आज पढ़िए समकालीन कथाकारों में जाने-पहचाने नाम मिथिलेश कुमार प्रियदर्शी की कहानी ‘सहिया’। उनका कहानी संग्रह ‘लोहे का बक्सा और बंदूक़’ जानकी पुल शशिभूषण द्विवेदी स्मृति सम्मान की लांग लिस्ट में शामिल है। आइये उनकी कहानी-कला की बानगी देखते हैं- मॉडरेटर

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जोवाकिम लिंडा की शादी थी।

कोरई पहाड़ के इस तरफ वाला जोवाकिम लिंडा।

                                                       1.

कोरई पहाड़ के उस तरफ वाले जोवाकिम लिंडा को तो पुलिस वालों ने पहले ही मार दिया था। ये बताना ज़रूरी है, नहीं तो लोग उसी तरफ वाले जोवाकिम लिंडा के बारे में समझ जाते हैं।

उस तरफ वाला जोवाकिम लिंडा जब ज़िंदा था, एक बार डालटेनगंज का एक स्थानीय पत्रकार घूमता-घामता उसके बारे में पता करने कोरई पहाड़ की तरफ आया। अब तक उसकी कोई तस्वीर सार्वजनिक नहीं हुई थी। गोपूजी उर्फ़ मंगलजी उर्फ़ जोवाकिम लिंडा, पता नहीं कितने नाम थे उसके। जितने नाम उतनी कहानियाँ। आसपास के गाँवों में भी लोगों को ठीक-ठीक ख़बर नहीं थी। पत्रकार ने सोचा था, किसी से कम-बेसी दो-चार बातें भी पता चल जाये तो लिखने भर सामग्री हो जायेगी। लेकिन जब वह लौटा, उसके पास एक एक्सक्लूसिव इंटरव्यू था। जोवाकिम लिंडा का इंटरव्यू। नक्सल कमांडर जोवाकिम लिंडा का इंटरव्यू।

“आप सरकार से क्या चाहते हैं?”

जोवाकिम – “कुआँ या चापाकल जो बन जाए। गाँव में एक कुआँ था, वो धँस गया। वो मेरा दादा के समय का था। अब कुआँ नहीं है तो पूरा गाँव नाले, सोते का पानी पीता है। बरसात में सब तरफ का पानी पीला और गंदा हो जाता है तो सबको पतला झाड़ा शुरू हो जाता है।”

“हें..बस? और कोई दिक्क़त नहीं है?”

जोवाकिम- “हमलोग जब बड़ा अस्पताल जाते हैं तो डॉक्टर लोग ठीक से देखता नहीं है। दवाई भी बाहर का लिख देता है।”

“और कुछ बात जो आप हमसे बताना चाहें?”

जोवाकिम- “शहर का लोग हमलोग से अच्छे से बात नहीं करता है। सूप, टोकरी, ठईया का दाम ठीक से नहीं लगाता है। करील, खुखड़ी, लकड़ी, केंद, जामुन सब उन लोग को फिरी में चाहिए।”

“हें..आप यह सब बेचने शहर जाते हैं? और पुलिस आपको पकड़ती नहीं?”

जोवाकिम- “हमेशा शहर नहीं जाते। बेचने लायक कुछ हुआ तब जाते हैं। और जब जाते हैं, बसकरील, फुटकल, कटहल, खेखसा, केंद-पियार जो भी होता है, नाका वाला सिपाही थोड़ा रखवा लेता है। फिर कुछ नहीं कहता।”

“हें..मतलब आप केवल इन्हीं छोटी बातों के लिए लड़ रहे हैं?

जोवाकिम- “हम पहले नहीं लड़ते हैं। कोई लड़ाई करता है, तब लड़ते हैं।”

यह तेरह साल का कोरई पहाड़ के इस तरफ वाला बातूनी जोवाकिम लिंडा था जिसका जीवन इस इंटरव्यू के बाद बदल गया। बकरियों को जंगल ले जाने के लिए इकट्ठी कर रही एक लड़की से पत्रकार ने जब जोवाकिम लिंडा का घर पूछा था, उसने हाथ के इशारे से बता दिया। जंगल में घुसते ही अनजाने भय से हड़बड़ाये पत्रकार ने अतिउत्साह और जल्दीबाजी में कुछेक सवाल पूछे और लौट कर लिख दिया- ‘तेरह साल के बच्चे के हाथ में माओवादी कमांड।’

इतनी कम उम्र के माओवादी लड़ाके की कहानी छपते ही खलबली मच गयी। दूसरे दिन दो गाड़ियों में पुलिस के जवान भर कर कोरई पहाड़ की ओर चल पड़े।

कोरई पहाड़ के दूसरी तरफ के जोवाकिम लिंडा को ख़बर मिल गयी थी। बीच रास्ते परही नाले के पास पुलिस और माओवादियों में जमकर मुठभेड़ हुई। एक लकड़ी काटने गयी आदिवासी औरत, फ़ालतू का उछलता-कूदता एक छोटा पाड़ा, अपनी धुन में घास में खोयी एक नीलगाय और भटक कर चलती एक लंगड़ी बकरी के साथ कुछ इधर से हताहत हुए, कुछ उधर से। मुठभेड़ इतना ज़ोरदार था कि आसपास के पेड़ों पर रहने वाली चिड़ियाँ सदमे के मारे अगले कई हफ़्तों तक अपने घोसले में नहीं लौटीं। दोपहर से शुरू हुई गोलाबारी अँधेरा घिरने तक चली। फिर जैसे ही अँधेरा हुआ माओवादी जंगलों में खो गये।

इससे पहले कि अगले दिन पुलिस का खोजी अभियान शुरू होता, कंधे पर रायफल टाँगे अपने  तीन दर्जन साथियों के साथ लड़ाका जोवाकिम लिंडा रात दस बजे किशोर जोवाकिम लिंडा के झोपड़ीनुमा घर का दरवाज़ा खटखटा रहा था। जोवाकिम के पिता सहमे से उठे। सामने हथियारबंद एमसीसी दस्ते को देखकर जैसे उनके शरीर का सारा नमक सूख गया।

ढिबरी की पीली रोशनी में रहस्यमय लगता, रायफल गोद में लिए क़रीब सैंतीस साल का गठीले, लोहे-सा सख्त शरीर वाला कमांडर जोवाकिम लिंडा खटिया पर बैठा था। उसके ठीक सामने सिर झुकाये अँगूठे से ज़मीन खोदता तेरह साल का घुँघराले बालों वाला दूसरा जोवाकिम लिंडा खड़ा था। एक दूसरे से अनजान दोनों जोवाकिम पहली बार आमने-सामने हुए थे। कहने को दोनों कोरई पहाड़ के इस तरफ और उस तरफ रहते थे, लेकिन थी वह पहाड़ भर की दूरी, जिसे पार करने में क़रीब दो घंटे लगते थे। वह भी पैदल। बड़े जोवाकिम को इसी इंटरव्यू के बाद पता चला था, उसके नाम का कोई और भी है।

पिता सोमू लिंडा समझ गये थे, आज उनका बेटा गया। वह गिड़गिड़ाते हुए एक अनाड़ी बच्चे की ग़लती मानकर उसे बख्श देने की विनती कर रहे थे। उन्होंने खेत जोतने से इंकार करने वाले ढीठ बैलों को दी जाने वाली गालियाँ जोवाकिम को दी और पूँछ मरोड़ने की तरह उसका कान मरोड़ दिया, “बोलते हैं पादरी लेखे बेसी मत बोला करो। लेकिन इसको तो भूँकने में सियारों की बराबरी करनी है। शहर का आदमी लोग ऐसे ही मतलबी होता है। बझा दिया न..। गुलर पेड़ में तुमको उल्टा लटकायेंगे तब समझेगा।”

बड़े जोवाकिम ने सोमू लिंडा को आँखों से डांटा और किशोर जोवाकिम को अपने पास बुलाया, “बहुत अच्छा बोले तुम। तुम्हारी ग़लती नहीं है। लेकिन तुमको खोजते हुए कल पुलिस वाले आयेंगे। इसलिए तुमको भागना पड़ेगा।”

उसने अँधेरे में ग़ायब होने से पहले जोवाकिम के पिता से कहा, “तुम्हारा बेटा बहुत होशियार है। इसको यहाँ से भगा दो, नहीं तो वो लोग इसको छोड़ेंगे नहीं। जब तक तुम उन्हें पूरी बात समझाओगे, वो इसे मार देंगे या जेल में सड़ा देंगे।”

वहीं ताड़ के पत्तों की चटाई पर आधी सोयी आधी जागी जोवाकिम की माँ जेल की बात सुन कर सुबकने लगी। वह अपने पति को गालियाँ दे रही थी कि बेटे के बप्तिस्मा में उसे कोई दूसरा नाम नहीं मिला था रखने को। उसने फादर को भी गालियाँ दी, जिन्होंने यह नाम सुझाया था। और गालियाँ देती हुई वह वापस सो गयी।

