शिवांगी गोयल इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी विषयमें शोध कर रही हैं। वर्तमान में पटना के सूर्यपुरा हाउस में नई धारा ‘साहित्यिक निवास कार्यक्रम’ के अंतर्गत रह रही हैं। आज उनकी कुछ कविताएँ प्रस्तुत हैं। यूँ तो इनमें सामाजिक संरचनाओं व उसकी जटिलताओं पर ध्यान दिलाती कविताएँ भी हैं लेकिन विशेष ध्यानाकर्षित करती हैं उनकी प्रेम कविताएँ। कविता के इतिहास में असंख्य प्रेम कविताएँ लिखी गई हैं और उम्मीद है आगे भी लिखी जाएँगी, ऐसे में यह बड़ी चुनौती होती है कि आख़िर ऐसा क्या हो कि उनमें दोहराव न हो। आज भी हमें ऐसी प्रेम कविताएँ पढ़ने को मिल जाती हैं जिनमें कविगण प्रेमिका के सौंदर्य-वर्णन से आगे निकल ही नहीं पा रहे हैं। शिवांगी इन जटिलताओं को पार करते हुए आज को प्रकट करती हैं। आप भी पढ़ सकते हैं- अनुरंजनी
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1. बॉडी काउन्ट
मेरा प्रेम खून की तरह बहा
जाँघों के बीच से, चादर तकिये भिगोता हुआ
सफ़ेद ज़मीन को लाल करता हुआ
तुम्हारी उँगलियों के बीच से रिसता गया
रात की सबसे सुंदर याद की तरह
तुम्हें प्रेम चाहिए था, देने की काबिलियत से कोसों दूर
मुझे प्रेम देना आता था – नदी की तरह, मैं प्रेम देती गई
खून की तरह, मैंने जाने कितने यूनिट प्रेम दिया
तुम्हारा नाम उसके नाम से इतना अलग क्यों है
तुम तो बिल्कुल उसके जैसे हो
मैंने तुम दोनों को चाहा, तुम दोनों ने मेरे शरीर को
मेरे प्रेम का बहता ज़रिया बस मेरा बदन ही तो बना
क्या नया हुआ?
मेरा प्रेम फिर खून की तरह बहा
कितना डरावना है एक इंसान के लिए
‘बॉडी काउन्ट’ में तब्दील हो जाना
उसकी सारी छुअन, सारी स्मृतियों, संसर्गों का
एक गिनती में सिमट जाना
तुम्हारे हाथ मेरी योनि से निकले खून से पहली दफ़ा लाल हुए थे
मैंने तुम्हारे हाथ आश्चर्य से छुए थे, खुद को महसूस किया था
और तुमने मुझे एक गिनती में समेटकर कहा
“मेरा बॉडी काउन्ट अब सात हो गया”
मेरा प्रेम फिर खून की तरह बहा
2. मैं तुम्हें धोखा दे रहा हूँ
तुमसे दूर जाने के बाद
तुम्हारा साथ महसूस करने के लिए
मैंने पढ़ीं तुम्हारी भेजी कविताएँ
सुने तुम्हारे वक्तव्य
चुरा ली तुम्हारी पहनी हुई शर्ट
तुम्हें महकने दिया अपने भीतर, अपनी स्मृति में
दुहराईं तुम्हारी पंक्तियाँ
याद किया तुम्हारे हाथ का बना दाल-भात
और उसमें ऊपर से छिड़का अतिरिक्त नमक
जो बिना शिकायत खाती रही क्योंकि उसका स्वाद था तुम्हारी देह का स्वाद
याद करने के क्रम में अचानक याद आता है
तुम्हारा अकुलाहट के एक लम्हे में कहना
“मैं आपको धोखा दे रहा हूँ”
मेरा जवाब – “मुझे पता है”
मैं मुस्कुराती हूँ
मुझे पता है, तुम्हारी आँखें बता देती हैं
तुममें साहस नहीं है मुझे बता पाने का
मैं तुम्हारी स्मृति का दशांश भी नहीं बचती
तुमसे दूर जाने के बाद
3. दुआरे की देवी
