‘कथादेश’ के जून 2013 के अंक में प्रसिद्ध लेखिका-आलोचिका अर्चना वर्मा का लेख प्रकाशित हुआ है ‘असहमति और विवाद की संस्कृति’ शीर्षक से. पिछले दिनों फेसबुक पर कवि कमलेश के सी.आई.ए. के सम्बन्ध में दिए गए एक बयान के सन्दर्भ में एक महाबहस चली, इस लेख में अर्चना वर्मा ने सुविचारित ढंग से उस बहस को समझने-समझाने का प्रयास किया है. सहमति-असहमति अपनी जगह है, लेकिन मेरा मानना है कि यह लेख सजगता और उदारता से पढ़े जाने की मांग करता है, और एक गंभीर बहस की भी- प्रभात रंजन
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शीर्षक तो भारी भरकम चुना है, लेकिन बात हल्की-फुलकी करूँगी।
अभी पिछले दिनों अपने ईमेल मेँ एक सन्देश पाया –
“करीब एक पखवाड़े पन्द्रह दिन (18 अप्रैल 2013 से 4 मई 2013 तक) की अवधि में फेसबुक पर एक (महा)बहस चली जिसकी शुरुआत हिंदी कवि कमलेश के ‘समास‘ पत्रिका में प्रकाशित एक साक्षात्कार में दिए गये इस बयान से हुई कि ‘मानवता को सी. आई. ए. का ऋणी होना चाहिए’ और जो रचना और विचारधारा/जीवन के अंतर्संबंधों, साहित्य और कला के शक्ति संबंधों और समीकरणों और कला एवं जीवन की सामान्य नैतिकताओं पर एक बहस में बदल गयी … यह बहस यहाँ तिथिक्रमवार प्रस्तुत है . इसे आपके सामने प्रस्तुत करने का एकमात्र उद्देश्य यह है कि इस बहस को लेकर हो सकने वाले, शायद अभी से हो रहे दुष्प्रचार के बरक्स इच्छुक पाठक मूल पाठ पढ़ सकें. यहाँ पूरी बहस क्रमवार, तिथिवार है, अविकल नहीं. जो बातें बहस को दोनों में किसी भी तरफ आगे बढ़ा रही थीं उन्हें शामिल किया गया है. इसका शीर्षक हमने विचारधारा, शक्तिकेंद्र, प्रतिमानीकरण: जीवन और लेखन (एक फेसबुक बहस) रक्खा है जो इसमें शामिल चीज़ों का ठीक अनुमान देता है. यह बहस हिंदी साहित्य के नये पब्लिक स्फीयर फेसबुक के संजीदा उपयोग का एक उदाहरण है और उसके बारे में अपरीक्षित धारणाओं का एक सशक्त प्रतिवाद भी. फेसबुक पर बहस लाईव होती है, कोई बोलता नहीं है, सब लाईव लिखते हैं.”