दोपहर चढ़ते-चढ़ते पुलिस बाढ़ की तरह गाँव में चढ़ आयी थी। अलग-अलग पेड़ों की छाँव में कुल बारह घर थे। मिट्टी, बाँस और लकड़ियों से बने हुए। जैसे ही गाड़ियाँ रुकीं, जवान घरों के आगे-पीछे फ़ैल गये। बच्चे, बूढ़े, महिलाएँ सभी को घरों से निकाल कर कतारबद्ध किया जा रहा था। अपने मालिकों को इस तरह शांत सिर झुकाये खड़ा देख सबसे ज़्यादा आश्चर्य कुत्तों को हो रहा था। वे कभी पुलिस वालों पर भौंकते, कभी पूँछ हिलाते अपने मालिक के पास जा खड़े होते। बकरियाँ जंगल ले जाये जाने के इंतज़ार में आसपास घास टूँग कर समय काट रही थीं।

जोवाकिम लिंडा की तलाश में पुलिस ने सारी झोपड़ियों को छान मारा था। लोगों के बर्तन बाहर फेक दिये थे। बाँस की अलगनी पर टंगे कपड़े ज़मीन पर बिखरे पड़े थे। जवानों ने पास के मकई के खेत को तहस-नहस कर दिया था। कुछ जवान गाजर उखाड़ रहे थे। कुछ ने पके पपीतों के लिए पूरा पेड़ हिलाकर कच्चे-पके सारे पपीते गिरा दिये थे। मुर्गे के पीछे भागने वाले एक जवान ने आज पहली बार जाना था, ख़तरे का अंदेशा होने पर मुर्गे उड़ते भी हैं।

कुछ देर बाद एएसआई ने पुलिस कप्तान को रिपोर्ट किया, “जोवाकिम भाग गया सर।”

पचपन के क़रीब पर चुस्त-दुरुस्त दिखते पुलिस कप्तान को डालटेनगंज आये कुछ ही महीने हुए थे। इस आदमी के बारे में कहा जाता था, शरण पांडे की जिस भी माओवादी इलाके में पोस्टिंग हुई, नक्सली जोहार करके जगह छोड़ गये।  

“तो गोपूजी..मंगलजी..जोवाकिम लिंडा जो भी है..यहाँ नहीं है? उं..?” पुलिस कप्तान ने बहुत ठंडे अंदाज़ में सामूहिक रूप से पूछा, जैसे उसे सारी कहानी पता हो। बस वो गाँव वालों के मुँह से सुनना चाहता हो।

“हियाँ जोवाकिम नै रहहउ। के बोललौ तोरा इसब?” पीछे से किसी औरत ने कहा।

पुलिस कप्तान ने उसकी तरफ देख कर तेज़ आवाज़ में पूछा, “क्या बोली, फिर से बोलो?”

“सर..जोवाकिम लिंडा इस गाँव में नहीं रहता। उसका घर कोरई पहाड़ के उस तरफ है। दोनों गाँवों का नाम कोरई होने से बहुत सारे लोग धुकमुका जाते हैं। अगर आपको छोटकी कोरई जाना है तो घूम कर जाना पड़ेगा। सीधे पहाड़ चढ़ कर जायेंगे तो बहुत समय लगेगा।” गाँव के पाहन ने कोमल लताओं की तरह झुकते हुए विनम्रता से कहा। गाँव वालों ने पाहन को पहली बार झूठ बोलते सुना था। उन्हें उसका यह चेहरा हमेशा के लिए याद रह जाना था।

“तुम्हें कैसे लग गया हमलोग इस गाँव से बिना जोवाकिम को लिये जाने वाले हैं? तुम्हारा परिचय?” पाहन की बातों से पुलिस कप्तान चिढ़ गया था।

“मेरा नाम जय केरकेट्टा हुआ सर। इस गाँव के पाहन हैं हम।” वह विनम्रता के उसी दुहराव में बोला। साठ साल के आसपास चेचक के दागों से भरे चेहरे वाला जय केरकेट्टा पिछले कई सालों से गाँव वालों के लिए पुजारी, शिक्षक, नेता, वैद्य और बाहर की दुनिया से जोड़े रखने की भूमिका वाला आदमी था। वे सब जय केरकेट्टा की आँखों से ही दुनिया देखते। गाँव में कम-बेसी वही पढ़ा-लिखा था और रांची तक घूम आया था। बसकरील, खुखड़ी कुछ भी बेचने शहर जाना हो, पहले लोग जय केरकेट्टा से भाव पूछते।

पुलिस कप्तान ने पाहन को अपने पास बुलाया, जैसे उसे पीटने वाला हो, “तो तुम पाहन हो..पवित्र आदमी..और तुम्हें भी नहीं पता है, गोपूजी कहाँ है?”

“सर..गोपूजी पहाड़ के उस तरफ रहता है। छह-सात घर का गाँव है। बड़ा-बड़ा सखुआ पेड़ से घिरा हुआ..दूर से ही सरना का झंडा दिख जायेगा आपको।” जोवाकिम लिंडा की जगह गोपूजी का नाम लेकर पूछने से पाहन को राहत मिली थी और उसे भीतर से झूठ बोलने जैसा नहीं लगा था, क्योंकि जोवाकिम लिंडा का नाम लेने पर उसके सामने गाँव के अपने ही बच्चे का चेहरा घूम जाता।

पाहन पुलिस कप्तान के ठीक सामने खड़ा था किसी सज़ा के इंतज़ार में। उसके मुँह से उठते भभाके की गंध पाकर कप्तान ने पूछा, “तुमने बीच दोपहर शराब पी रखी है?”

पाहन ने सिर झुकाकर कहा, “शराब नहीं, थोड़ा हँड़िया सर।”

पुलिस कप्तान ने पाहन को छोड़ शिनाख्त परेड की तरह लोगों के पास से गुजरना शुरू किया। अचानक उसके कदम एक व्यक्ति के पास जाकर रुक गये। उस आदमी के चेहरे पर एक शांत हाहाकार था। यह सोमू लिंडा था। जोवाकिम लिंडा का पिता।

“नाम तुम्हारा?” पुलिस कप्तान ने अपनी भौंहें उचका कर पूछा।

“सोमू लिंडा..सोमू लिंडा।” वह एक फँसती, घरघराती आवाज़ में बोला। दो बार बोला क्योंकि उसे लगा पहली बार बोलने पर आवाज़ नहीं निकली थी।

“जोवाकिम किसका बेटा है?” पुलिस कप्तान ने पूछा। यह जान निकाल देने वाला सवाल था, जिसके जवाब में सोमू लिंडा ने बस इंकार में सिर हिला दिया।

“इसे पहचानते हो?” पुलिस कप्तान ने अख़बार में छपी एक तस्वीर उसकी नज़रों के सामने लहराते हुए बोला।

सोमू लिंडा ने गौर से तस्वीर देखी। यह उसका अपना जोवाकिम था।

यह वही तस्वीर थी जो उस पत्रकार ने अपने मोबाइल से ली थी जो बाद में जोवाकिम लिंडा के इंटरव्यू के साथ छपी थी। उस रोज़ पत्रकार लगातार सवाल करता जा रहा था और बातूनी जोवाकिम को एक नये आदमी से बात करने में मज़ा आ रहा था। लेकिन धीरे-धीरे वह उसके सवालों से ऊबने लगा और जैसे ही उसने अपने दोस्तों को देखा, बोला- ‘वह नदी नहाने जा रहा है’। हड़बड़ाये पत्रकार को अचानक याद आया, उसने तस्वीर तो खिंची ही नहीं। और जब तक उसने तस्वीर ली, जोवाकिम दौड़ पड़ा था। पुलिस कप्तान के हाथ में वही तस्वीर थी। एक दौड़ते लड़के की पीछे से खिंची गयी ‘ब्लर’ तस्वीर जिसमें उसकी पूरी देह हवा की तरह हिली हुई थी।

सोमू लिंडा ने कहा, “इसमें कुछ पता नहीं चल रहा है सर?” उसकी घरघराती आवाज़ तस्वीर देखने के बाद जैसे बिल्कुल दुरुस्त हो गयी थी। चेहरे पर मौज़ूद कम्पन ग़ायब  हो गया था।

“तुमने भी हँड़िया पी रखा है क्या जी?” पुलिस कप्तान ने नाक सिकोड़ते हुए पूछा।

सोमू लिंडा ने सहमती में सिर हिला दिया। यह सवाल अगर बाक़ियों से पूछा जाता तो वे भी ऐसे ही सिर हिलाते।

पुलिस के आने की संभावना को देखते हुए सात बजे सुबह ही गाँव में एक बैठक बुलायी गयी थी। सोमू लिंडा ने हाथ जोड़ कर सबसे इसका हल निकालने की विनती की थी। बैठक शुरू होते ही लोग दो पक्षों में बंट गये थे।

“सब सच-सच बता दिया जाये।” जोवाकिम के पिता और कुछ महिलाओं सहित एक धड़े ने कहा।

“नहीं, इसमें बहुत ख़तरा है।” जोवाकिम की माँ, पाहन और कुछ महिलाओं सहित दूसरा धड़ा बोला।

“ख़तरा तो झूठ बोलने में भी है।”

“सच बोलने पर ज़रूरी नहीं कि पुलिस भरोसा कर ले।”

“झूठ बोल कर पकड़े जाने पर पुलिस बहुत मारेगी।”

“हमारे सच से पुलिस को कोई मतलब नहीं है। वह जोवाकिम को देखते ही बंदूक चला देगी या पकड़ कर जेल में बंद कर देगी। फिर कोर्ट-कचहरी के चक्कर में पता नहीं कितने साल निकल जायेंगे।”

