क्रिकेट विश्व कप में इण्डिया ने पाकिस्तान को क्या हराया बहुतों ने मान लिया कि इण्डिया ने विश्व कप जीत लिया. सबको अपने अपने क्रिकेट दिन याद आने लगे. युवा लेखक क्षितिज राय ने अपने क्रिकेट इतिहास की रोमांचक कथा लिखी है. पढियेगा- मॉडरेटर.
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तो भारत ने छठी बार विश्व कप में पाकिस्तान को हरा दिया. दिल को अजीब सा सुकून मिला. बल्ले और गेंद की कश्मकश के बीज से उपजा ये सुकून ऐतिहासिक है. क्रिकेट से मेरा याराना 1996 विश्वकप के बाद से ही जुड़ गया था. घर पे नया रंगीन टी वी आया था तब, गोदरेज का फ्रिज भी तभी आया था शायद. जीवन का पहला भारत पाक मैच भी तभी देखा था तब. आज भी याद है अजय जडेजा के वे छक्के. पापा कुर्सी से उछ्ल पड़ते थे हर छक्के पर! माँ भी कोने में खड़ी रहती थी…हालाँकि उसे सिवाय सय्यद किरमानी के अलावा किरकेट का ए बी सी भी नहीं पता था! अब भी याद है कि पागल के माफिक चीखा था जब वेंकटेश प्रसाद ने आमिर सोहेल को बोल्ड किया था… पिछली गेंद पे चौका मार के बड़ा हीरो बन रहा था! तब शायद पहली बार मैंने नारे जैसा कुछ लगाया था. ९० के दशक के क्रिकेट के दीवानों की वो चीख शायद समेकित राष्ट्रवादी नारों की शुरुआत थी! १९९६ का वो माहौल आज भी जेहन में ताज़ा है. भारतीय बाजारों के उदारीकरण की तासीर की सबसे अच्छे तरीके से कोई बयां करता है तो वो क्रिकेट है! देखा जाये तो वैश्वीकरण और क्रिकेट के ‘इंडिया‘ को दीवाना बना देने की गति बिलकुल एक जैसी है- विस्फोटक!
घर में फ्रिज का आना और टी-वी पर कोका-कोला के विज्ञापन का आना दोनों अपने में अभूतपूर्व घटना थी! दूरदर्शन युग के मुझ जैसे टी-वी दर्शक के लिए हर ओवर के बाद कोका-कोला और फिलिप्स के तपे रेकॉर्डर का विज्ञापन रोमांच की हद थी! १९९६ के विश्वकप की ही बात है जब सेमी-फ़ाइनल में श्रीलंका और भारत की टक्कर थी! दोपहर के २.३० बजे से मैच शुरू होना था…मैं सुबह से ही मानो ख़ुशी, रोमांच और अनजाने डर के घूँट लगा रहा था! हर मैच से पहले मैं मुख्यतःतीन तरह के डर से जूझता था..पहला की मैच के बीच में बत्ती न गुल हो जाए; बिहार के हर क्रिकेट प्रेमी के लिए मैच वाले दिन विद्युत् विभाग राज्य का सबसे महत्वपूर्ण विभाग होता था…, दूसरा की कहीं सचिन जल्दी आउट न हो जाए…..; तौबा-तौबा, ये एक ऐसा डर है जिसके चलते मैं आज भी टोटके के तौर पर सचिन को पहली गेंद खेलता नहीं देख सकता…, और तीसरा की कहीं भारत हार न जाए!! दोपहर में माँ खाना परोसती, मैं बेचैनी भरे दो कौर निगलता…बार-बार निगाहें ऊपर बल्ब की तरफ जाती…हे दुर्गा माँ..प्लीज़ आज बत्ती मत काटना! पापा भी जल्दी जल्दी पान के बीड़े लगते…और हम टी-वी के सामने जा बैठते! उस समय का क्रिकेट एक्स्ट्रा आज के आइपीएल वाले प्री मैच शोज़ जितना ग्लामोरोसू तो नहीं होता था…तब किरकेट के रहनुमा चीयर गिर्ल्स के चीर हरण का मजा लेने के बजाय इन-स्विंग और आउट-स्विंग पर ज्यादा बतियाते थे! टॉस के टाइम से ही मियाज़ गरमा जाता था….आज भी याद है जब अर्जुन रणतुँगा सिक्का उछाला था..और अजहरुद्दीन टेल्स कहिस था….!