शुरू करने के पहले प्रमुख पात्र का परिचय दे दूँ। वैसे शायद आप जानते ही हों, लेकिन कमलेशजी लम्बी अनुपस्थिति के बाद कविता–घर मेँ वापस लौटे हैँ, इसलिये शायद युवतर पाठक उनसे अपरिचित भी हो सकते हैं। वे कवि हैं, उनके दो कवितासंग्रह ‘जरत्कारु‘ और ‘खुले में आवास‘ प्रकाशित हो चुके हैँ, तीसरा ‘बसाव‘ जल्दी ही आने वाला है (अब आ गया है -सं.)। वे गहन अध्येता, और गंभीर चिन्तक तो हैं ही, राममनोहर लोहिया के अनुगमन और साझेदारी मेँ समाजवादी राजनीति मँ हिस्सा ले चुके हैं। अब के समाजवादियों से अन्दाज़ा मत लगाइये। तब के पढ़े-लिखे, मननशील, चिन्तक, स्वप्नदर्शी और अव्यावहारिक किस्म के समाजवादियों में बचे-खुचे लोगों में कमलेश जी हैं, राजनीतिक असफलता के लिये अभिशप्त, वजह भारत के लिये चुने गये नमूने की राजनीति में भारत के असफल रह जाने की अवश्यम्भाविता ।
सन्देश के साथ बहस भी संलग्न थी।
बहस का सम्पादन और प्रस्तुति गिरिराज किराडू और अशोक कुमार पाण्डे ने की। फ़ेसबुक या उसके जैसे अन्य मीडिया–मंचों पर बहसे जैसे विकट विचलनों का शिकार होती हैं और अक्सर अपने सर–पैर तक का पता भी नहीं देतीं उसे देखते हुए यह एक बहुत संयत और सुसम्पादित प्रस्तुति है।
पहली प्रतिक्रिया शीर्षक को देखते हुए प्रबल उत्सुकता की हुई थी। लेकिन बहस के क्रमवार-तिथिवार, लेकिन अविकल न होने की सूचना तक पहुँचते-पहुँचते उत्सुकता मेँ उतनी ही प्रबल सतर्कता भी जुड़ गयी। ऐसी बहसों की रपट का अविकल न होना ही स्वाभाविक है, अविकल होना संभव भी नहीं, लेकिन सम्पादक ने जो बातें अनर्गल या अनावश्यक मान कर दर्ज नहीं की होंगी, उनमेँ क्या सूचना या संकेत निहित रहा हो सकता होगा, अर्थ और समझ को क्या मोड़ दे सकता रहा होगा, इसको लेकर मेरे जैसे खुरपेंची पाठक का आश्वस्त होना असंभव है जिसकी आदत या फिर मुगालता ढूँढ़–ढूँढ़ कर उन्हीं जगहों को रेखांकित करने और कुछ खोद निकालने की है जो अक्सर औरों की नज़र से छूट जाया करती हैँ।
सम्पादक का अधिकार उसकी समझ और रुचि से संचालित होता है। मैँ खुद भी उससे बरी नहीं। असहमति और विवाद की संभावना/आशंका/ज़रूरत बनी रहती है, अनिवार्यतः। चीजों की सूचना, समझ, संशोधन, पुनर्विचार, विवेचन, विश्लेषण, निष्कर्ष – हर हिसाब से। उसका स्वागत भी है। उसके जरिये बात से बात निकलती है। बात बढ़ती भी है (दोनो अर्थों मेँ)।
“बहस में, एक तरफ थे अशोक कुमार पांडेय, गिरिराज किराडू, वीरेन्द्र यादव, मंगलेश डबराल और कई मित्र और दूसरी तरफ थे मुख्यतः जनसत्ता के सम्पादक ओम थानवी, कुलदीप कुमार और उनके समर्थक।“
परिचय–सन्देश के पहले वाक्य मेँ ही बहस के मुद्दे को जिस तरह से फ़्रेम किया गया है (“जिसकी शुरुआत हिंदी कवि कमलेश के ‘समास‘ पत्रिका में प्रकाशित एक साक्षात्कार में दिए गये इस बयान से हुई“) उससे मुझे लगा था कि शायद सी.आई.ए. के कारनामों और करतूतों के बारे में कोई साक्षात्कार होगा, जिसमें सी.आई.ए. को न केवल बरी किया गया होगा बल्कि उपकारी होने का सर्टिफ़िकेट भी दिया गया होगा, जिसके लिये ” मानवता को सी. आई. ए. का ऋणी होना चाहिये।“
शुरुआत करने वाली मूल पोस्ट का लहजा नाटकीय है और मजेदार भी, “भंते, यह साहित्य के विश्व इतिहास में उल्लेखनीय है. वह कौन सा प्रसिद्ध लेखक है जिसने कहा है कि मानवता को सी.आई.ए.का ऋणी होना चाहिए. क्लू यह है कि कारनामा एक वरिष्ठ हिंदी लेखक का किया हुआ है .” (आगामी यू.जी.सी. जे.आर.एफ. नेट हिंदी के प्रश्नपत्र में आने की प्रबल संभावना)”
इस पर एक टिप्पणी –“अगर नेट मैंने दी होती, तो अज्ञान का खमियाजा फेल होकर चुकाना पड़ता.”
