7-8 जनवरी को जयपुर में ‘कविता समय’ का दूसरा आयोजन है, जो संयोग से कवियों और कविता का सबसे बड़ा आयोजन बनता जा रहा है. इस मौके पर हम कुछ कवियों की चुनी हुई कविताएँ प्रस्तुत करेंगे. शुरुआत अपने प्रिय कवि गिरिराज किराडू की कविताओं से कर रहे हैं. गिरिराज की कविताओं का स्वर समकालीन हिंदी कविता में सबसे मौलिक है. थोड़ा-सा व्यंग्य, थोड़ी उदासी, गद्यकारों सा खिलंदड़ापन- सबके भीतर अन्तर्निहित गहरा विडंबनाबोध. पढते हैं उनकी कुछ नई कविताएँ- प्रभात रंजन.
मग़रिब जाओ
१
एक सवाल यह कि तुम इसी समय यहाँ क्यूँ नहीं हो
एक सवाल यह कि तुमसे कभी चूक क्यूँ नहीं होती घड़ी मिलाने में
एक सवाल यह कि अपना जीवन तुम्हें आख़िरी बार कब लगा था पिटी हुई उक्ति
एक सवाल यह कि सपना तुम आँख से क्यूँ नहीं देखते शब्दों से क्यूँ देखते हो
एक सवाल यह कि अपनी छवि में डूब मरने से तुम अब डरते क्यों नहीं
एक सवाल यह कि जो थे तुम्हारे संग उनके कपड़े और चेहरे तुमने अब तक जलाये क्यूँ नहीं
एक सवाल यह कि अपने कबीले के नक़्शे पर तुम एक शर्मसार तफ़्सील की तरह क्यूँ सुलग रहे हो
तुमने सुना सातों सवालों को एक दिलेर मुज़रिम की तरह
अपने नक़ाब को नाखून से खरोंचा
और चल दिए मग़रिब की ओर
सब रस्ते मगरिब की ओर जाते ही थे अगर
दुरुस्त हो नक़ाब
सवारी हो मनमुआफ़िक
और साथ में चलने को तफ़्सील हो शर्मसार
तुमने खुद से कहा मौसम
सुहाना हो ही जाता है
जो छूट गए उनकी आत्माएँ
सताना बंद कर ही देती हैं और खंज़र
तो अपना काम करता ही है
खंज़र रस्ता खंज़र मुकाम सवालों की भूतनी को मेरा आख़िरी सलाम
२
नयी बस्ती की खोज़ में मग़रिब की ओर चला घुड़सवार
जानवरों और देवताओं की रिहाइश से दूर बेहद दूर
प्यास के समंदर पर लहराता एक कबीला
सब कुछ नया था
बस मग़रिब नहीं था
जिसे खोज़ सको वो मग़रिब कहाँ घुड़सवार
मग़रिब एक ख़याल है
प्यास के समंदर जैसा इश्तेआरा है बस्ती नहीं
अपने घोड़े को आराम दो
यह मग़रिब नहीं
३
तुम्हारे हाथ में घड़ी बंधी है वक़्त नहीं
तुम्हारी जेब में नक़्शा है ज़मीन नहीं
तुम्हारे असबाब में दूरबीन है आँख नहीं
बंदूक है सपना नहीं
ऐसे मत देखो मुझे मेरे पास तो कुछ भी नहीं तुम्हें कुछ नहीं की इतनी हसरत क्यूँ है
मुझे भी बरबाद करके रहोगे
जाओ यहाँ से जाओ
उठाओ ये बोरिया ये पेचीदा सामान
मग़रिब जाओ
४
तुम्हारे हाथ में नफ़ा है
मग़रिब जाओ
५
तुम्हें देखके दिल जलता है
मग़रिब जाओ
६
हमारे दुख की यही दवा है
मग़रिब जाओ
७
हमारे देवता तुम्हारे दरबान
मग़रिब जाओ
८
हमसे छीनने को अब क्या बचा है
मग़रिब जाओ
९
ये शायरी नहीं बददुआ है
मग़रिब जाओ
रूमान?
शहर में घर में कोई और रहने लगा है अपने घर से निकाल दिया जा कर बेघर होने से रोमांचित हूँ धीमे से सरक रहा है वक्त, चन्द्रमा और जेब का पैसा जब इन तीनों में से कुछ नहीं रहेगा और रोमांच के आखिरी छोर पर करूँगा आदिवास आप मुझे आदिवास से भी निकाल देंगे
जीवन के आखिरी नज़ारे में, पसलियों में धंसी गोली के रहमदिल धीमे असर का शुक्रिया करते हुए धीमे से सरकेंगे पत्ते, थपेडी हुई याद में बेतुका ख़याल हो गए घर का नक्शा, और एकदम अचानक किसी और की खुशबू से भरी साँस…
आशीर्वाद
रूपकों पर घिर आयी है एक बेरहम अजनबी छाया
कभी सपने जैसी भाषा में वे तैरते थे आँखों के आगे आपकी कविता की तरह
कितना निकट आना होता है आपकी कविता के उसके जैसा न होने के लिए विनोदजी
एक उम्र गुजर रही है उस निकटता को पाने में
आप अपने नगर में आदिवास करते हुए मगन होंगे
जब सबसे छूटकर आपसे भी छूट जाऊंगा
हर तरफ हर बोली में लोग लाउडस्पीकर पर एक झूठा छत्तीसगढ़ बना रहे होंगे
आप मेरा आखिरी रूपक हैं कह कर देखता हूँ मीर को दस महीने के बच्चे को
मीर कहना क्या उसे उस खाली जगह रखना है जो
भविष्य के नमस्कार हो जाने से बनी है
सदा खुश रहिये यूं ही लिखते रहिये मेरा आशीर्वाद है आपको
सपना
“तुम्हारे लोग बहके हुए शिकारी”
“तुम्हारे देवता भटक
15 Comments
khoobsurat :-)??
aapne durust farmaya. prabhat bhai correction kar lijiye.
shukriya aapka sushil bhai.
shukriya
खंज़र रस्ता खंज़र मुकाम सवालों की भूतनी को मेरा आख़िरी सलाम! ..वाह .
वहाँ हर रोज इतने अफ़रात हलाक़ हो रहे हैं सुन कर ये रवां तब्सिरा आपकी ख़िदमत में विल्स सिगरेट बनाने वाले इदारे पाकिस्तान टोबेको कंपनी लिमिटेड के तआवुन से पेश किया जा रहा है की याद आती थी
वाकई गज़ब ढा दिया
इश्तेआरा मतलब? क्या इसे इस्तेआरा (استعارا) भी लिखते हैं?
तुम्हारे हाथ में घड़ी बंधी है वक़्त नहीं
तुम्हारी जेब में नक़्शा है ज़मीन नहीं
……..गद्य से बतियाती सी कवितायें ……. साझा करने के लिए शुक्रिया और "जानकीपुल" का नया अवतार देख खुश हूँ …… शुक्रिया प्रभात जी 🙂
shukariya prabhat jee, giriraaj kee en khubsurat kavitao se awgat karwaney ke leye
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