पप्पा जी हनुमान जी का नाम लेकर कमरे से बाहर चले जाते थे…पहली गेंद वो भी नहीं देखते थे..! पर क्या फायदा….जम के थूराए थे प्रसाद एंड कंपनी! जयसूर्या और कालुवितरना पगला गया था उस दिन…मार चौका बुखार छोड़ा दिया था! और हम सब को भक्क मार गया था. पप्पा जी अब भी आशान्वित थे….टिपिकल इंडियन टीम के फैन के माफिक! दुआओं ने कालुवितरना को चलता किया तो ताली बजाते बजाते हाथ दरद दे दिया था..पर अरविन्द दी सिल्वा नाम के प्राणी से पाला पड़ना बाकी था! मैच के बीच में ही पंद्रह ओवर के बीच ड्रिंक्स की ट्रॉली जब मैदान में गयी तो मैं ये ही सोच के हैरान था की कोका कोला की बोतल चलती कैसे है! कोक और पेप्सी से मेरे लगाव का एकमात्र कारण क्रिकेट ही है – इतना न पेप्सी कप और विल्स कप देखा है की अब इनके प्रोडक्ट्स से एक किरकेटिया रिश्ता सा जुड़ गया है! कल पान दूकान पर बेंसन-हेजेस की सिगरेट ली, तब सहसा याद आया की भारत-और साउथ अफ्रीका के बीच भी कई बार यही बेंसन-हेजेस कप हुआ करता था!!
शाम हुई २८० का लक्ष्य था…..सचिन उस दिन भारत का खेवनहार था…..काम्बली-तम्ब्ली से हम लोग कोई उम्मीद न कभी किये थे और ना करते…मांजरेकर तो भार था टीम पर! और वही हुआ जिसका डर था….सचिन टिका तो रहा..पर दिन में जिस पिच पर गेंद बल्ले पर एकदम सीधा आ रही थी..शाम होते-होते मुरली की गेंद उसी पिच पर तांडव नृत्य करने लगी! १२० रन पर ८ विक्केट..मैं खुद को चुट्टी काट रहा था….पापा अब दार्शनिक टाइप से भसनिया रहे थे…‘बेटा ये ही जीवन है…आज जीत कल हार…..इ सब चोट्टा है..पैसा के लिए खेलता है….तुमको क्या मिलेगा..जाओ पढो-लिखो!‘ मुझे पता था..पापा जी भी फ्रस्टिया गए थे…! टी-वी के सामने से कोई भी नहीं हटा….फिर तो आग लगा दी थी सबने! काम्बली रोते हुए बाहर आया था! इडेन जब जल रहा था तो उस आग को बुझाने की औकात सिर्फ एक भगवान् के पास थी – वो सचिन था….सिर्फ एक बार वो मैदान में आया..सब चुप!
क्रिकेट उसके बाद से आदत बन गया! खेल न होके सम्बन्ध बन गया…! भारतीयता पर तमाम अकादमिक किताबें चाटने के बाद भी, मुझे अब भी भारतीयता तब ही समझ आती है जब सचिन बैटिंग कर रहा होता है! मेरे लिए क्रिकेट अब भी सफ़र का वो ‘आइस-ब्रेकर‘ है जिसके सहारे मैं अजनबी चेहरों से सहज संवाद स्थापित कर पाता हूँ! आय भाई जी…क्या स्कोर है…और फिर बातें शुरू हो जाती है जो फिर थकने का नाम नहीं लेती! किरकेट का ये खेल, खेल न होकर हमारे बचपन का वो साथी है जिसके साथ हमारा साहचर्य बे-शर्त न था…किरकेट मेरी जिंदगी का शायद पहला रिश्ता था जिसे मैंने चुना था…मेरा पहला प्यार जो मैंने किया था बगैर किसी से पूछे! क्रिकेट मेरे लिए ‘बड़ा‘ हो जाने का पहला नॉन-सेक्सुअल एहसास है!