दूसरे धड़े ने इस बात के साथ एक उदाहरण भी दिया जिसमें कई साल पहले उस क्षेत्र के एक शिक्षक को पुलिस के खोजी अभियान दस्ते ने ग़लती से गोली मार दी थी। पुलिस को पता था उनसे भूल हुई है। लेकिन ग़लती स्वीकार करने की बज़ाय इसे ढँकने के लिए उन लोगों ने शिक्षक को एमसीसी का मुखबीर साबित कर दिया था। पत्नी कचहरी दौड़ती रही पर कुछ नहीं हुआ।

इस किस्से के बाद बैठक में सन्नाटा था। सिर्फ़ हवा के झोंके से हिल रही आम की पत्तियों की आवाज़ें आ रही थीं। पाहन ने सामने खेल रहे बच्चों को देखते हुए दृढ़ता से कहा, “सच बोलकर झमेले में फँसने से बढ़िया है, हम मना कर देंगे। हम सबको डर पर क़ाबू रखना पड़ेगा। पुलिस कितना भी पूछे, बोलना है जोवाकिम लिंडा पहाड़ के उस तरफ रहता है। यहाँ कोई जोवाकिम लिंडा नहीं है। नहीं है, मतलब नहीं है।”

‘जोवाकिम लिंडा पहाड़ के उस तरफ रहता है’ यह बात तो ठीक है लेकिन ‘यहाँ कोई जोवाकिम लिंडा नहीं है’ पाहन की इस बात से कइयों के चेहरे पर तनाव व्याप्त गया था। उन्हें देखकर लग रहा था, झूठ बोलना इनके बूते का नहीं है।

पाहन ने एक तरीका सुझाया। “सब थोड़ा-थोड़ा हँड़िया पी लो। पुलिस से डर नहीं लगेगा। बस बेसी मत बोलना। कुछ नहीं समझ आये तो चुप रहना।”

उसके बाद सभी बड़े लोगों को हँड़िया दिया गया। और अब सब कतारबद्ध सीधे खड़े थे। बर्तनों के फेंके जाने से अप्रभावित। गाजर, मकई, पपीते की तुड़ाई से अविचलित। शांत।

पुलिस कप्तान ने कतार में खड़े बच्चों और किशोरों पर एक नज़र डाली। उसने एक जवान को अपने पास बुलाया और धीरे से कुछ कहा। कुछ मिनट बाद जवान कप्तान की गाड़ी से बिस्किट का एक पैकेट लेकर लौटा। पुलिस कप्तान ने नौ-दस साल के एक लड़के की ओर बिस्किट बढ़ाते हुए पूछा, “जोवाकिम लिंडा कहाँ है?” लड़का सिर झुकाए खड़ा था। कप्तान ने बिस्किट थोड़ा और आगे बढ़ाया।

“ले लो..ले लो।” बगल में खड़े एसआई ने कहा।

अबकी लड़के ने जैसे ही बिस्किट की तरफ हाथ बढ़ाया, कप्तान ने हाथ पीछे खिंच लिया और सवाल दुहराया, “जोवाकिम लिंडा कहाँ है?”

“नख्खऊ पता।” लड़के ने सिर नीचे गोते हुए कहा।

पुलिस कप्तान ने पाहन की तरफ देखा।

“बोल रहा है सर, उसे कुछ नहीं पता है।” पाहन ने भीतर ही भीतर राहत की साँस ली। बैठक में सभी बच्चों को बुलाकर सुग्गे की तरह सिखाया गया था, जोवाकिम के बारे में पूछा जाये, अपनी भाषा में बोलना है, ‘नख्खऊ पता’।

पुलिस कप्तान ने लड़के को बिस्किट का पूरा पैकेट थमा दिया और ऊँची आवाज़ में आदेश दिया, “सब कोई अपना-अपना राशन कार्ड लेकर आओ।”

सोमू लिंडा, पाहन समेत गाँव वालों के होश उड़ गये। राशन कार्ड में परिवार के सभी सदस्यों का नाम होता है। इन लोगों ने इतनी दूर तक नहीं सोचा था।

गाँव में अकेला पढ़ा-लिखा होने के कारण कार्ड सहित सबके दस्तावेज़ पाहन के पास रहते थे। राशन दुकान वाला कार्ड पर कुछ ग़लत न चढ़ा दे, इसलिए सब एक साथ पाहन को लेकर राशन उठाने जाते थे। 

पाहन ने सारे कार्ड लाकर पुलिस कप्तान को सौंप दिये। पुलिस कप्तान ने कार्डधारी और उसके सदस्यों के नाम पढ़ना शुरू किया। जिनके नाम पढ़े जा रहे थे, उन्हें कतार से अलग एक तरफ खड़े होने को कहा गया। दो कार्ड बेनामी थे। उनका कवर और पहला पन्ना जिसमें परिवार की जानकारी होती है, फटा हुआ था। पुलिस कप्तान ने दोनों कार्ड हवा में लहराये।

“ये किसके हैं?” बगल में खड़े थाना प्रभारी ने ज़ोर से चिल्लाकर पूछा।

पाहन और सोमू लिंडा दो कदम आगे चल कर सामने खड़े हो गये।

“कौन सा कार्ड किसका है?” थाना प्रभारी वापस चिल्लाया।

पाहन ने पहले कार्ड की ओर इशारा किया।

“परिवार में कौन-कौन है?” पुलिस कप्तान ने पूछा।

कतार से निकल कर एक बुजुर्ग और एक जवान महिला, दो बच्चे और एक जवान आदमी आगे आ गये। पुलिस कप्तान ने सोमू लिंडा की तरफ देखा। सोमू लिंडा ने जोवाकिम की माँ की ओर। और वह सिर झुकाए सामने खड़ी हो गयी।

“कैसे फटा?” यह संयुक्त अभियान का अर्धसैनिक बल का एक अधिकारी था जो अब तक चुप था।

“बुतरू लोग फाड़ दिया।” पाहन ने बच्चों की ओर इशारा करते हुए कहा।

“और तुम्हारा?” उस अधिकारी ने सोमू लिंडा को डपटने के अंदाज़ में पूछा।

“छगरी खा गयी।” सोमू लिंडा ने गर्दन घुमा कर सामने चर रही बकरियों में से एक की तरफ इशारा करते हुए कहा।

जवान गाड़ियों में वापस भर रहे थे। पुलिस कप्तान ने पाहन को चेताते हुए कहा था, वो फिर आयेंगे। अगर उन्हें जोवाकिम का कोई पता चला तो बताने की ज़िम्मेदारी उनकी। नहीं बताया, कुछ छिपाया या उसे पनाह दिया तो इसकी सज़ा पूरा गाँव भुगतेगा।

और जैसे नदी में डूबते किसी इंसान को किनारा मिला हो, सबकी टूटती साँसें बहाल हुई थीं। सोमू लिंडा झर-झर आँसुओं में था। उसने हाथ जोड़ कर पाहन से पूछा, उन्होंने अपना कार्ड क्यों फाड़ दिया था? पाहन ने मुस्कुराते हुए सोमू लिंडा को अंकवार लिया, “एक से उनको शक होता।“

                                                             2.

जीवन छुईमुई के पौधों की तरह फिर से अपनी पत्तियाँ खोलने लगा था। राहड़ पक कर तैयार था। लोग उसकी कटाई में लगे थे। पुलिस गाहे-बगाहे आती। छापे मारती। पपीता, मकई, मुर्गियाँ जो मिलता बटोरती और जोवाकिम को ढूँढ़ कर चली जाती।

एक हफ्ते बाद सरहुल था। पाहन उसकी तैयारियों में लगा था। इस बार अखरा कमज़ोर रहने वाला था। सबके ज़ेहन में जोवाकिम था। उसका अचानक रातोंरात ग़ायब हो जाना समूचे गाँव को मायूस कर गया था। बीच दोपहर मवेशियों के साथ सुस्ताते संगी-साथी कहते, जोवाकिम मौसी के पास चाईबासा चला गया है। कोई कहता, उसका बाबा कोयला खदान में कमाने के लिए उसको झरिया पेठा दिया। पाहन का भतीजा कहता, केवल उसे पता है, जोवाकिम जेल में है।

इन अटकलों के बीच जोवाकिम को गाँव से गये हुए चार साल हो गये थे। गोपूजी, उर्फ़ मंगलजी उर्फ़ जोवाकिम लिंडा पर इनाम की रकम बढ़कर पच्चीस हज़ार रुपये हो गयी थी। किसी भी माओवादी घटना की ख़बर के साथ अख़बार में जोवाकिम की वही धुँधली सी फोटो छपती, जो उस पत्रकार ने ली थी।

इस बीच तीन पुलिस कप्तान बदल गये थे लेकिन उनका आना नहीं बदला था। गाँव में अब तक चापाकल नहीं लगा था, पर दो मुठभेड़ों में सात मौतें, तीन पोकलेन, एक ट्रैक्टर और एक डम्फर जलने के बाद एक कामचलाऊ सड़क ज़रूर बन गयी थी ताकि गश्ती दल की गाड़ियाँ कभी भी पहुँच सके।

एक दोपहर मकई कोड़ते जोवाकिम के पिता के पास बगल के गाँव का एक बूढ़ा आया और बोला, “जोवाकिम मईर गेलौ।” सोमू लिंडा हाथ की कुदाली फेंक भागा। बातूनी बेटे को लेकर हमेशा चिंताग्रस्त रहने वाले पिता के लिए यह ख़बर पहाड़ से धकेल देने सरीखी थी। उसका दिल बैठने लगा। अल्सुबह ही उसने परही नाले के बाद वाले जंगल से गोलियों की आवाज़ सुनी थी। वह भरसक अपनी रुलाई रोकता बदहवास पाहन के घर की दिशा में भागा जा रहा था। वह जानता था एक दिन पुलिस उसके बेटे तक पहुँच जायेगी और मार देगी।

