समकालीन हिंदी कविता की एक मुश्किल यह है कि वह ‘पोलिटिकली करेक्ट’ होने के प्रयास में अधिक रहती है, लेकिन कुछ कवि ‘करेक्ट’ होने के लिए भी लिखते हैं, मनुष्यता के इतिहास में करेक्ट होने के लिए. छत्तीसगढ़ के सुकमा में हाल की हत्याओं के बाद प्रियदर्शन की यह कविता श्रृंखला बार-बार यह सवाल उठाती है कि क्या हिंसा का समर्थन किया जाना चाहिए? कल दिल्ली के हैबिटेट सेंटर में शाम सात बजे ‘कवि के साथ’ कार्यक्रम में कविता पाठ करने वाले तीन कवियों में एक कवि प्रियदर्शन भी हैं. अन्य दो कवि हैं विमल कुमार और अच्युतानंद मिश्र. फिलहाल पढ़ते हैं प्रियदर्शन की कवितायेँ- प्रभात रंजन.
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जब आततायी मारे जाते हैं
एक
धूप धम-धम नगाड़ा बजा रही है
बंदूकें ताने खड़े हैं पेड़
सन्नाटे को सूंघ रही है उमसाई हुई जासूस हवा
नदी यहां से वहां तक
बारूद की तरह बिछी हुई है
आततायियों से युद्ध के लिए तैयार है जंगल
दो
आततायियों का इंतज़ार करो
तुम्हें मालूम है, वे आएंगे
तुम्हें मालूम है, वे कहर ढाएंगे
तुम्हारी पीठ पर हैं उनकी चाबुक के ख़ुरदरे निशान
तुम्हारे पेट पर है उनके बूटों के रगड़े जाने से बने दाग़
तुम्हारी यादों में है एक जमा हुआ ख़ौफ़
तुम्हारे दिल में है एक धधकता हुआ गुस्सा
आततायियों का इंतज़ार करो
तुम्हें मालूम है,
एक दिन वे मारे जाएंगे।
तुम्हारे हाथों।
तीन
मरना-मारना दोनों बुरा है
न अत्याचार करो न अत्याचार सहो
लेकिन जितना पुराना यह सबक है
उतनी ही पुरानी यह सच्चाई
कि अत्याचार भी बचा हुआ है आततायी भी बचे हुए हैं
कि यह दुनिया डरती रहती है
मरती रहती है
मरने का शोक भी करती रहती है।
लेकिन जब आततायी मारे जाते हैं,
कोई शोक नहीं करता।
चार
सबसे मुश्किल होता है आततायियों को पहचानना।
जो सबसे पहले पहचान लिए जाते हैं,
वे सबसे कमज़ोर या नासमझ होते हैं
वे छोटे और मामूली लोग होते हैं
वे मोहरे जिनका सिर कटा कर बचे रहते हैं भविष्य के बादशाह।
असली आततायी मीठा बोलते हैं
बोलने से पहले तोलते हैं
हाथों में दस्ताने चढ़ाते हैं
खंजर में सोना मढ़ाते हैं
उन पर अंगुलियों के निशान मिटाते हैं
और बिल्कुल उस वक़्त जब तुम उनसे पूरी तरह बेखबर या आश्वस्त
अपना अगला कदम रख रहे होते हो, वे तुम्हें मार डालते हैं
तुम जान भी नहीं पाते कि तुम मारे गए हो
यह ख़ुदकुशी है, अख़बार चीखते हैं
नहीं, यह बीमारी है, सरकार चीखती है।
कोई डॉक्टर नहीं बताता कि यह बीमारी क्या है।
आततायी बस वादा करता है कि वह बीमारी से भी लड़ेगा।
पांच
आततायी से लड़ना आसान नहीं होता
इसके कई ख़तरे होते हैं
पकड़ लिया जाना, पीटा जाना, सताया जाना, मार दिया जाना-
कुछ भी हो सकता है।
ये छोटे ख़तरे नहीं हैं।
लेकिन असली और सबसे बड़ा ख़तरा एक और होता है।
आततायी से लड़ते-लड़ते
हम भी हो जाते हैं आततायी।
वह मारा जाता है, शहीद हो जाता है
हम मारे जाते हैं और हमें पता भी नहीं चलता।
छह
आततायी सबसे ज़्यादा किस चीज़ से डरता है?
इंसाफ़ से।
जब इंसाफ़ संदिग्ध हो जाए तो वह सबसे ज़्यादा ख़ुश होता है।
ताउम्र वह इसी कोशिश में जुटा रहता है
कि इंसाफ़ छुपा रहे।
उसकी सारी इनायतें, सारी रियायतें बस इसीलिए होती हैं
कि इंसाफ़ की तरह पहचानी जाएं
कि चंद राहतें पैदा करती रहें इंसाफ़ की उम्मीद
और चलता रहे उसका खेल।
वह जुर्म भी करे तो इंसाफ़ मालूम हो
और
जब उसे मारा जाए तो वह इंसाफ़ नहीं जुर्म लगे।
सात
मैं क़ातिलों के साथ नहीं खड़ा हो सकता
हर तरह की हत्या को ख़ारिज करती है मेरी कविता
आततायी से मुक़ाबले के लिए आतयायी हो जाना मुझे मंज़ूर नहीं
लेकिन कोशिश भी करूं तो आततायी के मारे जाने पर
कोई अफ़सोस मेरे भीतर नहीं उपजता।
मुझे माफ़ करें।
5 Comments
ऐसे दौर में जब आदिवासियों को ढाल बनाकर सरकार और नक्सलियों में हिंसा के बदले हिंसा का खेल चल रहा है तब उसका सटीक चित्र खींचा गया है
bahut maarak kvitayen hain.. is hinsak samay me bhaybheet manushy ke bheetar bacha hua saahas aakhir aattaaiyon ko nibtaayega.. sundar prstuti
हिंसा की राज नीति पर अपना पक्ष बहुत खूबसूरत ढंग से स्पष्ट करती है ये कविताऎ।
मैं क़ातिलों के साथ नहीं खड़ा हो सकता
आततायी से मुक़ाबले के लिए आतयायी हो जाना मुझे मंज़ूर नहीं
लेकिन कोशिश भी करूं तो आततायी के मारे जाने पर
कोई अफ़सोस मेरे भीतर नहीं उपजता।
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