मेरे बचपन को कार्टून नेटवर्क नहीं उपलब्ध था….उसके लिए एप्पल का मतलब सेब ही था, आई-पोड नहीं, मेरे बचपन की फ्रेंड-लिस्ट में चार-छे ही दोस्त थे…१२०० नहीं, घर के चारों तरफ बियाबान जंगल था…कोई माल नहीं-कोई मॉल नहीं! न मेरी किस्मत में लिन्किन-पार्क और माइकल जैक्सन थे जिनके लिए मैं दीवाना होता और न ही अंगरेजी फ़िल्में थी जो मुझे अर्नोल्ड के पीछे भगाती! नियति ने मेरी किस्मत में सिर्फ एक बी-पी-एल का टी-वी, दूरदर्शन चैनल, एक रेडियो, एक बल्ला और कुछ दोस्त दिए थे! मुझे बचपन में सिर्फ सचिन, गांगुली और अजहर दीखते थे! मेरे लिए खलनायक मतलब अकरम, अकीब जावेद और शोएब अख्तर हुआ करते थे….दायें-विंग वाले लोग गलत न समझे..वे बस क्रिकेट के मैदान के खलनायक थे…मुस्लिम नहीं!
क्रिकेट मेरा सर-दर्द भी था..और मेरा डिस्प्रीन भी! अब भी याद है एडेन गार्डेन का वो टेस्ट मैच जब अख्तर ने तीन गेंद पर सचिन, द्रविड़ और सदगोपन रमेश को चलता कर दिया था! मैं थर-थर कांपने लगा था….मुझे बुखार चढ़ गया था..और पापा ने डांटा था- ‘खेल है, खेल की तरह देखो!‘ मैं उनको क्या बोलता- ‘सचिन मेरे लिए खेल नहीं है….विश्वास है…जितना आप!!‘
१९९९ विश्वकप की बात है….भारत और ज़िम्बाब्वे का मैच था…..आखिरी ओवर में तीन रन चाहिए थे…..नयन मोंगिया ने हद कर दी थी तब….अजीबो-गरीब शक्ल वाले हेनरी ओलंगा ने आखिरी ओवर में श्रीनाथ सहित तीन विकेट ले भारत को तीन रन की करारी शिकश्त दी थी! पापा ने गुस्से में रेडियो पटक दिया था….इ बनरवा साला ओलंगा…मुह न कान है- हरा दिया इंडिया को! रंगभेद नहीं ये किरकेटवाद है, सर! चूर हुए रेडियो को देख माँ हम-दोनों बाप बेटे पर कितना गुस्सा हुई थी- जला दीजिए इंडिया के लिए घर को आप दोनों- ई मैच ना होके जी का जंजाल हो गया है- ना खाते हैं टाइम पे…न सुतते हैं..जब देखो मैच-मैच-मैच!!! मेरा भी मन किया था की पापा को बोले की खेल है, खेल की तरह देखिये!
उस दिन एहसास हुआ था..की किरकेट हम बाप-बेटे को कितना करीब ले आता है…बिलकुल दोस्त की तरह!! कभी कभी तो लगता है की अपने महिला मित्र के बारे में पापा को किसी रोमांचक मैच के आखिरी ओवर के दौरान बता दूंगा…सब मान जायेंगे..शायद ये भी की वो हमारी जात की नहीं! क्रिकेट सब दूरियां पाट देगा! इसीलिए मुझे लगता है की क्रिकेट को भारत में साल भर चलते रहना चाहिए..कई समस्याओं का सटीक और त्वरित निदान हो जाएगा! अगले मैच में पिता के अंतिम संस्कार से लौटे सचिन को छक्का जड़ते देख मेरे पिता ने मेरी और भी देखा था – तुम भी सचिन जैसा ही कुछ करना- येही सोचा था पापा ने उस दिन! हर सन्डे, मैदान में हम मैच खेलते थे….इधर पापा साधारण ब्याज से मेरी दोस्ती करवाने की फिराक में रहते..उधर हम खिसकने के. आठ साल का था जब पापा पहला बैट ला के दिए थे…मैंने बहुत जिद की थी की एम-आर-एफ का ला दीजिएगा..सचिन उसी से खेलता है! उस दिन ऋषि-नदीम और अपने अन्य मित्रों के बीच मैं हीरो था….! आह…तब हम सबका निक-नेम हुआ करता था…कौन सचिन होगा..कौन गांगुली…कौन द्रविड़..