनाथ जी के पास गया और उन्होंने मुझसे अपनी अन्य रचनाओं के बारे में पूछ लिया तो मैं क्या कहूँगा। आप जानते ही हैं कि स्कूल में पढ़ने वाले विद्यार्थी अपने शिक्षकों से ही डरते हैं, विश्वनाथ जी तो हमारे पाठ्यक्रम में शामिल लेखक थे, और हिन्दी साहित्य के जाने-माने साहित्यकार और आलोचक, जो हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के शिष्य रहे हैं।
मेरे मन में विश्वनाथ जी के प्रति एक डर सा बैठ गया, और मैं उनसे मिलने जाने में कतराता रहा। लेकिन मन नहीं मानता था इसलिए पिछले 7-8 सालों में उनसे 3-4 बार फोन करके बात की, मिलने को कहा। लेकिन हमेशा जाने के समय मेरे मन का डर मुझे रोक लेता, हालाँकि अब मैं विश्वनाथ जी की कई कृतियाँ पढ़ चुका था। फिर भी यही मन में आता था कि पहले और पढ़ लूँ, तब ही उनसे मिलने जाऊँ तो बेहतर है।
पिछले दिनों मैं हिन्दी के एक प्रसिद्ध लेखक से मिलने उनके घर गया, जो विश्वनाथ जी के शिष्य थे। बातों-बातों में ही विश्वनाथ जी का ज़िक्र छिड़ा और मैं ने अपने मन की बात उनसे कही। उन्होंने मेरे हौसला बढ़ाया तथा कहा कि ऐसी कोई बात नहीं है। विश्वनाथ जी बहुत अच्छे इंसान हैं, बहुत अच्छी बातें करते हैं आप उनसे मिलने ज़रूर जाइए। उनकी बातों से मुझे थोड़ा संबल मिला और मैं ने विश्वनाथ जी से मिलने की ठान ली।
अगले दिन मैंने सवेरे ही उनको फोन किया हमेशा की तरह उन्होंने मुझे आने के लिए कहा, आज मैंने उनसे कह दिया कि क्या आपसे आज ही मुलाक़ात हो सकती है। उन्होंने कहा- हाँ! आप ऐसा कीजिए दोपहर बारह बजे या फिर शाम साढ़े पाँच बजे आ जाइए। मैंने कहा- ‘मैं बारह बजे ही आ जाता हूँ’। विश्वनाथ जी मेरे उतावलेपन पर हँस पड़े और कहा ‘ठीक है आ जाइए’।
दोपहर बारह बजे मैं उनके घर पहुँच गया और मुझे यह जानकर हैरानी और पछतावा दोनों हुए कि विश्वनाथ जी मेरे स्कूल के पीछे की ही एक गली में रहते थे। और मैंने उनसे मिलने में 7-8 साल लगा दिए। ख़ैर! मैंने उन के घर की बेल बजाई, दरवाज़ा एक लड़की ने खोला, और उन्होंने बताया कि सर अंदर कमरे में बैठे हैं। मैं उनके बताए कमरे में दाखिल हुआ, सोफ़े पर सामने ही विश्वनाथ जी बैठे थे। औसत कद, रेशमी दूधिया बाल, तन पर सफ़ेद कुर्ता, आस-पास किताबें रखी थीं और वह एक शख़्स से बतिया रहे थे।
कमरे में दाख़िल होने पर वो मुझसे मुख़ातिब हुए तथा मुझे सामने सोफ़े पर बैठने के लिए कहा। मैं डर और ख़ुशी के मिश्रित भाव के साथ उनके सामने बैठ गया। सर ने मेरा कुशल-क्षेम पूछा और मैंने भी सेहत में बारे में पूछा। फिर हमारे बीच बातें शुरू हो गईं।
विश्वनाथ त्रिपाठी- तो अभिषेक जी, आप कहाँ से है?
मैं – सर! मैं मूलतः मेरठ का हूँ, लेकिन दिल्ली में ही रहता हूँ
विश्वनाथ त्रिपाठी – मेन मेरठ से?
मैं – नहीं सर, मेरठ के पास मवाना पढ़ता है मैं वहाँ से हूँ।
विश्वनाथ त्रिपाठी – अच्छा मवाना तो काफ़ी प्रसिद्ध है!
मैं – जी सर!
तब विश्वनाथ जी चाय के लिए कहने लगे, मेरे मना करने पर कहने लगे कि संकोच मत करो! मैंने एक ग्लास पानी के लिए कहा। तब विश्वनाथ जी साथ में ही बैठे तीसरे व्यक्ति से मुख़ातिब हुए और उनसे हंस के संबंध में चर्चा करने लगे। ‘हंस कथा मासिक’ के इस माह के अंक में विश्वनाथ त्रिपाठी जी का एक लेख प्रकाशित हुआ है, जो चंद्रकिशोर जायसवाल की कहानी पर है। मैंने वो लेख एक दिन पहले ही पढ़ा था। लेख काफ़ी अच्छा था। विश्वनाथ जी लेख दिखाने के लिए ‘हंस कथा मासिक’ का अंक ढूँढने लगे, मेरे बैग में वह अंक था तो मैंने वह अंक उनको निकाल कर दे दिया।
विश्वनाथ त्रिपाठी – अरे वाह! आप हंस पढ़ते हैं?
मैं – जी सर, हंस में पिछले ही माह मेरी एक ग़ज़ल भी प्रकाशित हुई है।
विश्वनाथ त्रिपाठी – वाह, बहुत बढ़िया। आप ग़ज़लें लिखते हैं?
