पंकज दुबे उन लेखकों में हैं जिन्होंने दो भाषाओं में लिखना शुरू किया। जिस जमाने में जब विनर की कहानियाँ लिख रहे थे उन्होंने ‘लूज़र कहीं का’ का लिखा, उसके बाद उन्होंने हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में कुछ और उपन्यास लिखे और जिनको पाठकों का प्यार भी मिला। उनका नया उपन्यास इस बार पहले हिन्दी में आया है- इश्क़ बाक़ी। पेंगुइन स्वदेश से प्रकाशित इस उपन्यास का एक अंश पढ़िए-
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उसके आँसुओं ने अख़बार को गीला कर दिया। शिवम उस समय उनके साथ नहीं था, जब उन्हें उसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी। माँ ने उससे बार-बार कहा था कि बाबू जी को मंदिर में उसकी ज़रूरत है। उसने उन्हें कभी गंभीरता से नहीं लिया और हर बार यही कहता रहा कि वो पुजारी नहीं बनना चाहता है। बाबू जी महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। शिवम यह समझने में असफल रहा था कि कॉलेज छोड़कर दर्ज़ी बनने की ट्रेनिंग ले रहा वो लड़का कैसे उनकी मदद कर सकता था। महंत जी के बड़े लोगों के साथ संबंधों और मंदिर के साथ ही विवादित स्थल के चारों ओर बढ़े हुए सुरक्षा घेरे को देखते हुए उसने कभी भी महंत जी को परेशानी में फँसा हुआ नहीं माना था। यहाँ तक कि इतने बिगड़े हुए माहौल में भी नहीं। लेकिन वे उन्हीं के लिए आए थे। जैसे ही उपद्रवियों ने दीवार फाँदी और उस पुराने ढाँचे पर अपनी कुल्हाड़ियों, हथौड़ों, डंडों और फावड़ों से हमला किया, ढाँचे के रक्षक चिल्लाते हुए आ गए, उनका ख़ून खौल रहा था। इस बीच जब किसी ने माथे पर सिंदूर लगाए हुए प्रसिद्ध मंदिर के मुख्य पुजारी की तरफ़ इशारा किया, तो भीड़ पागल हो उठी और भीड़ ने उन्हें और उनके परिवार को इसका भुगतान करने के लिए चुन लिया था… अपनी ज़िंदगी देकर भुगतान। ये सब तब हुआ जब वह अपने काम पर था और अपनी लड़की के ख्यालों में डूबा हुआ था… और जिसे, उसने खो भी दिया था।
हालाँकि वो उनके पास दौड़ता हुआ आया था, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। उसे हमले के बारे में बहुत देर से पता चला था।
उसके आँसू अब थमने का नाम नहीं ले रहे थे।
उसके पास जो कुछ भी बचा हुआ था, वो उस काले बुर्के का जला हुआ टुकड़ा था। बबलू अपने दोस्त को उस जगह पर ले गया था, जहाँ फ़ारुक़ी परिवार को कार में ज़िंदा जला दिया गया था। ‘भैया, मैं कभी ऐसा नहीं करना चाहता था। लेकिन… लेकिन,’ वो बड़बड़ाया। ‘लेकिन मुझे लगा कि आपके लिए ये सब ख़त्म नहीं होगा भैया, जब तक आप यहाँ खड़े नहीं होंगे… और अपनी नज़रों से इस कालेपन को नहीं देखेंगे।’
वो कितना सही था। शिवम ने बुर्के का जला हुआ टुकड़ा उठाया- जार्जेट के कपड़े और उसकी डिज़ाइन से वह जान गया था कि ये उसी का है। उसने विशेष तौर पर यह सुबह पहना था, शायद उसी के लिए। उसने उस कपड़े के टुकड़े को अपने चेहरे पर रगड़ा, वो उसे आख़िरी बार महसूस करना चाहता था। आईना जा चुकी थी, ठीक तभी जब वह उसे पहली बार अपना चेहरा दिखाने वाली थी। वो घुटनों के बल सड़क पर बैठ गया और रो पड़ा। उसके चारों ओर पड़े हुए पत्थर के टुकड़े उसके साथ रो रहे थे। पत्थर, अब उसकी ज़िंदगी बिल्कुल ऐसी ही हो गई थी। सबसे पहले माँ और बाबू जी… और अब आईना। हर वो शख़्स जो उसके लिए मायने रखता था, जा चुका था। अयोध्या से बस में अपने साथ अगर कुछ ले जाने के लिए बचा था तो वो थी उसकी माँ की सिलाई मशीन। और यादें… वो चाहता था कि उन यादों को भी पीछे छोड़ दे… लेकिन वो हमेशा उसके पीछे आती रहीं, जैसे दो दिन बाद बबलू आया।
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