आने वाले बरसात को देखते हुए पाहन सूअरों के बाड़े की मरम्मत के लिए मिट्टी तैयार कर रहा था। उसने जब सुना, मिट्टी सने हाथों से ही सोमू लिंडा को अंकवार लिया और ढाढ़स देने लगा। पीछे से जोवाकिम की माँ भी पहुँच गयी थी। पाहन ने हाथ धोये। धोती पहनी और तीनों उसी वक़्त डालटेनगंज की बस पकड़ने चल पड़े।

दो घंटे में वे बड़ा चर्च के सामने थे। यहाँ के पेड़ों पर पत्तियों से ज़्यादा पक्षी थे जिनसे चर्च की ख्यात शान्ति से विपरीत पूरा अहाता कोलाहल से भरा था। हॉल में शाम की प्रार्थना शुरू थी। तीनों बाहर एक लोहे की बेंच पर बैठे भीषण बेचैनी के बीच प्रार्थना ख़त्म होने का इंतज़ार कर रहे थे। और जब प्रार्थना ख़त्म हुई एक लड़का सीढ़ियाँ फलांगता, दौड़ता हुआ उनकी ओर आ रहा था। कुछ ज़्यादा  ही मुड़े हुए घुँघराले बाल, भोर के उजास में पसरे महुए-सी सफ़ेद हँसी, बाँस जैसे लम्बे-लम्बे पैर और साल पेड़-सी सुडौल देहयष्टि। यह जोवाकिम लिंडा था। महज़ चार सालों में वह एक सजीले युवक में बदल गया था। उसकी माँ उसे ऐसे देख रही थी, जैसे स्वप्न में अपने पुरखों को देख रही हो। सोमू लिंडा का चेहरा प्रसन्नता से गुलगुले की तरह मीठा हो आया था। ख़ुशी से रो पड़ने की हालत में आये अपने  माता-पिता को देख जोवाकिम ने जब उनसे हाथ मिलाया, दोनों उससे चिपट गये। पाहन के चेहरे पर जीवन भर का संतोष था।

आज से चार साल पहले उस सुहानी बसंत की बीच रात सोमू लिंडा और पाहन ने जोवाकिम को महफूज़ रखने के लिए यही जगह चुनी थी। वे रात भर पैदल चलकर चर्च पहुँचे थे। दयालु फादर ने उस तेरह साल के उदास और परेशान लड़के को अपने प्रार्थना समूह का हिस्सा बना लिया था और उसे नया नाम दिया था, एरिक लिंडा।   

और कुछ ही दिनों में जोवाकिम बने एरिक लिंडा ने अपने बातूनीपन से सबको मोह लिया। उसने प्रार्थना के सारे गीत इतने लगन से सीखे कि विशेष प्रार्थनाओं में वह दल का हिस्सा बन कर आसपास के इलाकों में जाने लगा। पढ़ते-लिखते, मसीह के गीत गाते उसका मन जल्द ही चर्च में रम गया। चार साल कब निकल गये पता ही नहीं चला। जोवाकिम की माँ ने सोमू लिंडा से कई बार चल कर बेटे को देख आने की बात कही, मगर फादर ने हिदायत दी थी- ‘कुछ सालों के लिए बेटे को भूल जाओ। सब ठीक हो जाये फिर आना।‘ दोनों ने मन मसोस लिया था। जहाँ रहे, अच्छे से रहे, बस थाना-पुलिस से दूर रहे।

दूसरी सुबह जब शहर घुघनी-धुस्का खाते हुए अख़बार में परही नाले के पास हुई एक मुठभेड़ में गोलियों से बिंधे जोवाकिम की तस्वीर देख रहा था, दूसरा जोवाकिम अपने परिवार के साथ गाँव लौट रहा था।

                                                3.

गाँव लौटे इसी जोवाकिम लिंडा की शादी थी।

टीक गाँव की सिसिलिया से। छोटी उमर की रोहू मछली-सी पतली और मैना जैसी आँखों वाली सिसिलिया से। कोयल को डाँटकर उसका गीत सुधारने वाली सिसिलिया से। गाँव में सबसे बारीक़, सबसे ख़ूबसूरत और सबसे तेज़ी से चटाइयाँ बुनने वाली सिसिलिया से।

जोवाकिम जितना बातूनी था, उसे देख कर माँ कहती, उससे जो भी लड़की शादी करेगी, उसके कान बड़े होने चाहिए, क्योंकि उसे जीवन भर इस बातूनी लड़के को सुनना है। जोवाकिम ने जब पहली बार सिसिलिया को देखा, वह उसके छोटे कान देख हँस रहा था।

रिश्ता सिसिलिया के बाबा लेकर आये थे। वह कहते, “लड़का जिस दिन हल जोत लिया और लड़की ने जीवन की पहली चटाई बुन ली, समझो वो शादी की ज़िम्मेदारी के लिए तैयार हो गये।”

लड़की चटाई बुनने में पहले से माहिर थी। उसके गाँव में इस हुनर पर वहाँ के लोग कहते, उसकी चटाई अगर डालटेनगंज बाज़ार पहुँच जाये तो लोग पलंग पर सोना छोड़ दें।

अब सिद्ध करने की बारी जोवाकिम की थी। उसने चुनौती स्वीकार की। कुल्हाड़ी, कुदाल उठाया और एक नयी जगह पर पुटुस, पलाश साफ कर खेती लायक जगह बनाने में जुट गया। साफ-सफाई के बाद बस खेत जोतना बाक़ी रह गया था। दिक्कत यह थी कि जो बैल इस खूंटे से उस खूंटे तक जाने में उसकी बात अनसुनी किया करते थे, वे शराफ़त से खेत जोतने में दो दिन उसकी मदद कैसे करते?

खेत के पास आकर भी जब वे टस से मस नहीं हुए, पिता ने उसे समझाया, सबसे ज़रूरी है, बैल के भीतर अपने लिए इज्ज़त पैदा करना। यह काम डंडे से नहीं हो सकता। डंडे डरा सकते हैं पर एक सीमा तक। जिस रोज़ बैल दिक् हो गये, वे अपने सींगों पर दुनिया को टांग सकते हैं। इसलिए तुम्हें पहले उनका सहिया बनना होगा। उन्हें एहसास कराना होगा, बुढ़ापे तक हरवाह उनके साथ चलेगा। जेठ के सूखे मौसम में भी उनके पेट की फ़िक्र करेगा। वह उनका वो सहिया चिड़िया बनेगा, जो उनकी पीठ पर चिपके खून चूस रहे अठैलों से उन्हें मुक्ति दिलाती है।

एक महीने के भीतर जोवाकिम ने बैलों का दिल जीत लिया था। इतना कि अब वो पूरी रात खेत जोत सकते थे। इसके लिए उसने ज़्यादा नहीं किया। बस हर पहर उनकी फ़िक्र की। सुबह प्यार से सहलाया। थपथपाया। उनसे बातें कीं। दोपहर में उन्हें नहाने ले गया। शाम को उन्हें मच्छरों से बचाया। उन्हें उन ऊँचे पेड़ों की फुनगी वाली कोमल पत्तियाँ खिलायीं, जिसका स्वाद वो सम्भवतः बुढ़ापे तक नहीं ले पाते। बारात जाने के दिन ख़ुश जोवाकिम ने बैलों के कानों में फुसफुसा कर कहा था, “लड़की लाने जा हीअऊ। अशीष दे।”

गीत गाते, माँदर बजाते जोवाकिम की तरफ से कुल सोलह लोग बारात आये थे। कुछ सायकिल से, कुछ पैदल। पैदल क़रीब तीन घंटे का रास्ता था, जो नाचते-गाते-सुस्ताते बात की बात में पूरा हो गया था।

लड़के वालों की तरफ से दुल्हन और उसके माता-पिता के लिए साड़ी, धोती और गमछा लाया गया था तथा मिठाई में लड्डू। सिसिलिया ने बाँस के छाप की लाल पाड़ वाली साड़ी पहनी थी। उसके ऊपर चमकता हुआ एक लाल कपड़ा था। बालों का ख़ूबसूरत खोपा, जिसमें गुलैंची फूल सजे थे। जोवाकिम फुलपैंट-शर्ट में था। यह उसे फादर ने विशेष प्रार्थनाओं के अवसर के लिए सिलवा कर दिया था। लमका आम-सी नाक, डोरी फल सरीखी आँखें और तेल से चमकते अपने घने घुँघराले बालों में वह जंगल का सबसे ख़ूबसूरत युवक लग रहा था। लग रहा था, किसी बाँके चमकीले मुर्गे ने उदारता दिखाते हुए उसे अपनी ख़ूबसूरती और रंग सौंप दिये हों।

शाम से शुरू हुई गहमागहमी बारह बजे रात तक चली। दो खस्सी कटा था। सखुआ पत्तल पर गरम भात और खस्सी। साथ में दो दिन से बनाया जा रहा हँड़िया। जिनको महुआ पीना हो उनके लिए लोटे में झरने के पानी जितना साफ चुआया हुआ महुआ। ये आनंद का चरम था। आधी रात तक सब माँदर पर थिरकते हुए झूमर खेल रहे थे। गीत गा रहे थे। शादी का यह दिन जोवाकिम को जीवन भर याद रह जाना था।