मैं – जी सर! कभी कभी ग़ज़लें कह लेता हूँ।
विश्वनाथ त्रिपाठी – फिर तो हम पहले आपकी हंस में प्रकाशित ग़ज़ल सुनेंगे उसके बाद लेख पढ़ेंगे।
मैं अपने फोन से उस ग़ज़ल को निकालने लगा और उनको ग़ज़ल का मतला सुनाने लगा!
चुपके से बदल डाली है क़ुदरत ने फ़ज़ा फिर
आने लगी है खिड़कियों से सर्द हवा फिर!
विश्वनाथ जी ने ‘वाह वाह’ कह कर मेरी हौसला अफ़ज़ाई की, मैंने आगे के शेर पढ़े!
हम जानते हैं लफ़्ज़ की क़ीमत को तभी तो
इक बार अगर बात कटी कुछ न कहा फिर
कहना तो बहुत कुछ है मगर इसलिए चुप हूँ
इस शह्र में हो जाएंगे कुछ लोग ख़फ़ा फिर
मैंने पूरी ग़ज़ल विश्वनाथ जी को सुनाई। उनको ग़ज़ल पसन्द आई। मैंने सुना था विश्वनाथ जी शाइरी के बड़े क़द्रदान हैं लेकिन आज सामने देख रहा था, वह एक एक मिसरे को पूरा ध्यान से सुन कर दोहरा रहे थे और दाद दे रहे थे। ग़ज़ल सुनाने के बाद विश्वनाथ जी मुझसे पूछने लगे कि ‘आप ग़ज़लों में किसी से मशवरा भी लेते हैं?’
मैंने उन्हें बताया कि ‘उर्दू के मशहूर शाइर राजेन्द्र नाथ ‘रहबर’ मेरे उस्ताद थे, जब तक वह जहान-ए-फ़ानी में थे उनसे मशवरा करता था,उन्होंने मुझे फ़ारिग़-ए-इस्लाह कर दिया था। उनका इंतक़ाल हुए ढाई बरस हो गए तब से किसी से इस्लाह नहीं लेता।
मेरी ग़ज़ल के बाद उनके लेख को पढ़ने की बारी आई, हम दोनों के साथ बैठे तीसरे व्यक्ति (मैं उनका नाम नहीं जानता) ने विश्वनाथ जी का लेख पढ़ना शुरू किया। पूरा लेख तो यहाँ नहीं दे सकता लेकिन इतना बताता चलूँ कि त्रिपाठी जी का वह लेख चंद्रकिशोर जायसवाल की कहानी ‘दुखिया दास कबीर’ पर था। इस लेख में त्रिपाठी जी ने इस कहानी की सारगर्भित व्याख्या एवं विवेचना की थी।
विश्वनाथ जी पूछने लगे आप यहाँ किधर रहते हैं? मैंने उन्हें बताया कि मैं बैंक कॉलोनी रहता हूँ, जो मंडोली जेल के पास है। जेल का ज़िक्र छिड़ने पर उन्होंने कहा कि मैं भी तीन महीने जेल में रहा हूँ। जब मैं आरएसएस में था तो तीन महीने के लिए मुझे जेल की सज़ा हुई थी और मैं बलरामपुर जेल में था। उस समय मैं स्कूल में पढ़ता था, जेल में बड़े अपराधियों को सॉलिटरी सेल में रखा जाता था और उनके हाथों और पाँवों में बेड़ियाँ पहनाई होती थीं। एक बार कपड़े न बदलने की ज़िद में मुझे भी कुछ दिन के लिए सॉलिटरी सेल में रखा गया था।
हम उनकी बातों को बड़े ध्यान से सुन रहे थे, और वह लगातार बोले जा रहे थे, ‘….सॉलिटरी सेल के बड़े क़ैदी, गिरह मार क़ैदियों को अपने साथ बैठाना भी पसन्द नहीं करते थे। अगर कोई गिरह-मार उनके पास बैठ जाए तो वह उसको थप्पड़ जड़ देते थे, उनके साथ बैठने के लिए कम से कम आपको पाँच साल की सज़ा होनी चाहिए!….हम तीनों इस बात पर खिलखिला कर हँस पड़े।
विश्वनाथ जी आगे बोलने लगे- ‘वह 25 दिसम्बर 1947 का दिन था जब हमको जेल में बंद किया गया था उसके एक महीने बाद ही गाँधी जी की हत्या कर दी गई और आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। लेकिन उस समय कांग्रेस के नेता इतने अच्छे थे कि उन्होंने हम छात्रों को एक माह पश्चात यानी फरवरी 1948 में, यह कहते हुए रिहा कर दिया कि यह नादान बच्चे हैं जिनसे कुछ नहीं पता और मार्च में इनके इम्तिहान होंगे अगर जेल में रहे तो फेल हो जाएँगे और इनका भविष्य अंधकारमय हो जाएगा।
विश्वनाथ जी के क़िस्से सुनते सुनते कब समय बीत गया कुछ पता ही नहीं चला, मैंने वापस आते समय उनका ऑटोग्राफ़ लिया और उनके साथ तस्वीरें खिंचाई। विश्वनाथ जी ने मुझे आते रहने के लिए कहा। इस मुलाक़ात में भले ही मुझे सात-आठ साल लगे किन्तु यह एक यादगार मुलाक़ात रही, जो मुझे ता-ज़िन्दगी याद रहेगी।