हिंदी में यह अच्छी बात है कि आज भी किसी लेखक का कद, पद, प्रचार प्रसार किसी पुस्तक की व्याप्ति में किसी काम नहीं आता. अब देखिये न पिछले साल काशीनाथ सिंह का उपन्यास आया, अखिलेश का उपन्यास आया, मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास आया. सबसे देर से आया भगवानदास मोरवाल का उपन्यास ‘नरक मसीहा’, लेकिन धीरे धीरे इस उपन्यास ने जिस तरह से पाठकों, लेखकों के बीच अपनी व्याप्ति बनाई है वह लेखन के प्रति मेरी आस्था को बढाने वाला है. आपका कद, आपका पद नहीं अच्छा लेखन ही आज भी ठहरता है. सेलिब्रिटी लेखकों के इस दौर में यही आश्वस्ति की बात है!
पहले मैंने सोचा था इस उपन्यास को पढूंगा ही नहीं, पढना पड़ा, फिर सोचा लिखूंगा ही नहीं, लिखना पड़ा. क्यों? क्या कोई दबाव था! नहीं! मेरी अपनी छवि के साथ अन्याय हो जाता, अगर न लिखता तो. मुझे लोग लेखक भले न मानते हों लेकिन एक अच्छे पाठक के रूप में, टिप्पणीकार के रूप में थोड़ी बहुत व्याप्ति जो है उसके साथ यह न्याय नहीं होता अगर मैं ‘नरक मसीहा’ के ऊपर न लिखता. यह इस उपन्यास की सबसे बड़ी ताकत है.
यह इस साल का सबसे प्रासंगिक उपन्यास है. जिस साल देश की बदलती राजनीति ने एनजीओ वालों के साथ में एक सूबे की सरकार दे दी, किसी जमाने में गुजरात में साम्प्रदायिकता से लड़ाई की प्रतीक बन चुकी एनजीओ वाली तीस्ता सीतलवाड़ को अदालत ने पैसे के हेरफेर के मामले में दोषी पाया है, उस दौर में यह उपन्यास उन मसीहाओं की कहानी कहता है जिन्होंने जनसेवा के नाम पर जन के सपनों के साथ छल किया, अपना नाम चमकाया, दाम कमाया, बड़े बड़े पुरस्कार पाए, लेकिन उस समाज का कोई ख़ास भला नहीं हुआ जिनकी भलाई के संकल्प के साथ एनजीओ बनाए जाते हैं.
यह सच है कि सारे एनजीओ ऐसे नहीं होते जो जनसेवा का काम न करते हों, लेकिन यह भी सच है कि ऐसे एनजीओ बहुत कम रह गए हैं. जनकल्याण की जो बड़ी उम्मीद ९० के दशक में उभरी थी वह अब टूट चुकी है. जो जनता पहले सरकारी वादों से छली जाती थी वह अब एनजीओबाजों के हाथों छली जा रही है. फॉरेन फंडिंग, फॉरेन के पुरस्कार कमाने वाले एनजीओबाजों समकालीन लुटेरे हैं- लुटे कोई मन का नगर बन के मेरा साथी!
भगवान दास मोरवाल का यह चौथा उपन्यास है लेकिन ईमानदारी से कहूँ तो यह उनका सबसे प्रासंगिक उपन्यास है जिसकी गूँज लम्बे समय तक सुनाई देती रहेगी. हर साल पचासों उपन्यास आते हैं, साल बीतते बीतते सब या तो पुस्तकालयों के गोदामों में डंप कर दी जाती हैं या हर के कूड़ेदानों में- लेकिन नरक मसीहा सालों हमारे बुक सेल्फ पर ठहरने वाला उपन्यास साबित होने वाला है. मोरवाल जी, हरियाणवी का एक मुहावरा बोलूं- आपकी धूल में लट्ठ लग गई है!
एक सवाल विश्वसनीयता का है. आखिर इस तरह के विषय पर मसीहाओं के जीवन से जुडी कहानियों की विश्वसनीयता क्या है? क्या वे सुनी सुनाई बातों पर आधारित हैं. तो लेखक भगवान दास मोरवाल संयोग से ऐसे विभाग में काम करते हैं जहाँ एनजीओ की फंडिंग की जाती है. यानी इस नरक के बहुत सारे मसीहाओं से उनका सीधा साबका पड़ा होगा. ऐसा लगता है. इसलिए उपन्यास में वह ऊष्मा आ पाई है जो उपन्यास के किरदारों को जानदार बनाता है.
अपनी समझ जितनी है उसके आधार पर यह कहना चाहता हूँ कि इस सदी का यह अब तक का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है जिसकी प्रासंगिकता आने वाले सालों में भी बनी रहेगी. इतना मैं दावे से कह सकता हूँ.
प्रभात रंजन