जिस दुआरे पर दुर्गा माता की तस्वीर टँगी थी,
बजरंग-बली की मूर्ति लटकी थी
जिसके सहारे अम्मा निश्चिंत सो जाया करतीं
उसी दुआरे से सारे दुख आए
उसी दुआरे से बाबा की पार्थिव देह आई
उसी दुआरे से वो सभी शुभचिंतक रिश्तेदार आए
जिन्होंने अम्मा के दुख का जश्न मनाया
जिन्होंने चीख-चिल्लाकर रोने का ढोंग किया
हर संभव कोशिश की अम्मा के मुँह से दुख के दो बोल सुनने की
अम्मा रोईं तो बस अपने मंदिर की कुलदेवी के आगे
किसी और ने उनका दुख नहीं देखा
दुआरे पर बसी देवी को अम्मा के टूटने पर उतना दुख नहीं हुआ
जितना अम्मा को एक दिन देवी की मूर्ति के कान टूट जाने पर हुआ
उस दिन, दिन भर अम्मा ने खुद को कोसा
देवी ने अम्मा के मंगलसूत्र टूटने पर खुद को कितनी बार कोसा होगा पता नहीं
मेरा मन हुआ कहने का “माँ, मूर्ति के कान टूटे हैं, असली दुर्गा के नहीं”
लेकिन अम्मा को उस मूर्ति में देवी के होने का यकीन सबसे ज़्यादा था
अम्मा दुआरे की देवी को बहुत प्यार करती थी,
दुआरे की देवी भी अम्मा से उतना ही प्यार करती रही हो, शायद!
दुआरे की देवी अम्मा के सारे दुख दुआरे पर ही रोक सकती थी, शायद!
4. बीमारी
ज्वर था या संताप, मुझे नहीं पता
बदन की एक-एक नस दुखती थी
हाथ-पाँव काँपते थे, जाने किस डर से
तुम पहले आदमी तो नहीं थे मुझे छोड़ के जाने वाले
आखिरी भी नहीं होगे, निश्चित है
सुबह सब पूछते रहे कि आवाज़ को क्या हुआ
कैसे बताऊँ कि पराये आदमी के छूटने का ग़म मना रही
ग़म भी इतना कि आधी रात तक छत के कोने ने मेरे आँसुओं का स्वाद चखा
सिगरेट रात से सुबह तक पचास से ऊपर हो चुकी थी
तुम्हारे हाल पूछने पर दो और सुलगा लीं – ठीक तो हूँ मैं
ठीक नहीं क्या?
तुम्हारे सामने आते ही मुश्किल से इकट्ठा किया हुआ बदन
अलग टुकड़ों में फिसलकर काँपने लगा
काश ये मेरा स्वांग होता! अपनी अदाकारी पर पीठ थपथपाती
मैं
अभी मुस्कुराने का असफ़ल प्रयास कर रही हूँ
तुम मेरी कलाई नहीं थामते तो बेहोश होकर गिर जाती
और मेरा बदन काँपता ही रहता
तुम्हारे छूते ही इतनी सहजता कैसे आई?
क्या सचमुच सुधा का इलाज चंदर ही जानता था? हीर का इलाज जॉर्डन?
अब मुझे नींद आ रही है, अब मुझे सुला दो
अब मेरी आँखें तुम्हारी हथेली का स्पर्श पहचानती हैं
तुम हाथ रख दोगे तो बेचैनी में भी सो जाएँगी
मैं बीमार कब हो गई, तुम मेरा इलाज कैसे जान गए?
5. आँधी के बाद
साथी!
हम इतनी भयानक आँधी में साथ थे
और सुब्ह तक बने रहे
जब ये सारे पेड़ अपनी जड़ों समेत
अपनी मिट्टी से बाहर निकल आए, गिर पड़े
ये पत्तियाँ अपनी टहनियों से अलग
ये टहनियाँ अपने चितकबरे तनों से अलग
निकल आईं और गिर पड़ीं
तब तुम और मैं रुके रहे
हम भी तो उजड़ सकते थे गलतफ़हमी की आँधी में
कैसी तो उजाड़ रात थी, कैसी डरावनी भोर
हम बिना आखिरी शब्द कहे अपनी मिट्टी से उखड़ सकते थे
कौन रोकता हमें? कौन रोपता हमें?
