कविताओं में नयापन कम दिखता है जबकि मार-तमाम कविताएं रोज छपती हैं. इसका एक कारण यह है कि ज्यादातर कवि बनी -बनाई लीकों पर चलते हैं. इसमें एक सहूलियत रहती है कि सफलता का फार्मूला मिल जाता है. कोई सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की तरह नहीं कहता- मुझे अपनी यात्रा से बने ये अपरिचित पंथ प्यारे हैं’. बहरहाल, मुझे ऐसी कवितायेँ प्रभावित करती हैं जो सफलता-असफलता के भाव से मुक्त कुछ नए ढंग से कहने की कोशिश करती हैं. अंकिता आनंद की कविताओं ने इसी कारण मुझे आकर्षित किया. आप भी पढ़िए- प्रभात रंजन.
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1.
अधपका
अभी से कैसे परोस दें?
सीझा भी नहीं है।
पर तुम भी तो ढीठ हो,
चढ़ने से पकने तक,
सब रंग देखना होता है तुमको।
2.
चाहिए
उधेड़ने की हिम्मत,
बुनने का शऊर
और एक अन्तहीन रात्रि की असंख्य सम्भावनाएं।
3.
जवाबतलब
लड़ना है तुमसे,
लड़े क्यों नहीं मेरे लिए?
4.
महामृगनयनी
फ्लाईओवर, सेमल, बादल
उठी नजरों की भेंट तो इन्हीं से होती है।
पर जब नज़र पर पहरा बिठानेवालों की मुलाकात इन नजरों से होती है,
तो ये खुरदरापन, लहक, नित-नवीन-आकार उन्हें पसोपेश में डाल देते हैं।
वे ढूंढ़ते रहते हैं गुलाबजल में डूबे उन संकुचित होते रूई के फ़ाहों को,
जो डालने वाले की आँखों में जलन
और देखने वाले की आँखों को शीतलता प्रदान करते हैं।
अभी वक्त लगेगा उन प्रहरियों को समझने में
कि उन नजरों का दायरा बहुत बढ़ चुका है,
कि वे चेहरे पर अपना क्षेत्रफल बढ़ाते जा रहे हैं।
और इस बीच वह दायरा विस्तृत होता रहेगा,
नज़रबंदी की सूक्ष्म सीमाएं उसमें अदृश्य बन जायेंगी।
5.
जो तटस्थ हैं
क्या ग़ज़ब की बात है
कि जिंदा हूँ।
गाड़ी के नीचे नहीं आई,
दंगों ने खात्मा नहीं किया,
बलात्कार नहीं हुआ,
मामूली चोट-खरोंच, नोच-खसोट ले निकल ली पतली गली से।
अपने-अपने भाग्य की बात है।
जाने बेचारों के कौन से जन्म का पाप था,
जो शिकार हो गए।
मेरे पिछले जन्म के पुण्य ही होंगे
कि शिकारियों की नज़र में नहीं आई,
उनसे नज़र नहीं मिलाई
जाने कौन से जन्म का पाप है
हाय, क्या सज़ा इसी पारी में मिल जाएगी?
6.
एक नई पेशकश
मेरी तरह तुम भी ऊब तो गए होगे ज़रुर,
जब बार-बार तुम्हारे पाँव के नीचे खुद को पानेवाली
बित्ते भर की जंगली फूल मैं अपनी कंपकपाती पंखुडियों से
तुम्हें वही पुरानी अपनी शोषण की कविता सुनाती हूँ,
(ये जानते हुए की प्रशंसा-गीत गाकर भी अब जान नहीं बचनी)
एक मरते इन्सान की आखिरी ख्वाहिश,
जिसकी बुद्बुदाहट वो खुद भी ठीक से नहीं सुन पाती
और आत्मघृणा से खिसिया मर ही जाती है।
आओ अबकी बार कुछ नया करें,
एक नया खेल ईज़ाद करें।
इस बार मैं तुम्हें एक ढीठ गीत, उछलते नारे और खीसे निपोरते तारे सी मिलने आती हूँ।
खासा मज़ा आएगा, क्या कहते हो?