आज अज्ञेय की जन्म-शताब्दी है. आज से अज्ञेय के साहित्य को लेकर तीन दिनों के कार्यक्रम का भी शुभारंभ हो रहा है. जिसमें एक वक्ता उदयप्रकाश भी हैं. इस अवसर पर अज्ञेय को लेकर उनके विचारों से अवगत होते हैं. प्रस्तुति हमारे ब्लॉगर मित्र शशिकांत की है- जानकी पुल.
अभी पिछले दिनों मैं कुशीनगर गया था, जहां गौतम बुद्ध का निर्वाण हुआ था। उनके निर्वाण स्थल से कुछ ही दूर मैंने वह स्थान देखा जहां अज्ञेय की इच्छानुसार एक संग्रहालय का निर्माण होना है। मेरे जैसे उनके असंख्य पाठकों की यह आकांक्षा होगी कि उनके जन्मशती वर्ष में यह संग्रहालय बनकर तैयार हो। बुद्ध ने भी इस समाज की जड़ताओं को तोड़ने की कोशिश की थी। बुद्ध का यही प्रेत आज भी प्रतिगामी बुद्धिजीवियों को बार-बार सताता है। जो भी बुद्ध की ओर जाता है, उसे सताया जाता है। पिछले साल मेरे ऊपर भी कुछ प्रतिगामी बुद्धिजीवियों की ओर से हमले हुए, शायद इसकी वजह भी यही है।
एक बात अक्सर ध्यान देने लायक है, और वह है- अज्ञेय का अपनी जन्मस्थली कुशीनगर से लगाव। वे बार-बार कुशीनगर जाना चाहते थे। उनके भीतर का तथागत उन्हें अपनी ओर बार-बार खींचता था। आज हिंदी के वर्चस्वशील बौद्धिक मानस में बुद्ध के प्रति जो सहजात भय है, कहीं उसी का दंड राहुल, नागार्जुन, भदंत आनंद कौशल्यायन और आंबेडकर जैसे व्यक्तियों की तरह अज्ञेय को भी तो नहीं मिला!
अज्ञेय जी से मैं सिर्फ दो ही बार मिल पाया। वे हिंदी के एक बहुत बड़े लेखक थे। कविता, कहानी, पत्रकारिता- सभी क्षेत्रों में उनकी मौलिकता असंदिग्ध थी। ‘तारसप्तक’ के रूप में उन्होंने हिंदी कविता को उसके ऐतिहासिक संदर्भों में एक नए रूप में प्रस्तुत किया। यह मानकर चलें कि कविता, कहानी या कोई भी विधा हो- जड़ीभूत नहीं होती है, समय और समाज के परिप्रेक्ष्य के साथ वह हमेशा परिवर्तित होती रहती है। अज्ञेय संभवत: समूची हिंदी भाषा के पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने कविता, पत्रकारिता और आख्यान- इन सभी विधाओं में जो विभाजक परिवर्तन था, प्रस्थान की जो नई दिशा थी, उसे पहचाना और चिन्हित किया।
कविता के क्षेत्र में ‘तारसप्तक’, पत्रकारिता में समाचार साप्ताहिक ‘दिनमान’ की अवधारणा और संपादन, आख्यान में ‘शेखर : एक जीवनी’ जैसा अपूर्व संरचना का मौलिक प्रयोगात्मक उपन्यास और आलोचना के क्षेत्र में नई पदावलियों की खोज़, विनिर्माण और उनका अर्थांतरण- ये सभी उनकी विदग्ध और निस्संग प्रतिभा के साक्ष्य हैं।
एक बार सुप्रसिद्ध जर्मन भाषाविद तथा अज्ञेय की कविताओं के अनुवादक प्रो. लोठार लुत्से ने अपने साक्षात्कार में कहा था कि हिंदी कविता में आधुनिकता की आहट उन्हें छायावाद, उत्तर छायावाद या प्रगतिवाद में नहीं बल्कि अज्ञेय की कविताओं दिखाई देती है। उन्होंने कहा था- “आधुनिकता का सबसे प्रामाणिक लक्षण यह है जब लेखक अपनी भाषा, विधा और विचार पर संशय करता हो।”
यह कभी न भूलें कि अज्ञेय अपने समय के सबसे निर्भय तर्कशील मेधा थे। उन्होंने अपने सामने अनेक चुनौतियां खड़ी कीं, जिनमें वे घिरते चले गए और जीवन भर उस घेरेबंदी के शिकार रहे।
कई बार ऐसा लगता है कि जड़ीभूत मानसिकता से ग्रस्त सामाजिक, राजनीतिक सत्ताएं जिन लोगों से उनके वतन छीनती हैं और उन्हें निर्वासन में भेजती हैं, उससे कम यंत्रणादायक और संत्रास भरा जीवन इस घेरेबंदी में नज़रबंद लेखक की नहीं होती है।
आज के हमारे समय में जब हम तमाम लघु अस्मिताओं का सर्वव्यापी उत्थान और आक्रमण देख रहे हैं। धर्म, जाति, नस्ल, समूहगत हित, मूल्यों का क्षरण, सत्तालोलुपता और भ्रष्ट अतिचार आदि ने एक भयानक डरावना अंधेरा निर्मित किया है। ऐसे समय में अज्ञेय का व्यक्तित्व और उनका सृजन मुझे अंधेरे में जलती कंदील की तरह दिखाई देता है। यह एक विडंबना ही थी कि अज्ञेय अपनी बौद्धिकता और सृजन के शिखर पर तब हुए जब समूची दुनिया और हमारा देश-समाज भी शीत-युद्ध के दो विरोधी शिविरों में बंटा था। जिन विचारधाराओं के अंत की बात अब की जा रही है, वे सर्वसत्तावादी सिद्धांत अपने चरम पर थे। अज्ञेय इसलिए महत्वपूर्ण हो उठते हैं कि शिविरबंदी के उस दौर में भी उन्होंने लोकतांत्रिक सहिष्णुता और वैचारिक खुलेपन का विरल दृष्टांत पेश किया।