पर हमने सुबह का सूरज एक साथ देखा
हम बने रहे
मिट्टी का जड़ों से क्या रिश्ता है
इतना की जड़ें छोड़ती हैं मिट्टी को
तो पूरी तरह नहीं छोड़ पातीं
दोनों एक-दूसरे के हिस्से में थोड़ी बची रह जाती हैं
हमने एक-दूसरे को थोड़ा बचा लिया
हम एक-दूसरे में थोड़ा बने रहे
मैं तुम्हारा घर तो नहीं पर
कभी उड़ान से थक जाओ तो
मेरे पास आ जाना
उस छोटी चिड़िया की तरह जो
आँधी में पेड़ की टहनी पर बैठी रह जाती है
भरोसा करती है
क्या चिड़िया का पेड़ से कोई रिश्ता है
क्या तुम्हारा मुझसे कोई रिश्ता है?
तुम आ जाना साथी, हम बने रहेंगे
अलविदा के बाद भी
6. ईश्वर से
“कुछ भी करना लेकिन इतना संस्कारी,
इतना पितृभक्त कभी मत बनाना
कि किसी दूसरी जात के अपने प्रेमी का गला काटते
अपने पिता को देख कर भी मौन रह जाऊँ!
उसपर उँगली न उठा पाऊँ, उससे नफ़रत ना कर पाऊँ
इतनी आज्ञाकारी बेटी कभी मत बनाना कि
अपने माँ-बाप की अमानवीयता को गलत ना कह पाऊँ
कभी ऐसा हो तो मेरे संस्कार छीन लेना,
मेरे माँ-बाप छीन लेना,
मेरी आवाज़ छीन लेना!”
7. पाप
मेरी खिड़की से दिखता है
उन्मादी भीड़ का पागलपन
भगवा झंडे उठाए, पीले कपड़े पहने
धार्मिक नारे लगाते
गर्व से फूलते जाते
गंगा में डुबकी मार पाप धोने वाले
एक-दूसरे से कुचले जाते लोग
इन्हें डर है –
इनके पड़ोसी से पुण्य कमाने में
ये कहीं पीछे न रह जाएं
इन्होंने उतने पाप भी नहीं किये शायद
जितने धोने के लिए ये अपनी जान
भीड़ के पैरों तले गँवा रहे हैं
8. कविता की क़ीमत
एक कविता की कीमत
एक वक़्त का खाना
एक रात की नींद
एक सुबह की चाय
एक अच्छी बहू का कर्तव्य
हो सकता है एक कविता लिखते हुए मैं
तवे पर रखी रोटी जला दूँ
या आँच पर रखा दूध
पूरा घर भी जल सकता है कभी
कभी मैं खुद भी
अच्छी बीवी नहीं हो पाऊँगी, पहले ही माफ़ कर देना मेरे पति
अच्छी माँ भी नहीं, मेरे बच्चे
अच्छी बेटी भी नहीं, माँ-पापा
मेरे लिखने की कीमत मेरे किसी रिश्ते से बड़ी कीमत है
मैंने चुना है उसे चुकाना
और ये कीमत अच्छी कविता की भी नहीं, बस कविता की है
अच्छी कविताएँ कुछ और कीमतें माँगती होंगी
जिन्हें मैं नहीं जानती;
मैंने अच्छी कविता नहीं लिखी आज तक
9. अनचीन्हे पिता
पिताओं का रंग पक्का ही रहा
दादियाँ बताती रहीं कितने सुकुवार थे वो अपने बचपन में
किसी राजे-रजवाड़े के खानदान सरीखे
इतने नाज़ुक पैर कि छिल-छिल जाते थे ज़मीन पर
ऐसा साफ़ रंग कि रोज़ नज़र लग जाती थी
परीछ के जलाने के लिए लौंग तैयार रखनी पड़ती थी हमेशा
उनकी यादों में पिता एक शैतान बच्चे थे
जो दादियों की पूजा भंग करने राक्षस बन के आते और मिसरी चुरा के भाग जाते
या अपने छोटे भाई पर रौब जमाते, दूध पीने के लिए झगड़े करते
चीनी चुरा के फाँकते चाचा के हाथ में एक मुट्ठी नमक भर देते
या पतंग उड़ाने की डाँट से बचने दादा से डरे छत से कूद जाते
कभी बर्फ़ के गोले से बन्दरों को भगाते
कभी बुआ की एक चोटी काट लेते
हम बच्चों ने देखे ही नहीं ऐसे पिता