देर रात सोने के बावज़ूद लोग सुबह चार बजे ही जाग गये थे। रात में बिना मौसम मूसलाधार पानी बरसा था। खेत में काट कर रखे तोड़ी, बटुरे के बर्बाद होने का डर था। सो लोग हाथ-मुँह धोये और मुँह अँधेरे विदा ले लिये। सोमू लिंडा ने बेटे को जगा कर कहा, वो लोग जा रहे हैं। खेत में काम है। उसे जब मन करे आ जाये।

मुर्गों ने जब बांग दे-देकर अपने गले छील लिये, जोवाकिम उठा। आठ बज रहे थे। मन को छूने वाली प्यारी हवाएँ चल रही थीं। मुँह धोने के लिए सिसिलिया की छोटी बहन पानी और करंज का दातून देने आयी और लोटा रखकर शरमा कर भाग गयी। जोवाकिम हँसने लगा। सिसिलिया का मँझला भाई मछली मारने गया था कि दो भी फँस जाये तो पहुना के लिए झोर-भात हो जायेगा। घंटे भर में ही उसने आठ मोटी गरई पकड़ी थी, जिसे जोवाकिम की सास राख लगाकर धो रही थी।

दस बजे तक मछली-भात खिलाकर बेटी-दामाद को विदा किया गया। गोतिया की नब्बे वर्षीय ददसास मछली-भात के साथ जोवाकिम के लिए अपने हाथ का हँड़िया बनाकर लायी थी कि रास्ते में पेट ठंडा रखेगा। वह सिसिलिया को बहुत मानती थी। सिसिलिया ने चटाई का हुनर उनसे ही पाया था। वह सिसिलिया को तीन मिनट से ज़्यादा अपनी ढीली पड़ चुकी बाँहों में छिपाये रही। फिर एक झोले से उन्होंने दो बदरंग बोतलें निकाली जिसमें कुछ भरा हुआ था। बोली, रास्ता लंबा है। समय ख़राब। इन्हें रख लो। रास्ते में बुरी आत्माएँ मिलें तो उन्हें चढ़ा देना। सिसिलिया ने हौले से पलकें झपका कर उनके इस प्रेम और फ़िक्र के लिए प्यार जताया और बोतलों को ध्यान से झोले में एक तरफ रख लिया। 

दोनों जन चल पड़े। आगे-आगे जोवाकिम, पीछे से सिसिलिया। माँ-बाबा, सगे-संबंधी गाँव की सरहद तक छोड़ने आये थे। फिर गीली आँखें लिए सब लौट गये।

                                                     4.

साल के ऊँचे पेड़ों के बीच बने पतले रास्ते पर दोनों बढ़ते जा रहे थे। धूप सुखद लग रही थी। छाँव में एक अपनापन था। हर पाँच मिनट पर सुग्गों का एक झुंड शोर मचाता हुआ निकल जाता। बीच रास्ते आराम फरमा रहे बटेर और पंडुक इनके कदमों की आहट से चौंक रास्ता छोड़ देते। अभी एक खरहा इन्हें देख कर गिरता-पड़ता भागा था जिस पर जोवाकिम की हँसी नहीं रुक रही थी। उसके बेवज़ह बात-बात में हँसने के पीछे सिसिलिया की उपस्थिति थी, जिससे उसका मन हुलस रहा था। पीछे चल रही सिसिलिया के पदचाप उसे संगीत की तरह लग रहे थे। ख़ुशी से उसका चेहरा ख़ूब पके काले शहतूत-सा हो गया था। उसकी चाल की बेपरवाही से लग रहा था, जैसे घर पहुँचने की उसे कोई जल्दी न हो। वह नहीं चाहता था, यह सफ़र ख़त्म हो। वह बार-बार कुछ पूछने-कहने के बहाने पीछे मुड़ रहा था। उसका वश चलता तो वह सामने देखने की बज़ाय सिसिलिया की तरफ ही देखता हुआ चलता।  

“कोई दिक्क़त तो नहीं है?” जोवाकिम ने पीछे मुड़ कर सिसिलिया से पूछा। उसने हल्के-से सिर उठाया और नकार में हिला दिया। पिछले आधे घंटे में यह बारहवीं बार था, जब वह बहाने से बतियाने के लिए पलटा था। इसके पहले उसने मौसम के ख़ुशगवार होने पर सिसिलिया की राय जाननी चाही थी। उसके पहले उसने सुग्गों की बुराई की थी जो जंगल में किसी की अफीम की खेती टूँगकर बौराये रहते थे और अपने पेट से ज़्यादा मकई खाते थे। उसके भी पहले उसने फुटबॉल के पेनाल्टी गोल के बारे में बताया था कि चर्च जाकर उसने सबसे बड़ी चीज यही सीखी। वह इसमें पारंगत हो चुका है। इन सबसे पहले उसने बातचीत की शुरुआत रास्ते के बारे में तस्दीक करने से की थी कि वे ठीक जा रहे हैं न? उसकी हर बात पर सिसिलिया सिर हिला कर हाँ-हूँ करती रही थी।

कुछ देर बाद जोवाकिम पुन: पलटा और सिसिलिया के हाथ में झूल रहे बैग की ओर इशारा करते हुए बोला, “लाओ इसे दे दो।” यह सिसिलिया की बड़ी बहन का तीन साल पुराना लेडिज पर्स था जो उसके पति ने फ़रीदाबाद से कमा कर लौटने के दौरान दिल्ली के किसी फुटपाथ से ख़रीदा था। जोवाकिम उसके हाथों को इस ज़रा भर के बोझ से भी मुक्त करना चाहता था। सिसिलिया ने पहले की तरह मना कर दिया। हालाँकि सामान के नाम पर उनके पास ज़्यादा कुछ नहीं था। कपड़ों, लड्डुओं और खाने-पीने की दूसरी चीजों से भरी एक खाँची और एक बक्सा जोवाकिम के पिता के सायकिल पर सुबह ही बाँध दिया गया था। बाक़ी जोवाकिम के हाथ में सास का दिया एक झोला था, जिसमें कुछ लड्डू, भीगे चने, भुनी हुई मकई, बुरी आत्माओं के लिए ददसास की दी हुई बोतलें और सिसिलिया के कुछ कपड़े थे। जोवाकिम ने लेडिज पर्स देने के लिए जब दोबारा इसरार किया तो सिसिलिया ने चुपचाप दे दिया।

जोवाकिम के पास बातें थीं कि ख़त्म नहीं हो रही थीं। कभी अपने गाँव के किस्से, कभी मामा घर के किस्से, कभी जंगल की कहानियाँ, कभी चर्च के अनुभव। सिसिलिया पीछे चलती हुई चुपचाप सुनती जा रही थी।  

चलते हुए एक घंटे से ज़्यादा हो गये थे। सखुआ के पेड़ों की धारियाँ ख़त्म हो गयी थीं। यहाँ जंगल थोड़ा कम घना था। झाड़ियाँ और छोटे पौधों की भरमार थी। एक बड़े बरगद की सुकूनदायी छाया देख दोनों रुक गये। धूप अब तीखी हो गयी थी। लेकिन पीठ की ओर से लगने पर भली लगती थी। जोवाकिम ने बताया, उसकी माँ को यह धूप पसंद है। यह चमड़े, घड़े, फुटकल, कटहल सब को प्यार-से सहला कर सुखाती है।

सिसिलिया के खोंपे का फूल मुरझा गया था। जोवाकिम ने पास की झाड़ियों से धतूरे का फूल तोड़ा और सिसिलिया की ओर बेहद प्यार से देखता हुआ बोला, “तुम्हारे खोंपे का फूल सूख गया है। लाओ नया लगा दें।” सिसिलिया ने उससे फूल ले लिया और ख़ुद ही लगा ली। जोवाकिम मुस्कुराता हुआ उसे देख रहा था। उसने झोले से सामान निकाला। दोनों ने भीगे हुए चने और लड्डू खाये, पानी पिया और दस मिनट सुस्ता कर चल पड़े।

                                                 5.