पहेली के जवाब का अगला अता–पता –” लगता है आप समास पत्रिका नहीं पढ़ते भाई, इस बयान का शोध सन्दर्भ वहीं है.”
और अन्ततः रहस्योद्घाटन – “लीजिये बता देता हूँ मैं ही: कमलेश जी. कल महाकाव्यों पर व्याख्यान देंगे बनारस में. आप लोगों का हिंदी का मास्टर होना बेकार है. अंग्रेजी का एक मास्टर भारी पड़ा सब पर.”
फिर उल्लेख के जरिये बहस में एक नये पात्र का प्रवेश हुआ। पात्र का नाम लिये बिना परिचय में कहा गया, ” वाम ने जिसे सेलीब्रेट किया वह घुटनों के बल अशोक वाटिका में चरने चला गया.…हम पर बरसने वाले लोगों में से कोई रज़ा फाउन्डेशन से पौने दो लाख के रिसर्च प्रोजेक्ट के लाभार्थी प्रखर वामपंथी युवा कवि के महाकाव्यात्मक आयोजन में कमलेश जी के बुलाने के निहितार्थों, अभिधा–व्यंजना पर कुछ न बोलेगा. न जसम. न कोई और. आखिर अशोकजी के बिना किसी का काम नहीं चलता.”
नाम शायद चर्चित और परिचित होगा, लेकिन मुख्य पात्र कमलेशजी के स्थापित हो जाने के बाद आपकी यह रिपोर्टर अपने निर्धन सामान्यज्ञान की वजह से इस नेपथ्य–नाटिका के उल्लिखित अशोक–वाटिका में चरने वाले नये पात्र की पहचान में असफल रही और बनारस
32 Comments
वीरेन्द्र यादव का जबाब पढ़िये ………..http://gauravmahima.blogspot.in/2013/07/blog-post_8.html?spref=fb
जवाब – http://jantakapaksh.blogspot.in/2013/07/blog-post_8.html
Nice to know that communism still relevent
Jo 'kuchh nahin hai', usse 'kuchh nahin hai' ka virodhi hone ka haq hai.
लेकिन अनुराधा जी, दलित या महिला या किसी का भी विरोध करने के लिए व्यक्ति अपने "विवेक" का ही इस्तेमाल करता है। वह "बाई चांस" या "संयोग" से नहीं होता है। इसलिए यह टिप्पणी कुतर्क नहीं, इस लेख के शीर्षक के "मूल स्वर" को ही आगे बढ़ाती है।
इसीलिए मुझे लिखे हुए कागज की तुलना में बिना लिखे हुए सादे कागज अधिक आकर्षित करते हैं .अधिकांश सभ्यताएँ लिखे हुए कागज की तरह हैं .इतिहास का पिछला अनुभव तो यही बताता है कि नयी सभ्यता के अंकुर वहीँ से फूटे जहाँ सभ्यता नें मानव विवेक को जड़ीभूत नहीं किया था .इंगलैंड से नयी सभ्यता का आरम्भ तो कुछ ऐसा ही ऐतिहासिक अनुभव देता है .आज हिन्दू या मुस्लमान होना अयोग्य जनसंख्या का हिस्सा होना है .सी.आई.ए. और के.जी.बी. की ऐतिहासिक भूमिका संतुलनकारी भी रही है .विश्वास में पड़े लोग अच्छा या बुरा वर्तमान रच रहे होते हैं ,जबकि अविश्वास में पड़े लोग मानव के भावी विवेक को बचा रहे होते हैं .इस लेख में अर्चना वर्मा एक जागरुक पर्यवेक्षक की भूमिका में हैं .उन्हें इसके लिए सराहना .
