पेंगुइन स्वदेश से किताब आई है ‘अग्निकाल; सल्तनतकालीन सिपहसालार मलिक काफ़ूर की कहानी’। युगल जोशी की इस किताब का एक अंश पढ़िए-
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माणिक की आँखों में आँसू और अंगारे दोनों ही थे। पर अब खोने को क्या बाकी था? ‘इतना ही वीर पुरुष है तो हाथ खोल दे मेरे, फिर दो-दो हाथ कर।’ कहते हुए माणिक ने ठाकुर पर थूक दिया।
‘बनिए और सुनारों में इतना घमंड देखा नहीं कभी। क्यों गुरुजी?’ ठाकुर ने अपने बाएँ खड़े एक व्यक्ति से कहा।
‘गरब तो ब्राह्मण देव रावण का भी नहीं रहा हुकुम। ठाकुरों की हस्ती के सामने कौन टिका है।’ कहते हुए एक पावैया यानि हिजड़ा सामने आया।
‘इतनी सी बात के लिए इन दोनों ने इतना ख़ून-ख़राबा कराया। आज तक किसी जनाना की हिम्मत नहीं हुई, किसी राणा को ना कर दे। और ये छोटी जात के लोग, ये तो अपनी औरतों का पहला भोग हमसे लगवा लें इसकी अरदास करते रहते हैं। इनकी दस पुश्तें धन्य हो जातीं हैं अगर हमारा बीज इनकी औरत में ठहर जाए।’
‘सही है हुकुम, सही है।’
‘तो इसकी इतनी हिम्मत कैसे हो गई! राणा का ख़ौफ़ नहीं रहा। मेरे तीन आदमी मरे, औरत ने मुझे बेइज़्ज़त किया। मुझे कटार मारी। और इस बनिए ने तो मर्जाद ही मिटा दी। इसकी सज़ा तो मिलेगी। और ऐसी मिलेगी कि राजपूती मर्जाद की लक्ष्मण रेखा लाँघने की हिम्मत कोई नहीं करेगा।’
माणिक की समझ में नहीं आ रहा था कि ठाकुर की मंशा क्या है। जीवन का मोह अब रह नहीं गया था। थोड़ी देर पहले ठाकुर उसे गुलाम बना कर बेचने की बात कर रहा था, पर अब?
‘बनिया अगर राणा को अपनी मरदानगी दिखाया है तो अब जीवन भर उसका फल भी भुगतेगा।’ भीकमजी क़हर भरी नज़र से माणिक को देखता हुआ फिर पावैया की ओर मुड़ा।
‘गुरुजी, इसको अपनी बिरादरी में ले लो। इसका निर्वाण करा दो। यह काम आज ही हो जाए। और जब इसका घाव भर जाए, इसे खम्भात के गुलामों के बाज़ार में बेच देना।’
निर्वाण
चार हिजड़े और गुरुजी माणिक को ले चले। पीछे-पीछे ठाकुर के दो सैनिक चल रहे थे। माणिक के हाथ उसकी पीठ पर कस कर बँधे थे। उसके सब कपड़े उतार दिए गए थे सिवाय एक लंगोट के।
महज एक दिन में क्या से क्या हो गया था! उसके जीवन के बसंती सपनों की राजकुमारी ही अब नहीं रही थी। लोहारू, जो उसे और काजल को सुरक्षित अनहिलवाड़़ा पहुँचाने के संकल्प के साथ आया था, वीरगति को प्राप्त हुआ था। माणिक का ध्यान बरबस अपने और काजल के माता-पिता की ओर चला गया। क्या सोच रहे होंगे वह लोग? शंकर भाई तो अपनी बेटी को कोस रहे होंगे, गालियाँ दे रहे होंगे; इस बात से कतई अनजान कि उनकी वह दिलेर बेटी अब इस लोक में रही ही नहीं। और जब तक उड़ते-उड़ाते यह बात सोमनाथ पहुँचेगी, तब तक केशु भाई का होनहार पुत्र माणिक भी क्लीव और दास हो चुका होगा।
‘क्रीत दास, एक क्लीव क्रीत गुलाम, ओह! यही नियति है मेरी।’ माणिक ने सोचा। ‘कितनी हैरान करने वाली बात है न? आदमी को तनिक भी आभास नहीं होने पाता कि अगले क्षण क्या होने वाला है।’
एक दिन पहले वह अनहिलवाड़ में एक उज्ज्वल भविष्य के सपने देख रहा था। कितने बरस लगेंगे, नगरसेठ बनने में? राजा के दरबार में उसकी चौकी कहाँ पर होगी? राजा से वार्तालाप। देश-विदेश के व्यापार को बढ़ाने पर चर्चाएँ। सार्थवाह, राजमार्गों, बड़े समुद्री बेड़ों और अभियानों के बारे में राजा उसकी राय ले रहा था। सब कुछ तो इतनी गहनता से सोचा गया था। पक्की योजना थी। पर क्या हो गया!