दोपहर होने से जंगल में तनिक शांति हो आयी थी। चिड़िया-चुनमुन खा-पीकर सुस्ता रहे थे। अभी दोनों ठीक से आधे घंटे भी नहीं चले होंगे कि जोवाकिम अचानक ठिठक गया। सामने क़रीब  तीन सौ मीटर दूर एक बरसाती नदी दिख रही थी। वह चकराया, जितना अब तक चला है, इतने में तो सिमर गाँव का टूटा हुआ स्कूल आ जाना चाहिए था। वह तो उसी स्कूल की उम्मीद में चला जा रहा था। फिर यह नदी कहाँ से आ गयी? उस टूटे स्कूल के पास पहुँच जाता तो वहाँ से घर पहुँचना आसान था, क्योंकि स्कूल से दाईं तरफ जाने वाला रास्ता सीधा कोरई पहाड़ की तरफ जाता था, यह उसके पिता ने बताया था। उसने सिसिलिया से पूछा। सिसिलिया ने आँखों से ही अनभिज्ञता ज़ाहिर की। उसने इस नदी और अपने गाँव की नदी के बहाव की दिशा से घर की दिशा का अनुमान लगाना चाहा, मगर असफल रहा।

जोवाकिम ने याद करना शुरू किया, कहाँ ग़लती हुई। उसके पिता से लेकर सिसिलिया की माँ और बड़े भाई ने भी कहा था कि परसबनिया से पश्चिम की तरफ वाला रास्ता लेना है। परसबनिया मतलब पलाश के पेड़ों वाला जंगल, जिसे आसानी से पहचाना जा सकता था। उस वक़्त जोवाकिम ने ऐसे गर्दन हिलाया था, जैसे वह इस रास्ते से भलीभांति वाकिफ़ हो। उसने दिमाग पर बहुत ज़ोर दिया लेकिन याद नहीं आया वह कहाँ से रास्ता भटक गया। वह बुदबुदाया, हो न हो यह महुए और हँड़िया के मिश्रित नशे का असर है जो सिसिलिया के मजाकिया स्वाभाव वाले मँझले भाई ने भूनी मछली के साथ इसरार करके लोटे में दिया था। वह ख़ुमारी उस पर अब तक तारी थी।

अब तीन विकल्प थे। या तो वापस मुड़ कर परसबनिया से फिर शुरू करना चाहिए। मगर वह जंगल अब बहुत पीछे छूट गया था। जितना पीछे जाने में वक़्त लगता, सही रास्ता मिल जाने पर उतने में आदमी घर पहुँच जाता। दूसरा विकल्प था, नदी के साथ-साथ पश्चिम की तरफ चलना। शायद यही नदी कहीं न कहीं उसके गाँव के पास वाली नदी से मिलती हो, जिसे पकड़ कर गाँव पहुँचा जा सकता है। लेकिन इसमें भटकने का ख़तरा था। सबसे बड़ा डर था, पुलिस पिकेट मिलने का। उनसे सामना होने की किसी भी संभावना से जोवाकिम बचना चाहता था। सामुदायिक भवनों और स्कूलों में ऐसे कई स्थायी-अस्थायी पिकेट बने हुए थे। तीसरा विकल्प था, केहुनी भर पानी वाले इस नदी को पार कर सामने दिख रहे गाँव में चला जाये और वहाँ किसी से रास्ता पूछा जाये। जोवाकिम ने सिसिलिया से कहा, भटकने से बढ़िया है गाँव में चल कर पूछते हैं।

रात में बारिश की वज़ह से नदी का पानी मटमैला हो आया था। ट्रैक्टर लायक सड़क नहीं होने के कारण नदी की रेत बालू चोरों से बची हुई थी। बहाव के बीच पैर धँस रहे थे। नदी पार करते समय जोवाकिम ने सहारे के लिए सिसिलिया का हाथ थामना चाहा पर उसने दोनों हाथों से अपनी साड़ी पकड़ रखी थी।

गाँव नदी के पाट से थोड़ा ऊपर की ओर बसा था जहाँ से नदी पार करता हुआ इंसान आसानी से दिख जाता था। एक-दो लोग जिनकी नज़र इस नये जोड़े पर पड़ गयी थी, वे कौतूहलवश इनके नज़दीक आने का इंतज़ार कर रहे थे। यह गंझुओं का गाँव था, मैनीबेड़िया। बमुश्किल झुण्ड में दस-बारह घर दिख रहे थे। दोनों पहुँचे तो नज़दीक के पीपल पेड़ के नीचे बैठे लोग पास आ गये।

“एने केने जा हलहीं?” एक अधेड़ ने उत्सुकता से पूछा।

“जायला तो हलउ कोरई दने, पैइर रस्तवे भुला गेलीअउ।” जोवाकिम बोला।

एक टेढ़ी खड़ी औरत उँगलियों से बालों में जूँ टटोलती मुस्कुराते हुए धीमे से बोली, “नवा शादी?”

जोवाकिम ने थोड़ा लजाते हुए हाँ में सिर हिला दिया।

एक बुजुर्ग जिनकी आवाज़ बतखों की तरह थी, उन्होंने प्यार से नाम पूछा, “नांव का बोल्हीं?”

“जोवाकिम लिंडा।”

“आउर गाँव?”

“कोरई।”

कोरई का नाम सुनते ही बुजुर्ग अचानक चुप हो गये, जैसे कुछ याद आ गया हो। बाक़ी लोगों के चेहरे के भाव भी बदल गये थे। एक-दो लोग वहाँ से छिटकने लगे थे। अजीब-सा रहस्यमयी माहौल बन गया था। फिर अचानक सन्नाटा टूटा। बाँहों पर गोदनों से भरी झूलती त्वचा लिये एक बुजुर्ग महिला जो अब तक सबकी बातें सुन रही थी, इस चुप्पी के बाद लाठी खटखटाती जोवाकिम के पास आयी और उसने हाथ दिखा कर रास्ता बताना शुरू किया। जोवाकिम सिर हिला कर हुँकारी भर रहा था। अंत में वह सिसिलिया की ओर मुड़ी। प्यार से उसके सिर पर हाथ फिराया और कुछ बुदबुदायी। सिसिलिया सिर झुकाये, आँखें बंद किये आशीष ग्रहण कर रही थी।

उसके बाद वहाँ से विदा लेकर दोनों नदी की ठीक उल्टी दिशा में चल पड़े। रास्ता मिल जाने पर जैसे जोवाकिम की जान लौट आयी थी और वह पहले की तरह हँसने-बतियाने लगा था। उसे लग रहा था, सिसिलिया उसकी इस लापरवाही पर जाने क्या सोच रही होगी। वह अलग-अलग बातें बना कर सफाई दे रहा था। मगर सिसिलिया जैसे अब भी नींद में चल रही थी, हाँ-हूँ करती हुई।

एक जगह जहाँ नदी मुड़ कर उत्तर की तरफ़ जा रही थी, वहाँ दोनों ने उसका साथ छोड़ दिया और सीधे बढ़ने लगे, एक छोटे से फुटबॉल मैदान के आने का इंतज़ार करते हुए, जैसा कि झुर्रियों में छिपी गोदनों वाली बूढ़ी महिला ने उन्हें बताया था।

और आधे घंटे में मैदान आ गया। वहाँ फुटबॉल का मैच चल रहा था। पेड़ों से घिरा एक छोटा-सा मैदान, जो मैदान कम टांड़ ज़्यादा लग रहा था। जोवाकिम को दोहरी ख़ुशी हुई। एक, सही रास्ते पर आगे बढ़ने की ख़ुशी। दूसरी, उसके प्यारे खेल की झलक मिल जाने की ख़ुशी, जिसकी वह रास्ते भर बातें करता आया था। उसने सिसिलिया से आग्रह के स्वर में पूछा कि पाँच मिनट यहाँ रुक कर सुस्ता लें तो कैसा हो? सिसिलिया बिना बोले खड़ी हो गयी। जोवाकिम ने वहीं एक महुआ पेड़ के नीचे सामानों को रखा। मोटे पसरे तने पर फैली सूखी पत्तियों को हटाया और सिसिलिया की ओर मोहब्बत से देखते हुए बैठने का इशारा किया।

मैच जोरों पर था। क़रीब पंद्रह-बीस लोग जुटे हुए थे। दोनों तरफ के गोलपोस्ट के खम्भे से हृष्ट-पुष्ट दो बकरे बँधे थे। ये विजयी टीम के इनाम थे। मैदान छोटा होने से दोनों गोलपोस्ट नज़दीक थे। इसलिए हर दो मिनट पर गोल हो रहे थे। जोवाकिम का मन आनंद और उत्तेजना से पुलक रहा था। गेंद के हर मूवमेंट के साथ उसके हिलते पैरों और चेहरे पर आ-जा रहे भावों को देख लग रहा था, जैसे वह किसी भी क्षण मैदान में उतर पड़ेगा।

सिसिलिया निर्लिप्त भाव से अंकुरित चने में नमक मिला रही थी। एक चुटरी डरता हुआ उसके दिये लड्डू के दाने कुतर रहा था। मैच में हाफ़ टाइम हो गया था। खिलाड़ी सहित बाक़ी लोग सुस्ता रहे थे। जोवाकिम अनमना-सा धूल झाड़ता हुआ उठा और सिसिलिया की ओर देखता हुआ चलने का इशारा किया।

जोवाकिम ने अंदाज़ा लगाया, एक से दो के बीच कुछ बज रहा होगा। परछाईं पैरों के नीचे से खिसक कर थोड़ी पीछे हो गयी थी। अगर इसी गति से बिना रुके चलते रहे तो एक-दो घंटे में पहुँचने के आसार थे। सिसिलिया थकी हुई जान पड़ रही थी। जोवाकिम भी थका था पर उसकी थकान ज़ाहिर नहीं हो रही थी। वह सिसिलिया के जिस मोहपाश में बंधा था, हँसने-बतियाने के चक्कर में उसे अपने थकने का पता ही नहीं चल रहा था। उसने सिसिलिया को हँसाने के कई प्रयास किये थे पर अब तक वह चुप ही रही थी। बातचीत में उसकी तरफ से भागीदारी नहीं होने से जोवाकिम कई बार निराश हो जाता था। लेकिन उसका बातूनी मन इस निराशा से निकल कर एक बार फिर किसी न किसी किस्से में व्यस्त हो जाता। उसे लगता, शायद सिसिलिया थकी है इसलिए बातें नहीं कर रही है। या संभव है उसे नये आदमी से बात करने में संकोच हो रहा हो। 

                                                   6.

