कुछ दिन पहले सुमन केशरी की कविताओं के संकलन ‘मोनालिसा की आँखें’ का विमोचन हुआ. सुमन जी शब्दों को इतनी आत्मीयता के साथ स्पर्श करती हैं कि उनके अर्थ नए हो जाते हैं, चीजों को देखने के ढंग बदल जाते हैं. हमारी जानी-पहचानी चीजों को भी उनकी कविता नया बना देती है. उसी संग्रह से कुछ चुनी हुई कवितायेँ- जानकी पुल.
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उसके मन में उतरना..
उसके मन में उतरना
मानो कुएँ में उतरना था
सीलन भरी
अंधेरी सुरंग में
उसने बड़े निर्विकार ढंग से
अंग से वस्त्र हटा
सलाखों के दाग दिखाए
वैसे ही जैसे कोई
किसी अजनान चित्रकार के
चित्र दिखाता है
बयान करते हुए-
एक दिन दाल में नमक डालना भूल गई
उस दिन के निशान ये हैं
एक बार बिना बताए मायके चली गई
माँ की बड़ी याद आ रही थी
उस दिन के निशान ये वाले हैं
ऐसे कई निशान थे
शरीर के इस या उस हिस्से में
सब निशान दिखा
वो यूँ मुस्कुराई
जैसे उसने तमगे दिखाए हो
किसी की हार के…
स्तब्ध देख
उसने मुझे होले से छुआ..
जानती हो ?
बेबस की जीत
आँख की कोर में बने बाँध में होती है
बाँध टूटा नहीं कि बेबस हारा
आँसुओं के नमक में सिंझा कर
मैंने यह मुस्कान पकाई है
तब मैंने जाना कि
उसके मन में
उतरना
माने कुएँ में उतरना था
सीलन भरे
अंधेरे सुरंग में
जिसके तल में
मीठा जल भरा था…
मोनालिसा
क्या था उस दृष्टि में
उस मुस्कान में कि मन बंध कर रह गया
वह जो बूंद छिपी थी
आँख की कोर में
उसी में तिर कर
जा पहुँची थी
मन की अतल गहराइयों में
जहाँ एक आत्मा हतप्रभ थी
प्रलोभन से
पीड़ा से
ईर्ष्या से
द्वन्द्व से…
वह जो नामालूम सी
जरा सी तिर्यक
मुस्कान देखते हो न
मोनालिसा के चेहरे पर
वह एक कहानी है
औरत को मिथक में बदले जाने की
कहानी….
मोनालिसा
लियोनार्दो
जब तुम सिरज रहे थे
मोनालिसा को
तो कैसा दर्द हुआ था
पीड़ा की कैसी लहर दौड़ी थी
शिराओं में
त्रास से कैसे शिथिल हुआ था
तन मन तुम्हारा?
पर
कूची की पहली छुअन के साथ
कैसे सिहरा था तुम्हारा तन
मन कैसे कैसे डूबा उतराया था
अनंत के जलाशय में
और कैसे छलका था अमृत कुंड
तुम्हारे अंतर्मन में
अंतर्तल में
उन्हीं बूंदों से तुमने
फिर उकेरी थीं
वे पीड़ा
दर्द
और असमंजस मुस्कान…
मोनालिसा
कितनी वीरान आँखें हैं तुम्हारी
मोनालिसा
जाने क्या खोजतीं देखतीं
जीवन का कोई छोर
या
अधूरी कथा कोई
सूत जिसके उलझे पड़े हैं
यहाँ से वहाँ तक
न जाने कहाँ तक..
मोनालिसा की आँखें
आज देख रही हूँ
मोनालिसा….
जब वहाँ थी तो जाने कहाँ थी
ठंड में
चिड़चिड़ाहट में
पाँवों की सूजन में
अगली सुबह की तैयारियों में…
न जाने कहाँ थी, जब मैं वहाँ थी
आज खड़ी हूँ सागर को पीठ दिए
गंडोला निहारती
घरों की दीवारें हाथों के दायरे में लिए
और अब
वेनिस के विशाल चर्च के प्राँगण में
खड़ी हूँ
जन-सागर में अकेली
मोनालिसा की वीरान आँखें
न जाने क्या खोजतीं
लगातार पिछुआ रही हैं
मुस्काती
आखिर उसी का अंश ही तो हूँ मैं भी
यहाँ से वहाँ तक निगाहों से पृथ्वी नापती
मुझे देखती हैं
मोनालिसा की आँखें..
बा..
मैं देख रही हूँ
उस तारेको अस्त होते-सा
जिसे पहली बार मैंने देखा था
आकाश गर्भ में
या किमहसूसा था
अमृतझरने सा
अपनेकुंड में….