उसका मन ठाकुर भीकमजी के प्रति एक ज़हरीली घृणा से भर उठा। उसके जबड़े भिंच गए और आँखें लाल हो गईं।
‘क्रोध, वह भी मजबूर आदमी का क्रोध, व्यर्थ होता है। स्वयं को ही कष्ट देता है।’ गुरुजी ने उसके भाव पढ़ते हुए कहा।
उसने अंगारे बरसाती आँखों से गुरुजी को देखा। गुरुजी ने सांत्वना देती मुस्कान के साथ उससे कहा, ‘बच्चे, यह तो तुम्हारे कर्मों का फल है। इस पर इतना शोक करने की आवश्यकता नहीं है। जीवन बच गया न? जीवन रहेगा तो आनंद के साधन भी आ जाएँगे। बहुचरा माता की शरण में आ जाओगे, तो जीवन में रस आएगा, कष्ट कम हो जाएगा।’
इस माता के बारे में तो उसने कभी सुना नहीं था। परंतु उसने अनुमान लगाया कि यह अवश्य ही क्लीवों की कुलदेवी होगी।
‘क्या नाम है बेटा तुम्हारा?’ अचानक गुरुजी ने पूछा।
‘माणिक।’ उसने भरपूर गुस्से से जवाब दिया।
‘माणिक, हम सब लोग तुम्हारी ही तरह भाग्य के मारे हैं। किसी को भगवान मारता है, किसी को ठाकुर जैसे आतताई। ज़िंदगी का रहस्य इसी में है कि जेहि विधि राखे राम, तेहि विधि रहिए। और यह राम की मंशा है तो इसी में रस ढूँढ़िए, आनंद से रहिए।’
‘गुरुजी, सुनिए तो।’ राम नाम से माणिक की बुद्धि जागी।
‘गुरुजी, इन दोनों सिपाहियों को भी साथ मिला लीजिए। मेरे पिता के पास बहुत धन है। हम सब सोमनाथ चलेंगे। पिताजी आपको मेरे एवज़ में बहुत सारा धन देंगे। मुझे छोड़ दीजिए।’ उसने गुरुजी से कहा।
‘पावैया का धर्म है, वचन से नहीं फिरना।’ गुरुजी ने स्पष्टता से कहा। ‘इन सिपाहियों की मैं नहीं जानता, पर हम वचन भंग नहीं कर सकते। तुम्हें पता है हमारा इतिहास कहाँ से आरम्भ होता है?’
माणिक का मन हुआ कि कोई देवीय ताकत उसके बंधन काट दे और तब वह इन क्लीवों के साथ-साथ, इन सैनिकों के भी सिर पत्थर से फोड़ दे।
‘महाभारत की लड़ाई में पांडव कैसे जीतते? कोई सम्भावना नहीं थी। भगवान कृष्ण भी असहाय हो गए थे। जानते हो तब क्या हुआ था? काली माता माँग रही थी रक्त। किसी पवित्र व्यक्ति का रक्त। और, किसी भी ज़माने में पवित्र व्यक्ति कहाँ मिलते हैं? पूरे द्वापर युग में बस एक ही आदमी पवित्र था। उसका नाम था अरावण। जानते हो अरावण कौन था? अरावण था एक क्लीव, एक नपुंसक, एक पावैया।’
गुरुजी ने माणिक को प्रौढ़ता के भाव से देखा और कहानी आगे बढ़ाई।
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