यह तो कुतर्क हुआ। कम्यूनिस्ट कोई अपने विवेक से, अपने फैसले से होता है, बाई चॉइस। पर महिला, दलित (अगर पारंपरिक अर्थ में देखें), मुसलमान, ब्राह्मण (सभी पारंपरिक अर्थ में), भारतीय, मनुष्य… सब संयोग से होते हैं, बाई चांस।
mujhe computer nhi aata to kya computer ka virodh karne ka haq hai kya..?…kya bewkufi wali baat kahi gyi hai…..kabhi muh bhi band rakha karo bhai…….huuhhhhhh….
mujhe computer nhi aata to kya computer ka virodh karne ka haq hai kya..?…kya bewkufi wali baat kahi gyi hai…..kabhi muh bhi band rakha karo bhai…….huuhhhhhh….
undue attention for a stupid and moronic comment……
सही बात है…लेकिन उनका क्या जो केजीबी का एजेन्ट होने में गर्व महसूस करते हैं.
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शीर्षक को ही अगर शीर्षासन करा दिया जाए तो कई तरह की स्थितियां बनेंगी…
1. जो महिला नहीं है, उसे महिला विरोधी होने का हक़ है।
2. जो दलित नहीं है, उसे दलित विरोधी होने का हक़ है।
3. जो मुसलमान नहीं है, उसे मुसलमान विरोधी होने का हक़ है।
4. जो ब्राह्मण नहीं है, उसे ब्राह्मण विरोधी होने का हक़ है।
5. जो भारतीय नहीं है, उसे भारत विरोधी होने का हक़ है।
6. जो कलाकार नहीं है, उसे कला विरोधी होने का हक़ है।
7. जो मनुष्य नहीं है, उसे मनुष्य विरोधी होने का हक़ है।
…. और जोड़ते चलिए इसमें अपनी सुविधा से…
इस लेख को यथार्थवादी कहूँ, विकासवादी कहूँ, कलम की विवशता कहूँ या विचार विप्लव की संज्ञा दूं ! लेकिन
विचारों का द्वंद बराबरी का न होकर पक्षपात करता प्रतीत होता होता है ।
जो बात गिरिराज किराडू और अशोक पाण्डेय ने बहस में उठाई थी, अर्चना जी के लेख का उसके साथ कोई सम्बन्ध नहीं बनता. बहस की मुख्य चिंता हिंदी लेखन और उसके अन्तर्विरोध हैं, रूसी, अमरीकी, फ्रेंच, जर्मन या लैटिन-अमरीकी साहित्य नहीं, जिसे दशकों से अज्ञेय जी, उनके शिष्य अशोक वाजपेयी, ओम थानवी, अर्चना वर्मा, उदयन वाजपेयी (अब कमलेश आदि) अंग्रेजी आतंकित व्याख्याकार हिंदी पाठक के सामने परोसते रहे हैं. काश ये लोग जितनी अंतरंगता से उक्त देशों का साहित्य पढ़ते हैं, उसका छोटा-सा हिस्सा ही हिंदी के लेखन को दे पाते. अगर आप उस भाषा के लेखन को पढ़ते ही नहीं हैं तो आपको उस पर टिप्पणी करने का कोई अधिकार नहीं है. नीलाभ और जगदीश्वर चतुर्वेदी की टिप्पणी एकदम सही हैं.
बहुत खराब लेख.
