ओरहान पामुक का प्रसिद्द उपन्यास ‘स्नो’ पेंगुइन’ से छपकर हिंदी में आनेवाला है. उसी उपन्यास के एक चरित्र ‘ब्लू’, जो आतंकवादी है, पर गिरिराज किराड़ू ने यह दिलचस्प लेख लिखा है, जो आतंकवाद, उसकी राजनीति के साथ-साथ अस्मिता के सवालों को भी उठाता है- जानकी पुल.
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ओरहान पामुक के उपन्यास स्नो के आठवें अध्याय में कथा का प्रधान चरित्र (प्रोटेगोनिस्ट) का (काफ़्का के का से प्रेरित) एक दूसरे चरित्र ब्लू से मिलने जाता है; ब्लू का प्रोफाईल दिलचस्प है – उसकी प्रसिद्धि का कारण यह तथ्य है कि उसे ‘एक स्त्रैण, प्रदर्शनवादी टीवी प्रस्तोता गुनर बेनेर’ की हत्या के लिये जिम्मेवार माना जाता है. अपनी अभद्र टिप्पणियों और ‘अशिक्षितों” के बारे में अपने जोक्स के लिये विख्यात और भडकीले सूट पहनने वाला यह प्रस्तोता एक बार लाईव शो के दौरान पैगंबर मुहम्मद के बारे में एक आपत्तिजनक टिप्पणी कर बैठता है; एक ऐसी भयंकर भूल जिसे अधिकांश ऊंघते दर्शक तो शायद इग्नोर कर जाते हैं पर ब्लू इस्ताम्बुल प्रेस को एक ख़त भेजता है जिसमें वो गुनर की हत्या करने की धमकी देता है. पामुक लिखते हैं कि इस्ताम्बुल प्रेस इस तरह के ख़त पाने की इतनी आदी हो चुकी थी कि किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया लेकिन खुद टीवी चैनल अपनी ‘उकसाऊ सेक्यूलरिस्ट’ छवि को लेकर इतना संवेदनशील है और यह दिखाने के लिये कि ‘ये पॉलिटिकल इस्लामिस्ट्स कितने कट्टर होते हैं, ब्लू को शो पर आमंत्रित करता है जिसके बाद वो तुरंत पूरे देश में प्रसिद्ध हो जाता है. प्रसिद्धि प्रस्तोता की भी बढ़ जाती है और एक दिन वो शो पर यह कह बैठता है कि वो ‘एंटी-अतातु्र्क, एंटी-रिपब्लिकन परवर्ट्स’ से नहीं डरता. अगले दिन उसकी हत्या हो जाती है.
इस ‘कहानी’ को एक स्तर पर (पश्चिमी) सेक्यूलर ‘शिक्षित’ आधुनिकता और (पेगन) धार्मिक विश्वदृष्टियों के टकराव की तरह और धार्मिक चरमपंथ को (पश्चिमी) सेक्यूलर ‘शिक्षित’ आधुनिकता द्वारा ‘पारंपरिक’, ‘पिछड़े’, ‘अशिक्षित’ समाजों के सम्मुख प्रस्तुत चुनौती और हिकारत का सामना करने की प्रक्रिया में उत्पन्न साभ्यतिक ‘पैथोलॉजी’ की पढ़ा जा सकता है. आधुनिकता, उसकी यूरो-केंद्रिकता, और सेक्यूलरिज्म के बिना शायद इस पर बात नहीं हो सकती. (यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि ठीक उसके पू्र्व के अध्याय का शीर्षक है, अंग्रेजी अनुवाद में – ‘पॉलिटिकल इस्लामिस्ट’ इज ओनली ए नेम दैट वेस्टर्नर्स एंड सेक्यूलरिस्ट्स गिव अस )
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ब्लू लेकिन वैसा ‘टिपिकल’ इस्लामिस्ट या ‘आतंकवादी’ नहीं है जिसकी छवि पामुक के शब्दों में सेक्यूलरिस्ट मीडिया में यह है कि उसके एक हाथ में गन है, दूसरे में माला और चेहरे पर दाढ़ी. वह क्लीन शेव है, काफ़ी सोफिस्टिकेटेड है, पश्चिमी मैनर्स में प्रशिक्षित है, स्मोकर है और उसका बिस्तर कुछ इतने करीने से लगा है कि ‘मिलिट्री इन्सपेक्शन पास कर सकता है’.
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दिलचस्प यह भी है कि ब्लू को निश्चयपूर्वक इस हत्या के लिये जिम्मेवार ठहराया नहीं जा सकता, उसके पास एक एलीबाई है – वो एक कान्फ्रेंस में हिस्सा ले रहा था. लेकिन प्रेस से बचने के लिये वो भूमिगत हो जाता है जिसके परिणामस्वरूप पूरे देश में यह समझा जाने लगता है कि गुनर की हत्या में उसी का हाथ है! उधर इस्लामी प्रेस में भी कुछ लोग यह कहते हुए उसके खिलाफ़ हो जाते हैं कि ‘उसने पॉलिटिकल इस्लाम को बदनाम किया है, उसके हाथों को खून से रंग दिया है’ और सबसे दिलचस्प यह कि वह ‘सेक्यूलरिस्ट प्रेस के हाथों का खिलौना’ बन गया है!