कौन अजहर! अच्छी खासी लड़ाई और कूटनीतिक जोड़-तोड़ के बाद मैं सचिन बन ही जाता था…..अजहर हम अक्सर नदीम को बनाते थे….आज सोच कर बड़ा अजीब लगता है…हम अजहर क्यूँ नहीं कहलाना चाहते थे! वो अजहर को न चुनना शायद इक घटिया शुरुआत थी- अवधारणा के संक्रमण का पहला चिन्ह! तब एक पत्रिका आती थी – ‘क्रिकेट सम्राट‘, शायद अब भी आती हो. पूरी एक थाक पड़ी है इस पत्रिका की मेरे पास अब भी- अब पढना छूट गया..पर तब चाट जाता था उसको! विश्व क्रिकेट ही नहीं, रणजी-दिलीप ट्राफी-और महिला क्रिकेट हर इक मैच की खबर रहती थी! अब शायद ही किसी को सन १९९७ के इंग्लिश बोलिंग अटैक याद हो- पर हमें अंगेस फ्राज़ेर, एलन मुलाली, फिल टाफ्नेल और मार्क इल्हाम का नाम जुबानी याद रहता था! भारतीय टीम में आये गए कितने होनहारों के फैन बेस के अहम् हिस्सा हुआ करते थे हम – कितने लोग जानते हैं आज विजय भरद्वाज, अबे कुर्विला, रोबिन सिंह, शरणदीप सिंह और ऋषिकेश कानितकर को! उस दिन जब ढाका में independence cup के फ़ाइनल में भारत ने पाकिस्तान के ३१४ का लक्ष्य पाया था और कानितकर ने आखिरी चौका जड़ा था – हमने सरे-शाम कानितकर के नारे लगाये थे…..अब बेचारे को राजस्थान रणजी के कप्तान के तौर पर जब देखता हूँ..लगता है मेरी किरकेटिया दुनिया का एक और हीरो गुमनाम हो गया! तब कर्टनी वाल्श और एम्ब्रोस हमारे लिए नंदन-चम्पक में पढ़ी कहानियों वाले असुर और दानव से कम नहीं थे! लारा के चौकों का डर, चंद्रपौल के जम जाने का डर, मक्ग्राथ का इन स्विंग का डर, अख्तर की रफ़्तार का डर और सचिन के आउट होने डर – ये वो डर हैं जिनसे मैं अपने बचपन से ले कर जवानी तक दहलता आया हूँ! तब कमेन्ट्री सुनने की भी अपनी विधि होती थी – मैं चौकी के एक कोने में बाएं पैर को दायें पे चढ़ा कर बैठता था ताकि भारत का विक्केट न गिरे…और क्या मजाल किसी की कोई मुझे ता-इन्निंग हिला दे मुझे! पांव में झिन-झीनी सी हो जाती थी..तब भी हिलने का नाम नहीं!पापा जी बगल में कुर्सी पर बैठे है- रेडियो के चैनल को सही frequency पर मिलाना भी एक कला थी! क्रिकेट का मैच हमारे लिए उत्सव था- सचिन हमारा भगवान् और टी-वी, रेडियो वो मंदिर जहाँ हम किरकेटिया श्रद्धालु जमते थे! कल दिल्ली के एक संभ्रांत coffee हाउस में बैठा भारत-पाक मैच देखने के दौरान दिल में थोड़ी टीस उठ रही थी – यहाँ बिजली के गुल होने का डर नहीं था, न ही सचिन के आउट होने का न…मेरे बगल में बैठी दोस्त मैच के बीच में ‘the economic times’ के पन्ने पलट रही थी! लाहौल- विलाकुवत! मतलब कैसे…कैसे कोई किसी भारत पाक मैच के बीच में कुछ भी और कर सकता है- मेरा टोकना उसे बेतुका सा लगा…! और तब ही मैं समझ गया की ९० का वो सुनहरा दशक और उसकी किरकेटिया यादें कहीं पीछे छूट गयी है. अब कोई बच्चा ड्रिंक्स की ट्रॉली को देख आह्लादित नहीं होता होगा, अब विज्ञापन रोमांचित नहीं करते, और न ही कोई बच्चा मैच शुरू होने के दो घंटे पहले से नरभसाया हुआ प्रतीत होता है! फॉर them it’s just another match yaar!!