हमने देखे चार पैंट-शर्ट का सेट बदल कर पहनने वाले
जिनके पाँव दो जोड़ी चप्पलों में बे-तरह घिसे हुए, खुरदुरे, मिट्टी भरे हैं
हमने जाने गम्भीर, समझदार पिता जिन्हें सही-गलत पता है
जो गलती होने पर गुस्से से मूक हो जाते हैं
जिनकी शरारती मुस्कान एक आश्चर्यजनक घटना है
जिन्हें हमने रजवाड़े के क़रीब कम, गरीबी के क़रीब अधिक पाया
पिताओं की आँख में बचपन की कोई स्मृति नहीं, बस दुख है
ज़िम्मेदारियाँ निभाते थक चुके हैं वो
धूप उनकी त्वचा का एक हिस्सा हो चुकी
उस साफ़ रंग तक पहुँचने नहीं देती जो कभी नज़र लगने का सबब रहा होगा
धूप उनको नज़र लगने से बचाती रही
हम बच्चे देख ही नहीं पाए सुकुवार पिताओं को
दादियों की कहानियों से बाहर
हमने जाना बस पिता का पक्का रंग, स्याह मज़बूत देह
और हमारे लिए रोज़ घिसता, होम होता उनका जीवन
हमें यह तक नहीं पता उनके बचपन की सबसे सुंदर स्मृति क्या है
उनके बचपन के सपने क्या हैं, उनकी आँखों में कितनी नींद है
उनका आज का रक्तचाप क्या है
उनके जीवन के कितने दिन बचे हैं
10. मेरे मामा की हत्या पर
तुम कहते हो शहादत का एक किला है, श्रद्धांजलि देने जाओ
उस किले तक जाने में ढहते हैं मेरे बीसियों सम्बन्ध
कब्र से बाहर आ कफ़न हाथ में लिए खड़े हो जाते हैं मेरे पुरखे
दुहाई देने लगते हैं उन तमाम हत्याओं की
जो हमारे परिवार को काटते गए
नस्लें सवाल करती हैं – परिवार से प्रेम है कि नहीं?
जिन लाशों की खेप तेज़ाब से गल गई या भट्ठी में सिंक गई
उनका भी तो कोई हिसाब होगा !
अम्मा रोयी थी उस रात, सीने से दुबकाकर सोई थी हमें
(उसे वो रात याद आई होगी जब मैं कोख में थी और सिवान जिले के अँधेरे में
उसके सिर पर बन्दूक तानी गई थी, बाऊजी के मुँह पर टॉर्च मारी गई
और सबको ज़िंदा छोड़ दिया गया था डर में जीने के लिए)
खून, आग, हत्या – शब्दों की गोलियाँ कानों तक आती रहीं भोर तक
मृत्यु कहती है सब खत्म हुआ, पर हुआ क्या?
सिवान पहले राष्ट्रपति के नाम से नहीं जाना जाता अब
कॉमरेड चन्दू चंद्रशेखर के नाम से भी नहीं
उसके नाम से जाना जाता है जिसने मेरे मामा की हत्या की है
मैं अपने नाना के मरने के बाद एक ओटीटी की बनाई घटिया वेब सीरीज़ में
कहानी और सच की हत्या होते देख रही हूँ
सच अखबारों में दफ़्न कहानी की शक़्ल ले चुका है
कहानी का शीर्षक है – “सिवान का तेज़ाब हत्याकांड”
: शिवांगी गोयल का जन्म बिहार के सिवान जिले में 13 जुलाई, 1997 को हुआ था। वर्तमान में वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में शोध कर रही हैं। शिवांगी गोरखपुर विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में स्वर्ण-पदक धारक भी रह चुकी हैं। वह कविताएँ लिखने में विशेष रुचि रखती हैं; साथ ही उनकी कुछ रचनाएँ विभिन्न अखबारों में, कविता कोश, पोषम पा, हिन्दीनामा, हिन्दी पंक्तियाँ इत्यादि वेब पेज पर ऑनलाइन भी प्रकाशित हो चुकी हैं। शिवांगी ने हिन्दीनामा (फ़ेसबुक पेज) के लिए बतौर संपादक (2017-2019 तक) काम किया है।