सुनो जी
तुम तो भूलतेजा रहे हो
कि तुम्हारा बेटाहोने के अलावा
वह अपने में पूरा आदमी
एक इंसान
कई कई इच्छाएंऔर आाकांक्षाएँ लिए हुए
सपनोंको बुनते
और उन्हें जीतेहुए
सुनोजी
वह केवल तुम्हारा बेटा ही नहीं है
मेराभी वह कुछ होगा
सुनोतो
कुछ उसकी भी सुनो तो…
न.. न…मैं यह नहीं कह रही कि
जैसे सब चलते हैं
वैसे ही तुम भी चलो
पर जीवन का अपना भी कोई लय है
कोई सुर ताल…
सबके जीवन में
जरा-सा रुको
कुछ तो झुको
जीवन मुरझाया जाता है
अपने ही तारे को अस्त होते देखा
मरने जैसा है धीरे …धीरे…
सुनो जी…कुछ मेरी भी….सुनो…
कोई नहीं जानता..
कोई नहीं जानता कब कौन सा बीज
पनपेगा गर्भ में जीवन बन कर
नौ मास तक दिन गिनती है माँ
और बाट जोहते हैं
परिजन पुरजन
अपने होने को जताता है बच्चा
पल पल
फिर ऊँआ…ऊँआ करता
नव आगत
अपने आ पहुँचने की उद् घोषणा करता है
पर क्या वह जानता है
कि प्रेम-हिंसा, सुंदर-असुन्दर, राग विराग से भरे
जीवन से कब उसे वापस चले जाना है?
आज भोर
कान में फुसफसा कर
तथागत ने पूछा
नव आगत की की उद्घोषणा में
तुमने ऊँ की मूल ध्वनि
और
आह का प्रथमाक्षर सुना न माँ?
मैं बचा लेना चाहती हूँ
मैं बचा लेना चाहती हूँ
जमीन का एक टुकड़ा
खालिस मिट्टी और
नीचे दबे धरोहरों के साथ
उसमें शायद बची रह जाएगी
बारिश की बूंदों की नमी
धूप की गरमाहट
30 Comments
भाव प्रवण, बहुत सुन्दर
बहुत बहुत शुक्रिया
वंदना, रचना का निवास अंततः वहीं होता है…बहुत बहुत शुक्रिया
शुक्रिया गीता…
स्त्री मजबूती का दूसरा नाम है…कलावंती जी
राम जी को शुक्रिया…किताब मिली…कैसी लगी
बहुत सुन्दर कवितायें ….
बहुतप्रस्तुति …
संवेदनशील कवितायें दिल में घर बनाती हैं यही एक लेखक के लेखक की सफ़ल पहचान होती है।
संग्रह के लियें और अच्छी कविताओं के लियें सुमन दी को बधाई..
बांध टूटा नहीं कि बेबस हारा….
शुक्रिया….कविता और है क्या इसके सिवा
ऐसे पाठ के लिए शुक्रिया
शुक्रिया लीना
सरिता आपकी बात से लगा कि ये कविताएं सार्थक पहल की कविताएँ हैं…
सुमन केशरी
yahi panktiyan mujhe bhi sabse achchhi lagin.
monalisa ki muskan si kavitayen. stri man aur jeevan ki mukhbiri karti kavitayen.uski kamjori ko takat me badlati kavitayen hain ye.
Suman di ko sangrah ke liye badhai..achchi hain kavitaen.
यह मेरा सौभाग्य है , कि मैंने सुमन जी को कविता पाठ करते हुए सुना है | संवेदनशीलता उनकी कविताओं की सबसे बड़ी ताकत है , और वह अद्भुत है | उन्हें हमारी बधाई | जल्दी ही किताब हासिल करने की कोशिश करता हूँ |
मंगलवार 04/06/2013 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं ….
आपके सुझावों का स्वागत है ….
धन्यवाद !!
बेबस की जीत
आँख की कोर में बने बाँध में होती है
पर क्या वह जानता है
कि प्रेम-हिंसा, सुंदर-असुन्दर, राग विराग से भरे
जीवन से कब उसे वापस चले जाना है?
jiwan ke aaspass jo shabd aur marm bikhra hai.. usk sajiv chitran….
बेहद अच्छी सरल और तरल प्रस्तुति आभार ।
suman ji ki kvitayen gahre arth liye seedha dil se samvaad sthapit kar leti hain.. bahut sundar kvitayen.
सुमनजी को पहली बार पढ़ा.निस्संदेह उनकी सभी कवितायेँ पठनीय और सार्थक हैं.मोनालिसा की रहस्यमय मुस्कान और औरत के मन की उथल पुथल को गहराई से व्यक्त करती कवितायेँ. इनका भावपक्ष प्रबल है और सहज प्रवाह से आगे बढती हैं.
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