कहीं ब्लू खुद एक प्रदर्शनवादी तो नहीं जो सेलेब्रिटी या हीरो बनने का मौका नहीं चूकना चाहता? यह तब कुछ स्पष्ट होता है जब छब्बसीवें अध्याय में वह का के मार्फ़त पश्चिमी (जर्मन) प्रेस में अपना वक्तव्य प्रकाशित कराने की कोशिश करता है और उसकी ‘सिक्रेट मिस्ट्रेस’ कादिफे कहती है कि बात वक्तव्य प्रकाशित करने की नहीं है बल्कि ये है कि तुम्हारा नाम पश्चिमी अखबारों में आ जाये (जहाँ से उस न्यूज आईटम को तुर्की का राष्ट्रीय प्रेस ले उड़ेगा और ब्लू फिर से पूरे देश में प्रसिद्ध हो जायेगा).
यहाँ से ‘आतंक’ को शायद एक मनोवैज्ञानिक श्रेणी में भी समझा जा सकता है .नायकत्व और सेलिब्रिटिज्म की कामना -पराजित आत्म की डेस्परेट पुनरुपलब्धि – के अर्थ में?
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यह संभवतः सही अवसर है कि हम खुद का के प्रोफाईल पर नज़र डालें – का मूलतः कवि है और इस सीमांत, कटे हुए, बर्फीले छोटे से कस्बे कार्स बहुत धुंधलके में निजी/आस्तित्विक कारणों से लौटा है जहाँ पूरा उपन्यास घटित होता है. एक लेखक के रूप में का की प्रतिष्ठा साधारण है, पश्चिम में एक राजनैतिक शरणार्थी है, लिबरल है, पश्चिम के साथ सहज है, पॉर्नोग्राफी का उपभोक्ता है, और सबसे महत्वपूर्ण यह है कि कार्स में एक अवास्तविक, ‘फर्जी’ पहचान – राष्ट्रीय और पश्चिमी प्रेस में काम करने वाला एक पत्रकार – के साथ घूम रहा है. ब्लू भी का को इसी रूप में जानता है.
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का और ब्लू की इस पहली मुलाकात में का के यह कहने पर कि जिस सुंदर कोट की ब्लू तारीफ़ कर रहा है वह उसने फ्रैंकफर्ट में खरीदा था, ब्लू उसे फ्रैंकफर्ट में रहने का अपना अनुभव बताता है. वह कहता है कि ‘यूरोपवाले हमें नीचा नहीं दिखाते. किसी यूरोपियन के सामने खड़े हो कर हम अपने को नीचा समझते हैं’. ‘सेंस ऑव इन्फीरीयरिटी’ भी क्या वो एक और मनोवैज्ञानिक श्रेणी है जिससे हम इसे समझ सकते हैं?
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अगर हम इस पहली मुलाकात में (इस्लामी) धार्मिक रैडिकल के जाने पहचाने, किंचित सनसनीख़ेज, डिफेंस की उम्मीद कर रहे थे तो ब्लू हमें निराश करने वाला है. वह एक प्रभावशाली, आत्म-विश्वस्त कथावाचक की तरह रुस्तम और सोहराब की कहानी सुनायेगा और कहेगा, ‘एक वक़्त था जब यह अफ़साना लाखों लोगों को मुँहज़बानी याद था वे उससे वैसे ही वाकिफ़ थे जैसे मगरिब के बाशिंदे ओडिपस या मैकबैथ के अफ़सानों से. लेकिन क्योंकि हम मगरिब के जादू (जिसे वो अन्यत्र टैक्नालॉजिकल सुप्रीमेसी कहेगा) के आगे हार गये, हम अपने ही अफ़साने भूल गये हैं’
अध्याय यहीं ख़त्म हो जायेगा.
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पर इस पूरी कथा का असली (खल)नायक संभवतः प्रेस/मीडिया है – प्रदर्शनोन्माद का खुला अखाड़ा. पूरी कहानी पर मीडिया का सिग़्नेचर है – ब्लू को हीरो/प्रसिद्ध बनाने वाला सेक्यूलरिस्ट/धार्मिक प्रेस, ब्लू की नायकत्व की कामना, उसका प्रदर्शनोन्माद और का की एक पत्रकार के रूप में अवास्तविक पहचान जो पूरे कार्स को, उसके सत्ता तंत्र को और उसके विरोधियों को, पुलिस और भूमिगत रैडिकल्स को का के लिये एसेसिबल बना देती है.
मास मीडिया ऐसे लोगों को जो जिनका कोई भविष्य या आवाज़ नहीं इस नयी विश्व व्यवस्था में उन्हें , कम-से-कम थियरीटिकली, सदैव एक ‘अवसर’ भी तो देता है. अगर मास मीडिया नहीं होता तो ब्लू एक फिनामिना होता?
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12 Comments
आने वाला अनुवाद तुर्की से से हिंदी में है या बरास्ता अंग्रेज़ी? हमारे किसी विवि में तुर्की भाषा पढ़ाई जाती है?
Main Ashok Pandey ji bilkul sehmat hoon…! vaastavik kirdar ka charitra hi nahi samjha payein hain…
किस्सागोई के बावजूद किराड़ु जी ब्लू के प्रति उत्सुकता तो जगाते ही हैं. ब्लू को पूरी तरह जानने के लिए स्नो पढना पड़ेगा. कथा के (खल) नायक मीडिया के प्रदर्शनोन्माद को तो हम अहर्निश देख-भोग रहे ही हैं.
मदन गोपाल लढ़ा
पूरा आलेख एक अजीब किस्सागोई और फ़ंसासी में उलझ कर रह गया लगता है
गिरि ने शुरुआत जिस तरह की लगा कुछ बहुत दिलचस्प सामने आने वाला है…लेकिन दुर्भाग्य से यह लेख जैसे बीच में ही खत्म हो गया. स्नो के ब्लू को समझा पाने में यह कतई समर्थ नहीं है.
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