जोवाकिम इसी विचारक्रम में था कि कहीं से अपना नाम सुन कर चौंक गया। क़रीब सात-आठ लोग पेड़ों की तरफ से निकल कर अचानक सामने आ गये थे। उनमें से एक ने प्रश्न की शक्ल में उसका नाम दोहराया, “जोवाकिम लिंडा?”

जोवाकिम ने स्वीकृति में सिर हिलाया। सबने गमछे से मुँह ढँक रखा था। सबके पास छोटी-बड़ी अलग तरह की बंदूकें थीं। जोवाकिम के भीतर से मानों पसीने की सोत फूट निकली। वह डर से जड़ हो गया। एक ने जोवाकिम के हाथ से सामान छीन लिया। विरोध की गुंजाइश के खात्में के लिए उनके हाथ, मुँह और आँखों पर गमछे बाँध दिये गये।

दूर तक कोई आबादी नहीं थी। उनके इस तरह अचानक पकड़े जाने का गवाह केवल एक टेटगा था, जो एक पत्थर पर बैठा सिर हिला रहा था। दो मैना थे जो इस अप्रत्याशित धर-पकड़ से डर कर उड़ गये थे।

जिस रास्ते पर वे बढ़ रहे थे, वह पाँच सम्मिलित पतली पगडंडियों जितना चौड़ा था, दोनों ओर पेड़ों, जंगली बेरों और करोंदे की झाड़ियों से घिरा हुआ। कुछ दूर सीधे चल कर वे बायीं ओर मुड़े और जंगल की गहनता में गुम हो गये।

लगातार चलते हुए जहाँ वे पहुँचे, वहाँ ताड़ के पत्तों और बाँस से बनी एक झोपड़ी थी। उसकी जर्जर हालत देख लग रहा था, कोई इसे बहुत पहले छोड़ गया था। उनकी आँखों और मुँह से गमछे हटा दिये गये थे लेकिन हाथ बँधे रहे। दोनों को झोंपड़ी के भीतर डाल कर बाहर से दरवाज़ा बंद कर दिया गया।

यहाँ ऊँचे पेड़ों की वज़ह से दिन में भी शाम होने का भान हो रहा था। दरवाज़ा बंद होने से भीतर अँधेरा-सा हो गया था। सातों जन बाहर खड़े किसी बात पर बहस कर रहे थे। आँख-मुँह से गमछे हटाये जाने पर लंबी साँसें लेता हुआ जोवाकिम बँधे हाथों से ही सिसिलिया को टटोलने का प्रयास किया। वह बगल में ही थी। जोवाकिम जैसे ख़ुद से बड़बड़ाया, इन्हें मेरा नाम कैसे पता चला?

“नदी किनारे वाले गाँव में जब हम रास्ता पूछ रहे थे, लाल कमीज़ वाला आदमी जिसने अभी हमारा झोला छीना, वहीं खड़ा था।“ सिसिलिया सुबह से पहली बार कुछ बोली थी।

सिसिलिया की अप्रत्याशित आवाज़ सुन कर जोवाकिम अँधेरे में उसका मुँह देखने की कोशिश करने लगा। उसे भय के बीच एक अलग क़िस्म की ख़ुशी महसूस हुई। उसने उसे छूने के लिए अँधेरे में अपने बँधे हाथ बढ़ाये। यह सिसिलिया का माथा था, जिसका उसने पहले-पहल स्पर्श किया। एक दुःख और अफ़सोस की लंबी लहर उसकी आत्मा से गुजर गयी। अभी ढंग से उसने उसकी आँखें भी नहीं देखी थी। उसकी हँसी में हँसी मिलाना बाक़ी था। उसका प्रेम बाक़ी था। अखरा में हाथ पकड़ कर नाचना बाक़ी था। उसकी बुनी मुलायम चटाई पर नीम के नीचे लेटना बाक़ी था। हाट में सब्जियाँ लेकर साथ बैठना बाक़ी था। कितना कुछ तो बाक़ी था।

सिसिलिया अँधेरे में भी उसकी मृत्यु सरीखी चुप्पी भाँप ली। उसने धीमे से कहा, “वो लोग हमें मारेंगे नहीं। मारना होता तो मार दिये होते।”

जोवाकिम को यक़ीन नहीं हो रहा था यह सिसिलिया है। उसे यह आवाज़ दूर किसी अँधेरी खोह से आती हुई लग रही थी।

“फिर हमें पकड़ा क्यों?” जोवाकिम ने पूछा।

“यह तब पता चलेगा, जब किसने पकड़ा है इसका पता चले।”

“मतलब?”

“मतलब ये एमसीसी के लोग नहीं लग रहे।” सिसिलिया ने कहा।

“क्यों?”

“एमसीसी के लोग नहीं पकड़ेंगे। उनको तो ख़ुशी थी कि उनके लीडर के नाम का कोई और भी है। दो जोवाकिम लिंडा होने से थोड़ा भरम बना हुआ था।”

जोवाकिम अचरज से भर गया। इसका मतलब सिसिलिया उसके बारे में पहले से जानती थी। उसे पता था वह कौन है। उसका इंटरव्यू, उसका चर्च में छिपना, कमांडर जोवाकिम लिंडा के मारे जाने पर घर लौटना, उसे सब पता है। सिसिलिया के मुँह से अपना नाम सुन उसे मीठी गुदगुदी हुई। इस मुसीबत की घड़ी में भी उससे अपने बारे में सुनना उसे भला लग रहा था। उसने अनुमान के स्वर में कहा, “लेकिन हो सकता है, एमसीसी वाले मुझसे गुस्सा हों। क्योंकि मेरे कारण उनका अगुआ मारा गया।”

“तुम्हारे कारण कैसे? तुम्हारी फोटो एक धोखे की तरह थी। पुलिस तुम्हारा फोटो लेकर जोवाकिम लिंडा को खोजती फिरती थी।”

सिसिलिया कुछ क्षण के लिए रुकी फिर अपनी ही बात काटती हुई बोली, “लेकिन हो सकता है ये एमसीसी वाले ही हों। एमसीसी ने अब तक नहीं माना है कि मुठभेड़ में मरने वाला आदमी उनका लीडर जोवाकिम लिंडा था। उन्हें तुम्हारे बारे में पता था। तो हो सकता है ये तुम्हें दुनिया के आगे कर दें कि असली जोवाकिम लिंडा, उनका लीडर अभी ज़िन्दा है। पुलिस पर बढ़त लेने के लिए ये लोग ऐसा करते हैं।”

यह सुन कर जोवाकिम की मानों साँसें रुक गयीं। देर तक दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला।

“मगर इनकी संख्या देख नहीं लगता ये एमसीसी के लोग हैं। इतने कम जन जेकेपी में ही हो सकते हैं।” सिसिलिया ने जैसे ख़ुद से कहा।

“झारखंड क्रांति दल?” जोवाकिम ने पूछा। उसे याद आया, एक बार आधी रात उसके गाँव के पास से जेकेपी का दस्ता गुज़रा था। वो किसी को ढूँढ रहे थे। वो दर्जन भर लोग थे। उन्होंने बीच रात पाहन को जगाया था और खाना बनवाया था।

“हाँ. एमसीसी और झारखंड क्रांति दल में कट्टर दुश्मनी है। इसके कुछ जन पहले एमसीसी में थे। पैसों में गड़बड़ी करने के बाद वहाँ से बंदूक चुरा कर भाग गये और कमाई की फ़िराक में लगे जंगल के नये लड़कों को लेकर नया दल जेकेपी बना लिया। जेकेपी वालों को केवल रुपया कमाने से मतलब है। इनको शहर में घर बनवाना है और गाड़ी ख़रीदनी है। पुलिस की तरह अगर इन्हें भी दो जोवाकिम के बीच का भरम हुआ, तब हमारा बचना मुश्किल है।” सिसिलिया ठंडे स्वर में बोली।

रास्ते भर चुपचाप चली आ रही सिसिलिया के मुँह से अचानक ऐसी बातें सुन जोवाकिम चकित था, “तुम्हें यह सब कैसे पता?”