यह ध्यान रखने की बात है कि अज्ञेय विप्लवी, विद्रोही और क्रांतिकारी थे। उनकी क्रांतिधर्मिता कागज़ी और ख्याली बिरयानी नहीं थी। अपने जीवन में उन्होंने उस पर अमल किया था, जेल गए थे और भूमिगत हुए थे।
‘तारसप्तक’ में जब उन्होंने पहले कवि के रूप में रामविलास शर्मा और फिर मुक्तिबोध का चयन किया तो एक और जहां उन्होंने सृजनात्मकता के धरातल पर राजनीतिक शिविरबंदी को सिरे से खारिज किया, वहीं दूसरी ओर उन्होंने संभवत: मुक्तिबोध और रामविलास शर्मा में अपनी प्रतिबद्धताओं और ईमानदारी की झलक देखी और वे उन्हें अपने निकटतम लगे। भवानी प्रसाद मिश्र भी ‘तारसप्तक’ के कवियों में होते, अगर वे 1942-43 में राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की लड़ाई में कानपुर की जेल में बंद न होते और उन्होंने ‘तारसप्तक’ के संपादक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ के आग्रह पर अपनी कविताएं भेज दी होतीं।
अज्ञेय प्रतिगामी और जड़ चेतना के संकीर्ण सत्ताओं के कारागार में एक सज़ायाफ्ता मुज़रिम थे, लेकिन उनके कहानी संग्रह ‘विपथगा’ की कहानियां, जिसमें ‘रोज’ जैसी अनूठी कहानी, ‘शेखर : एक जीवनी’ जैसा आत्मवृत्तात्मक उपन्यास, ‘हरी घास पर क्षण भर’, ‘असाध्य वीणा’ जैसी तमाम कविताएं, ‘दिनमान’ और ‘एवरीमेन्स’ जैसी हिंदी और अंगरेजी की बौद्धिक सामाजिक पत्रिकाओं के संपादन और अभिकल्पन की प्रतिभा ही नहीं, ‘कठिन काव्य का प्रेत’ कहे जानेवाले आचार्य केशवदास पर लिखे उनके लेख जैसी तमाम रचनाएं यह साक्ष्य देती हैं कि अगर हिंदी में दूसरा मुक्तिबोध, दूसरा प्रेमचंद नहीं हो सकता तो कोई दूसरा अज्ञेय भी नहीं हो सकता।
काल और संवत्सर की उनकी भारतीय अवधारणाओं में खुर्दबीन लेकर प्रतिगामी विचारों की खोज़बीन करनेवाले वेतनभोगी मीडियाकर आचार्यों को सबसे पहले अपने भीतर की संकीर्णताओं की खोज और शिनाख्त करनी चाहिए। अज्ञेय निस्संदेह प्रथमत: एक आधुनिक भारतीय बुद्धिजीवी और रचनाकार थे। उनके जन्मशती वर्ष में 20वीं सदी में हमें उनके होने का उत्सव मनाना चाहिए। उनकी रचनाओं की ओर जाना, आधुनिकता के महावृत्तांत की ओर बढ़ा हुआ एक मुक्तिगामी क़दम होगा।
अज्ञेय का चित्र दीपचंद सांखला के सौजन्य से
37 Comments
musafir baitha… tum bahut bade wale gadhe ho….:)
आधुनिकता का सबसे प्रामाणिक लक्षण यह है जब लेखक अपनी भाषा, विधा और विचार पर संशय करता हो-उपर्युक्त आलेख में उद्धृत लोठार लुत्से का कथन केवल प्रवचन के लिए है कि इससे खुद आलेखकर को भी कुछ सीखना चाहिए?
और इस आलेख पर प्रभात रंजन की फेसबुक पर आई सुयश सुप्रभ की इस टिप्पणी पर भी उदय प्रकाशजी को कुछ बोलना चाहिए- मैं समयांतर में प्रकाशित एक आलेख की निम्नलिखित पंक्तियों पर आपकी टिप्पणी की प्रतीक्षा कर रहा हूँ :
"अज्ञेय, सीआईए के पैसे से निकलने वाली पत्रिका क्वेस्ट के संपादन मंडल में रहे (कुछ लोग इसलिए उन्हें सीआईए का एजेंट मानते हैं।) अंग्रेज़ों के इं…टेलिजेंस ब्यूरो के प्रमुख जेनकिंस ने उन्हें विश्वसनीय कहा और ऑल इंडिया रेडियो व फौज में नौकरी दिलवाई। ये सब बातें सार्वजनिक होने के बाद भी यदि अज्ञेय के व्यक्तित्व पर चर्चा नहीं होती है तो यह साहित्य व समाज के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा।"
नमन उस महासाधक को !
बने रास्तों पर चलकर कहीं पहुंचने वालों में नहीं थे अज्ञेय…वे चले और रास्ते बने…आज तक उनके कदमों के निशां ढूंढे जा रहे हैं…वे अप्रतिम हैं, अज्ञेय हैं….
सचमुच हिन्दी में दूसरा अज्ञेय भी नहीं हो सकता….
'' तुम सतत
चिरंतन छिने जाते हुये
क्षण का सुख हो —
(इसी में उस सुख की अलौकिकता है )
भाषा की पकड़ में से फिसली जाती हुई
भावना का अर्थ —
(वही तो सनातन है ):''
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