अज्ञेय की संगिनी इला डालमिया ने एक उपन्यास लिखा था’ ‘छत पर अपर्णा. कहते हैं कि उसके नायक सिद्धार्थ पर अज्ञेय जी की छाया है. आज अज्ञेय जी की जन्मशताब्दी पर उसी उपन्यास के एक अंश का वाचन करते हैं- जानकी पुल.
लाइब्रेरी से सिद्धार्थ ने किताब मंगवाई थी. उन्हें उसकी तुरंत ज़रूरत थी. दिल्ली युनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में उसे किताब ढूंढते-ढूंढते कुछ ज्यादा समय लग गया और जब तक वह हिंदू कॉलेज और सेंट स्टीफेंस कॉलेज के बीच की सड़क पर पहुंची उसे आधा घंटा देर हो चुकी थी. निश्चित समय से आधा घंटा देर.
उस दिन, पर, वह इंतज़ार करती रही. कभी एक बस स्टॉप पर खड़ी होकर, कभी सड़क पार करके दूसरे बस स्टॉप पर खड़ी होकर. जब दो घंटे हो चले और सिद्धार्थ नहीं आये तो निराश होकर अपर्णा फिर लाइब्रेरी की ओर मुड़ी. वैसे भी लाइब्रेरी में मन लगाकर पढ़ना, उस दिन कहाँ हो सकता था.
अगले दिन लाइब्रेरी से निकली तो देखा कि सिद्धार्थ गाड़ी में बैठे उसका इंतज़ार कर रहे थे. ‘ऐसे बैठे हैं जैसे बहुत दिनों से मेरा रास्ता देखा जा रहा है’ वह कुढ़ी.
“कल क्या हुआ था? सब ठीक-ठाक तो है ना?” हलके से, सहज-सहज पूछा सिद्धार्थ ने.
“उलटा मैं ही इंतज़ार करती रही और मुझे ही…” आगे की बात अपर्णा बोल न पाई.
“कहाँ? मैं तो पोस्ट ऑफिस के पेड़ के नीचे लगातार तुम्हारा इंतज़ार करता रहा. दो घंटे तक तुम नहीं आईं तो सोचा कि सेंट स्टीफेंस की सड़क का भी एक चक्कर लगा लूं. पर वहां भी तुम नहीं थीं.”
“वहां मैं दो घंटे खड़ी रही- सब आते-जाते लोग मुझे ही घूरते थे. थक अलग गई. जब तय था कि सेंट स्टीफेंस के हिंदू कॉलेज वाले गेट पर मिलेंगे तो आप पोस्ट-ऑफिस के पेड़ के नीचे कैसे थे?” अपर्णा ने कहा. पर ताज्जुब से देखा कि बिना बहस किये सिद्धार्थ अपनी गलती माँ रहे हैं. उन्हीं को ठीक याद नहीं रहा होगा. ‘अब इनसे लड़ा भी नहीं जा सकता, क्या किया जाए!’
“सिद्धार्थ से मिलना, जब रोज नहीं हो सकता तो कम से कम एक दिन छोड़कर, दूसरे दिन तो हो. पर जब इसका उपाय नहीं बंटा तब मैं घबरा जाती हूँ.”
अगर अपर्णा को यह आशा थी कि छत कुछ बोलेगी तो वह निराश ही हुई.
होने यह ज़रूर लगा कि जब-जब और जितना-जितना उसे मौका मिलता, वह सिद्धार्थ से मिलती.
“अचानक आकर फोन किया उसने. वह बोला कि ‘तुरंत, बस अभी, आओ मिलने.’
“बस- इसी बात से, जी में आया कि नहीं जाती. माँ के पास कैसे अचानक मेल बिठाऊं जाने का.”
“तुम भी एक ही हो, मिलने को तरस मरोगी, पर जब वह खुद आएगी- तब.”
“यही सब अपने को समझा-बुझाकर तो मिलने गई, मिली तो अच्छा हुआ. वह कॉलेज के दिनों के खिले-खिले मूड में था. पर देखो न-आधा दिन साथ गुजरा, अब कहीं तो वापस आना था न-कहना ही पड़ा, कहते ही पूछा, ‘अभी तो छह बजे हैं. कहीं और जाना है क्या.’ ‘वैसा होता तो वैसा कहती, घर जाने को क्यों बोलती’, मुझे उसका मतलब समझ में नहीं आया. कार में बैठे तो गाड़ी स्टार्ट करने से पहले मेरा बैग माँगा. बेढंगे ढंग से उलट दिया सब का सब सीट पर. उसकी क्या ज़रूरत थी. कुछ चाहिए था तो मुझसे मांग लेता. मैं सामान इकट्ठा करने को झुकी तो मुझे टोक दिया, वह खुद ही करेगा. ‘करेगा तो करे.’ तुरंत लगा हट गई मैं.
“पर देखो तो, सामान वापस डालने से पहले एक-एक पुर्जे को, चीज़ को परखना मुझे ज़रा भी अच्छा नहीं लगा. बात देर से ही सही, समझ में आ गई कि देखना था कि बैग में क्या-क्या है. फिर यही बात हम दोनों के बीच में आ गई. गाड़ी से उतरते हुए ‘बाई’ कहने का मन न हुआ मेरा. न बाबा ऐसे आना हो तो न आये.”