सिसिलिया की तरफ से कोई आवाज़ नहीं आयी। जोवाकिम ने अपना सवाल दोहराया।

“कोरई पहाड़ के उस तरफ वाला जोवाकिम लिंडा मेरे दूर के रिश्ते का मामा था। उसे चेहरे से कोई नहीं जानता था। साल-दो साल में अपने लोगों के साथ जब वह उधर से गुजरता तो हमारे घर आता था। वह मुझे सिसो बुलाता था। मेरे लिए गुड़ में पगे मीठे लक्ठो लाता था। दल के कुछ लोगों के खाने की ज़िम्मेदारी हमारे घर पर भी होती। जब वह आता, माँ के साथ बैठ कर ख़ूब बतियाता। माँ उसकी फुफेरी बहन थी। सीधे रिश्ते में नहीं। माँ के फुआ घर के पड़ोस में इसका घर था। माँ बचपन में इसके साथ बकरियाँ लेकर जंगल जाती थी। कुछ साल पहले उसने बाबा को तुम्हारे बारे में बताया था कि एक अच्छा लड़का है कोरई में। सिसो को उस लड़के बारे में बताना।” सिसिलिया की आवाज़ भर्रा गयी थी।

जोवाकिम को अभी सबसे ज़्यादा अफ़सोस सिसिलिया को नहीं देख पाने का हो रहा था। उसने अनुमान से सिसिलिया के कंधे पर हाथ रखना चाहा। चाहा कि उसे गले लगा ले पर बँधे हाथों अँधेरे में असफल रहा। उसने तय किया, वह बाहर बैठे लोगों को सारी बातें बताने की कोशिश करेगा। चाहे वे समझें या नहीं। वह यूँ ही नहीं मरना चाहता था। 

वह अचानक उठा और झोपड़ी का दरवाज़ा खटखटाने लगा। दरवाज़े पर हुई इस बदहवास दस्तक से सचेत एक आदमी तेजी से उसकी तरफ आया और दरवाज़ा खोल ताबड़तोड़ उसके कंधे और पेट पर बंदूक के कुंदे से मारने लगा। जोवाकिम नीचे गिर गया। वह गिड़गिड़ाता हुआ बोला, उनसे गड़बड़ी हुई है। वह कोरई पहाड़ के इस तरफ वाला जोवाकिम लिंडा है। उस तरफ वाला नहीं, जिसके बारे में वो सोच रहे हैं। वह तो मर चुका है।

उसकी आवाज़ सुन कर बाहर खड़े बाक़ी लोग भी आ गये थे। लीडर जान पड़ रहे व्यक्ति ने उसके पेट पर एक ज़ोर का घूँसा मारा और भीतर की ओर धकेल दिया। साथ ही एक आदमी को दरवाज़े पर निगरानी के लिए खड़ा कर दिया।

 बाहर उनके बीच कुछ बहस हो रही थी। सिसिलिया उन्हें सुनने की कोशिश में झोपड़ी की दीवार से सट कर बैठ गयी। 

क़रीब एक घंटा गुजर गया था। चिड़ियों के शोर से लग रहा था, कुछ देर में शाम होने वाली है। जोवाकिम ने देखा, दो जन धड़ाक से भीतर आये। उन्होंने सिसिलिया को उठाया और बाहर की ओर लेकर चल पड़े। वे उसे तक़रीबन घसीट रहे थे। अचानक उसके पैरों में जाने कहाँ से लोमड़ियों-सी फुर्ती आ गयी और वह उन पर कूद पड़ा। उसने बँधे हाथों से ही अपनी बाहें फँसा कर एक झटके में एक की गर्दन तोड़ दी। वह इससे दोगुनी फुर्ती से उठा और उसकी पिस्तौल उठा कर जवाबी हमले के लिए लपके बाक़ी लोगों पर ताबड़तोड़ गोलियाँ चला दी। सब कुछ  इतनी जल्दी और चपलता से हुआ कि किसी को संभलने का मौक़ा नहीं मिला। जोवाकिम ने सिसिलिया और सिसिलिया ने जोवाकिम के बँधे हाथ खोले और दोनों अंधाधुंध दौड़ने लगे।

“ये जेकेपी के लोग हैं। कुछ जन हमारी ख़बर देने पुलिस कैम्प गये हैं।” सिसिलिया जोवाकिम को झकझोर कर जगा रही थी।

थकान से चूर जोवाकिम की जाने कब आँख लग गयी थी। वह सिसिलिया की फुसफुसाहट से जागा और पुलिस की बात सुन कर हड़बड़ा गया, “पुलिस कैम्प क्यों?”

“जेकेपी वालों को पुलिस की शह मिली हुई है। पुलिस सोचती है, एमसीसी और जेकेपी आपस में लड़ते रहें। अंत में जो बचेगा उससे वो आसानी से निपट लेंगे। जेकेपी वाले हमें पुलिस को देकर उनका बड़ाई बटोरना चाहते हैं।“

“हम लोग पुलिस को सब कुछ सच-सच बता देंगे।”

“पुलिस सब समझने के बावज़ूद हमें नहीं छोड़ेगी। हमें मार कर वो निश्चिन्त होना चाहेगी कि दोनों में से जो भी असली हो, जोवाकिम लिंडा की कहानी ख़त्म हो।”

नींद की खोह से वापस लौटे जोवाकिम की चेतना पूरी तरह लौटी नहीं थी। पुलिस के आने की ख़बर से वह चार साल पहले की तरह घबराया हुआ था। उसे समझ में नहीं आ रहा था, बचने के लिए क्या किया जाए। वह ख़ुद को कोस रहा था, नदी के पास वाले गाँव में उसे अपना नाम एरिक लिंडा बताना चाहिए था। इस बीच सिसिलिया उठी और दरवाज़े पर खड़ी होकर धीरे से आवाज़ लगायी, “प्यास लगी है।”

दरवाज़े पर खड़े आदमी ने बाहर से एक पुरानी पिचकी हुई बोतल में पानी बढ़ाया, जो आधे से भी कम बचा था। सिसिलिया बोली, “हमारे झोले में कुछ है। हमलोग वही पी लेंगे।”

“क्या है?” उसने चिढ़ कर पूछा। सिसिलिया चुप रही।

उसने झुँझलाहट में डपट कर पूछा, “क्या है?”

“दादी का चुआया हुआ मसाला महुआ।” सिसिलिया डरते हुए बोली। “सुबह से चलते हुए पैरों में दर्द है। उससे थोड़ा आराम मिलेगा।” उसकी आवाज़ में सचुमच की थकान और पीड़ा थी।

उस आदमी ने एक झटके से दरवाज़ा खोला। गाली देता हुआ चिल्लाया और वापिस दरवाज़ा बंद कर दिया।

सिसिलिया वापिस आकर धप्प से निराश बैठ गयी।

दरवाज़े पर सिसिलिया और उस आदमी के बीच हुई बातचीत को बाक़ियों ने भी सुना। उनमें से एक उठा और झोपड़ी के बाँस से झूल रहे झोले को उतार लाया। हालाँकि उन्होंने झोले को शुरू में ही खंगाल लिया था। उसमें रखे सारे लड्डू खा लिए थे और भूजा और चना बाद के लिए छोड़ दिया था। उनकी नज़र कपड़ों के साथ दोनों बोतलों पर भी पड़ी थी लेकिन पानी जान कर उसे छोड़ दिया था। पर अब बोतलों का रहस्य जानने के बाद उनके लीडर ने उसे खोल कर सूँघा। उसके चेहरे पर आयी प्रफुल्लता देख समझा जा सकता था, उसे क्या मिल गया था।

काम ख़त्म होने के बाद या अभी पिया जाये की दो मिनट की एक कमज़ोर-सी बहस के बाद पाँचों ने पीना शुरू कर दिया। वो चहक रहे थे कि इसका स्वाद जीवन में अब तक पिये गये महुए के स्वाद से अलग है।

                                                        7.

शाम हो गयी थी। सियारों के बोलने की आवाज़ें झोपड़ी के पीछे कहीं से आ रही थी। सिसिलिया उठी और दरवाज़े पर पैर से ज़ोर का एक धक्का दिया। दरवाज़ा झूल गया। उसने पीछे मुड़ कर जोवाकिम की ओर इशारा किया। जोवाकिम हक्का-बक्का। वह दौड़ कर बाहर निकला। देखा, पाँचों वहीं बेसुध गिरे पड़े हैं। सबकी साँसें बंद। उसने चकित होकर सिसिलिया को देखा, जिसने गमछे को जाने कैसे ढीला कर अपने हाथ खोल लिये थे और झोला और अपना पर्स उठा रही थी। जोवाकिम ने अपने हाथ सिसिलिया की तरफ बढ़ाये। सिसिलिया ने गाँठों को इतनी तेज़ी से खोला जैसे उसने ही बाँधा हो।

अगले तीन मिनटों में वे भाग रहे थे। अँधेरे के मारे रास्ता नहीं सूझ रहा था। बावज़ूद वे भाग रहे थे। वे धौंकनी में बदल गये फेफड़ों की परवाह किये बिना भाग रहे थे। भागते हुए डर रहे थे, कहीं इसी रास्ते पुलिस न मिल जाये। भय और पसीने से तर, जब उन्हें लगा, वे भागते हुए गिर कर मर जायेंगे, दोनों रुक गये और साँसों को तरतीब करने लगे।

इस ओर छिटपुट और ठिगने पेड़ थे। आसमान में चाँद इतना था कि जोवाकिम सिसिलिया को देख सकता था। उसने एकबारगी भरपूर नज़र सिसिलिया पर डाली और जाने कैसे हाँफता हुआ ही आँसुओं से भर गया। पता नहीं उन आँसुओं में भय था या आशंका या मृत्यु के मुहाने से बच निकलने की ख़ुशी कि वह रोने लगा। सिसिलिया पिता के बाद जीवन में दूसरी बार किसी पुरुष को रोते देख रही थी। उसने आगे बढ़ कर जोवाकिम को गले लगा लिया और बोली, “सब ठीक हो जायेगा।”

जोवाकिम उसकी छाती में धँसा हुआ था। जब वह सामान्य हुआ, उससे छूटते हुए नकली उलाहने वाले लहज़े में पूछा, “सुबह से रास्ते भर तुम चुप क्यों रही? बात भी नहीं किया?”

“दोपहर तक हँड़िया के नशे में थी। सहेलियों ने कहा, पी लो। रास्ते में मज़ा आयेगा।” सिसिलिया हँस रही थी।

“और उन बोतलों में क्या था?” जोवाकिम हँसा।

“घर आना तो दादी से पूछना।” सिसिलिया मुस्कुरायी। “जंगल के बारे में सिर्फ़ तुम्हीं नहीं जानते।”

………………

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