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बेहतरीन बहस, जो बहस से ज्यादा, पक्ष-विपक्ष के तर्कों से समझ और अर्थ पैदा करती है।
कृपया ’बेलिन्स्की’ की जगह ’बख़्तीन’ पढ़ें।
कमलेश जी सी०आई०ए० के लिए काम करते थे या नहीं। अज्ञेय जी सी०आई०ए० के एजेन्ट थे या नहीं, इससे आज कोई फ़र्क नहीं पड़ता। क्योंकि यही बात भीष्म साहनी, नामवर सिंह और दूसरे कई लेखकों के बारे में कही जा सकती है कि ये लोग के०जी०बी० के एजेन्ट थे या नहीं। इससे भी हिन्दी साहित्य को कोई फ़र्क नहीं पड़ता। शायद रहे होंगे ये लोग एजेन्ट। हिन्दी साहित्य में तो इनका मूल्यांकन इनके साहित्य की वज़ह से ही होगा।
जो बात गम्भीर नहीं होती, उसे गम्भीर कैसे बनाया जाता है, यह इस लेख से पता लगता है।
वैसे अर्चना जी के इस लेख में एक छोटी-सी तथ्यात्मक भूल यह है कि वे लिखती हैं कि ओसिप मन्देलश्ताम की पत्नी नादेज्दा मंदेलश्ताम द्वारा लिखे गए संस्मरणों के दो खण्ड रूस में अभी तक प्रकाशित नहीं हुए हैं। जबकि 1992 के बाद से उनके रूस में न जाने कितने संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। मैंने पहला संस्करण 1992-93 में ख़रीदा था। अख़्मातवा, स्विताएवा, मन्देलश्ताम, बुल्गाकोफ़, बाबेल और बेलिन्स्की भी रूस में 1980 से पचास हज़ार से एक लाख प्रतियों की संख्या में छपने शुरू हो गए थे। यह और बात है कि तब रूस में अच्छी क़िताबें ख़रीदना बहुत मुश्किल होता था क्योंकि रूस के लगभग हर परिवार में एक लायब्रेरी होती थी और किताबें छपते ही बिक जाती थीं। 1986 में मैंने हिन्दी की युवा कविता की एक एन्थोलौजी रूसी भाषा में सम्पादित की थी। जो दो बार पचास-पचास हज़ार की संख्या में छपी और मैं उसकी बड़ी मुश्किल से सिर्फ़ बीस ही प्रतियाँ ख़रीद पाया था। इसलिए उसमें शामिल कई कवियों को उस क़िताब की एक प्रति भी न मिल पाई।
Above comments gives a glimpse of pathetic state of Hindi literature, poets/writers of which are calling each other names..one moron calling another caterpillar…just shows what kind of poor education he has acquired while growing up….just wondering how would he react if I call him a centipede or millipede…I think I should not call him by these words because that would be insulting to those beautiful insects…this guy is way too ugly to be compared with an insect even.
I think that Kamlesh is getting undue attention for a stupid and moronic comment which would have gone unnoticed.
Kamlesh is a caterpillar, why waste your time on him. He wants something from the CIA, the CIA has chidambaram and Manmohan and even Modi. So this is his way of playing the dog in the emblem of HMV.
अर्चना जी के ठेठ उत्तराधुनिक लेखन की चर्चा कथादेश के संभवतः अक्तूबर 2012 के अंक में शालिनी माथुर ने भी किया है । अर्चना जी के इस लेख को जिसकी चर्चा प्रभात जी कर रहे हैं, को सही ढंग से समझने के लिए शालिनी माथुर का वह लेख भी( हमारे जैसे थोड़े मंदबुद्धि पाठकों..) देखना चाहिए ……वैसे कवि कमलेश जी के प्रसंग में जब बहस चल रही थी तो मुझे मुक्तिबोध का प्रसिद्ध लेख समीक्षा की समस्याएँ याद आ रहा था….और ये लग रहा था कि मुक्तिबोध ने शीतयुद्ध से प्रेरित जिस आलोचना को स्पेस मुहैया कराने के लिए प्रगतिशील आलोचकों को कोस रहे थे । आज कवि कमलेश के प्रसंग में प्रगतिशील आलोचको का इस तरह मुखर होना अगर किसी को चुभ रहा है तो चुभे पर यह वास्तव में मुक्तिबोध के परंपरा का सही विकास है ।
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