“यही तो तुम हो हो कि पिछले दिसंबर में तेज बुखार में चली गईं थीं, सुन्दर नगर मिलने. याद है रजाई और कम्बल तक ढूंढकर निकालना पड़ा था, तुम्हारे लिए, उसे.”
“ओफ्फओ, गला खराब थ, बुखार था तो मनु से मिलने तो जाती. तुम भी- “
“ऐसा नहीं है कि मैं-हमारा स्नेह नहीं हुआ. बारह साल से मैं उसे जानता हूँ, जिसमें पांच साल तो शादी के हो गए. पर ऐसा किया उसने कि सब खत्म हो गया. कुछ हुआ था, पर सब समाप्त हो गया.
“मैं तुम्हें प्यार करता हूँ अपर्णा, इधर अच्छे से समझ में आ गई है यह बात मेरे. यह नहीं कि इस बात को तुम महत्व न दो, या इसका कुछ हो. एक फूल है जिसे तुम्हारी हथेली पर रखता हूँ. तुम इसे देखो, घुमाओ, घुमाकर देखो- फिर चाहो तो हथेली से उड़ जाने दो.’ सिद्धार्थ कार चला रहे थे. उन्होंने सामने वाले शीशे से बराबर बाहर देखते हुए अपनी बात कह दी. मैं पास में बैठी थी, घूमकर देखा नहीं मुझे. देखते, सिर्फ एक बार, ज़ल्दी से ही सही, देखते तो-
“मेरे अंदर जो सब कुछ टूट रहा था, जो बिखराव मुझे तोड़ रहा था, उसकी कोई बात नहीं होती सिद्धार्थ से. वह कुछ पूछते भी नहीं. मिलने जाती तो एक तीखी निगाह डालते मुझ पर. फिर बातें तो दूसरी होती.
“उन्होंने मेरी नस पकड़ ली थी. वह ‘विश्वासघात’ नाम की अपनी कहानी उन्हें दिखाई थी न. तब कहानी को लेकर उनसे चर्चा हुई, अपनी कला की दुनिया के रंग भरे थे, उसमें उन्होंने. पर पहले, चुप, देखते रहे थे, वह मुझको देखते रहे थे अपनी चमकती आँखों से, अपनी संवेदना से भरी-लदी आँखों से.”
सब शेष कर दिया मनु ने. क्या किया, क्यों किया. मैं मिलने जाती तो मुझे लगता, फिर-फिर लगता, ठीक है बेचारा, माँ ने कैंसर, वह भी ब्रेस्ट कैंसर, छाती में कैंसर की दुहाई दी, तो शादी करनी पड़ी बेचारे को. फिर वह बच्चा, उसने क्या बिगाड़ा था.
“यह सब मान लो- माँ लिया, पर मुझे बताया क्यों नहीं. मैं सच बोलने लायक भी नहीं दिखती क्या. नहीं, अब क्या होगा मनु के साथ. मेरी समझ में नहीं आता.”
‘मेरी समझ में आता है बहुत साफ़-साफ़ कि छोड़ चुकी हो तुम मनु को.”
“झूठी कहीं की- यह सच नहीं है.”
“सिद्धार्थ के साथ वही महरौली वाली रोड पर कुतुबमीनार के आगे तुगलकाबाद गई थी घूमने. धूप नहीं के बराबर थी, अच्छा लग रहा था, ठंढ में.
“कार में चुप्पी थी, सिद्धार्थ गाड़ी चला रहे थे. पर कार में चुप्पी थी, वह दोस्ती की चुप्पी थी.
“मुझे अगले महीने लंदन जाना है. वहां का निमंत्रण है. वहां ओरिएंटल इंस्टीट्यूट ऑफ आर्ट में मुझे लेक्चर देने के लिए बुलाया है. कला पर बोलने के लिए.’
‘आप अभी चले जायेंगे अच्छा नहीं लग रहा है सुनकर.’
‘जाने की बात तो बहुत दिनों से चल रही है’, धीमे से बोले सिद्धार्थ.
‘होगी, पर मैं तो पहली बार ही सुन रही हूँ. और यहाँ का काम?’
‘छुट्टी मिलेगी उससे थोड़े दिन.’
‘क्या ऐसा नहीं हो सकता कि न जाएँ. या ताल जाएँ जाना.’ मैंने कह तो दिया किंतु डरी हुई थी कि सिद्धार्थ कहीं बुरा न माँ जाएँ मेरी बात का.’
‘डर से ज्यादा चौंक गई थी, उसकी बात से नहीं, उसकी बात को सुनकर जो मेरा दिल बैठा था उससे.
‘अनमनी सी बैठी रही गाड़ी में मैं. सिद्धार्थ कार चला रहे थे और मुझसे बात करने की कोशिश करते रहे.’
अब सिद्धार्थ चले जायेंगे तो मेरा क्या होगा.
अपर्णा वहीं छत पर बैठ गई और अपना सिर पकड़ लिया उसने.
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